यह श्रद्धांजलि नहीं है उन दो साहित्यकारों के नाम
जिनका हाल ही निधन हुआ है यह एक प्रकार से गुस्से का इज़हार है जो ज़ाहिर है उनके
प्रति नहीं है । यह गुस्सा उनके प्रति है जो जीते जी तो कभी सुध लेते नहीं (हाँ
अपने फ़ायदे की बात हो तो कोई बात नहीं) पर उनके मरते ही यूं दिखाने लगते हैं कि उन
दिवंगतों का उनसे बड़ा हितू / पाठक / करीबी कोई था ही नहीं । यह हास्यास्पद तो तब
लगता है जब ऐसा करने वाले एक नहीं कई देखे जाते हैं कई बार तो यह संख्या हजार के
आसपास भी जाती देखी गयी । भैया जब इतनी ही चिंता थी तो पहले कहाँ कान में तूर-तेल
देकर सोये रहे ।
हाल ही में देश के दो बड़े साहित्यकारों का निधन हुआ
। दोनों साहित्यकार किसी और देश में होते तो उससे ज्यादा बड़े होते जितने कि अपने
देश में थे या हैं । बात राजेन्द्र यादव व विजयदान देथा की कर रहा हूँ । भारत में
पैदा होना उनका एक तरह से देखा जाए तो भारत के लिए अच्छी बात थी पर उनके लिए बुरी
। क्योंकि यहाँ भाषा के नाम पर जो राजनीति होती है उसमें तेलुगू , तमिल या मलयालम में एक
मामूली सी किताब लिखकर कोई व्यक्ति राष्ट्रीय साहित्यिक व्यक्तित्व हो सकता है पर
हिन्दी में लिखकर वह राष्ट्रीय स्तर का लेखक
नहीं हो सकता । हम हिन्दी वाले कितना ही गाल बजा लें पर यह तो स्वीकार करना ही
पड़ेगा कि हिन्दी क्षेत्र से बाहर इन साहित्यकारों के जीने या मरने से कोई फर्क
नहीं पड़ता । वहीं अभी यू आर अनंतमूर्ति की मृत्यु होगी तब यह एक राष्ट्रीय खबर
बनेगी क्योंकि उन्हें जीते जी राष्ट्रीय चरित्र होने का गौरव प्राप्त है । पर
राजेन्द्र यादव या कि विजयदान देथा ज्यादा से ज्यादा किसी हिन्दी के पाठ में
संकलित कर दिए जाएँ और हिन्दी से संबन्धित नौकरियों के एक-दो साक्षात्कार में पूछ
लिए जाएँ तो बस बहुत हो गया । न तो साहित्यकार को इससे ज्यादा चाहिए और न ही उसके
कथित पाठक और हितू को ।
सबसे पहले राजेन्द्र यादव । इनकी मृत्यु जिस दिन
हुई उस दिन मैं दिल्ली में ही था । यहाँ दिल्ली का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ
क्योंकि वर्तमान में यह हिन्दी साहित्य की राजधानी का रूप ले चुकी है । जिन मित्र
के यहाँ ठहरा हुआ था उनके मोबाइल पर रात में ही संदेश आ गया होगा पर किसी भांति
जागने पर सुबह ही वे स्वयं जान पाये और मुझ बता पाये । उसके बाद मैं और दोनों अपने
अपने यंत्रों से फेसबुक की ओर दौड़े क्योंकि बाहर की दुनिया से ज्यादा साहित्यकार , पाठक और साहित्यकारों के हितू
उधर ही पाये जाते हैं तो यहाँ वहाँ फोन करने की ज़हमत उठाने की कोई जरूरत नहीं थी
और वहाँ चूंकि तत्काल फीडबैक देने की सुविधा है तो लोग जल्दी झूठ फैलाने की हिम्मत
भी नहीं करते । चूंकि हम हिन्दी भाषा के छात्र रहे हैं इसलिए हमारा फेसबुक भी
हमारी तरह का है तमाम ‘हिन्दीगत विशेषताओं’ से परिपूर्ण । हमारी तरह ही अ , न, उप आदि से शुरू होने वाले
संज्ञा और विशेषण से युक्त लोग वहाँ हमारे दोस्त हैं हाँ एक दो नामी-गिरामी कथाकार
,
पत्रकार व संपादक हमारी मित्रता सूची को कृतार्थ करने के लिए वहाँ चमकते हैं । यह
भी नहीं कह सकता हूँ कि फेसबुक के तमाम चोर औजारों के रहते हुए हम उन
नामी-गिरामियों की सूची में चमकते होंगे या नहीं । बहरहाल हमारी फेसबुक की दौड़
