अभी बिहार में यदि आप निकलते हैं तो पाएंगे कि चुनाव की ही खबर है । दरअसल पिछले तीन सालों से बस चुनाव और चुनाव का ही शोर है । पहले लोकसभा चुनाव फिर विधानसभा चुनाव और पंचायतों के चुनाव जिसमें स्थानीय प्रतिनिधि चुनने की बात है । चुनाव ही चुनाव देख रहे हैं लोग । पहले बड़ा फिर मझोला और अंत में छोटा चुनाव ।
चुनाव दर चुनाव लोग सफर करते जा रहे हैं ।
कुछ लोकसभा चुनाव में 5 साल के लिए अपना वारा – न्यारा करवा चुके , उससे ज्यादा लोग विधान सभा चुनाव में और सबसे ज्यादा लोग इस पंचायत चुनाव
में करवा रहे हैं । सैद्धान्तिक रूप से इन चुनावों का मुख्य उद्देश्य प्रतिनिधि
चुनना रहा है और रहेगा लेकिन असली जमीन तो वह आधार प्राप्त करने की है जो पाँच साल
तक निर्बाध और निरापद आमदनी और प्रतिष्ठा प्रदान करता रहे । यह सब जानते हैं ।
बिहार में अभी विधान सभा चुनाव जिस चरणबद्ध
प्रक्रिया के तहत हो रहे हैं उसमें यह मजा है कि अलग अलग इलाकों के चुनावों का
जायज़ा बड़े आराम से लिया जा सकता है । जायज़ा लेने की बात कहना कुछ ऐसी बात हो जाती
है कि मैं कोई पर्यवेक्षक बन गया हूँ । वास्तविकता यह नहीं है । मेरे नानी के यहाँ
चुनाव हो चुके हैं , शहर के पास वाले इलाके में दो तीन दिनों में होना है और जहां
मेरा गाँव है वहाँ उसके कुछ दिनों के बाद चुनाव होने हैं । एक एक घंटा भी उन जगहों
पर दिया जाए तो बहुत कुछ समझ में आने लगता है ।
चुनाव के समय में बाहर निकलने का कभी मौका
नहीं मिला था स्थानीय चुनावों में तो और नहीं । इसका सबसे बड़ा कारण था कि मेरे
घरवाले चुनाव जैसी प्रक्रिया को अच्छा नहीं मानते थे । वे वोट देते थे और देते हैं
लेकिन चुनाव के संबंध में उनकी राय कोई अच्छी नहीं है । वैसे यह पूरे भारत की
समस्या है कि चुनाव , राजनीति आदि पर बोलने के लिए बहुत लोग हो जाते हैं लेकिन
यदि उसे करने या कम से कम महसूस करने की बात भी हो तो माँ – बाप अपने बच्चों को जो
पहली सलाह देते हैं वह चुनावों या राजनीति से दूर रहने की ही होती है । मैं भी
इसीलिए लगातार दूर रहा । परिणाम यह रहा कि इसने राजनीति की स्थानीयता को समझने
वाली दृष्टि नहीं प्राप्त होने दी न ही, इसने स्थानीय पकड़ ही बनाने दी ।
मैंने अब तक केवल सुना था कि चुनावों में
पैसे बाँटे जाते हैं , चुनाव से पहले की रात को माँस और शराब परोसी जाती है
लेकिन मैंने कभी ऐसा देखा नहीं था और शामिल हो पाने की तो बात ही नहीं है । लेकिन
इस बार का मामला थोड़ा अलग है । नानी के यहाँ जाना हुआ । जब वहाँ पहुँचा तब चुनाव
प्रचार समाप्त हो चुका था और चुनाव से पहले वाले दिन की तमाम विशेषताएँ वहाँ पसरी
हुई थी । बाहर से शांत दिख रहा गाँव केवल तेज़ पुरबा हवा के शोर को ही सुना रहा था
। लेकिन यह स्थिति ज्यादा देर नहीं बनी रही । थोड़ी ही देर में अलग अलग प्रत्याशी
आने लगे । कोई वार्ड सदस्य के लिए खड़ा है तो कोई पंच के लिए कोई सरपंच के लिए कोई
पंचायत समिति के लिए लेकिन सबसे बड़ा जलवा था मुखिया प्रत्याशियों का । यह चुनाव
प्रचार ही था लेकिन इसे चुनाव आयोग देख ही नहीं सकता । चुनाव आयोग वाले जब पटना
में बैठे अपनी दोपहरी बिता रहे होंगे तब उनकी नजरों से बहुत दूर एक गाँव में घर घर
