अक्टूबर 01, 2013

फिल्म बी ए पास की लटपट


एक फिल्म देखी बी ए पास । इस पर बात करने के लिए अब ज्यादा कुछ लोगों ने रहने नहीं दिया है और उस लिहाज से फिल्म पर बात करने का मुझे शऊर भी नहीं है पर हाँ फिल्म ने कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान दिलाया जिसे उठाना जरूरी सा लगता है ।

आजकल छोटे बजट , नए और अ-स्थापित कलाकारों को लेकर फिल्म बनाने का चलन है । कई बार तो यह इस तरह भी देखा जाता है- दो परस्पर विरोधी व्यक्तित्व वाले कलाकारों का एक साथ संयोजन । जहां इस तरह के लक्षण फिल्मों में दिखते हैं वहीं उसकी चर्चा होनी शुरू हो जाती है । चर्चा मिलना बुरा नहीं है लेकिन उन चर्चाओं में सीधे तौर पर इस तरह की फिल्मों को जो स्थान दिया जाता है वह उनको फ़ायदा ही पहुंचाता है । बी ए पास पर बहुत बातें की गयी । इतनी कि लगा ऐसी फिल्म आई ही नहीं अब तक और अब इसके बाद आनेवाली  फिल्मों का एक खंड तो इसकी परंपरा जरूर ग्रहण करेगा । यकीन मानिए ये इस फिल्म पर की गयी बातें ही थी जिन्होंने इसे देखने को प्रेरित किया ।

फिल्म के बारे में यह कहना सबसे जरूरी है कि यह असहज करने वाली फिल्म नहीं बल्कि एक असहज फिल्म है । असामान्य सी स्थितियों को सामान्य बनाने की असहज कोशिश का नतीजा यह है कि फिल्म में बहुत कुछ कहना – समझाना छूट जाता है । कुछ दृश्य इतने अधूरे से गढ़े गए हैं कि फिल्म एक अधूरेपन को पैटर्न की तरह लेकर बढ़ती प्रतीत होती है । फिल्मों के बारे में मेरा मानना है कि यह जितनी ही सहज हो उतनी बेहतर । दर्शकों को आम सी फिल्म में भी दृश्यों के बीच में अंदाजे लगाने पड़ें तो फिल्म अपनी बात क्या रख पाएगी । इसका सबसे बड़ा कारण है साधारण सी स्थितियों में असाधारण सा घटाने की जिद करना । एक बार को यह मान  लेते हैं कि दिल्ली में कॉलबॉय और मिडिल एज़ सेक्सुअल क्राइसिस वाली गृहणियों का होना आम है तो यह इतना मासूम और नाटकीय रह ही नहीं जाता है जैसा साबित करने की कोशिश की गयी है । ऐसी दशा में यह किसी पॉर्न साईट से उठाई गयी एक साधारण कहानी भर रह जाती है जिसे फिल्मी जामा पहनाकर दर्शकों के सामने डाल दिया गया है ।

दिल्ली क्या देश भर ऐसे बहुत से लड़के या पुरुष हैं जो इस धंधे में हैं और ऐसी स्त्रियॉं की भी कमी नहीं ही है जो अपने जीवन के मध्य में हैं जहां पतियों का ध्यान उनकी ओर नहीं है और यहाँ दोनों ही तरह के लोग एक दूसरे के अभाव की पूर्ति करते हैं । ऐसा किसी भी समाज के लिए उतना ही सहज है जितना की सुबह का नाश्ता । पर फिल्म में यह उस सहजता को नहीं बल्कि एक आरोपित नाटकीय सहजता को व्यक्त कर रही है । और निर्देशक की बार बार की जा रही ऐसी कोशिश फिल्म को एकरस और प्रेडिक्टेबल बना डालती है ।

धंधे और शरीर की भूख के चालू से फ्रेम में थोड़ी सी भावना और एक-दो धोखेबाजियों को डालकर इस फिल्म की संरचना पूरी होती है । जिसमें सबसे प्रधान रह जाता है धंधा । धंधे का समाजशास्त्र जो इस फिल्म में है वह कई बार यह संकेत करता है कि करने वाला व्यक्ति धंधा कर के खुश नहीं है । फिल्म के दृश्य बताते हैं कि वह जिस मजबूरी में धंधा करना स्वीकार करता है उसे पूरा करने की किसी जल्दी में वह नहीं है और अंत तक उस मजबूरी से भागने की कोशिश करता रहता है । यह तो उसकी पकड़ की बाहर की परिस्थितियाँ हैं जो उसे अपनी गिरफ्त में ले आती हैं । इस तरह से यह तो साफ माना जा सकता है कि भले ही निर्देशक ने उसे मजबूरी में यह धंधा अपनाते हुए दिखाया लेकिन बहुत जल्द मजबूरी का स्थान मजा ले लेती है जिसे वह किसी हाल में नहीं छोडना चाहता है । जब यही दिखाना था तो उसे भारतीय फिल्मों में सहज उपलब्ध नायकत्व का घिसापिटा चोला देने की क्या जरूरत थी । अब यहाँ यह कह देना सही लगता है कि इस फिल्म की कहानी न तो सभी कॉलबॉय की है और न ही बहुत से कॉलबॉय की बल्कि यह किसी एक की कहानी है । यह किसी एक का होना  सामान्य तरीके से होता तो वह भी स्वीकार्य था लेकिन जिस तरह से परिस्थितियाँ बनाकर उसका सामान्यीकरण किया गया वह पचने वाला नहीं है । और इसे स्थापित करने में जो रुचि दिखायी वही फिर दबंग , सिंघम और चेन्नई एक्सप्रेस के मामले में भी होनी चाहिए क्योंकि ये फिल्में भी खास तरह के नायकों की ही कथा है । वे तो सामान्यीकरण का दावा भी नहीं करतीं ।

