उस
जगह से बहुत दूर नहीं हूँ जहां जाने का बार बार मन करता है लेकिन एक व्यवस्था में
आकर जिस प्रकार घिर गया हूँ उसमें वहाँ जाना तो दूर , वहाँ की खबरों तक का आना
भी दुर्लभ हो गया है । जिस संगठन में काम कर रहा हूँ उसके बारे में इतना नकारात्मक
कभी नहीं हुआ था । यहाँ प्रशिक्षण पर आने से पहले विद्यालय में लगभग छह महीने तो
हो ही गए थे लेकिन कभी ऐसे अनुभव नहीं हुए कि इस काम को इतनी शंका और अविश्वास से
देखूँ । यहाँ हर दूसरे क्षण लगता है कि , वास्तविक स्थिति , आदर्श और अघट-घटनाएँ तीनों अलग-अलग स्थितियाँ हैं
लेकिन प्रशिक्षण इन तीनों को एक साथ करके ही चलता है । इस एक साथ चलने ने जिस
मानसिक ब्लॉक का निर्माण कर दिया उसे खोलने में या खुलने में समय लगेगा । बाहर से
यदि थोड़ा सा भी
संपर्क बना रहता तो शायद यह स्थिति नहीं आती । यहाँ अखबार देखने तक
का समय नहीं मिल पाता है । सब इस तरह से है कि यदि आ गए तो इसको झेलने के अलावा
कुछ नहीं बचता ।
यह
मानने में कोई शंका नहीं है कि शिक्षकों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है लेकिन इत्न ई हाय
– तौबा और मारा – मारी के बाद भी बच्चा तो अत्महत्या कर ही लेता है, संबन्धित शिक्षक दंडित भी
हो जाता है । फिर इतनी जटिलता की आवश्यकता ही क्या है ?
प्रशिक्षण
से इस तरह का साबका कभी नहीं पड़ा था इसलिए अंदाजा भी नहीं था कि कैसे लोग
प्रशिक्षित होते हैं और कैसे उन्हें प्रशिक्षण के नाम पर एक तरह से संस्थानीकृत
किया जाता है । कार्यक्रम इतना जटिल और समय से पीछे चलने वाला हो तो न तो इसमें
किसी की रुचि बनी रह सकती है और न ही इसका कोई फायदा हो सकता है । यहाँ का मूल
दर्शन यही है कि जिन स्थितियों में एक छात्र रहता है उसी तरह शिक्षकों को भी रहना
चाहिए । जैसे किसी दिन छात्रावास में बिजली नहीं हो तो वे कैसे रहते होंगे इस
स्थिति से रू-ब-रू कराने के लिए शिक्षकों को भी उसी तरह रखा जाए । यह तो एक बानगी
है । यह बात समझ से परे हो जाती है कि संस्थान एक स्तर पर सुविधाओं को पक्का नहीं
कर सकता तो जहां भी थोड़ी – बहुत सुविधाएं हैं वहाँ से हटा लिया जाए । प्रशिक्षण जब
कर्मचारियों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ही प्रेरित हो तो यह कन्डीशनिंग
कैंप जैसा ही बन जाता है ।
एक कमरे में आठ – दस लोग रखे गए हैं । इसका आदर्श और उद्देश्य यह नहीं कि लोग साथ
रहेंगे और इस तरह से एक दूसरे के प्रति सहयोग का व्यवहार करेंगे बल्कि जिस तरह से
छात्र रहते हैं उसी तरह से जीना सीखा जाए ।कोशिश
न भी करूँ तो भी फोन का आता – जाता नेटवर्क सोचने के लिए बाध्य कर ही डालता है कि
यहाँ इतनी दूर खेतों के बीचोबीच प्रशिक्षण देने की क्या जरूरत थी । यहाँ मुख्य सड़क
से पैदल का ही सहारा है वह भी बड़े-बड़े रोड़ों से भरे रास्ते पर । वह रास्ता भी इतना
सुनसान कि जाने से डर लग जाए । शुक्र है हम सारे पुरुष ही प्रशिक्षित होने आये हैं
। एक भी स्त्री होती तो आज के हालात में उसका आना-जाना पुलिस की सुरक्षा में ही हो
पाता । हममें से बहुत लोग शाम को दिन भर की थकान कम करने के लिए बाहर निकल जाते
हैं ,
रास्ते पर मिलने वाले एक-दो बुजुर्ग हर वापस लौट जाने की सलाह दे देते हैं । बताते
हैं कि हर दूसरी मोटरसाइकिल लुटेरों की होती है । कम से कम फोन और कुछ पैसे तो मिल
जाएंगे ।
हमारे
समय को बांटकर इतना व्यस्त कर दिया गया है कि दिन तो किसी भी तरीके से हमारा हो ही
नहीं सकता । इस पर भी तुर्रा यह कि आप जिस उम्र में है उसमें आराम और इससे सहजात
संबंध रखने वाली अवस्थाओं की कोई आवश्यकता नहीं है । बोलने वाला आदमी अधिकतम डेढ़
घंटे बोल के चला जाता है आराम करने वह भी बिना यह सोचे कि हम तो वहीं बैठे रह जाते
हैं दूसरे ‘बकने’ वाले को झेलने के लिए । एक से दूसरे को झेलते हुए , आराम और सामान्य सुविधाओं
से दूर रहते हुए लगता है कि यह एक अंतहीन दौर है जो चलता रहेगा ।
इन
सबने पिछले लगभग एक पखवाड़े से भी ज्यादा समय में हमारी नकारात्मकता को बढ़ाया ही है
। यदि कोई शोध होता जिसमें प्री-टेस्ट, पोस्ट टेस्ट जैसी व्यवस्था होती तो इसे केवल अनुभव
के आधार पर ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक रूप से साबित करने में देर नहीं लगेगी । यहाँ
नकरत्मकता को इसलिए लेकर आया हूँ कि इसके बढ्ने से बहुत ज्यादा दिन विद्यालयी
व्यवस्था में खासकर नवोदय जैसी संस्था में काम नहीं किया जा सकता । स्करात्मक होना
यहाँ बहुत जरूरी होता है । इस दशा में यह प्रशिक्षण कुछ देने के बजाय कुछ ले ही
रहा है । और इस तरह के काम शिक्षकों के उत्साह को बढ़ाने के बजाय उसकी जड़ों में
मट्ठा डालने का ही काम करते हैं ।
यहाँ
मेरे लिए मुद्दा नवोदय के प्रति बढ़ती उदासीनता नहीं है बल्कि भीतर हो रहा द्वंद्व
है । यह द्वंद्व सकारात्मक होकर बच्चों के लिए काम करने और नियमों में बांधकर
नकारात्मकता से काम के प्रति अरुचि हो जाने का है । हालांकि इससे बाहर आने के
मेकैनिज़्म पर काम कर रहा हूँ पर वह भी इस प्रशिक्षण के तंत्र से बाहर निकल कर ही
संभव हो पाएगा ।
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