अकारथ नहीं गयी । वहाँ राजेन्द्र जी की मृत्यु से संबन्धित ही खबरें चमक रही थी ।
हिन्दी वालों के लिए इससे बड़ा न तो कोई साहित्यकार था और न ही इतनी बड़ी कोई खबर ।
यदि मैं अपनी उस दिन की फेसबुक दीवार का पाठ
प्रस्तुत करूँ तो वह एक समूहिक रुदन और समूहिक स्यापे जैसा भाव दे रहा था ।
काल्पनिक भले ही हो पर इतना रुदन तो शायद किसी साहित्यकार की अकालमृत्यु पर भी
नहीं हुआ होगा । लोग जहां से प्राप्त हो वहाँ से ला-ला कर उनकी फोटो लगा रहे थे
तरह तरह के आदर्श और आँसू टपकाते वाक्य और उनसे बना स्टेटस ठेल रहे थे । राजेंद्र
यादव फेसबुक पर भी थे इसलिए उनकी मृत्यु से उपजे दुख के हर कतरे को उनके साथ साझा
करने के चक्कर में उन्हें भी ‘टैग’ कर रहे थे जैसे वे अभी उठेंगे और जवाब भले ही न दें पर इन सब
की संवेदनाओं को समझकर उनके प्रति अच्छी भावनाओं से भर जाएंगे । नए लोग तो इसी बात
भाव-विभोर हुए जा रहे थे कि उनकी राजेंद्र जी से मुलाक़ात हुई थी और वह पहली
मुलाक़ात कैसी रही । सबने अपनी पहली मुलाक़ात का वैसा ब्यौरा पेश किया हुआ था कि
लगता था यार वो आदमी नहीं कुछ और ही था । यदि आदमी होता तो किसी के साथ तो बुरा
बर्ताव करता ।
यह तो निश्चित ही है कि फेसबुक पर व्याप्त व्यापक
रुदन और नाम स्मरण इतना वास्तविक नहीं था जितना कि उसे बढ़ा चढ़ा कर दिखाया जा रहा
था । एक दो लोगों को मैं जनता हूँ जो पहली बार राजेंद्र यादव से जब मिलकर आए थे तो
लगभग गलियाँ सी दे रहे थे पर फेसबुक के उनके स्टेटस के अनुसार उनकी पहली मुलाक़ात
शानदार रही थी और राजेंद्र यादव उन्हें उसी क्षण बहुत आदर्श साहित्यकार और अच्छे
आदमी लग गए थे ।
उस फेसबुकीय रुदन के अवास्तविक होने का दूसरा कारण भी है । जिस
दिन राजेन्द्र जी की मृत्यु हुई उससे तीन-चार दिन पहले ही उनहोने अपनी दीवार पर
अपने और ज्योति कुमारी के संबंध में फेसबुक और उससे इतर मुश्किल से एक दो अन्य
जगहों पर फैलाये जा रहे प्रलाप को अनर्गल कहा था । राजेंद्र यादव इससे कितने आहत
थे इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें उसी ‘पोस्ट’ में कहना पड़ा था कि उनके
और ज्योति कुमारी के बीच में बाप-बेटी का रिश्ता है । मैं इस पर नहीं जाता कि क्या
सच है क्या झूठ और कौन दोषी है कौन निर्दोष पर यह देखने की बात है कि हिन्दी जो जनता
मरने से पहले तक अपने एक बड़े लेखक की नाक में दम किए हुए थी वही उसके मरने के बाद
कितनी बदल जाती है ।
वह लेखक जो मरने पहले तक एक दुर्जय गुंडा था मरने के बाद अचानक से देवता में तब्दील हो गया । उसकी यह तबदीली उसके व्यक्तित्व के बदले हमारे व्यक्तित्व के कुछ कमजोर पक्षों की ओर इशारा करती है । यदि कोई गलत है तो वह जिये या मरे लेकिन गलत है ।
राजेन्द्र यादव के मरने के बाद के कम से कम एक-दो
दिनों के लिए उनकी फेसबुक की दीवार पर लोगों ने जा जा कर बहुत कुछ लिखा और जो जा
नहीं सके उनहोंने जोड़ कर लिखा । लोगों ने फोटो चिपकाए । ऐसे फोटो नहीं जिनमें
राजेन्द्र जी की महत्ता साबित हो बल्कि ऐसे फोटो जिनमें चिपकाने वाले के साथ वह
लेखक हो । मरने के बाद लेखक से आत्मीयता प्रदर्शित करना बड़ा ही आम सा चलन हो गया
है । इससे फोटो लगाने वाला जनता में अपनी रौब गांठ रहा होता है वह भी दिवंगत
व्यक्ति की परवाह किए बगैर ।
... जारी ।
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