घर
के पास ही कोई जगह है जहां किसी पेड़ पर बैठी कोयल जब बोलती है तो उसकी आवाज़ एक अलग
ट्विस्ट के साथ पहुँचती है । कोयल मेरे आँगन के पेड़ पर भी बोलती है मेरे दक्षिण
पूरब वाले घर के पेड़ से भी लेकिन उस कोयल की आवाज में एक अलग ही अंदाज है । सुबह
में तो आस पास के सभी पेड़ों जहां भी कोयल का घोंसला है वहाँ से वे बोलती हैं जैसे
आपस में होड़ कर रही हों । पहले धीमे से कू फिर तेज और तेज जैसे सबसे आगे निकालना
हो । लेकिन दोपहर में जब शायद ये थक जाती होंगी तब कम ही आवाज सुनाई देती है उस
समय उस कोयल की विशेष ट्विस्ट वाली आवाज अलग ही आनंद देती है ।
ऐसा
तो आपने भी किया होगा जब कोयल बोल रही हो तो उसके साथ अपनी आवाज में कू करने का ।
जब हम छोटे थे तो सीता मौसी कहती थी कि कोयल इससे चिढ़ जाती है और तेज तेज आवाज
निकालने लगती है । फिर क्या जहां आवाज सुनी वहीं कू कू करने लगते थे और कई बार तो
ऐसे लगता था कि वह सचमुच चिढ़ कर जवाब दे रही है । उस समय रिहायशी क्षेत्र में
कोयलें बहुत कम थी दिन में दस बार आवाज सुन ली तो बहुत है । हाँ आम के बागों में
ढेर सारी जरूर थी । हम सर्दी में कमी होने के साथ ही इंतजार करने लगते थे कि अब
कोयल बोलेगी । जैसे सर्दियों से पहले खंजन चिड़ैया का इंतजार करते और एक भूरी सी
चिड़िया का भी जिसे हम पहाड़ी मैना कहते थे । खंजन यहाँ से वहाँ फुदकने वाली चिड़ियों
में हल्की भरी सी होती है । माँ ने एक बार कहा कि जब वे छोटी थी तो लोग कहा करते थे कि यदि
खंजन को ये पुछो कि ‘खंजन चिड़ैया खंजन
चिड़ैया कहिया लबान’ (खंजन चिड़िया खंजन
चिडिया कब है नवान्न ) तो खंजन अपनी चुचकार में जवाब देती है ‘आय
नय काइल नय , परसू लबान’
(आज आज नहीं कल नहीं परसों है नवान्न ) । उसके बाद हम भी कई बार ऐसा ही करते लेकिन
खंजन की चुचकार में से नवान्न वाला अर्थ नहीं निकाल पाते । वसंत पंचमी के आस पास
से हम बाग में जाना शुरू कर देते थे क्योंकि तब तक कटहल में मोंछी (कली)
आनी शुरू हो जाती थी । उसके बाद बागों में चहल पहल होने लगती थी क्योंकि इसके
तुरंत बाद आम मजरने लगते थे । फिर कहीं
महुआ । आम के मंजरों की महक तो पेड़ के पास जाने से पता चलती है पर दूर से ही पेड़
की निराली छटा दिख जाती थी । तब मन पड़ता था कि बहुत जल्दी से अपने पेड़ के पास खड़े
हो जाएँ । फिर टिकोलों और महुए के फूल चुनने का समय आता था । हमारे एक एक शिक्षक
थे शुकदेव जी वे कहते कि महुए का फूल गरीबों का अंगूर है यह बहुत स्वस्थ्यवर्धक
होता है ऐसा मेरे नाना भी कहते थे । फिर क्या था गेहूं के पौधों में महुए के फूल
खोंस खोंस कर लाते और उन्हें खाते – इतना मीठा और रसीला अंगूर की तरह ही । महुआ
दिन को खिलता और आधी रात के बाद गिरता टप टप की आवाज के साथ और आसपास के वातावरण
को अपनी सोंधी गंध से आच्छादित कर देता था । कभी कभी तेज हवा चल पड़ी तो महक
बस्ती तक भी आ जाती थी । धूप उगने के बाद आम के टिकोले चुनने या तोड़ने का समय होता
था । पता नहीं बड़ों को इससे क्या समस्या थी जहां हाथ में छोटा सा आम और ब्लेड देखा
नहीं कि डांटना शुरू कर देते थे – टिकला खाने से पेट दर्द करता है । पर इन डांटो
का कोई खास असर नहीं होता था हम मजे से ‘नून-बुकनी’
के साथ टिकला खाते मगर छिपकर !
