अक्टूबर 12, 2013

ये उस रात के आंवले हैं


कहाँ बदला है कुछ । ऐसा लगता है जैसे कल भी साथ थे और आज भी साथ हैं और फिर कल शाम भी कहीं उसी बेफिक्री में हँसते बतियाते फिरते रहेंगे । यात्रा से पहले की रात हमेशा से मेरे लिए छोटी होती है और वह दिन लंबा । इसलिए थक जाने जैसा तो लगना तो कोई आश्चर्य की बात रह ही नहीं जाती । विद्यालय में दिए गए सारे कामों से निबटकर ही दिल्ली आना था । यह तो बिलकुल नहीं चाहता था कि काम और मैं दोनों ही साथ साथ सफर करें और वे मुझे अपनी उपस्थिती का अनुभव करवाते रहें ।
 थकी हुई अवस्था और उस पर विश्वविद्यालय के इलाके से अंजान कैब वाले ने उड़ान के लगभग 40 मिनट जल्दी आ जाने का मजा रहने ही नहीं दिया । ऐसा लग रहा था उसे करोल बाग के अलावा किसी जगह का पता ही न हो । कुएं में मेढक कैसे घूमता है गोल-गोल ठीक उसी तरह वह घूम रहा था फिर जब देर होती लगी तो किसी तरह वह लोगों से पुछने को राजी हुआ । इस बीच दोस्तों के कितने ही फोन आ गए ।

दोस्तों से मिलने के बाद मेरे अगले कार्यक्रम तो यूं बदले कि मुझे हवा तक न लगी । यह ठीक वैसे ही था जैसे पुराने दिनों में होता था जब मैं भी यहीं इसी दिल्ली में रहता था इन्हीं दोस्तों के साथ । समान रखने और कपड़े बदलने के दस मिनट लगा लीजिये बस इससे ज्यादा वक्त नहीं लगा फिर से बाहर दिल्ली की गलियों में आने के लिए । दिन भर की उतनी थकान के बाद इस तरह रात बाहर विश्वविद्यालय परिसर में बिताने का विचार एक बार को बहुत अजीब भी लगे पर पुराने दिनों को जीने का लोभ किसी भी चीज से ऊपर था । तय हुआ कि पटेल चेस्ट से कुछ ब्रेड-ऑमलेट जैसा ले लिया जाएगा और फिर थोड़ी सी चाय फिर हम अपनी बेफिक्र रात बिताएँगे ।

पटेल चेस्ट उसी तरह से जाग रहा था जिस तरह से वह जागता आया है । यह छात्रों का इलाका है और इन पढ़ने वालों की दिनचर्या में रात में जागने का अपना स्थान है और इन्हीं के साथ जागते हैं कुछ चाय वाले , पराठे – ऑमलेट वाले और कॉफी वाले । पटेल चेस्ट के इलाके में मैं पहले भी देखता था और कल रात भी वह महसूस हुआ कि दिल्ली में बहुत से ऐसे लोग हैं जो छात्रों के तरह की एक रात बिताना चाहते हैं । उन्हें यह सब थोड़ा कूल और क्रेज़ी लगता है । इसलिए ऐसे लोग भी पटेल चेस्ट पर यूं ही दिख जाते हैं किसी कार में बैठकर गरम गरम ब्रेड-ऑमलेट खाते हुए या फिर कार की दीवार से पीठ टिकाकर अपने स्थानीय दोस्तों के साथ ठहाके लगाते हुए । कल रात भी मैंने हवा में वही परिचित उत्साह पाया जो यहाँ अक्सर रात मिलती है । पटेल चेस्ट के दिन उसकी रातों जैसे नहीं होते । यहाँ के दिन जहां पूरे बाजारी शोर से भरे रहते हैं रातें उतनी ही बेफिक्री , क़हक़हों और हाथ में चाय का कप पकड़े पैदल चलने वाले छात्रों से भरी होती है । दिन में पटेल चेस्ट कितना भी गंदा दिखता हो पर रात को यह प्यारा लगता है । भले रात में यहाँ समोसे जलेबी वालों के ठेले न दिखें पर खाली सड़क पर यहाँ वहाँ बैठे युवकों को यह जितना स्पेस देता है उतना बहुत कम जगह देखा है मैंने ।

