अक्टूबर 28, 2013

हिंदी के वारिस (संशोधित)


हिन्दी को पढ़ाना एक तरह से ऐसा कार्य मान लिया गया है जिसके माध्यम से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को प्रसारित किया जा सके । यहाँ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पदबंध का प्रयोग जोर देकर कर रहा हूँ क्योंकि जितने लोगों से यहाँ इस पर बात हुई वे एक तो इसके पक्षधर थे दूसरे प्रकारांतर से ही सही वे इस्लाम व अँग्रेजी का विरोध करते हुए भाजपा के समर्थन तक चले जाते थे ।

यहाँ रहते हुए पहला परिचय जिस व्यक्ति से हुआ वे हर बार फेसबुक , टीवी या अखबार के किंसी कोने में हिन्दू के पक्ष की बात ही खोजते हैं या उस पक्ष की हानि होते देख सीधे विरोध दर्ज कराते हैं । अभी हाल ही में वे एक खबर को लेकर बैठ गए । उस खबर में किसी राज्य की सरकार ने मुस्लिम लड़कियों के किसी खास कक्षा में पहुँच जाने पर स्कूटी देने की योजना बनाई थी । उक्त सज्जन इसी बात को लेकर उक्त सरकार और नेता पर कुपित हो गए । सबसे पहले तो उन्होंने उन लड़कियों को स्कूटी देने पर ही सवाल उठाया और उससे आगे बढ़कर कहने लगे कि हिन्दू लड़कियों ने कौन सा पाप किया है कि उन्हें स्कूटी न दी जाए । आगे उन्हें मुस्लिम जगत की शिक्षा और उसमें भी मुस्लिम स्त्रियों की शिक्षा की दशा बताई गयी । यह तर्क भी  दिया गया कि उनमें शिक्षा को लोकप्रिय बनाने के लिए ऐसे कदमों की जरूरत है । इसके बावजूद उनके चेहरे की तमतमाहट कम नहीं हुई । कहने लगे कि किसने रोका है उनको पढ़ने से ? वे खुद ही नहीं पढ़ते ।
हमारे परिचित बिना जानकारी की अवस्था में ऐसी बात करते तो कुछ भी गलत नहीं माना जाता पर क्योंकि वे सिविल सेवा की लंबी तैयारी और उसके अंतिम चरणों की असफलता के बात मास्टरी में आये हैं इसलिए उनका अनजान होना स्वीकार नहीं किया जा सकता । लगातार वे अपने पूर्व निर्णय और पूर्वाग्रहों से लिपटी टिप्पणी ही करते रहे और अभी भी कर रहे हैं । शायद आगे भी करें । ये उनके स्थायी भाव जैसे हो गए हैं जिसके कारण जान बूझकर वे ऐसे ही प्रसंग तलाश कर लाते हैं जहां से अपनी बात कर सकें ।

पिछले दिनों वे एक और मामला लेकर बैठ गए । फेसबुक पर किसी ने महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नथुराम गोडसे का वह बयान डाला होगा जिसमें वह गांधी की हत्या करने के कारणों को उजागर करता है । उक्त बंधुवर उसे जोर-जोर से पढ़ने लगे । वे इसे प्रामाणिक और तार्किक वक्तव्य मानकर बाँच रहे थे । ऐसा करते हुए उनके चेहरे पर विजयी भाव थे । ऐसा भाव होना गलत नहीं है पर गोडसे की बातों के आधार तो नितांत सांप्रदायिक और असहिष्णु थे । उन आधारों पर गांधी की हत्या को सही ठहरना एक बचपने से ज्यादा कुछ नहीं हो सकती । भारत में रहते हुए इस्लाम या कि अन्य धर्मों के लोगों के साथ हिंदुओं ने समय तो बहुत बिता लिया है पर दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार कर रहना बिलकुल नहीं सीखा । तमाम फर्जीयाना तर्क देंगे पर रहना नहीं सीखेंगे । यह स्थिति कथित ऊंची जाति लोगों में ज्यादा ही दिखाई पड़ती है । जिन लोगों का हक सीधे सीधे प्रभावित हो रहा हो उनका चिल्लाना तो एक बार को स्वीकार किया जा सकता है पर जिनका उससे दूर दूर तक कोई संबंध न हो वे भी ऊंची आवाज में ही चिल्लाते हैं ।