जैसे
जैसे आम बड़े होने लगते कोयल की आवाज सामान्य सी होने लगती थी क्योंकि फिर यह एक आम
सी चिड़िया हो जाती । यहाँ वहाँ हर जगह यही आवाज सुनाई देती थी बहुत से छोटे
पक्षियों की आवाज इसके दब ही जाती थी । यहाँ से वहाँ एक ही पंचम स्वर गूँजता था
कोयल का ।
शुरू
शुरू में कोयल को पहचान पाना कठिन था उसकी आवाज से हम महसूस करते थे कि वह इस या
उस पेड़ पर है या होगी । एक दिन पड़ोस की एक शादी के बाद पंडाल के लिए गाड़े गए बांस
उखाड़े जा रहे थे । एक बांस उखड़ नहीं रहा था । एक व्यक्ति उसे ज़ोर ज़ोर से हिला रहा
था उसी हिलाने में बांस की छीप (ऊपरी हिस्सा) एक पक्षी के रास्ते आ गयी जिससे चोट
खा जाने से वह नीचे आ गिरा । हमने उठाया और अगले एक ही मिनट के अंदर उसने एक अंडा
दे दिया । वह मादा कोयल थी । अब हमारे सामने ये परेशानी थी कि क्या किया जाए अब ।
कोयल वहाँ कुछ मिनट और रुकी होगी फिर उड़ गयी । हमारे पास उसका अंडा रह गया था ।
कुछ दिनों तक हमने उस अंडे संभाला भी पर बाद में उसका क्या हुआ ध्यान नही आ रहा है
।
आम
जब बड़े हो जाते तब बाग में बड़ों की आवाजाही बढ़ जाती थी । नाना और उनके अन्य तीन
भाई यूं तो अलग अलग रहते थे पर उन सब का एक साझा बाग था । उनमें से कोई रात में
सोने आता था । जो रात न आता वह सुबह आता । फिर किसी को ‘गोपी’
मिल गया तो बवाल शुरू हो जाता । गोपी मतलब पेड़ का पका हुआ पहला आम पर अमूमन
शुरुआती पके हुए कुछेक आम इस श्रेणी में आ जाते थे । आम की हिस्सेदारी को लेकर
बहुत कुचधूम होती थी । सब आपस में बहुत उलझते थे । आम कितने ही हों पर हिस्सेदारी
का सवाल था । कई बार बाग में ही उलझ जाते तब शायद पेड़ पर आराम कर रही कोयल उठ जाती
और वह भी ज़ोर ज़ोर से बोलने लगती जैसे डांट रही हो ।
हर
बार एक तय मात्रा में झगड़े के बाद ही कच्चे आमों को तोड़कर 4 हिस्सों में बांटने का
फैसला किया जाता था । जब आम टूटते तो हम बच्चों को बहुत दुख होता । क्योंकि आम न
सिर्फ हमारे लिए एक इंगेजमेंट थी बल्कि हमें वहाँ बहुत मजा आता था । हम वहाँ कुछ न
कुछ करते ही रहते थे कभी कोई टिहली (टीला)
बना लिया , कभी पास के भरना से कुछ
केंकड़े पकड़ लाये और आग में भूनकर खा लिया कभी पेड़ की मोती टहनी पर दिन दिन भर
झूलते ही रहे । फिर जैसे ही कोई पत्ता खड़कता कि हमारे कान खड़े हो जाते कि कोई न
कोई पका आम गिर रहा है पर किस ओर ये नहीं पता । सब फैल जाते । जिकों मिलता उसकी
खुशी का ठिकाना नहीं होता था । आम के टूटने के साथ ही ये सब खत्म हो जाता था । कुछ
दिन तो बहुत उदासी में गुजरते थे । फिर थोड़े दिनों तक आस पास कहीं भी पत्ता खड़कता
था तो लगता था पका हुआ आम ही गिरने वाला है ।
इसी
तरह एक बार कच्चे आम तोड़े जा रहे थे हम बच्चे सुबह के स्कूल (इधर सरकारी स्कूल
अप्रैल मई में सुबह के हो जाते हैं ) से देर से पहुंचे । रास्ते में मुझे एक काला
सा पक्षी मिला जो मर चुका था । हम उसे नहीं पहचानते थे । बाग में बड़ों ने बताया कि
वह नर कोयल है जो कू कू की आवाज करता है । हमे बड़ा दुख हुआ कि यह मरा हुआ क्यों
