अप्रैल 13, 2015

है तो जिद ही पर ...


बच्चा कभी कभी कौन सी जिद पकड़ लें कह नहीं सकते । कई बार तो ऐसा हो जाता है कि सब एक तरफ और बच्चा एक तरफ । ये निधि है । हमारी भांजी । चाचाजी की नातिन है पर मेरा घर भी उसका उतना ही ननिहाल है जितना कि चाचा का घर । उसने जिद पकड़ ली है यहाँ से जाने की । अपनी माँ के पास जाने की । उसे माँ के पास जाने देने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन वह अब यहाँ रहना ही नहीं चाहती । वह चाहती है कि वहीं रह कर पढ़ेगी । यूं तो उसके लिए कोई निर्णय करने या उसके निर्णय में शामिल होनेवाले लोगों में हमारा कोई स्थान नहीं है लेकिन उसके जाने की जिद ने पिछले कुछ दिनों से इन दो घरों में एक अलग ही गम भर दिया है ।
निधि जब काफी छोटी थी तब से यहाँ रह रही है । मतलब वह यहीं बड़ी हुई है और यहीं उसने सुबह उठने से लेकर स्कूल जाना सीखा । उसके सीखने की इस प्रक्रिया ने उसे जो दिया सो दिया पर इन दो घरों को एक अद्भुत आनंद दिया । उसके रहते हुए ‘नाना हौ’, ‘नानी गे’, ‘नुनु मामा रे’ यह सब गूंजना बहुत साधारण बात थी । बाद में गौरव और नन्हुं भी हमारे यहाँ रहने लगे तो उनके लिए लिए निधि ने सम्बोधन से लेकर बाल खींचने , अपने छोटे मुक्के चलाने में कोई अंतर नहीं दिखाया । (गौरव और नन्हुं हमारे मामा के लड़के हैं) मैं और राजीव दिल्ली से आते तब जाकर उसकी इन इनायतों से बावस्ता होते ।

निधि शैतान रही है । पर उसकी शैतानी इतनी भली लगती थी कि हम उसे कुछ नहीं कहते । जब यह स्कूल नहीं जाती थी तब की बात तो अलग ही थी । मजाल कि कोई दिन में सो ले । जहां किसी को सोता देखा नहीं कि उसे उठाने के तमाम प्रयास करने लगती । और उसके बाद तो उठना ही था । फिर गुस्सा भी आता और कभी कभी उसे एक तो हाथ लग भी जाते पर वो हाथ उसके सर या पीठ तक पहुँचते पहुँचते अपने आप हल्के हो जाते थे । उसके बाद शुरू हो जाती थी निधि की धमाचौकड़ी ।

एक समय में उसने बड़ी गंदी आदत पकड़ ली थी । कहीं से भी आती और अपने नाखूनों से काटने लगती । अपने नाना-नानी , मेरे माता-पिता या कि हममें से जो भी वहाँ हो किसी को भी वह नहीं बख़्शती थी । हम सबने काफी उपाय कर लिए कि उसकी काटने की आदत छूट जाये पर कोई सुधार नहीं हुआ । फिर मेरे पिताजी ने एक तरीका निकाला । जहां निधि उनके पास जाती कि वे ही उसे काटने का नाटक करते । बाद में सबने यही किया । दो दिन बीतते न बीतते उसकी यह आदत छूट गयी ।

