एक कविता पढाता हूँ उषा । कविता शमशेर की है और लगी है कक्षा 12वीं में । यूँ तो इसका आकर और कथ्य बहुत छोटा है पर इसके भीतर के सन्दर्भ बहुत महत्वपूर्ण हैं । हाल के दिनों में इस कविता से एकाधिक बार जूझना पड़ा और वह इसलिए नहीं कि कविता जटिल है बल्कि इसलिए कि कविता इतनी छूट दे देती है कि अपनी और से व्याख्या की जा सके ।
जब इसे मैं अपने छात्रों को पढ़ा रहा था तो स्वाभाविक है कि यह सरल कार्य नहीं रहा होगा क्योंकि जिस वातावरण को कविता में रखा गया है वह इस कदर स्थानीय है कि उसे खींच खांचकर अधिकतम उत्तर भारत तक ही फैला सकते हैं और उसमें आई वस्तुएं तो यूँ कि दिल्ली तक में समझाने के लिए ऑडियो-विजुअल का सहारा लेना पड़ जाए । बहुत मुश्किल से समझा पाया कि चौका क्या होता है और उसको राख से लीपना । ऊपर से यह समझाना तो और कठिन था कि चौके को राख़ से ही लीपने की बात क्यों की गयी है । और नीला शंख । भैया नीला शंख कहाँ होता है ।
कमोबेश यह उन पाठों में से था जिसे पढ़ाने में खासी मशक्कत लगी थी । इसके लिए हम कवि को तो जिम्मेदार नही ही ठहरा सकते पर एक छात्र के लिए और अध्यापक के लिए कवि का ऐसे क्षणों में गले का घेघ बन जाना ही लगता है । तब लगता है कि स्थानीय स्तर पर पाठ विकसित किए जाते तो बहुत बेहतर होता । क्योंकि छात्रों को पाठ में अपना परिवेश मिलता और वे सहज रूप में उसके सन्दर्भों को समझ पाते । एन सी ई आर टी अपने को विकेन्द्रित तो कर रही है साथ ही पुस्तकों के निर्माण में बहुलता को भी स्थान देने का प्रयत्न कर रही है पर स्थानीयता को कम से कम हिंदी में ले पाना उसके लिए अभी भी संभव नहीं हो पाया है । शायद वहां बैठे लोग स्थानीय के बदले हिंदी की केन्द्रीयता को बहुत मानते हैं और चूँकि वह दिल्ली से संचालित होती है तो दिल्ली सुलभ अहंकार का आ जाना कोई अनोखी बात भी तो नहीं है । बहरहाल कविता और उससे जुड़े कुछ और सन्दर्भ ।
अपने यहाँ यह 'उषा' कविता पढाकर मैं ट्रेनिंग के लिए गया था । वहां देश भर में काम कर रहे नए नियुक्त हुए शिक्षक पहुंचे थे अपनी अपनी विशेषताओं और विद्वता के साथ । थोड़े ही दिनों बाद कहा गया कि हम सबको अपन मन से कोई एक पाठ वहां डेमो क्लास के रूप में पढाना है । हममें से एक ने यह कविता चुनी पढ़ाने को । उसने कैसे पढाई और क्या इस पर न जाते हुए यह जानना जरुरी है कि उस दौरान हुआ क्या । वहां छात्र के रूप में हम सब ही बैठे थे इसलिए जो पढ़ा रहा होता था उसके लिए यह जरुरी हो जाता था कि पंक्तियों की व्याख्या में बहुत सावधानी बरते अन्यथा फीडबैक देते समय बखिया उधेड़े जाने की पूरी सम्भावना रहती थी । कविता की पहली पंक्ति पर हइ जबरदस्त विवाद पैदा हो गया । पंक्ति थी - प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे । सारा विवाद इस नीला को लेकर शुरू हुआ । शंख तक तो ठीक है पर नीला शंख ? और यदि आसमान नीला है तो शंख कहने का मतलब ? शंख एक बिंम्ब हैं और उसमें नीला रंग कवि का प्रयोग है आखिर शमशेर भी तो प्रयोगवादी हैं । नहीं जी यहाँ आसमान नीला है और यह शंख पवित्रता का प्रतीक है । अच्छा जी पवित्रता का क्या मतलब है यह तो वाहियात बात हुई । तो क्या यह मामूली कविता नहीं है शमशेर ने लिखी है । इसीलिए कहता हूँ कि शमशेर की कविता को समझ जाना इतना सरल नहीं है । और यदि वहां के समन्वयक बीचबचाव न करते तो आगे बढ़कर यह विवाद कोई भी रूप ले सकता था । और जो सज्जन पढ़ा रहे थे उन्होंने भले ही कितना घटिया पढाया हो इसी बात में खुश थे कि कुछ हो न हो मैंने अपने पढ़ाने के माध्यम से विवाद तो पैदा किया । रे पगले तूने कहाँ विवाद पैदा किया वह तो शमशेर की कविता की उस पंक्ति में अंतर्निहित ही है कि उसकी अलग व्याख्या हो सकती है । हमारी मैथिलि में एक कहावत है कुकुर माँड़ ले तिरपित( तृप्त ) ।
