सुबह
जब तक मेरी नींद खुलती है तब तक सुबह का एक बड़ा हिस्सा बीत जाता है और थमने लगती
है चिड़ियों की आपाधापी और उनका शोर-गुल । सुबह सात बजे का जागना मेरे जैसे नींद
प्रिय आदमी के लिए किसी भी तरह से देर से जागना नहीं है बल्कि मेरे लिए यह तड़के जग
जाने जैसा ही है । पर मैं जहां पर रहता हूँ वहाँ की प्रकृति के लिए सुबह के सात
बजे बहुत कुछ ठहर कर सामान्य हो जाता है । इतना सामान्य कि बहुत स्पष्ट विशेषता न
होने पर किसी भी अन्य स्थान से यहाँ की समानता स्थापित की जा सकती है ।
यहाँ अलार्म जागता है और हर दिन वह अस्वाभाविक सा होता है जो दिन भर असहज किए रहता है । कभी इतनी जल्दी जागना होता नहीं था । जबतक माता-पिता के साथ था या अभी भी रहने का मौका मिलता है तो रात में बहुत जल्दी सोना पड़ जाता है इसलिए सुबह जल्दी उठ जाने से असहजता वहाँ कभी कभी महसूस नहीं होती है । जहां – जहां अकेले रहा वहाँ – वहाँ मैंने ‘रात अपनी है’ का सभी अर्थों में उपयोग किया है – हँसते बतियाते , पढ़ते-लिखते , कोई फिल्म देखते या कुछ और करते हुए । ऐसे में रात के एक बड़े हिस्से का बीत जाना स्वाभाविक ही है । अकेलेपन और स्वायत्तता के मद्देनजर किए जाने वाले कार्यों ने मेरी नींद के घंटे हमेशा कम किए हैं ।
नींद के घंटों के कम हो जाने का ग़म तो होता है पर उससे ज्यादा दुख इस बात का होता है कि , सुबह देर से जागने के कारण मुझसे कितनी चीजें छूट जाती हैं । दिल्ली में यह सब कभी महसूस नहीं हुआ क्योंकि वहाँ प्रकृति के नाम पर जो है वह रिहाइशों से इतनी दूर और इतना कम है कि सबके लिए उसका होना नहीं के बराबर ही है । यहाँ पर जागने से लेकर विद्यालय पहुँचने तक का कार्यक्रम पूर्ण रूप से मशीनीकृत हो गया है । सरकारी काम करने वाले व्यक्ति की जीवनचर्या जैसा । कभी – कभी मुझे लगता है कि मैं किसी कहानी या नहीं तो 80 के दशक के किसी धारावाहिक के सरकारी कर्मचारी का वर्गीय चरित्र निभा रहा हूँ । हर काम में उतने ही मिनट लगते हैं जीतने भर से काम चल सके । जब विद्यालय का बैंड बजना शुरू होता है तब मैं नहा रहा होता हूँ । बैंड के बजने और अपने बचे हुए कामों की स्थिति से अंदाजा लग जाता है कि मैं उस दिन विद्यालय समय पर पहुंचूँगा या विलंब से ।
मुझे यहाँ रहने को जो घर दिया गया है उसके पीछे दो बड़े-बड़े पेड़ हैं । उधर से कई बार गुजरने पर भी आपको नहीं लग पाएगा कि पेड़ अपनी कोई उपस्थिति दर्ज करा पा रहे हैं क्योंकि वहाँ नीचे तो बस उनके तने ही दिखते हैं । लेकिन जब कभी छत पर चले जाइए तब लगता है कि वे पेड़ हैं और घर के साथ साथ मशाल्लाह उनका भी एक रुतबा है । लगभग आधी छत पर उनका कब्जा है जहां वे इस तरह से छाए हैं कि छत पर खड़े किसी भी व्यक्ति से वे बीस रहकर ही बात करेंगे । वहीं पता चलता है कि यह उनका भी घर है । वे बेखौफ छत पर अपने पत्ते गिराते हैं और उतनी ही तसल्ली से अपने बीज भी । बारिश और पत्तों का सान्निध्य पाकर वे बीज छत पर एक छोटी सी नर्सरी का रूप ले चुके हैं । लेकिन इतना तय जय कि , इसके बाद जब बारिश बंद होगी तब ‘संडे –संडे’ को छत पर धूप खोज-खोजकर कपड़े सुखाने वाले लोग उसकी ओर ध्यान नहीं देंगे । बिन पानी के ये नर्सरी थोड़े ही दिनों में सूखे कूड़े में बदल जाएगी जिसे किसी दिन, कोई बुहारकर छत से बेदखल कर देगा ।
इन्हीं पेड़ों में एक नायाब दुनिया बसती है । उस ओर पहले ध्यान नहीं गया था । पता नहीं क्यों आरंभ में मेरा ध्यान बारीकियों के बजाय स्थूल की ओर ही जाता है । मैं पहाड़ों पर फैली घनी हरियाली और उससे उठते बादलों की अठखेलियों , कहीं कहीं से गिरते झरनों को देखकर ही मुग्ध हो जाया करता था । (वे अभ भी अच्छे लगते हैं लेकिन उनसे एक तरह से मन भर गया है । चार महीने तक कोई बादलों , बारिश , पहाड़ और बरसाती झरनों पर ही कितना रीझता रहेगा । अब तो कैमरे की बैटरी चार्ज करने की भी इच्छा नहीं होती । )
