पप्पू यादव दो है एक आज से 20 साल पहले वाला और दूसरा आज वाला । ज़ाहिर है आज वाला हमें ज्यादा दीखता है इसलिए पिछले कुछ समय से देख रहा हूँ कि उसकी आज की छवि को ही लगातार उछाला जा रहा है । आज का पप्पू यादव पहले के पप्पू यादव से अलग एक संन्यासी सा दिखाई देता है और लगता नही कि यह वही व्यक्ति है जो कुछ वर्ष पहले उत्तर पूर्वी बिहार की राजनीति पर इतनी दखल रखता होगा । आज उसे देखें तो बीमार और राजनीति से बाहर हो चुके या कर दिए व्यक्ति की तरह दीखता है । जो हरशंकर परसाई के व्यंग्य ' भेड़और भेड़िये ' के चुनावी भेड़ियों सा ज्यादा दीखता है । हाल में उसने जिस तरह खोल ओढ़ी है उससे नए लोगों और बाहर के लोगों को तो अंदाजा भी नहीं लग सकेगा कि वह क्या चीज था और आज क्या बन रहा है ।
आज से बीस साल पहले के उत्तर पूर्वी बिहार में आनंद मोहन के साथ वह एक अनिवार्य व्यक्ति जैसा लगता था । इसलिए नहीं कि दोनों बहुत अच्छे राजनेता रहे हों बल्कि इसलिए कि दोनों उस समय के नामी गुंडे थे । जिनकी गुंडई पर मंडल कमीशन के पक्ष और विपक्ष की अपने अपने हिसाब से स्वीकृति और मुहर थी । इन दोनों की गुंडई के किस्से ऐसे सुनाये जाते थे जैसे कोई वीर हों । यह मानना कोई नयी बात नहीं होगी कि उस समय कितने ही युवा इन दोनों सा बनना चाहते थे । और यदि आज भी कोशी और पूर्णीया प्रमंडलों में जाकर देखें तो कितने ही लोग जो इन उस समय बच्चे थे वे अपने अपने इलाकों में आज के गुंडे बने हुए हैं । यह अकारण कहाँ है कि किशोर कुमार मुन्ना , जो कभी आनंद मोहन का दायाँ हाथ था वह भी आज दो बार विधायक बन चूका है और सांसदी के सपने देखता है । आजकल खुद आनंद मोहन की हालत पतली है तो उसका हाथ (दायाँ हो या बायां ) कहाँ से वह नंगा नाच नाच सकता है जो पहले पप्पू यादव और आनंद मोहन ने नाचा है ।
पप्पू यादव उस समय यादव होने के नाम पर राजनीतिक रूप से संरक्षित था और लालू यादव की पार्टी उसकी सहज पनाहगाह थी वहीँ आनंद मोहन राजपूत समुदाय का माना हुआ 'कुँवर' । इत्तेफाक से उस समय उठे आरक्षण के मसले ने दोनों को अपने अपने समुदायों ही नही बल्कि अन्य समानधर्मा समुदायों का नायक बना दिया । ये नायक अपने हितों को सामने रखने के नाम पर सरेआम गुंडागर्दी करते थे । इनके प्रभाव क्षेत्र के भीतर से गुजरने वाला कोई भी 'बाहरी' अपने जान तक की सलामती नहीं मान सकता था माल की तो जाने दें । बिहरा -पंचगछिया से कोई यादव नहीं गुजर सकता था और उसी तरह यादव बहुल गावों से कोई सवर्ण । यह स्थिति थी । आरक्षण के समर्थन और विरोध के नाम पर इन दोनों ने अपनी आपराधिक छवि को मांजने का खुला खेल खेला । पर मजाल है कि कहीं कोई अपराध रिकोर्ड हो जाये । दोनों ने आपस में एक खुली गैंग वार जैसी चीज छेड़ रखी थी हर दिन कहीं न कहीं से इनकी झडपों की खबरें आती । ये न लड़ते पर इनके लोग तो थे ही जो इनके नाम पर लड़ते थे । उन लड़ाइयों का रिकोर्ड उठाने जाएँ तो आपको कुछ भी हाथ नहीं लगेगा क्योंकि कहीं कुछ दर्ज नहीं है । पर जहाँ दर्ज है वहां से हम उठा नही सकते । प्रभावित लोगों कइ जेहन में दर्ज है और सहरसा, सुपौल, मधेपुरा और पूर्णिया के बाजारों में दुकानदारों के मन पर दर्ज हैं । इन इलाकों के बाजारों से आज भी इनके नाम पर उगाही होती है । हालाँकि आज इस तरह के कई लोग उठकर खड़े हो गए हैं लेकिन इनमें पप्पू यादव और आनंद मोहन की छवि , हाथ और प्रभाव को खोजना कठिन नहीं है । जैसे जैसे आरक्षण आन्दोलन के बाद समय गुजरा इन दोनों ने अपराध के बदले राजनीति में पैठ बनायीं फिर सफल भी हुए । लेकिन इस बीच इनके अपराध छोटे से बड़े में बदल गए । और इन पर आंच ही तभी आई जब ये दोनों बड़ी और राजनीतिक हत्याओं को अंजाम देने लगे । आज दोनों राजनीति से पूर्णतया निर्वासित जीवन जी रहे हैं पर अपने चमचों पर गहरी पैठ के नाम पर और दलबदल कर गुजारा चला रहे हैं और बड़े आश्चर्य की बात ये है कि इनका ये सारा काम जेल से भी सम्पन्न हो जाता है ।