अब देखने की बात यह है कि जिस कविता में स्वयं इतनी अस्पष्टता हो उसे विद्यालय के छात्रों के लिए रखने का क्या तात्पर्य है । ठीक है कि अध्यापक उसे अपने सन्दर्भों से जोड़कर समझाता है और उसे बच्चा ग्रहण भी कर लेता है पर इस नीले की व्याख्या तो जांचने वाले के मन में ऐसी है कि उससे जरा भी अलग हुए तो नंबर गए । हाँ अब यहाँ यह तर्क भी दिया जा सकता है कि कविता अंक प्राप्ति के लिए नही बल्कि समझ बढाने के लिए पढाई जाती है । तो उसका उत्तर ये है कि साहेब कितना भी कर लो अब अंक आधारित पढाई ही हो रही है क्योंकि बाहर की दुनिया उसी की मांग कर रही है । ऐसी दशा में यह कविता नितांत व्यक्तिनिष्ठ अर्थ निकालने की स्वतंत्रता देती है ।
आगे छायावादोत्तर काव्य पर बात करने के लिए बाहर से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के प्रपौत्र - क्रांतिबोध जी आये । बेचारे घर से यह सोचकर चले थे कि शिक्षकों के बीच में जा रहे हैं जो कम से कम हिंदी साहित्य में एम् ए तो हैं ही । अपना पेपर जो उन्होंने रात भर जागकर तैयार किया होगा और कुछ किताबें ताकि कहाँ सन्दर्भ की जरुरत पड़ जाये । सब धरी की धरी रह गयी । उन्होंने भूमिका ही बांधी थी और अपने विषय पर आने ही वाले कि प्रशिक्षुओं में से एक जो पता नहीं क्यों उस उषा कविता को लेकर अपनी पवित्रता वाली बात मनवाना चाह रहे थे खड़े हुए और क्रांतिबोध से आग्रह कर बैठे कि उषा कविता पढ़ा दें । व्याख्या करने भी नहीं बल्कि पढ़ाने का आग्रह । क्रन्तिबोध ने सर पीट लिया । और उन्होंने उसे ज़ाहिर भी कर दिया । उनकी सब तैयारी धरी की धरी रह गयी और बेचारे कुछ और कवियों की वे कवितायेँ पढा कर गए जो 12वीं के पाठ्यक्रम में लगी हैं । यह सीधे सीधे उस पंक्ति के 'नीला' शब्द की अंतिम परिणति थी ।
उस दिन दिल्ली से यहाँ केरल आने के लिए सुबह वाली उडान ली थी । हालाँकि वह सुबह कम और रात का मामला ज्यादा रहा। खिड़की के पास की सीट थी तो रात को दिन में बदलते देखने का अवसर मिला और वह भी खुले आकाश में । जितनी दूर तक आसमान दिख रहा था वह नीला नीला था और जब उसके आकर की बात करें तो कुछ कुछ शंख जैसा परवलित । फिर जल्दी ही नीला हल्का सलेटी होने लगा जैसे किसी छोटे बच्चे की स्लेट हो और उसके नीचे से उठ रही सूरज की लालिमा जैसे उसी बच्चे ने उस स्लेट पर लाल खड़िया घिस दी हो । हवाई जहाज जितनी तेजी से जा रहा था उतनी ही तेजी से वहाँ बदल रहे थइ दृश्य । लाल से सूरज का एक हिस्सा बाहर आया और जल्दी ही पूरा सूरज । हलके सलेटी आसमान पर बड़ी सी लाल गेंद सा सूरज । और अगले ही पल जैसे उषा का तिलिस्म टूटा हो सूरज पीला होता गया और दुसह भी । फिर नींद ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था । पर सच कहूँ तो शमशेर की पंक्तियों का अर्थ वहां आसमान में सूरज को उगते देख कर समझा ।जैसे मैं सूरज को जगाने उसके घर गया हूँ ।
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