पेड़ों की वह दुनिया समान्यतया दिन में नही दिखती है । वैसे सच कहा जाये तो ढंग से देखना तो कभी भी नहीं हो पाया । जब कभी पाँच बजे के आस पास नींद टूटती है या उसके टूटने जैसा महसूस होता है तब उस दुनिया से छोटी-छोटी चिड़ियों की इतनी तरह की आवाज़ें आती हैं कि , गिनने और पहचानने की बात तो रह ही नही जाती उनमें अंतर करना तक संभव नहीं हो पाता है ।
मैं जिस कमरे में सोता हूँ उसकी दोनों खिड़कियाँ बाहर पेड़ की ओर खुलती हैं । बाईं खिड़की के पास ही एक लैम्प पोस्ट है । सुबह मेरे जागने से पहले तक मेरी खिड़की के पल्लों , उस लैम्प पोस्ट , पेड़ की टहनियों और छत के कोरों पर उनकी उछल कूद सुनाई देती है । मैं बस आवाजें सुनता हूँ । लैम्प पोस्ट की लोहे की सतह पर उन पक्षियों के पैरों की खनकती घिसावट सिहरा देती है फिर भी आँख बंद किए नींद को जाने न देने की जिद को कम नहीं होने देता हूँ । कई बार लगता है कि जागने पर मैं उन पक्षियों को देखने की कोशिश करूंगा । संभव है उनकी तस्वीरें उतारने का भी मन कर जाए । जाहिर है मेरा ऐसा करना उनके नियमित कार्यक्रम में बढ़ा डालेगा । उनकी दुनिया में मेरा प्रवेश उन्हें मुझसे भयभीत न कर दे । इसलिए कभी जग भी जाता हूँ तो आँखों को हल्का सा खोलकर जिसे शैलेश मटियानी चिड़ियाँ के चोंच सा खुलना कहते हैं , गोरैयों और उससे भी छोटी एक हरी-सी चिड़ियाँ को खिड़की के पल्लों से लैम्प पोस्ट और उससे कहीं और फुदकते देखता हूँ ।
कई बार मन करता है कि खिड़की की जाली भी खोल दूँ ताकि धीरे-धीरे पक्षियों को मुझसे दोस्ती हो जाए और वे भीतर तक आ सकें । उन्हें पास में रखकर आनंद उठाने का सामंती आकर्षण कई बार हिलोरें मारता है पर खुली खिड़की से पक्षियों के पीछे साँपों के आने भय ऐसा करने से रोकता है ।
यहाँ चिड़ियों की ऐसी दुनिया लगभग चारों ओर बनी है । विद्यालय के बोटेनिकल गार्डन से लेकर घरों के पिछवाडों में लगे केले के झुंडों तक में पक्षियों का फुदकना दिन भर जारी रहता है । फुर्र से कोई बटेर कान के पास से गुजर जाए तो अचंभा नहीं होता । लेकिन चिड़ियों की कलरव का आनंद तो अंधेरे से छूटकर बाहर आती सुबह में ही मिल पाता है ।
पर पक्षियों की केवल सुबह नहीं होती ।
मेरे बाथरूम के रोशनदान में शाम को कबूतरों का एक जोड़ा आकार बैठ जाता है । वह जाली की वजह से भीतर नहीं आ सकता और उसका बाहर जाना बारिश की वजह से संभव नहीं हो पाता है । उनको देह सिकोडकर अपने सभी कार्यकलाप करते देखना अभाव में भी जीवन को आगे बढ़ते रहने वालों की याद दिलाता है । जाली पर उनके पंखों के टकराने की आवाज़ दिल्ली की झुग्गियों के एक कमरे में रहने वाले परिवार की मनःस्थिति से साक्षात्कार करा देती है । गर्मी के दिनों में शास्त्री पार्क की झुग्गियों से बाहर लोगों की नींद अकारण ही अलसुबह नहीं खुल जाती और सड़कें और पार्क मुंह अंधेरे यूं ही नहीं भर जाते ।
अभी
– अभी ओणम का त्योहार गया है । बच्चों ने रंगोली बनाने के लिए सामने वाले पपीते के
पेड़ से सारे फल तोड़ लिए । इससे वहाँ दिन भर पक्षियों की जो भीड़ लगी रहती थी और लगभग
हर दूसरे दिन किसी न किसी फल का पेट फाड़ कर उसके पीले गूदे से पक्षियों के पेट भरने
का जो क्रम चल रहा था वह टूट गया । एक-दो चिड़ियाँ अभी भी आकार पेड़ में आए नए फूल और
बातियों की तो लेती रहती है । उन्हें उम्मीद है पपीते फिर से बड़े होंगे , फिर से उनका भोग लगेगा और
फिर से हिस्सेदारी की मीठी झड़पें हुआ करेंगी ।
sundar vivran.
जवाब देंहटाएंprakash chnadra jha
pra