बीच बीच में सीमा बहन यहाँ सहरसा आती और तीज त्योहार निधि ही गाँव जाती थी उनके पास । माँ का लगाव तो होता ही है । पर स्वयं वह भी नहीं चाहती कि यह बच्ची गाँव में जाकर रहे । उनकी मुख्य चिंता लगातार यह रही है कि उनकी बेटी ठीक से पढ़ लिख ले । बिहार के गाँव गाँव के खाली होकर शहर में केवल इसीलिए शामिल हो रहे हैं कि उनके बच्चों को पढ़ने लिखने की सुविधा मिल पाये । वरना बिहारी शहर कोई औद्योगिक शहर नहीं हैं कि रोजगार के लिए इनकी ओर गाँव से लोग भाग भागकर आयें । अभी भी सीमा बहन यह नहीं चाहती कि निधि वहाँ उनके पास रहने आ जाये । खासकर तब जब वह बड़ी हो रही हो और उसने जिस माहौल में अब तक अपना बचपन बिताया है वह माहौल वहाँ मिलना कठिन हो । लेकिन बच्चे की जिद है ।

निधि ने खुद ही फोन करके अपने पापा को बुला लिया । और वे आ भी गए हैं । आज आलम यह है कि दोनों परिवारों में रह रहे हमलोग, जिनके साथ कल शाम तक वह उसी ठाठ के साथ धूम धड़ाके से मस्ती करती आ रही थी और दोनों घरों को गुलजार करती आ रही थी, उसके दुश्मन हो गए हैं । अभी मैंने कहा कि कुछ दिन रहकर वापस आ जाना । तो इस पर उसने नजरें तरेरी । मैंने फिर से कहा तो उसका जवाब था – ‘चुप्प रह’ ! उसके नाना यह कहकर सुबह काम पर गए हैं कि इसको किसी तरह जाने मत देना । नानी जार-बे-जार रो रही हैं । और कई बार कह रही है कि इसकी किसी जिद को पूरा करने में कमी नहीं की और आज जब मैं चाहती हूँ कि यह मेरे पास रहे तो गुस्से से आँखें दिखाती है और डांटती है । इस महीने के अंत में मेरे भाई का जनेऊ है । निधि उसमें भी रहना चाहती है । वह कल शाम से ही मेरी माँ के पास आ – आकर कह रही है ‘पापा को कह दो वे जनेऊ में मुझे लेकर आ जाएँ ... और जो अभी मेरी माँ को लिवाने जाएगा उसे भी कह देना’ ।

ये बातें मन को भर देती हैं । अभी थोड़ी देर में वह जाने वाली है । मुझे पता है मैं उसके जाते समय वहाँ नहीं रह पाऊँगा , मैं ही क्या जो भी लोग उससे प्यार करते हैं नहीं रह पाएंगे । मेरी माँ को इतनी उम्मीद है कि बहुत जल्द ये लड़की अपने गाँव , अपनी दादी से ऊब जाएगी फिर दौड़ कर वापस आएगी । हम सब इसी उम्मीद के साथ हैं पर अभी तो ऐसा ही है कि यह जा रही है और वापस नहीं आएगी ।


यह दिन आना ही था । लेकिन जल्दी आ जाता तो ठीक था । अब तो हमने मान लिया था कि यह यहीं रहेगी शायद शादी-वादी के बाद जाये । पर अगली कक्षा में यहाँ इसका नाम नहीं लिखवाया जाएगा । हम सबके बीच से इसकी उपस्थिती निकल जाएगी । अब तक तो निधि यहाँ है । इसके बाद जब वह चली जाएगी तब हम उसे याद करेंगे । खासकर दोनों घर एक करने वाली उसकी शैतानी को । ... यह भी पता है हमें कि किसी के चले जाने से कुछ रुकता नहीं है । रुकता भले ही न हो लेकिन दुखता जरूर है ... ! 