मेरे एक मामा हैं । उनके व्यक्तित्व को समेटा जाए तो यह कह सकते हैं कि अपनी वास्तविक जिंदगी की असफलता को छिपाने के लिए उन्होंने धर्म और अध्यात्म का सहारा ले लिया है परिणामस्वरूप रोजगारपरक असफलता के बावजूद गाँव में उनका स्थान बना हुआ है । अभी हाल ही में जब नवोदय की मास्टरी में चयनित होने की सूचना आई और उसके बाद नौकरी पर जाने से पहले जब घर जाना हुआ तो वहीं उनसे भी मुलाकात हुई । प्रसंगवश माँ ने पूछ लिया कि हमारे दोस्तों में से किन-किन का चयन हुआ । उन्होंने जाहिद के बारे में भी पूछ लिया । माँ किसी न किसी बहाने से मेरे दोस्तों को जानती है इसलिए असफल हो गए मित्रों पर उनकी जो प्रतिक्रिया आई उसका मुझे पहले से अनुमान था । चूंकि जाहिद से मिली थी इसलिए उस पर उन्होने और दुख भरी बात कही । अपने वे मामाजी वहीं बैठे थे । तपाक से कहते हैं अच्छा हुआ साले मियां का नहीं हुआ ... वे बहुत कट्टर होते हैं। सुनकर मन जल गया । पता नहीं माँ को कैसा लगा पर मुझे बहुत गुस्सा आया । मन तो कर रहा था कि बहुत कुछ कहूँ पर इतना ही कहा कि बाभन से ज्यादा कट्टर कोई नहीं होता आप अपने व्यवहार से देख लें। वे चिढ़ के चले गए ।

यहाँ हम 27 लोग हैं । चयन तो करीब पचास लोगों का हुआ था लेकिन जॉइन करने वाले इतने ही रह गए । ध्यान देने की बात यह है कि इसमें एक भी मुसलमान नहीं है दूसरे अन्य धर्मों की बात जाने ही दें । इस स्थिति में अध्यापक के माध्यम से मिलने वाले विभिन्न प्रकार के सामाजीकरण का तो भट्ठा बैठना तय ही है । पहली बात तो यह कि जब सभी हिन्दू शिक्षक ही हिन्दी पढ़ाएंगे तो हिन्दी केवल हिन्दू पक्ष से बात करेगी और उन्हीं की बात करेगी । एक तो हिन्दी की पुस्तिकाओं में यूं ही धार्मिक संतुलन का अभाव है । संतुलन तो जाने दें , किताबों में ऐसे एक से अधिक संदर्भ नहीं मिल पाते जो धार्मिक विविधता को प्रदर्शित करें । ऐसी दशा में शिक्षकों में एक भी एक भी ऐसा हिन्दी का शिक्षक न होना जो हिन्दू से इतर धर्म का संदर्भ लेकर आए तो यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि हिन्दी के माध्यम से क्या दिया जा रहा है या दिया जाएगा । यहाँ मैं अपने को अलग करके नहीं देख रहा हूँ क्योंकि मेरा सामाजीकरण भी इनसे इतर नहीं रहा है ।

यहाँ सोते - जागते , उठते - बैठते दसियों बार ऐसे संदर्भ आते हैं जो तुलसीदास की धार्मिकता और उनकी चैपाइयों तक ही जाते हैं । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जो लोग यहाँ प्रशिक्षण के लिए आए हैं वे अपने विद्यालयों में और अपनी कक्षाओं में अपनी व्यक्तिगत जिंदगी सा व्यवहार नहीं करेंगे । लेकिन आज तक बहुत कम ऐसे लोग सामने आए हैं जो समय समय पर व्यक्तिनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता में अदला-बदली कर सकें । मनोविज्ञान और समाजशास्त्र के सिद्धान्त इस बात का समर्थन नहीं करते कि शिक्षक का व्यक्तित्व उसके अध्यापन और उसकी कार्य-प्रणाली पर हावी नहीं होते । इसलिए कई बार लगता कि , यह सप्रयास किया जा रहा है कि खास धार्मिक चलन डालें जाएँ । आगे प्रक्रिया ऐसी है कि इस प्रयास का पता भी नहीं चल पाता है ।


हिन्दी को एक भाषा की तरह देखने के बदले एक ऐसी भाषा की तरह देखने का चलन बढ़ता जा रहा है जो सांस्कृतिक एकता के बदले एक विशेष प्रकार की संस्कृति को आगे बढ़ाने के माध्यम के रूप में देखा जा रहा है । यह जोर हिन्दी पर संस्कृत के बदले आ गया और उसके तत्वों व मानसिकता के साथ आया है । अब यह अकारण नहीं लगता कि हिन्दी का विरोध क्षेत्र और हिन्दू दायरे के बाहर क्यों होता है ।

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