अक्टूबर 05, 2013

ईसाई लोगों से मिलना


अब तक के जीवन में कभी भी ऐसी जगह नहीं रहा था जहां ईसाइयों की संख्या किसी भी अन्य धर्म के लोगों से ज्यादा हो । हमारे शहर में एकमात्र चर्च है जो हमारे हाई स्कूल के पीछे है । आज यदि और बन गए हों तो अलग बात है । और वहाँ के चर्च अपनी धार्मिक गतिविधियों के लिए कम और मुफ्त ईलाज के लिए ज्यादा जाने जाते हैं ऐसी स्थिति में स्वाभाविक ही है कि मेरे बचपन में या हाईस्कूल – इंटर तक आते हुए भी ईसाई धर्म से संबन्धित किसी कार्यक्रम की कोई छवि हो । ऐसा तो निश्चित ही है कि चर्च के भीतर जरूर धार्मिक गतिविधियां होती होंगी और लोग भी आते होंगे पर बाहर न तो वे कुछ करते थे और न ही मेरी स्मृति में है । दिल्ली में क्रिसमस के मौके पर इसाइयों को बाहर आते देखा । क्रिश्चियन कालोनी में रविवार को उनकी प्रार्थना होती थी जो जब भी अनूप भाई के यहाँ रुकता था तब सुनने को मिलती थी जिसे पटेल चेस्ट में रहने वाले सभी छात्र निश्चित रूप से शोर की संज्ञा ही देते होंगे ।

मैं जिस धर्म में पला-बढ़ा उसने बाकी धर्मों से दूर किया । ऐसा केवल यही धर्म करता हो ऐसा भी नहीं है लेकिन जब मैं अपनी बात करूंगा तो यह पक्के तौर पर कहूँगा कि अपने धर्म ने ही मुझे दूसरे धर्मों से दूर किया और ऐसा ही किसी और धर्म के व्यक्ति के लिए सही है । इस दूरी ने मुझे न सिर्फ दूसरे धर्मों को समझने से रोका बल्कि इसके माध्यम से मैं दूसरे धर्मों के लोगों को अपने और अपने धर्म के लोगों से बिलकुल अलग भी समझने लगा । शायद यही वजह है कि अपने सहरसा की समूची आबादी में से मुसलमान तो याद हैं पर ईसाई याद नहीं हैं । मुझे याद है जब मैं ओंकार मास्टर से ट्यूशन लेने जाता था तो अमित इंटरप्राइजेज़ के बाद मिशन स्कूल के आसपास एक छोटी से ईसाई बस्ती जरूर दिखती थी । मैं उन्हें दूसरे दर्जे के लोग मानता था । ईसाई स्त्रियाँ सहरसा की आम स्त्रियॉं की तरह घर के आसपास भी साड़ी में नहीं बल्कि नाइट गाउन में रहती थी । उनके घर सजे होते थे । कोई कंदील या तारे की आकृति का कुछ जरूर टंगा होता था । ठीक हमारे घरों के उलट । दिल्ली में साथ पढ़ते हुए दो-तीन ईसाई दोस्त मिले पर जबतक उनसे मिलना हुआ तब तक मेरी धर्म संबंधी बहुत सी मान्यताओं में परिवर्तन आ चुका था । तबतक सभी धर्म एक से लगने लग गए थे । और अपने से लेकर किसी अन्य धर्म के प्रति रुचि समाप्त हो गयी थी । लेकिन उन दोस्तों में जो मैंने महसूस किया वह यह था कि वे आने – बहाने अपने धर्म की बात करते थे और उनहोंने एक दो बार कोशिश भी की कि मैं उनके साथ उनके चर्च में चलूँ । एक बार ट्रीजा के आग्रह पर मैं मुखर्जी नगर के बत्रा सिनेमा हाल के तलघर में बने चर्च में मैं गया भी था । मुझे अपने बीएड के दिनों का एक किस्सा याद आ रहा है । एक दोस्त हुआ करती थी शीबा जो धर्म से ईसाई थी । उसने मुझसे केवल इसलिए दूरी बना ली क्योंकि मैं धर्म में विश्वास नहीं करता था और उसके क्या अपने धर्म को लेकर कोई ठीक विचार नहीं रखता था ।

बिहार और दिल्ली के किस्सों और यादों से निकल कर यहाँ केरल आ गया । यहाँ आते ही महसूस हुआ कि इसाइयों के जीवन, उनके रहन-सहन के बारे में मेरी जो मान्यताएं थी वह दो कौड़ी की भी नहीं हैं । अब तक ईसाई लोग मेरे लिए कौतूहल का विषय होते थे पर जहां हर कोई ईसाई हो वहाँ कौतूहल का समाप्त हो जाना निश्चित है । अपने सहकर्मी जिनके साथ मैं समय बिताता हूँ , मेरे छात्र , बाहर जो बाल बनाता है , मोबाइल रीचार्ज करने वाला साइमन सभी ईसाई हैं । चर्च जीवन के इतने करीब और इतने ज्यादा हैं कि वे चर्च से ज्यादा कोई संस्थान ही लगते हैं । इस तरह लगभग पहले ही दिन से इतने ज्यादा ईसाई लोगों से मिलना हुआ कि उनके प्रति मन में बैठी बहुत सी धारणाएँ बदली । पहली बार यहीं आकर मन ने इसाइयों को आम इन्सानों की तरह देखना शुरू किया ।