पटेल चेस्ट पहुँच कर जब ब्रेड–ऑमलेट ढूँढ़ा तो पता चल गया कि आज क्या अगले दस दिनों तक इधर वो-सब नहीं मिलेगा । दुकानदार ने हमारी तरफ यूं देखा जैसे हमने ब्रेड-ऑमलेट मांग कर कोई पाप कर दिया हो । फिर पराठे और चाय को साथ लेकर हम चले आए आर्ट्स फ़ैकल्टी – हमारी जन्नत । ऐसी जगह से इस तरह दूर हो जाना पड़ेगा ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था । मैं, रोहित और बलराम तीनों जब पहुंचे तो उन लोगों को कैसा लग रहा होगा यह मुझे नहीं पता पर मुझे लग रहा था जैसे घर में आ गया हूँ । वहाँ रात बिताना हम सभी दोस्तों को पसंद है और बुरा हो उस उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग का जिसने ठीक अगली सुबह ही एक परीक्षा रख दी इसलिए सारे दोस्तों एक साथ यहाँ न आ पाये ।

आर्ट्स फ़ैकल्टी ठीक उसी तरह है अपनी दीवारों से बाहर झाँकती हुई और अपने भीतर आमंत्रित करती हुई । यहाँ की रात में बीच बीच में जो रोशनी के चित्ते पड़ते हैं और जब हममें से कोई उस रोशनी में बैठना नहीं चाहता है । आर्ट्स फ़ैकल्टी को अब काफी सजा कर रखा जाता है खासकर पौधों और झाड़ियों को । पर लंबे समय से हमें तो इसकी रात ही पसंद है जिसमें यहाँ किसी सड़क की तरह यहाँ से वहाँ तक एकसार प्रकाश नहीं होता बल्कि प्रकाश अंधेरे के बीच ही यहाँ वहाँ आकार बैठता है । यह शायद हमारे मनोविज्ञान से जुड़ा हो या कि किसी और से ऐसा कह सकना मुश्किल है लेकिन इतना तय है कि विश्वविद्यालय परिसर के हमारे रात के अनुभव यहाँ के दिन के अनुभवों से बेहद ज़ुदा रहे हैं । हमारी बातचीत में शायद ही वे बातें आती थी जो यहाँ दिन में घटित होती हों । यहाँ की रात हमारे लिए उन सब से दूर जाकर पूरी बेफिक्री और हल्की नींद में हमारी बातें, हमारी योजनाओं , कल्पनाओं और सपनों से भरी होती थी । रात हमें विश्वविद्यालयी निराशा में डूब जाने से बचा लेती थी ।

यहाँ के दिन बड़े ही निरर्थक किस्म के रहे हैं । हम सभी दोस्त हिन्दी में एम ए कर के निकले बहुत से दोस्तों ने यहीं से आगे की पढ़ाई जारी रखी लेकिन न हमारे एम ए करते हुए और न ही इनके पीएचडी करते हुए ऐसा कुछ लगा कि हमारे शिक्षक हमें सीखा रहे हैं या कि दे रहे हैं । इसलिए अंडर-ग्रेजुएट में यह विश्वविद्यालय परिसर कितना ही प्यारा लगता हो पर उससे ऊपर की कक्षाओं में जो असंतोष देता है वह निराश से निराश अवस्था तक ले जाती है । कम से कम एम फिल और पीएचडी के स्तर पर गाइड छात्रों से जिस तरह व्यवहार करते हैं और जिस तरह से नियुक्तियाँ बंद हैं और गेस्ट-एडहॉक के लिए जो उपकार कर देने की शक्ति अध्यापकों में आ गयी है इन सबने एक बड़ी निराशा का वातावरण दिया है । यह तो यूजीसी जो यार दोस्तों को थोड़ी खुशियाँ दे रही हैं नहीं तो स्थिति और भी बुरी होती । यही बुरी स्थिति है जो दिन में निराश करती है पर रात की मस्ती के लिए रास्ता भी बनाती है ।