इस फिल्म में धंधा केवल नायक ही नहीं करता बल्कि नायक को धंधे में लाने वाली स्त्री भी करती है । उसका धंधा अलग है लेकिन ऐसा प्रत्यक्ष में कहीं भी पता नहीं चलता । दो एक संवादों से इसे समझाने की कोशिश की गयी है जो फिल्म के उसी अधूरेपन का एहसास देती है । ऐसी अवस्था में फिल्म के अंत से पहले का नायक का उस स्त्री पर क्रोध बड़ा ही खोखला और अविश्वसनीय सा लगता है ।

यह फिल्म एक सॉफ्ट पॉर्न है । निर्देशक बकायदा ऐसे तरीके निकालता है जिससे यह तो पता चले कि सेक्स किया जा रहा है या हो रहा है पर देह छिपी रहे । इस तरह यह हार्डकोर पॉर्न  बनने से रह जाती है । आजकल फिल्मों में दिखाये गए सेक्स के दृश्यों के खिलाफ कुछ कहना फैशन के खिलाफ है । इसके बाद भी यह कहने में कोई परेशानी नहीं है कि इस फिल्म में मसाले के चक्कर में बहुत से अनावश्यक अंतरंग दृश्य डाले गए और वह भी लगभग पॉर्न की शक्ल में । फिल्मों में इस तरह के दृश्यों को सहज मानने की मांग कई नए निर्देशक करते रहे हैं और बार बार इसके लिए बाहर की फिल्मों के उदाहरण भी लेते रहे हैं लेकिन अबतक इस तरह के दृश्य कहानी की मांग कम जबरन ठूँसे हुए ज्यादा लगे हैं । और कई बार ऐसा देखा गया कि इन दृश्यों का ग्लोरीफिकेशन केवल और केवल व्यापारिक प्रभाव पैदा करने के लिए किया गया है । आजकल का जो चलन है उसके हिसाब से फिल्मों में यदि अंतरंग दृश्य दिखाए गए हैं तो उसकी प्रासंगिकता खोजने के बजाए उसे स्थापित करने के प्रयास ज्यादा होते हैं । ऐसा लगता है कि सेक्स को स्वीकार करना इंटेलेक्चुअल होने की पहली शर्त हो । ऐसे में इन दृश्यों को ग्लोरीफ़ाई तो किया ही जाता है उन्हें इंटेलेक्चुअलि स्थापित करने की कोशिश की जाती है । यहाँ मैं यह कहना भी नहीं चाहता कि ऐसे काम स्त्रियॉं की तय छवि से बाहर नहीं जा पाते और स्त्रियॉं की छवि धूमिल की जा रही है वगैरह । क्योंकि फिल्में अपने बोल्ड होने को हिन्दी के स्त्री-विमर्श की तरह देह-मुक्ति से जोड़ कर देखने लगी हैं । इसे ही सिनेमा की नयी धारा स्थापित करने का प्रयास कर रही है ।

फिल्म बी ए पास के बहाने से एक और बात कहनी जरूरी सी लगती है कि ये फिल्में भाव के स्तर पर जुड़ नहीं पाती हैं । निर्देशक का पूरा ध्यान एक – एक दृश्य बनाने पर लगा था । दृश्य भले ही आकर्षक बन पड़े हों पर वह समग्र रूप में कोई भाव जगाने में पूरी तरह अक्षम थे । यदि वह नायक उलझन में था तो वह उलझन अंत के एक मिनट के अलावा कहीं नहीं दिखाई पड़ा तब तक ऐसा लगता रहा कि, जो – जो सोच रखा था वही हो रहा था जिसमें बांधकर रखने की कोई क्षमता नहीं थी । फिल्म के सारे चरित्र रूढ़िबद्ध ही थे कहीं कुछ भी अप्रत्याशित सा नहीं था । फिर केवल सेक्स के दृश्यों के नाम पर फिल्म को अलग कहा जा सकता है क्योंकि इसने सॉफ्ट पॉर्न जैसी चीज पेश करने की हिम्मत की ।


हिन्दी फिल्मों के निर्देशक कॉलेज को जिस तरह से बरतते हैं वह अपने आप में बहुत रोचक तो है कि बल्कि कभी कभी यह भी समझाने से चूकता कि निर्देशक की कॉलेज संबंधी समझ बड़े दिवालियेपन की शिकार है । एकाध फिल्मों को छोडकर कोई भी फिल्म कॉलेज को फिल्म में सब्स्टेंशिएट नहीं कर पायी हैं । फिल्म और कॉलेज किन अलग अलग धरातलों पर चलते हैं यह तय करना कठिन हो जाता है । मसलन इसी फिल्म को लेते हैं । लड़का कॉलेज में एक दिन दिखता है उसके बाद एक-दो बार कॉलेज की तस्वीर दिखाकर निर्देशक जबरन यह मनवाने की कोशिश करता है कि उसने कॉलेज दिखाया और उससे जुड़े द्वंद्व भी उसने समझा दिए । पूरी फिल्म में द्वंद्व अभिनेता-अभिनेत्रियों के चेहरे पर तो खैर कहीं था भी नहीं ऊपर से जिस नाम के साथ फिल्म बेची जा रही हो उसे सार्थक करने की चिंता कहीं नजर नहीं आई । यहाँ भी अंदाजे को महत्वपूर्ण मानते हुए यदि फिल्म को अच्छा – अच्छा कहा गया तो यह कहने वालों की खुशी थी । 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

स्वागत ...

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...