जाकर प्रचार का यह काम हो रहा था ।
एक एक पद के कई कई प्रत्याशी खड़े थे । समीकरणों
के इतने रूप कि बीजगणित के सारे सिद्धान्त भरभराकर गिर जाएँ । हर कोई जीत रहा था ।
हर कोई अपने को होड में मान रहा था । कुछ प्रत्याशी केवल इसलिए खड़े थे कि किसी खास
व्यक्ति को हराना है । पूर्व की लड़ाइयों का बदला निकालने का इतना बढ़िया समय ।
मुखिया और सरपंच आदि के लिए तो दायरा बड़ा होता है लेकिन वार्ड सदस्य के लिए बहुत
छोटा । मैं जिस वार्ड में बैठा था उसकी जनसंख्या करीब 300 लोगों की होगी और उनमें
से मतदाता होंगे करीब डेढ़ सौ । उतने छोटे हिस्से में 6 प्रत्याशी । सबने एक एक
परिवार के एक एक मतदाता को टटोल रखा है कि उसका मत किसको जाना है । और जिसने मत
नहीं दिया उससे दुश्मनी का एक नया अध्याय शुरू हो जाये तो कोई नयी बात नहीं होगी ।
उसी समय एक बात उठी कि एक स्त्री किसी काम से शहर चली गयी है । वार्ड सदस्य
प्रत्याशियों की ऐसी हालत हो गयी कि कुछ नहीं कह सकते । अफरा तफरी में एक
प्रत्याशी ने बाजी मार ली उसने उस स्त्री को शहर से बुला लाने और वापस भेज देने का
प्रस्ताव दे दिया । परिवार ने यह प्रस्ताव स्वीकार भी कर लिया । एक एक मत इतना
महत्वपूर्ण हो तो उसे प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जाने का मामला तो बन ही
जाता है ।
बाजार पूरा गरम था कि मुखिया प्रत्याशी गाँव
में पैसे बाँट रहे हैं । मैंने सुना तो मुझे लगा कि फर्जी बात है यह लोग बस अफवाहें
उड़ा रहे हैं । चुनावों के समय अफवाह उड़ते भी खूब हैं । लेकिन उस समय मेरी आँखें फटी
की फटी रह गयी जब मेरे एक भाई ने अपनी जेब से पाँच पाँच सौ रूपय के कुछ नोट निकाल कर
दिखा दिए । किसी ने कहा अभी तो कुछ नहीं हुआ है आज तो रात भर खेल होगा । वहीं किसी
ने बताया कि कल चुनाव प्रचार का आखिरी दिन था और कल ही देखने लायक था मुखिया प्रत्याशियों
का रंग । रैली नहीं रैला की शक्ल में घूम रहे थे सारे प्रत्याशी । कई कारें थी काफिले
में । मुखिया के चुनाव में कारों का काफिला एक ऐसी बात है जो शायद ही पच पाये और यह
ऐसा नवाचार है जो आगे और देखने को मिलेगा । उस बीच किसी ने कहा कि इस बार जितने भी
मुखिया प्रत्याशी हैं उनमें से कोई भी दस लाख से कम खर्च नहीं कर रहा है ।
रात का खाना खाने का वक्त आया तो मेरी थाली में
मांस परोसा गया और कहा गया कि यह ‘वहीं’ से आया है । अब मैं इस ‘वहीं’को देखने के लिए उत्सुक
हो उठा कि भाई ऐसी कौन सी जगह से यह आया है । खाना खाने के बाद जब मैं उस जगह गया तो
वहाँ का नज़ारा धार्मिक धारावाहिकों में दिखाये जाने वाले दृश्यों जैसा था - आनंद से
सराबोर ! हंसी ठट्ठे से भरी हुई उस जगह पर एक बड़े बर्तन में पका हुआ
मांस रखा था और बिहार की इस शराबबंदी के समय में शराब भी थी । यह सारा खर्च किसी खास
प्रत्याशी द्वारा किया गया था । उस पंचयत में ऐसे आयोजन और प्रत्याशियों ने किए थे
।
रात भर होते रहे आयोजन का असर मत देते समय या
मतों की दिशा बदलने में जरूर ही कारगर हुआ होगा और इस बात की भी संभावना है कि बहुतों
इसके बावजूद किसी और को मत दिया होगा । चुनाव लगातार हो रहे हैं और सुनने में आ रहा
है कि अगले साल शहरी निकायों के चुनाव हैं !