फ़रवरी 03, 2015

बीइंग जजमेंटल


कई बार बहुत ही गंदी चीजों पर आपको यूं ब्लैकमेल किया जाता है कि आप जजमेंटल न हों या आप जजमेंटल क्यों हो रहे हैं ... पर इस AIB के कार्यक्रम को देखकर आप को तुरंत लग जाएगा कि जजमेंटल होना क्यों जरूरी है ... हाँ ठीक है कि आप फिल्म इंडस्ट्री के लोग हैं आपके लिए गालियाँ और भद्दे इशारे उतनी बड़ी चीज नहीं हैं लेकिन आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि उन गालियों और इशारों का समाजशास्त्र क्या कहता है और वे अंततः स्त्री के ही खिलाफ़ जाती हैं ।

इस पूरे विवाद के बाद मैंने सोचा कि पहले कार्यक्रम देख लूँ तब कुछ कहूँ ... अभी यू ट्यूब पर मैंने उस पूरे कार्यक्रम को देखा और अंत तक आते आते वह अश्लीलता बर्दाश्त से बाहर हो गयी ..यहाँ मैं जजमेंटल हो रहा हूँ और होना चाहता हूँ । यह मैं पूरे कार्यक्रम के संदर्भ में कह रहा हूँ ... और यदि आप भी देखें तो यकीनन यही कहेंगे ।

अगली बात ये है कि इस पर जब महाराष्ट्र पुलिस कार्रवाई करने का सोच रही थी उस बीच कारण जौहर के ट्वीट्स आ गए इसे जस्टिफ़ाय करते हुए । इसे अभिव्यक्ति की आजादी से भी जोड़ा जा सकता है और व्यक्तिगत आजादी से भी... और कुछ कुछ इसी तरह के संकेत  महाराष्ट्र के सांस्कृतिक मामलों के मंत्री विनोद तावड़े ने भी ट्वीट करके दे दिया कि सरकार 'मॉरल पुलिसींग' नहीं करेगी । भैया एक बात समझ नही आती है कि अश्लीलता पर हमारे दोहरे मानदंड क्यों हैं ?

जब दीपिका पादुकोण पर टाइम्स ऑफ इंडिया लिखता है तो सब अखबार के खिलाफ़ खड़े हो जाते हैं लेकिन जब उसी फिल्म इंडस्ट्री से लोग आकार  'ऑल इंडिया बकचोद' में अश्लीलता फैलाते हैं तो हम झट से अभिव्यक्ति की आजादी की बात ले आते हैं ... आम आदमी तो आम आदमी पुलिस और सरकार तक सॉफ्ट हो जाती है ।
मज़ाक के नाम पर अश्लीलता है और वह भी अभव्यक्ति की आजादी है !  माना कला के नाम पर जरूरी है पर यह कौन सी कला है और इसकी किसे जरूरत है यह जानना है मुझे ।

कहने को यह भी कहा जा सकता है कि ये सारे मज़ाक उन्होने आपस में किए और एक दूसरे पर किए इसलिए किसी और का इससे कोई लेना देना नहीं ... पर साहब एक बात  गौर करने की है कि आप बंद कमरे में तो ऐसा नहीं कर रहे थे कि आपको इस आधार पर भी छुट मिल जानी चाहिए ।
हम वैसे ही उस समय में जी रहे हैं जहां स्त्री के प्रति हिंसा और शोषण बहुत आम है उसमें इस तरह की चीजें और स्क्रिप्ट के नाम पर फिल्मों में ठूँसी जाती गालियां उसमें योगदान ही करती हैं । वे लोग नादान हैं जो अभी भी ये समझते हैं कि इन सबका असर समाज पर नहीं पड़ता या इनको देखता कौन है या कि इससे भी ज्यादा तो समाज में हैं ! दोस्त समाज में सब है पर इसका ये अर्थ नहीं कि हम उसमें और बढ़ोतरी करें और दूसरी बात , इन्टरनेट पर यह उतनी ही सहज रूप में उपलब्ध है जितने कि बच्चों के लिए बबल गम !

नोट : एनडीटीवी की वेबसाइट पर जाकर उनके सर्च वाली जगह में AIB टाइप करें पूरा घटनाक्रम क्रमवार पढ़ने को मिलेगा ... वहाँ इन सबके ट्वीट्स भी हैं ....
यूट्यूब पर उनका अश्लील कार्यक्रम तीन भागों में लगा हुआ है वह भी देखें ... तब शायद हम उस बौद्धिक जकड़न से बाहर निकल पाएँ जो हमें 'जज' करने से रोकता है ... 

