अब विजयदान देथा ।
फिर से वही सब हुआ । फेसबुक रंग गया कि विजयदान
देथा सिधार गए । यहाँ-वहाँ से तस्वीरें लायी गयी उसके नीचे भावुक शब्द टांके गए और
छोड़ दिया गया मैदान में लाइक और ‘नमन’, ‘श्रद्धांजलि’ जैसे कमेन्ट पाने के लिए । विजयदान देथा को ‘विज्जी’ लिखा गया ताकि ज्यादा
आत्मीय लग सके । अब चूंकि वे राजेंद्र यादव की तरह सक्रीय रहते हुए नहीं सिधारे थे
इसलिए उन नयों के लिए जिनहोने आज ही जाना कि वे जीवित भी थे , बड़ा असहज मामला हो गया ।
बिचारे बस ‘नमन’ या फिर ‘श्रद्धांजलि’ आदि ही लिख पाये ।
दूसरे वे दिल्ली में नहीं रहते थे राजस्थान
के एक जिला मुख्यालय से अस्सी किलोमीटर दूर के गाँव में रह रहे व्यक्ति तक
पहुंचाना सबके वश की बात नहीं थी इसलिए इस बार थोड़ी सी कमी रह गयी लोगों के पास
वही चंद तस्वीरें हैं जो इन्टरनेट पर हैं । वे न तो दिल्ली में रहते थे और न ही दिल्ली
में आजकल कुछ ज्यादा ही होने वाले ‘साहित्यिक’ जमघटों में जाते थे इसलिए उनके साथ लोग फोटो नहीं
खींचा पाये । गिने-चुने लोगों के पास ‘विज्जी’ के साथ खिंचाई गयी तस्वीर है जिनका दिखावा करने
में वे स्वनमधन्य गिने-चुने जरा भी नहीं चूक रहे हैं । यहाँ पहली मुलाक़ात कैसी रही
इसका भी अभाव देखा गया क्योंकि हिन्दी साहित्य का व्यक्ति दिल्ली में किसी से मिल
ले और इन्टरनेट पर कहानी कविता पढ़ ले लेकिन राजस्थान जाकर एक मरणासन्न व्यक्ति से
नहीं मिल सकता और किताबें खरीदकर नहीं पढ़ सकता ।
आगे इन साहित्यकारों के मरने के बाद फेसबुक पर यह
होड भी लगी थी कि कौन किस्से बेहतर तरीके से यह लिख दे कि इनके मरने से साहित्य
में एक शून्य आ गया , जगह खाली हो गयी , खालीपन की भरपाई नही हो सकती वगैरह । साहब जगह तो
मामूली से पिल्ले के मरने के बाद भी खाली हो जाती है और ठीक उसी के द्वारा भरी जा
सकती है जो कभी नहीं हो सकता फिर साहित्यकार तो साहित्यकार है । उस पर इस तरह से
कहना कि शून्य आ गया या कि और इसी तरह की बड़ी बड़ी उदास बातें बहुत सही नहीं है ।
एक साहित्यकार अपने हिस्से का साहित्य लिखकर मरा । कई ऐसे साहित्यकार हैं जो न तो
शून्य होने दे रहे हैं और न ही देंगे फिर ये शून्य हो जाना व्यर्थ की बात ही लगती
। किसी भी पेशे, व्यवसाय या कला - संस्कृति में लोगों के मर जाने से यदि शून्य
होने लगा तो इन सबका भट्ठा ही बैठ जाएगा । फिर ये तो है ही कि हिन्दी में जब
प्रेमचंद के चले जाने से कोई शून्य नहीं आया तो किसी और के जाने से क्या ही होगा ।
इसके बावजूद लोग लगे हैं अपनी दीवार पर लोगों को आकर्षित करने में ।
बीबीसी की साइट पर छपे केदारनाथ सिंह से संवाददाता
की बातचीत पर यकीन करें तो पता चलता है कि विजयदान देथा लंबे समय से बीमार थे और
उनकी हालत बहुत खराब थी यहाँ तक कि वे बोल भी नहीं पाते थे । लेकिन इस बाबत एक दो
खबरों के अतिरिक्त किसी की फेसबुक की
दीवार पर उनका नाम नहीं पाया । दरअसल साहित्यकारों का मरना देश के लिए कैसी भी
क्षति क्यों न हो फेसबुक पर लोगों के लिए बड़ा ही कौतुक का विषय हो जाता है । जहां
संवेदना दिखाने के बदले बटोरा जाता है और जो उसमें विघ्न डाले वह शाश्वत दुश्मन ।
आगे थोड़ी सी बात हमारी इस प्रवृत्ति से हो रहे
नुकसान की ।
हम हिन्दी के लोग अपने साहित्यकार को तभी महत्व
देते हैं जब वह मर जाता है । वहीं बाहर के देशों की बात को ताक पर रखते हुए अपने
ही देश की अन्य भाषाओं की के लेखकों की बात करें तो वह अपने जीवन काल में ही वह
ख्याति अर्जित कर लेता है जिसका वह हकदार है । इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण है उसके
साथ एक पाठकवर्ग का होना उसके प्रशंसकों का होना । यहाँ हिन्दी में पाठक ही लेखक
है और हर पाठक को किसी न किसी लेखक से खुन्नस है जो खुन्नस उसके ऊपर की पीढ़ी ने
उसे हस्तांतरित की है साहित्य में व्याप्त अलग अलग धड़ों के नाम पर । जब साहित्य ही
धड़ों में बंटकर एक दूसरे के विरुद्ध बात करने लगे तो लेखकीय सम्मान और उसकी गरिमा
की बात कहाँ से करे कोई । विश्वविद्यालयों में नौकरी दिलाने के नाम पर समीक्षा
लिखकर स्थापित करवा देने के नाम पर गठजोड़ बनाए जा रहे हैं जो साहित्य से पाठकीयता
का अंत कर उसे और उसके वाहकों को फ्रेम से बाहर हटा रहे हैं ।
Ye dusara episode hame bahut pasand aya......
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