यूं
तो इसे इसी रूप में देखना चाहिए कि लोग अपनी दुकान को मजबूत करने के लिए कुछ न कुछ
ऐसा लाने की कोशिश करते हैं जो उस खास समय में प्रचलन में न हो । इससे एक तो ऐसा
माहौल बन जाता है कि वातावरण में एक नयी चीज आई है दूसरे जो आई है उसके लिए सभी
अधिकारी नहीं है बल्कि कुछ खास लोग हैं जो इस पर विशेषज्ञता रखते हैं । यहाँ दूसरी
बात भी है कि इस नए प्रकार के ज्ञान को सबके लिए नहीं माना जाता है बल्कि यहाँ और
ज्यादा चयन और छंटनी की प्रक्रिया चलायी जाती ।
हर तरफ यह देखने में आ रहा है कि भारत में
परंपरागत ज्ञान का प्रचलन न के बराबर रह गया है । हर क्षेत्र में पारंपरिक स्थानीय
ज्ञान के बदले आयातित तरीके का ज्ञान बहुत गहरी जड़ें जमा चुका है । इसके कारण जो
भी रहे हों पर यह इतने गहरे धंस चुका है कि स्वाभाविक ही लगता है । फिर भी कई धड़े
ऐसे हैं जो फिर से पारंपरिक ज्ञान की ओर लौट जाने की वकालत करते हैं । इनमें एक दो
ही होंगे जो ज्ञान के स्थानीय स्वरूप पर बल देते हैं अन्यथा बाकियों के लिए इसका
अर्थ सीधे सीधे पिछली दुनिया में लौट जाना है । यहाँ पिछली दुनिया में लौटने का
मतलब है आज से कुछ नहीं तो पाँच-छः सौ साल पहले चले जाना । वहाँ जाने का मतलब है
आज की वास्तविकता से सीधा-सीधा पलायन । ये बहुत चालाक लोग हैं जो इसे स्थापित करने
की प्रक्रिया में जुटे हैं । इसके पीछे उनका स्वार्थ यह है कि एक तो वे इसके लिए
मुहिम चलाये हुए हैं इसलिए स्वतः ही वे इसके प्रणेता और विशेषज्ञ मान लिए जाएंगे दूसरे
यह उन्हें उस वर्ग में लोकप्रिय कर देगा जो अभी भी समाज में अपनी खोयी हुई
प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहता है । पारंपरिक ज्ञान पर एक तो वे अपना अधिकार मानते
हैं और जैसा कि हम देखते हैं यह पूर्व में भी उनके लिए ही था इसलिए वे इसी के
माध्यम से फिर से वह निर्बाध अधिकार पाना चाहते हैं ।
इस
संबंध में एक दलील तो यह दी जाती है कि इस तरह की ज्ञान पद्धति पर बाहर के लोग भी
काम करना चाहते हैं और कर रहे हैं । अब चूंकि विदेशी भी हमारे पारंपरिक ज्ञान का
लोहा मानने लगे हैं तो हमें तो इसे अपना ही डालना चाहिए । यहाँ यह समझने की जरूरत
सबसे पहले बनती है कि विदेशी का नाम देखते ही बात उसके संदर्भ से क्यों होने लगती
है ? जो
लोग परंपरा पर जोर देते हैं वही उपनिवेशवादी मानसिकता से इतने प्रभावित हैं कि
अपनी बात रखने के लिए भी उन्हें उन्हीं विदेशियों का सहारा लेना पड़ता है । दूसरे , बाहर के एक-दो लोग जो अपनी
प्रणालियों और परिपाटियों से ऊब चुके होते हैं वे कुछ नया करने के चक्कर में यदि भारत
की कोई जीवन पद्धति अपना लें तो हमारे देश में उन्हें हाथोंहाथ लिया जाता है फिर बार
बार उनका ही हवाला देकर यहाँ माहौल को गरम रखने की कोशिश की जाती है ।
इस
तरह की प्रवृत्ति के पैरोकार आजकल लगभग हर स्थान पर हैं जो हर सेवा और व्यवसाय में
भारतीय संस्कृति के पक्ष को डालना चाहते हैं । इस संस्कृति को शामिल करना अपनी जगह
पर सही हो सकता है पर हर बार सही नहीं हो सकता । इसके आगे जा कर देखें तो यह और
जटिल व विवादित हो जाता है ।
अभी
ट्रेनिंग हो रही थी । इसके शुरूआती दिनों में से एक दिन एक व्यक्ति रामकृष्ण मिशन से
आए थे और उनका सीधा सा कहना यह था कि
हिन्दी के शिक्षक के रूप में हम प्रशिक्षु शिक्षक ‘भारतीय संस्कृति के वाहक’ हैं और हमें इसे ‘समझते हुए काम करना चाहिए’ । पूरे सेशन के दौरान
उनका जोर इस बात पर रहा कि भारतीय संस्कृति का पुनुरुत्थान हो जाना चाहिए । सबसे
ध्यान देने वाली बात यह थी कि उनके पूरे वक्तव्य का आधार धार्मिक रहा । जिसमें कई
बार यह देखा गया कि वे सीधे सीधे हिन्दू धर्म के शैक्षणिक आदर्शों को आगे बढ़ाने की