जनवरी 22, 2015

ये उम्मीदों की बोझ और ये उनका कंधा !



नवोदय विद्यालय के शिक्षक के रूप में  (हाउस मास्टर के रूप में भी) जब-जब बच्चों के  माता-पिता से मेरी मुलाक़ात हुई है तब-तब  मेरा सबका ऐसी एक-दो माताओं से पड़ा है जिनके लिए उनके बच्चे बड़ी उम्मीद हैं और ऐसे में जब बच्चे के अंक जरा से कम आते हैं या उनके अनुशासन में रहने की छोटी सी भी शिकायत मिलती है तब उनका दुख उनकी आँखों पर जाता है । उस समय जो आँसू उन आँखों में आते हैं वे बिना कहे जीवन की उन तमाम मुश्किलों तक आपको सहज ही खींच लेते हैं जिन तक का सफर संभव है आपने कभी भी न किया हो । कुछ स्थितियों में पति का देहांत हो चुका है लेकिन ज्यादार स्थितियों में पति का शराबी होना सामने आ जाता है । स्थिति तब और बुरी हो जाती है जब बच्चा भी रोने लगे

मेरे हाउस में कई बच्चे ऐसे हैं जिनके पिता इतनी शराब पीते हैं कि वे सामान्य कार्यकलाप के लिए भी अक्षम माने जाते हैं । अपने बच्चे से मिलने खुद नहीं आते तो ज़िम्मेदारी स्वाभाविक रूप से माँ पर आ जाती है । यदि बच्चे से मिलना हो तो भी वही आती है, उसकी कोई शिकायत मिले तो उसे सुनने और उस पर आँसू बहाने भी वही आती है ।

अभी पिछले महीने का ही तो किस्सा है ! बारहवीं में पढ़ने वाले एक बच्चे ने अपने घर से थोड़े पैसे मंगाने के लिए मेरा बैंक अकाउंट नंबर लिया । मैं उस बात को भूल गया । कई दिनों के बाद किसी अंजान जगह के यूनियन बैंक के मैनेजर का फोन आया कि एक व्यक्ति मेरे खाते पर पैसा जमा करवाने आया है और फॉर्म पर केवल खाता संख्या लिखकर नशे में धुत्त बैंक में निढाल पड़ा हुआ है । मेरे खाते की डिटेल्स से उस मैनेजर ने मेरा फोन नंबर निकाला था । मैं यहाँ कल्पना ही कर सकता हूँ कि मेरे हाउस के उस छात्र की माँ बहुत व्यस्त होगी और खुद नहीं आ पायी होगी और उसे विश्वास नहीं रहा होगा फिर भी उसने अपने पति को पैसे जमा कराने भेजा होगा । … उसकी पति वह भी नहीं कर पाया !

केरल में शराब की खपत बहुत ज्यादा है और जिस अनुपात में शराब की खपत है उसी अनुपात में स्त्रियाँ बाहर काम पर जाती देखी जा सकती है । मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि उनका काम पर जाना बुरा है या गलत है या कि उनको काम नहीं करना चाहिए बल्कि मेरा कहना यह है कि पुरुष के शराबी होने के कारण स्त्री पर काम को प्राप्त करने और उसे बनाए रखने का दबाव दोगुना है । यह अकारण नहीं है कि केरल की लड़कियां छोटी उम्र में ही यह तय कर ले कि उन्हें नर्स ही बनना है डॉक्टर नहीं । छोटी उम्र से ही भोगा हुआ आर्थिक संघर्ष जल्द से जल्द रोजगार प्राप्त करने को लगातार दबाव बनाता होगा ।

