शाम की हवा यूं मचलती है कि अपनी कुव्वत
भर मन रोमचित हो उठता है । फिर बात तेजी से लहराते नारियल के पत्तों तक सीमित नहीं
रह जाती बल्कि पहाड़ी रास्ते पर दूर किसी गाड़ी की आवाज़ भी लहराती मालूम पड़ती है । दिन
कितना भी गरम क्यों न हो शाम किसी भी अवसाद की गिरफ़्त में आने नहीं देती । इसका चेहरा
बनाया जाए तो वह हवा की तेज़ लहरों से ही बनेगा । तेजी से बंता बिगड़ता शाम का चेहरा
! ये बनना - बिगाड़ना इतना तेज है कि , बिगड़ने का सहज एहसास भी नही होता ठीक हमारे ऊपर के होठ की
सतह पर बहती गरम हवा सा । शाम की नज़र ज्यों ज्यों ऊपर जाती है सूरज वहाँ टीका मालूम
होता है । वह पहाड़ी की चोटी पर अपनी रोशनी फेंकता हुआ अंतिम तसल्ली लेता है कि मैं
हूँ अभी पर हवा , मन और शाम में से किसी को उसकी परवाह नहीं ! उसकी क्यों किसी की परवाह नहीं क्योंकि सब अभी तो अपने अपने
से बाहर हैं सबसे मिले हुए ।
चाँद दिखे न दिखे
ये पहाड़ चारों ओर अपनी दीवार बनाए हुए हैं
एक दूसरे के हाथ थामे से । दूर उस पर उठता धुआँ कभी कभी यह धोखा भी देता है कि वहाँ
ऊपर बहुत बड़े लोगों ने बड़ी सी हांडी में कुछ पकाने उपक्रम किया हो । जब धुआँ ऊपर काले
पहाड़ों की बस्ती से अपने कई ठिकाने बताता है तो लगता है उन सभी बड़े से लोगों ने किन्हीं
और बड़े लोगों के समूह को न्योता दिया है । और मोटाते अंधेरे में जब देखो तो पहाड़ पर
एक मोती रेखा दिखाई देती है - लाल लाल । इतना लाल जैसे भोर का सूरज ! उस रेखा को छू लेने का मन करे और उस पर चलने का भी । पर नहीं
! जरा गौर से देखो वे लपटें यहीं से दिखाई देती हैं । तो ये
पहाड़ की काली बाँहों पर आग की लाल लाल लपटें हैं । सबकुछ कितना अलग लगता है एक मैदानी
आदमी को । लेकिन उसे अनोखा लगने से ये चलन तो बदल
जाएगा । यह तो हर साल होता है जब फरवरी की गरमियाँ शुरू होती हैं तो बांस , पेड़ या सूखे पत्ते आपस में रगड़ खा कर सुलग उठते है और धीरे
धीरे जमता है पहाड़ पर लाल लाल लपटों का एक रेखीय तिलिस्म । यूं तो ऐसा भी है कि ऊपर
लकड़ियाँ हैं बेशकीमती जो तस्करों का निशाना
बनती हैं फिर किसी को शुबहा न हो सो फूँक दिये जाते हैं बाकी के झाड-झंखाड़ । आगे हाथी
मरा भी तो नौ लाख का ! जली हुई लकड़ियाँ एक बेहतर कोयला बन जाती हैं और
चुन कर बेच दी जाती हैं उनको जिनका घर कई तरह से निर्भर है इन मोटे पहाड़ों पर ।
सुबह के सपनों
को हल्की ठंडक झकझोरती है फिर पायताने से कब का नीचे गिर चुकी चादर याद आती
है और शुरू
होती है सपनों को वापस पकड़ने की दौड़ ! हर बार सपना ही जीतता है । आज नींद तब खुली जब
बारिश ने सपने को छलनी कर दिया । जर्जर सपने को जहां से पकड़ो वहीं से भसक जाते
। ये अब तक की थी तो दूसरी बारिश पहली धारासार बिलकुल आषाढ़ के दिनों सी । होते होंगे
आषाढ़ के दिन अन्यत्र पर यहाँ तो यह फागुन का सच है । सुना है जब कहीं काल बैशाखी का
तांडव हो रहा हो तो यहाँ वर्षा रानी का गंभीर नृत्य होता है चहुं ओर लहलहाती हरियाली