गरज यह कि आज का पप्पू यादव अपने समय के छंटे हुए गुंडों में से एक रहा है जिससे उत्तर बिहार के युवाओं ने अपराध का ककहरा सीखा है । अभी हाल में पप्पू की एक किताब आई है पता नही उसने खुद लिखी है या किसी से लिखवाई है पर आई जरुर है । इस किताब के आने से पहले पप्पू राजेन्द्र यादव के जलसों में भी देखा गया । इसे हिंदी साहित्य में पप्पू का पदार्पण मानिये । और जल्दी ही उसने अपनी आत्मकथा लिख कर गिरा दी । आत्मकथाएं और विशेषकर अपराधियों की पहले भी आई हैं पर अन्य किसी को साहित्य के इतिहास में शामिल होने की शायद न तो जिद रही हो और न ही उसके लेख छिपे रूप में साहित्यकार रहे हों इसलिए वे हिंदी साहित्य के लोगों के लिए चर्चा का विषय नहीं बने । पर इस पप्पू का मामला ही दूसरा है । वह अपराधी है पर उसके समर्थक साहित्य में बहुत ज्यादा हैं क्योंकि वह साहित्यिक जलसों में देखा गया या कि उसने इसकी फंडिंग की । इस तरह से साहित्य में खड़े दो कौड़ी के लोगों और हाशिये पर के लोगों को लगने लगा है कि साहित्य मेनस्ट्रीम की चीज हो जाएगी पप्पू को शामिल करने से । पर मामला अभी भी पैसे और संपर्क का ही है । यदि अभी भी वहां देखा जाये जहाँ से ये पप्पू आता है वहां इसकी किताब फिताब की कोई खबर नहीं चलती क्योंकि वहां सभी जानते हैं कि यह राजनीतिक रूप से चुका हुआ व्यक्ति है लेकिन हिंदी साहित्य जहाँ हाशिये के लोगों की इतनी भरमार है वहां उसका आना ऐसा लगता है जैसे सेठ आ गया हो इसलिए इस अपराधी की चरण वंदना और समर्थन के लिए लोग मिल गए !
अब हमारे प्रभात रंजन जी पप्पू यादव को साहित्यकार मान बैठे हैं और उनके समर्थन में खुलकर बोल रहे हैं । उन पर तरस आता है कि कैसे वे इसे जाति के दायरे में खींच लाये हैं । भाई आप सच्चे सीतामढ़ी एक्सपर्ट हैं जिसको सहरसा ,मधेपुरा ,सुपौल और पूर्णिया नहीं दीखता है । इस पप्पू ने वहां जो गंद मचाई है वह आप तक नहीं पहुंची हो शायद । आगे आप जिसे जाति आधारित विरोध मानकर फेसबुक रंग रहे हैं वह और कुछ नहीं आपकी मासूमियत को दर्शाता है जो परसाई के भेड़िये को भेड़ समझ रहा है । बिहार में गुंडई और राजनीति दोनों में जातियां दिखती तो हैं पर उसकी प्रकृति दूसरी है । वहां फायदे के लिए ब्राहमण यादवों के संपर्क में आज से नहीं काफी पहले से हैं । सहरसा को पप्पू यादव ने अपने कई सवर्ण उत्तराधिकारी दिए जो अभी भी सक्रिय हैं । फिर रही बात साहित्य में उसके विरोध की तो मामला ऐसा है भई साहाब की वह तो होना ही चाहिए । साहित्य में भी लोग ठकुरसुहाती पर और डर से या फिर पैसे के मोह में चुप लगा जाये तो हो गया साहित्य ।
आगे यह बताते चलें कि उधर सहरसा जेल में बंद आनंद मोहन भी कवितायेँ लिखता है । फांसी की सजा पाया वह व्यक्ति कल को जेल से रिहा होकर किसी नामवर या कि किसी अन्य सिंह से अपनी किताब का विमोचन करवा लेता है तो क्या हम उसे मार्क्वेज़ बना दें ? लोग इस बात को लेकर उठबैठ रहे हैं कि पप्पू ने अपनी किताब में खुलासे किए है । मेरे लिए यह जानना जरुरी है कि क्या उसने ऐसे खुलासे किए हैं कि उसने कितने निर्दोष को मारा या उसके अन्याय किया । क्या वह अपने को एक अपराधी स्वीकार करता है ? इनका उत्तर नहीं में ही होगा । बस ये है कि पैसे के गणित को राजनीति की कॉपी पर बनाने का समय है तो सब साहित्यकार हो जाएँ और आपलोग जिसको चाहें स्थापित कर दें ।
आगे यह बताते चलें कि उधर सहरसा जेल में बंद आनंद मोहन भी कवितायेँ लिखता है । फांसी की सजा पाया वह व्यक्ति कल को जेल से रिहा होकर किसी नामवर या कि किसी अन्य सिंह से अपनी किताब का विमोचन करवा लेता है तो क्या हम उसे मार्क्वेज़ बना दें ? लोग इस बात को लेकर उठबैठ रहे हैं कि पप्पू ने अपनी किताब में खुलासे किए है । मेरे लिए यह जानना जरुरी है कि क्या उसने ऐसे खुलासे किए हैं कि उसने कितने निर्दोष को मारा या उसके अन्याय किया । क्या वह अपने को एक अपराधी स्वीकार करता है ? इनका उत्तर नहीं में ही होगा । बस ये है कि पैसे के गणित को राजनीति की कॉपी पर बनाने का समय है तो सब साहित्यकार हो जाएँ और आपलोग जिसको चाहें स्थापित कर दें ।
अपराधी का विरोध तो होना ही चाहिए यह उन सबका सम्मान होगा जिन्होंने ऐसे गुडों का ताप झेला है ।
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