हमारा विद्यालय ऐसा विद्यालय है जो परीक्षा लेकर छात्रों को प्रवेश देता है । इसलिए बच्चे स्वाभाविक रूप से ज़हीन मान लिए जाते हैं । ज़हीन बच्चा घर की हालत में सुधार लाये यह दबाव बिना कहे उस पर आ जाता है । फिर उसकी हर गतिविधि इसी उम्मीद और उससे उपजे दबाव के दायरे में रखकर देखी जाती है । नवोदय विद्यालय खुले तौर पर उन बच्चों को प्राथमिकता देता है जिनके परिवार हाशिये पर जी रहे हैं (कम से कम आर्थिक स्तर पर) । इसलिए ऐसे बच्चों की संख्या आनुपातिक रूप से ज्यादा है जिनपर हर क्षण अपने परिवार के भविष्य को सुधारने का अतिरिक्त दबाव है ।

भारत हमारा ऐसा देश है जहां रोजगार पाने के लिए बच्चे को बहुत संघर्ष करना है इस स्थिति में जब हाशिये पर जी रहे माता-पिताओं की बात आती है तो उनकी सारी उम्मीदें और खुद बच्चे के सपने उनके बचपन को बुरी तरह प्रभावित करने लगते हैं । शिक्षक जो उन बच्चों की पारिवारिक दशा से वाकिफ होते हैं वे भी इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और वे कई बार उन बच्चों के न कम अंक पाने या ‘अ–अनुशासित’ व्यवहार के प्रति हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं । बिना इसकी परवाह किए कि इससे उन बच्चों के मानसिक स्वस्थ्य पर कितना दबाव पड़ेगा ।

हमारे शिक्षाविदों ने बिना बोझ की  शिक्षा पर बहुत बातें की है सरकार ने उस पर नीति भी बना दी आजकल बच्चों को शारीरिक दंड दिया जाना भी गैर कानूनी हो गया है लेकिन यदि गौर से देखा जाये तो ये वे प्रश्न हैं जो अपेक्षाकृत खाते पीते घरों के बच्चों की समस्याएँ हैं । अपने बच्चे की पीठ पर का भरी बस्ता और उनके गालों पर थप्पड़ के निशान भरे पेट वाले माँ बाप को तो अवश्य ही बुरा लगता होगा लेकिन मुफ़लिसी में जी रहे माँ – बाप इसे भी अपने बच्चे की तरक्की ही मानते होंगे ।

हमारी सरकारों ने या शिक्षाविदों ने बच्चों की पीठ का बोझ कम कर दिया और उन्हें मार खाने से भी बचा दिया लेकिन क्या उन्होने कभी विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों के भविष्य के  रोजगार बारे में सोचा ? जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो इतना भर पाते हैं कि हमारी सरकारें और हमारे शिक्षाविद सबकुछ बच्चों पर छोड़ अपना पल्ला झाड़े बैठे हैं सरकारों को शायद ही परवाह है कि बच्चा अपने भविष्य के लिए कितना आशंकित और चिंतित है और इस बात का तो उन शिक्षाविदों को अंदाजा भी नहीं है कि बच्चों पर बस्ते और अध्यापक की मार से ज्यादा रोजगार का दबाव है । वे कभी ‘पैरेंट्स टीचर मीटिंग’ में आयें तो देख पाएँ उस संचित दुख और उससे बाहर न निकल पाने के त्रास को । तब वे जान पाएंगे कि उन्होने जो दुनिया बना रखी है उसमें बच्चे के पास एक ही विकल्प है कि वह अति प्रतिभाशाली बन जाये, सर्वगुण सम्पन्न हो तभी उसे रोजगार मिलेगा और तब वह अपनी माँ का असली सहारा होगा । यदि वह अति प्रतिभाशाली और सर्वगुण सम्पन्न होने से जरा भी कम है तो ये दुनिया उसकी नहीं है । वह हाशिये पर ही रहेगा । उसकी माता जी की आस का कुछ नहीं होगा !