के बीच ! बारिश ने अवकाश दिया है तो भाग भाग के अपने काम कर लो नहीं
तो एक छाता खरीद कर उसे अपने शरीर का एक हिस्सा बना लो शाम के टॉर्च की तरह क्योंकि
, यहाँ की बारिश और साँप दोनों जोरदार होते हैं ! बाहर जो पहाड़ खड़े हैं उनसे मोटी भाप उठ रही है झक सफ़ेद और
धार्मिक धारावाहिकों में दिखाये गए स्वर्ग के दृश्यों की झलक से । चारों ओर उठती सफ़ेद
भाप उन काली लकड़ियों की निःश्वास हैं जिन पर कुछ घंटे पहले लाल लाल लपटें नृत्य कर
रही थी रेंग रेंग कर , एक दूसरे से लिपटे हुए । उन लपटों की प्यास का
पानी मिल चुका था इसके बाद भी बहुत सा पानी
बच ही रहा है । वह देखिये शुरू हो गया है बारिश के दिनों में दिखने वाला 'वॉटर फॉल' । उस ऊंचाई से गिरते पानी की आवाज़ इतनी दूर नहीं आती पर उसका
झाग , उसके छींटे मन पर पड़ रहे हैं।
पहाड़ी इलाके जितने
ऊंचे होते हैं सड़कें उतनी ही पतली जैसे एक मोटी रस्सी को पहाड़ के गिर्द कस दिया गया
हो । किसी ऊंची जगह से देखें तो उस पर चलने वाली गाडियाँ रस्सी पर रेंगती चींटियों
की कतार सी लगेंगी पर असल में ये गाडियाँ बहुत तेज़ भागती हैं । जैसे रोज़ रोज़ बजने से
हॉर्न के गले फट गए हों वैसी आवाजें निकालती
पीछे से डराती निकल जाती हैं । दूर से ही वो
पुल दिख जाता है । नीचे नदी है । पुल से नदी और आस पास के पहाड़ों का सौंदर्य हरियाली
, पानी और धूप की चमक से बनता है । तभी पैरों को महसूस होती
है पुल की धड़कन जो किसी भरी वाहन के गुजरने से तेज हो जाती है । पुल का दूसरा सिरा
जैसे किसी गुफा में छोडता हो । उस ओर अंधेरा बहुत है । नदी किनारे के लंबे ऊँघते पेड़ों
से लिपटी लताओं का मोटा और उलझा ताना - बाना सूरज की किरणों की कड़ी परीक्षा लेता जान पड़ता
है तभी तो वे सब सुस्ता रही हैं । दायीं ओर थोड़ी सफाई है या कहिए तो एक चमचमाती सड़क
है पर दोनों ओर वही जंगल और उसकी वजह से अंधेरा । इक्का दुक्का मोटर साइकिल सवार ।
इस क्षण गाय के रंभाने की भी आवाज़ हो तो हाथी की चिंघाड़ सी लगती है । इधर जंगली हाथी
हैं । उस दिन देखा था एक को बहुत तेज़ी से सड़क पार करते हुए । इस सड़क पर लंबी दूरी तक
बढ्ने का अपना मोह है पर बहुत सारा साहस भी कम पड़ जाता है । किसी जंगली फूल और काजू
के पके फलों की मादक महक हो और सहसा नीचे से ऊपर आता हुआ बहुत लंबा टेक (सागवान) का पेड़ फिर उस जैसे पचासियों । उनमें चेहरे उभरने लगते हैं
। वहाँ लगता है कोई तिलिस्म है जो अपने आस पास बना हो ।
वापसी का अंधेरा
कई जीवों की आवाज से भरा है । ये इतने छोटे होते हैं पर इनकी तेज़ आवाज़ तो सुनिए ... । ये यहाँ बचे
रहेंगे । आगे इनकी पीढ़ियाँ भी बची रहें क्योंकि , शहर को बसने - बढ्ने के लिए जो साजो सामान चाहिए वो यहाँ कम हैं । घर बनाने
के लिए पैसे जुटाने से ज्यादा कठिन है यहाँ बालू जुटाना । कहते हैं यहाँ के साँप बहुत
पतले होते हैं पर उससे भी ज्यादा जहरीले । डँसा नहीं कि निपट गए । वो तो ठीक है पर
ये पतला साँप जब एक मेंढक खा ले तो कैसा लगेगा ?