मैं इस तरह से धर्म को देखता था तो इसमें मैं अपना दोष कम और धर्म का ज्यादा मानता हूँ । समाजीकरण के किसी भी सिद्धान्त में धर्म के द्वारा किया जानेवाला समाजीकरण तो कहीं भी  बहुत तगड़ा होता है । भारत में अधिकतम हम इस्लाम के करीब आ जाते हैं क्योंकि उनकी एक ठीकठाक संख्या है । पर ऐसा दूसरे धर्मों के प्रति नहीं कह सकते खासकर ईसाई धर्म के लिए तो  बिलकुल नहीं । धीरे-धीरे यही प्राथमिक समाजीकरण पुख्ता होकर इतना गहरा हो जाता है कि अपने धर्म से इतर धर्म वाले के प्रति इन्तहाई नफरत भर जाती है । शुक्र है इस कदर कट्टर बनने से पहले ही मेरे दूसरे समाजीकरण ने काम करना शुरू कर दिया । बहरहाल यहाँ ईसाई बहुल इलाके में रहते हुए ऐसा लगता है कि सबकुछ तो समान ही है फिर बेकार ही इनके संबंध में मैं अपने पूर्वाग्रह लेकर बैठा था ।

इससे पहले ईसाई को इतने स्थानीय रूप से नहीं देखा था । इसलिए कभी नहीं लगा कि यह बाहर का धर्म नहीं है । लेकिन यहाँ पर आते ही लगने लगा कि यह तो यहीं का धर्म है । हाँ जनता हूँ कि यह सचमुच बाहर का धर्म है पर इसने जिस तरह स्थानीयता को अपनाया बल्कि स्थानीयता जिस तरह से इस पर हावी हुई उसने इसे बाहरी नहीं रहने दिया । एक दिन सड़क पर लोगों की  लंबी-लंबी कतारें देखीं और देखा सबके हाथों में ताड़ वृक्ष का एक पत्ता । फिर आगे आगे एक रथ पर ईसा मसीह का पुतला ले जाते हुए देखा । बाद में अपने परिचितों से ज्ञात हुआ कि यह मान्यता है कि हाथ में ताड़ का पत्ता लेकर गाँव या शहर की परिक्रमा की जाए तो उस ताड़ , नारियल , सुपाड़ी आदि की फसल ज्यादा होती है । आयोजन का इससे स्थानीय उदाहरण नहीं हो सकता । कई बार मैंने यहाँ पर ईसा मसीह के पुतले के साथ स्थानीय लोगों के पुतले भी लोगों को ढ़ोकर परिक्रमा करते देखा जो यहाँ के वर्तमान निवासियों के पूर्वज थे । हर नुक्कड़ पर कम से कम एक छोटा सा चर्च तो है ही जहां सुबह घंटा बजता है और शाम को मोमबत्तियाँ जलायी जाती हैं । यह सब ठीक उसी तरह लगता है जैसे हिन्दू बहुल इलाकों में नुक्कड़ पर हनुमान का मंदिर हो । 

इस धर्म को लेकर मुझे सहरसा और दिल्ली के सुखी लोगों का ही जीवन याद आता है और जेहन में वही सुखी लोगों की छवि बनती है । लेकिन यहाँ आकर जाना कि अनपढ़ टेरेसा मार्टिन जो विद्यालय के भोजनालय में काम करती है उसका और हमारी प्रधानाध्यापिका दोनों का धर्म ईसाई ही है जो कम से कम मेरे लिए तो नयी बात थी । हाँ यहाँ झारखंड और छत्तीसगढ़ के जंगलों के ईसाइयों के उदाहरण दे सकते हैं जो गरीब हैं पर चूंकि मेरी मान्यता मेरे आसपास के समाज को देखते हुए बनी है इसलिए वास्तविकताओं को देखने और मेरे पूर्वाग्रहों कर निर्माण मेरे उसी वातावरण से होगा । ऐसे में मुझे कई बार लगता है कि टेरेसा जो अब बूढ़ी हो चली है उसके इस नाम का क्या अर्थ है या इससे जुड़ी कोई कहानी है या फिर कोई व्यक्ति यह उसे पक्का नहीं पता होगा ।


यहाँ इस धर्म को जितना देखा उस आधार पर कहा जा सकता है कि धर्म का स्वरूप बहुत हद तक उसके मानने वालों की संख्या और उनके स्थानीय चरित्र पर निर्भर करता है । भारत में ईसाई धर्म ने भारतीय चरित्र ग्रहण कर लिया है । परंपरा से भारत में हिन्दू उपासना पद्धति रही है और इसके तौर तरीकों का प्रभाव ईसाई धर्म पर भी स्पष्ट दिखता है । सबसे पहले तो त्योहारों की अधिकता ही इसका प्रमाण देती है ऊपर से वही धार्मिक उन्माद इधर भी दिखता है । वही कट्टरता इस धर्म में भी है और सबसे बढ़कर यह कि यहाँ ईसाई धर्म का वह रूप देखा जो अपने तदर्थ चरित्र के बदले स्थायित्व पा चुका है । मुझे इस धर्म के इतने स्थायी होने की उम्मीद नहीं थी और शायद यही वजह है कि मैं इसे गंभीरता से नहीं लेता था । 

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