(खैर आज दसवीं कक्षा के छात्रों की माता –पिता के साथ हम शिक्षकों की मुलाक़ात थी । उस लड़के की माँ रो रही थी वह भी रो रहा था । मेरे पास सांत्वना के दो शब्द थे वो कह दिए पर रोजगार का संकट तो ऐसा है कि सरकार के सुलझाए ही सुलझे। )

जनवरी 02, 2015

एक फौरी टिप्पणी


गोवा गया था । यह एक ऐसे राज्य की यात्रा थी जिसके बारे में तरह तरह से अलग अलग तरह की बातें सुन रखी थी। वो कहते हैं न कि अपने मरे ही स्वर्ग दिखता है तो ठीक यही बात थी । वहाँ गया तो पता चला कि गोवा जैसा सुन रखा था वैसा तो जो है सो है यह अपने आप में अनोखा जरूर है ।

छोटा सा राज्य । छोटे छोटे शहर और एक साथ पचास गाडियाँ सड़क पर दिख जाएं तो समझिए कि जाम लगा ! पर सड़कें इतनी साफ सुथरी थी कि वहाँ जाम का भी अपना मजा था । वहाँ की सड़कें अतिक्रमण से मुक्त हैं । हाँ वही अतिक्रमण जिसमें दुकानदार अपने दुकान के सामने वाली जगह को भी अपनी समझते हैं और उनका वश चले तो जो स्थान गाड़ियों के चलने के लिए है वहाँ तक अपना सामान पसार दें । देश में अबतक जहां भी रहा हूँ और जितना भी घूमा-फिरी की है मैंने उनमें से पहला ऐसा राज्य देखा जहां दूकानदारों ने सड़क तो जाने दीजिये फुटपाथ तक को अपनी दुकान से मुक्त रखा है । वहाँ जाकर पता चलता है कि बाजार में भी फुटपाथ पर चला जा सकता है । वरना चले जाइए दिल्ली के बाज़ारों में जहां बाजार ही फुटपाथ पर सजता है । हमारे सहरसा की बात भी सुन लीजिये जहां रेलवे का फ्लाईओवर इसलिए नहीं बन पा रहा है क्योंकि उससे वहाँ का बंगाली बाजार, जो पूरा का पूरा अतिक्रमण का नमूना है, वह टूट जाएगा ! हमारे यहाँ की सब्जी मंडी भी ऐसी ही है ।

गोवा की दुकानों के सामान बाहर पसरे नहीं होते इसलिए उनकी समृद्धि और उनके भीतर मिलने वाले सामानों का अंदाजा नहीं लग पता । लेकिन ज्यों ही आप दुकानों के भीतर जाते हैं त्यों ही महसूस कर सकते हैं कि वे बाहर से जितने मामूली दिखते हैं उतने हैं नहीं । इसका फायदा यह है कि बाहर सड़क अनावश्यक रूप से भरी नहीं लगती । लोग सामान दुकानों में जाकर खरीदते हैं , फुटपाथ चलने के लिए है और बाकी रहा सड़क का कोलतार वाला हिस्सा तो वह गाड़ियों के चलने के लिए है । ठीक इसी तरह की बनावट लखनऊ के हजरतगंज बाजार की भी है पर वहाँ अतिक्रमण ने पूरे सौन्दर्य और बाजार के मकसद को ही बिगाड़ के रखा हुआ है । जबकि हजरतगंज में कभी उतनी भीड़ नहीं जुटती जिनती गोवा में समय समय पर जुटती रहती है ।