कल रात की आर्ट्स फ़ैकल्टी ठीक उन्हीं मस्तियों को समेटे चलती यदि और यार दोस्त साथ में होते पर यह थोड़ी गंभीर सी हो गयी । बलराम के पास दुनिया भर की कितनी ही अच्छी अच्छी फिल्मों की बातें थी फिर कविताओं पर कुछ बात । मैंने भी इधर बहुत सी फिल्में देखी थी सो वे भी शामिल हो गयी । इधर चार्ली चैपलिन की कई फिल्में देखी और उसके बाद अपने देसी फिल्मों में चार्ली की कितनी ही कॉपियाँ दिख गयी । कवि शैलेंद्र ने क्या फिल्म बनाई थी तीसरी कसम । पहली ऐसी फिल्म जिसमें राजकपूर चार्ली की छवि से निकलकर शुद्ध गाड़ीवान लगते हैं । और पहली ऐसी फिल्म जहां राजकपूर राजकपूर भी नहीं लगते । बलराम ने शैलेंद्र और शंकर जयकिशन का प्यार हुआ इकरार हुआ है गाने वाला किस्सा भी बताया । शैलेंद्र ने उस गाने में एक पंक्ति लिखी थी – रात दसों दिशाओं से कहेगी अपनी कहानियाँ जयकिशन इसमें चार दिशाओं को रखने की बात ही कर रहे थे । उनका कहना था कि दर्शकों में से बहुतों को नहीं पता होगा कि दिशाएँ दस होती हैं इसलिए इसे चार कर देना उचित होगा । इस पर शैलेंद्र का मानना था कि दर्शकों की रुचि और उनको जानकार बनाने का दायित्व हम है इसलिए दस दिशाओं का जिक्र तो आना ही चाहिए जो आया भी है । फिर मैं और बलराम निकल गए फिल्मवालों में कम होती सेंसिटिविटी और ज़िम्मेदारी लेने की प्रवृत्ति पर । फिर मेरा प्रिय ईरानी सिनेमा । कई बार लगता है कि ईरान में समस्याएँ ज्यादा हैं तो फिल्मों के लिए विषय भी इसीलिए उनके पास बहुत ज्यादा हैं । समस्याएँ तो अपने देश में भी उससे कम नहीं हैं पर कहाँ बन पाती हैं वैसी फिल्में । बातें होती रहीं ।

इधर रोहित कभी कभी अपनी बात कहता फिर फ़ैकल्टी के पत्थर की बेंच पर उसी मुद्रा में लेट जाता । मैं और बलराम और बातें करना चाह रहे थे । इस बीच मुझे ध्यान आया कि अब रात को इधर आए ही हैं तो क्यों ने आँवले तोड़े जाएँ । आंवले का पेड़ उधर कान्फ्रेंस सेंटर के बाहर की पटरी पर है । हमने कई बार वहाँ से आंवले तोड़े हैं वह भी आधी रात के बाद जब विश्वविद्यालय के गार्ड नींद की झपकियों में मशगूल हो जाते हैं । फिर गहरे सन्नाटे में पेड़ पर डंडे पड़ने की आवाज और उन डंडों से लगकर आंवलों के टपकने और फिर डंडे का पटरी पर गिरने इस सब की आवाज इतनी आकर्षित करती है कि यह काम बार बार करने का मन करता है । रोहित ने जाने से माना कर दिया तो मैंने उसे याद दिलाया कि वह ऐसा कई बार कर चुका है और उसे ब्लेकमेल करने के लिए यह भी बोल दिया कि – हाँ ये अलग बात है कि तब वह पीएचडी का छात्र नहीं था और न ही जेआरएफ ही था । जब उसके एलिटिया जाने की बात कर दी तब वह उठ कर आया इसके बावजूद वह आर्ट्स फैक के गेट पर बने गोल पत्थर पर ही बैठा रहा ।
मेरे लिए आंवले तोड़ना तो बहाना था । इसी बहाने उस सब चीजों को महसूस करना चाहता था जो अब नहीं कर सकता या नहीं कर पाता हूँ । वहाँ केरल में हमारे विद्यालय में भी आँवले के पेड़ हैं पर वहाँ मैं उन आंवलों पर डंडे नहीं चला सकता । मैं अपने तरह की छिछोरी हरकतें नहीं कर सकता । यह बाहर से बहुत मामूली लगें पर इन्हीं सब से हमलोग बने हैं और आँवले के खट्टे स्वाद में ही खुशियों की तलाश हो जाती है ।