बात कर रहे थे । हालांकि बार बार उनकी ओर से कहा जा रहा था कि वह किसी धर्म की ओर
से बात नहीं कर रहे और एक दो उदाहरण दूसरे धर्मों से भी ले डालते थे । लेकिन वे
बातें ज्यादातर इसी बात को साबित करने के लिए कही जाती थी कि अन्य धर्म में भी ऐसी
बातें रही हैं । एक दो बार तो अपने प्रशिक्षक महोदय सीधे सीधे इस्लाम और ईसाई धर्म
के खिलाफ बोले । चूंकि हममें से कोई अन्य धर्म का नहीं था इसलिए उन्हें यह आजादी
मिल गयी थी । आगे उनका आत्मविश्वास इतना बढ़ गया कि उनहोंने सीधे यह तक कह दिया कि
“ब्राह्मणों ने किसी का शोषण नहीं किया और लोग अपने संस्कारों से जीते हैं” । एक
बार जिन लोगों ने इस्लाम और ईसाई के खिलाफ बोलने की छूट दे दी उन्हीं लोगों के लिए
जाति पर विरोध करने की सूरत नहीं रही ।
यहाँ
दो बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं कि देश में बहुत सी ऐसी संस्थाएं हैं जो
शिक्षण , प्रबंधन आदि में हिन्दू संस्कृति के मूल्यों को स्थापित करने
की भावना ज़ोर पकड़ रही है । दूसरे ऐसा माना जाने लगा कि संस्कृत के बाद अब हिन्दी
एक भाषा है जिसके माध्यम से इस भावना को संप्रेषित किया जा सकता है । उपरोक्त
महोदय रामकृष्ण मिशन से जुड़े हुए हैं । उनका यह जुड़ाव बहुत सारी तय मान्यताओं , ढेर सारे सरलीकरणों और
आत्मप्रवंचना के गुच्छ से है ।
अब
जरा सी बात धर्म के भीतर की भी कर लेते हैं । उन विशेषज्ञ को बोलने के लिए जो विषय
दिया गया था उसमें ‘मूल्य’ के ‘स्थापन’ की मांग थी । एक तो नए तरह की शिक्षा में मूल्य का कोई खास स्थान
रह नहीं गया है । दूसरे यह जो सिखाता है वह हर बार छोटे बच्चों पर ही कार्य करता है
। ज्यादा स्पष्ट रूप में ये मूल्य परिवार से लेकर विद्यालय और कार्यस्थलों तक में यह
एक तरह से बुजुर्गों की श्रेष्ठता को जारी रखने की एक प्रक्रिया के रूप में कार्य करते
हैं ।
यदि और गहरे जाएँ तो यह नितांत धार्मिक और पुरुषवाचक
स्वार्थों को आगे बढ़ाने के लिए बनी होते हैं । परिवार में मूल्य के नाम पर बच्चों को
बड़ों पर उंगली उठाने से इस तरह रोका जाता है कि वे आगे बाहर आने पर और बड़े होने पर
भी सवाल नहीं कर पाते । ऐसे डरे हुए छात्रों से हमारे विद्यालय और महाविद्यालय भरे
पड़े हैं । तब हम रोना रोते हैं कि विद्यालय या महाविद्यालय अपेक्षित परिवर्तन नहीं
कर पा रहे । संस्थाओं को जो बच्चे दिए जाते हैं वे इस कदर ‘स्कूल्ड’ होते हैं कि उनकी ‘डी-स्कूलिंग’ होते-होते लंबा वक्त गुजर
जाता है और ज़्यादातर मामलों में यह हो भी नहीं पाता ।
पता
नहीं यह क्यों मान कर चला जाता है कि बड़े सारे काम सही ही करते हैं और यह कितना रोचक
है कि ऐसा वे खुद कहते हैं । तब यह कहना जरूरी हो जाता है यदि बड़े सब सही ही करते हैं
तो देख कर सीखने वाले छोटे बच्चे सारे खटकरम कहाँ से सीखते हैं ? बहरहाल मूल्यों के नाम पर
केवल बेवकूफ बनाया जा सकता है और कुछ नहीं । इसके माध्यम से एक ऐसा वातावरण बनाया जाता
है जिसमें बुजुर्गों और प्रभावशालियों का धंधा चल सके । उपरोक्त सज्जन के लिए मूल्य
तो इससे भी एक कदम आगे बढ़ जाने की तरह था । वे मैकौले के निंदक थे यह कोई आश्चर्य की
बात नहीं पर उसके बदले यह कह देना कि प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति लायी जाए यह अति
थी । वे माँ को बच्चों का प्रारम्भिक गुरु मानते हैं । यह भी ठीक है लेकिन इसके माध्यम
से उनका यह कहना था कि माएँ परिवार में रहकर गुरु बनी रहें और बाहर न जाएँ । यहाँ कहना
जरूरी हो जाता है कि जो जीवन-दर्शन बच्चों में इस तरह के चिंतन भरे उसके बदले किसी
और ग्रह की ही जीवन-पद्धति का ‘आयात’ कर लेने में कोई बुराई नहीं है । फिर भले ही ये कथित भारतीय दर्शन
वाले कितनी ही चिलल-पों मचाए ।
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