अब सड़क आदि की बात चल रही है तो लगे हाथ गोवा की परिवहन व्यवस्था की बात भी कर लें । छोटा राज्य है ठीक है पर उसकी परिवहन व्यवस्था ठीक नहीं है । परिवहन में नब्बे प्रतिशत से ज्यादा भागीदारी  निजी क्षेत्र की है इसलिए बहुत ज्यादा मनमानी है । वहाँ आपको अपने गंतव्य तक पहुँचने के लिए मोटरसाइकिल सवार मिल जाएँगे जिन्हें ‘पायलट’ कहा जाता है , तिपहिया ऑटो है , टैक्सी और छोटी बसें हैं । देखिये स्थानीय और बाहर से आने वाले पर्यटकों में जो धनी लोग हैं उन्हें गोवा की यातायात व्यवस्था में कोई खराबी नजर नहीं आएगी लेकिन वहाँ के स्थानीय निम्नवर्ग के लिए और बजट टूर पर गए पर्यटकों के लिए गोवा की परिवहन व्यवस्था खराब है । अब लगे हाथ यह भी जान लीजिये कि गोवा कोई बहुत ज्यादा अमीर लोगों का राज्य नहीं है और बजट टूर करने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होती है ।

मोटर साइकिल सवार जिनको पायलट कहा जाता है वे सामान्यतया ज्यादा पैसे मांगने के लिए बदनाम हैं , ऑटो वाले तो साधारण हैसियत के पर्यटकों और स्थानीय लोगों को मुंह भी नहीं लगाते और ज्यादा बात की तो आपको बस स्टॉप का रास्ता बता देंगे । रही बात टैक्सी वालों की तो मैंने उनसे बात भी नहीं की लेकिन कुछ लोग जो वापसी में ट्रेन में मिले उनहोने कहा कि टैक्सी वाले ने ‘लूट’ लिया । आपके पास ले दे के उन छोटी बसों का ही विकल्प रह जाता है जो बहुत ठुँसी हुई भरी रहती हैं या नहीं तो ठुँसकर भरने तक का इंतजार करती रहती हैं ।

गोवा जाएँ तो वहाँ के खाने जरूर खाएं । वहाँ की तरकारी की तरी में अपना ही स्वाद पाया मैंने । जीभ को वह स्वाद एक बार तो अटपटा लगा लेकिन स्वाद अच्छा था । वहाँ गोवा समोसा मिलता है जिसकी स्टफिंग तो समोसों जैसी ही रहती है लेकिन मसाले और भुने जाने के अपने तरीके के कारण उसका स्वाद कई गुना बढ़ जाता है । कोंकण का इलाका है और वडा – पाव न मिले ऐसा हो ही नहीं सकता । पाव-भाजी भी मिलती है लेकिन उसके स्वाद में कोई खास अंतर नहीं था । हाँ मडगाँव के इलाके में बन के साथ परोसी गयी रस-ऑमलेट बेहतरीन थी । ठीक इसी तरह अलग स्वाद बन के साथ मशरूम करी का भी था । मीठे में वहाँ गुलाब जामुन भी थे , शीरा भी था और लड्डू-जलेबी जैसी राष्ट्रीय मिठाइयाँ भी लेकिन काजू की बनी हुई एक भरवां मिठाई का स्वाद अभी तक जीभ पर बना है । वह मिठाई बहुत महंगी थी और उसका नाम भी मैं भूल गया ।

गोवा को जितना फिल्म वालों ने दिखाया है वह कमोबेश वैसा ही है । सबसे बड़ी समानता कपड़ों को लेकर देखी मैंने । आम गोवन स्त्रियाँ फ्रॉक पहनती हैं जिसमें जांघ के नीचे के बाहर का हिस्सा खुला रहता है । उम्रदराज औरतें भी इस तरह के कपड़े पहनती हैं । अपने उत्तर भारत में तो उल्टे आँचल की साड़ी पहनने पर हंगामा शुरू हो जाता है !

खैर , गोवा से आने के बाद उसकी कुछ और बातें यहाँ डालनी हैं इसे पहले हिस्से के रूप में समझा जा सकता है । जब समय मिलता है तब आऊँगा फिर से ! 

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...