मिला । उसकी चोंच यूं खुली थी जैसे मरने से पहले भी कू की आवाज कर के किसी को
बुलाया हो ! रंजीत मामा जो हममें थोड़े बड़े थे उन्होने उस कोयल को दफनाया था । उसके
बाद से ही उन्हें लोग ‘कोयली प्रेतस्य’
कह कर चिढ़ाने लगे थे । फिर जो वे चिढ़कर गालियां बकते तो लोगों को पता नही क्यों
अच्छा लगता वे और चिढ़ाते ।
जब
हम शहर आ गए तो नाना का गाँव छुट गया । कुछ ही सालों में यह भी सुनने को आया कि
चारों भाइयों के आपसी विवाद के बाद आमों का बाग बेच दिया गया,
सारे पेड़ लकड़ी व्यवसायी ले गए । दुख तो बहुत हुआ था क्योंकि जब हम उन पेड़ों के
नीचे दौड़ लगाते थे तो लगता था कि बस यही दुनिया है और यही सबसे बड़ी खुशी । वे पेड़
सदा के लिए छुट गए । जब मैंने यह शहर छोड़ा था तब यह शहर बढ़ना शुरू हुआ था । लोग
खेतों की ओर बढ़ रहे थे । जब दिल्ली गया तो वहाँ का माहौल ही अलग था । कोयल की आवाज
वहाँ सुनाई देती तो थी पर बहुत हल्की सी लगता कहीं दूर से आ रही हो । कभी कोई कोयल
भटक कर करीब आ जाए तो भी उतनी तेज सुनाई नहीं देती थी । नौकरी के सिलसिले में केरल
जाना हुआ तो वहाँ जनवरी के अंत में ही कोयल की आवाज सुनाई दे गयी थी । उसे सुनते
ही लगा कि चलो बचपन का एक साथी तो यहाँ है मेरे लिए ।
इतने
सालों बाद हमारा शहर सहरसा वैसा नहीं लगता जैसा शुरू शुरू में लगता था । कम से कम
हमारा मोहल्ला । पहले अपना घर हमें शहर के छोर पर खड़ा लगता था जैसे कि शहर में आने
वालों के लिए चेक पोस्ट बना रखा हो । घरों के बीच में गेहूं-धान उगाये जाते थे ।
जो स्टेट हाइवे यहाँ से वहाँ तक स्पष्ट दिखता था हम खड़े होकर ताजिये का जुलूस ,
शादी में जा रहे वर पक्ष के लोगों की मस्ती उनके पटाखे खिड़की खोलते ही देख लेते थे
उन्हें अब छत पर चढ़ के भी नहीं देखा जा सकता । यहाँ लगभग हर सेंटीमीटर पर घर बन
गया है । पर एक बात सुकून देने वाली है कि लगभग सभी घरों में इधर दो चार पेड़ जरूर
लगे हैं । आम के पेड़ तो अवश्य । इसका असर ये है कि तरह तरह की चिड़ियाँ यहाँ देखि
जा सकती है । अभी कुछ साल पहले मेरे आँगन में मक्के के पौधे उग आए थे । जब उनमें
भुट्टे आ गए और भुट्टों में दाने तो झुंड के झुंड सुगगे आ जाते । बहुत सुंदर दृश्य
बन जाता था । तब से हर बार मक्का जरूर बोया जाता है हमारे यहाँ और सुगगे ही नहीं
बहुत से अन्य पक्षी भी आते हैं ।
अभी तो राज कोयल का है । कभी इस आँगन के पेड़ से
आवाज आती है तो कभी उस आँगन के पेड़ से । गाँव में कभी इतने करीब से कोयल की आवाज
को महसूस नहीं किया था । यहाँ लगता है उनके साथ हम भी रह रहे हैं । उन बहुत सी
छोटी चिड़ियाँ जो यहाँ से वहाँ अभी भी उड़ – फुदक रही हैं अपने ही तरह की आवाजें
निकाल रही हैं उनकी ओर ध्यान अभी नहीं जाता इन कोयलों ने हटा रखा है । फिर कोयलें
जाएंगी तो इनका राज आएगा जब ये गुलाब टूसी पर चढ़ कर फूल को मिट्टी से भिड़ा देंगी ।
अभी पिछले साल क्रोटन की झाड में बटेर का एक घोसला था एक रात बहुत जोर का पानी
बरसा तो उसके बच्चे बह गए थे ।
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