बलराम अभी भी बातें कर रहा था । हम पानी के लिए आईआरसीटीसी की कैंटीन गए वहाँ पानी 
नहीं आ रहा था फिर बढ़ गए लॉ फ़ैकल्टी की ओर । वहाँ पानी मिल गया । वहाँ तक जाते जाते हम सब को लग गया था कि मैं वहाँ केरल में क्या सब मिस कर रहा हूँ । मैं जो चीज सबसे ज्यादा याद करता हूँ वह है अपनी तरह की बातें और अपने ही तरह के मन की करने वाले लोगों के न होने की । यही वजह है कि दिल्ली मुझसे बाहर नहीं जा पाती । एक तो यहाँ अपने जैसे लोग हैं दूसरे यहाँ अपनी तरह का करने का अवसर भी है । इस शहर को दो तरह से व्यवहार करते देखा है मैंने अपने साथ । पहले जब मैं अपने को इस शहर में शामिल नही करता था तो शहर मुझे बहुत नीरस लगता था ये बात तब की है जब मैं अपने सहरसा के दोस्तों के साथ रहता था और हमारी सारी गतिविधियां उसी दायरे में होती थी । उस समय दिल्ली किसी भी अजनबी जगह की तरह ही था मेरे लिए जैसे कि आजकल विद्यालय के बाहर का केरल । बाद में जब एमए करते हुए पुराना दायरा टूटा और पहले एक नया दायरा बना फिर तो दायरे का विस्तार हुआ, नए नए दायरे बनते चले गए । इस प्रक्रिया में यह तो हुआ कि समय और ऊर्जा की खूब खपत हुई लेकिन असल सीखना इसी दौरान हुआ । इसलिए जबतब मन उसी सेट- अप को तैयार करने और उसमें रहने को मचलने लगता है । इस क्रम में यह भी देखा कि इस शहर ने अकेलापन महसूस करने नहीं दिया । हो सकता है यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो लेकिन यह इतना बताने के लिए काफी है कि कमलेश्वर की कहानी  खोयी हुई दिशाएँ और शचीन्द्र आर्य का अकेलापन भी मेरी तरह उनके व्यक्तिगत अनुभव हैं । आप समाज में जितना प्रवेश करेंगे उतना ही समाज आपको दिखेगा । यदि आपने अपने दायरे को छोटा कर के अपने तक सीमित कर लिया है तो समाज का आप तक आना बहुत कठिन हो जाता है । धीरे धीरे यह स्थिति आपको अपने तक सीमित कर देती है । जिन लोगों से कम से कम साल में एक बार मिलने का वादा किया होता उनसे सालों बाद भी मिलना संभव नहीं रह जाता ।

इसी बीच चलते चलते बलराम ने किसी विचारक का नाम बताया जिसका मानना है कि हम दुनिया में इस तरह जीते हैं कि मानव ही सबसे महत्वपूर्ण प्राणी है और जो इसकी समस्याएँ हैं वही जरूरी समस्याएँ हैं । विश्व भर के लोग उन्हें ही हल करने में लगे रहते हैं । बात तो पते की है । हमारा दर्शन , कला, साहित्य, विज्ञान , समाजशास्त्र , फिल्में और न जाने क्या क्या सब केवल मानव केन्द्रित ही हैं और सबका केंद्रीय भाव यही रह गया कि किस तरह मानव और इसकी चीजें बचाई जाए । इससे बड़ा स्वार्थ क्या हो सकता है ।
इसके बाद अचानक से ध्यान गया कि आर्ट्स फैक में प्रवेश करने से लेकर वहाँ बैठकर पराठे खाने , आंवला तोड़ने और पानी लाने तक के क्रम में दो कुत्ते कितनी आत्मीयता से हमारे साथ चल रहे थे । हम अपनी बातों और अपने आप में इतने मशगूल थे कि उनकी ओर ध्यान तक भी नहीं दे पाये ।

बलराम और बैठना चाह रहा था पर मैं और रोहित काफी थक गए थे और अब ऐसा लग रहा था कि यदि नींद न ली तो दूसरे दिन पर इस रात का असर जरूर होगा । हम बलराम को इसी बात पर राजी करा पाये कि बढ़िया सी चाय के बाद उसके घर के बाहर वाले पार्क में बतियाएंगे । पर नींद इस कदर हावी थी कि बिना चाय का जिक्र छेड़े मैं और रोहित सोने का उपक्रम करने लगे । कब नींद आई पता ही नहीं चला । सुबह एक बाद नींद खुली तो देखा उदय आया हुआ है । बाद में पता चला कि हमारे सो जाने के बाद बलराम ने उदय को बुलाया और वे दोनों बाहर गए और दिन निकलने के बाद वापस आए ।



इतने बेफिक्र समय में किसी और बात की जरूरत महसूस नहीं होती है बस यह लगता रहता है कि यही समय चलता रहे और कभी खत्म न हो । बिना ब्रश किए दो पराठे और बड़ी कप में चाय दबा देने के बाद जो आनंद मिल रहा है वह हमेशा की भागमभाग से कितनी राहत दे रही है ।   

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