घृणा के तत्वों को तलाशने के लिए आज कहीं जाने और अत्यधिक शोध की भी जरूरत नहीं है क्योंकि ये बड़ी ही सहजता से स्पष्ट हो जाते है । यह वह विद्रूप छवि है जिसकी भारत जैसे देश के लिए कल्पना एक दुःस्वप्न सी लगती है । हम वर्षों से कहते आ रहे हैं कि यहाँ विविधताओं की विविधताएँ हैं और उनका सामंजस्य ! पर क्या यह इतना ही सरल और उचित वाक्य है यह जाँच आवश्यक हो उठती है । अभी अभी छठ का त्योहार बीता है दिवाली बीतते ही जैसे ही इसकी महक आनी शुरू होती है कि नफरत का वातावरण तन जाता है । दिल्ली जैसी जगह में किसी बिहार वासी के लिए ये दिन कुछ अफसोस जनक तनाव में बीतते हैं क्योंकि छठ तो बिहारी मनाते हैं , इससे हर जगह जाम लग जाता है , इसलिए बिहारी, छठ और जाम सब घृणा के पात्र हैं । बस में कोई बिहारी नहीं होता ऐसा मानकर नितांत संवेदनहीन तरीके से अपनी अपनी कुंठा बिहारी मत्थे पर उडेली जाती है मसलन 'हर जगह बिहारी भर गए हैं ' बिहारी ये क्या मनाते हैं ''छूट'' ' अब देखना कितना जाम लगता है ' ! जरा सोचिये क्या जाम के लिए छठ या बिहारी जिम्मेदार है ! दो दिनों के त्योहार के अलावा भी तो दिल्ली में जाम लगते हैं वह भी आए दिन लगते रहते हैं तब कोई नहीं कहता कि ये बिहारियों के कारण लगते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जाम में उनका कोई हाथ नहीं है । फिर छठ के समय ऐसा कहने का तात्पर्य और उद्देश्य क्या हो सकते हैं ? यह दरअसल वह स्थिति है जब हम कह सकते हैं कि भारत के भीतर आपसी सामंजस्य नहीं बल्कि टकराव है ; एक समूह जो कुछ नहीं करता है उसे करने वाले समूह को घृणा से देखता है और यह दोतरफी प्रक्रिया है । इसकी शुरुआत बच्चे के जन्म से ही हो जाती है । धर्म, जाति ,भाषा और रंग के माध्यम से उसमें विशिष्टता का भाव भरा जाता है जो नफरत के लिए आधार तैयार करता है । यही वजह है कि एक भौगोलिक सीमा के बाहर वे विशिष्टताएँ पाए जाते ही घृणा का भाव आ जाता है ।
इस घृणा को छठ के सिलसिले में देखना इतना सरल नहीं है इसमें कई और पक्ष हैं जो इसे मजबूती प्रदान करते हैं । वर्चस्वहीनता ऐसा ही एक पक्ष है । यह पर्व वस्तुतः किसानी जीवन का पर्व है और यह खेती के उत्पादों के प्रसाद के साथ सूर्य के लिए एक धन्यवाद ज्ञापन है । इस तरह से यह एक ऐसा त्योहार है जिसमें विशिष्टता की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है जिस कारण इससे जुडना कोई विशेष अर्थ नहीं रखता और यही उसके सम्मान को भी आघात पहुँचाती है । यदि यह त्योहार केन्द्र के आसपास के क्षेत्र का होता तो उसकी स्वीकृति सहज हो जाती जैसा कि करवा चौथ के सिलसिले में देखते हैं ।
आगे छठ पर्व सामान्य खेती के उत्पादों को ही कंज्यूम करता है और इसे ज्यादा से ज्यादा सरल बनाए रखने का प्रयास किया जाता है इसलिए बाजार के लिए इसमें घुसपैठ न के बराबर है और ज्यादा संभावना भी नहीं है । इसका परिणाम यह होता है कि इसे कुछ फलों की बिक्री के अलावा अनुत्पादक ही मान लिया जाता है जिससे इस लाभ हानि के दौर में हर किसी को बाप बना लेने की सामान्य प्रवृत्ति से छूट मिल जाती है ।
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