दिल्ली
छोडने के बाद सबसे बड़ा दूराव मेरा अपनी किताबों से रहा । लगभग जमाई सी गृहस्थी में
समझ सकते हैं कितनी ही किताबें रही होंगी । यूं तो इसकी भूमिका बन रही थी पर अचानक
से एक दिन जब वहाँ का डेरा-डन्टा ही नहीं बल्कि दिल्ली छोड़कर यहाँ सुदूर दक्षिण
आना पड़ेगा ऐसा सोचा नहीं था । इसी न सोचने ने सबसे बुरा यदि कुछ किया तो वह था
किताबों का मुझसे छूट जाना । कोशिश तो की थी कि किताबें आ जाएँ यहाँ भी पर केरल
इतना भी नजदीक नहीं है कि सोचा और ले आए । मूवर्स एंड पैकर्स से भी बात की तो वे
मोल-भाव करते करते पांचेक हजार तक तो आ ही गए थे लेकिन उस समय पाँच हजार बहुत बड़ी
रकम थी । ये ‘उस समय’ उतना भी पहले का नहीं है कि तरस न खाया जा सके । यह इसी साल के
जनवरी महीने की बात है ।
जिन
किताबों को किसी को छूने नहीं देता था और कोई उस जाये भी तो मेरी टोका-टाकी शुरू
हो जाती थी ले जाने की बात तो जाने ही दीजिये उन्हीं किताबों को न जाने किस के
भरोसे छोड़ के चला आया । सोचना यह था कि चलो जी धीरे धीरे कर के तीन-चार यात्राओं
सारी किताबें अपने पास ले जाऊंगा । इसी सोच के साथ जरूरी से भी जरूरी किताबों की
छटाई शुरू हो गयी । ऐसा करते हुए मुझे मिस्टर बीन याद आ रहा था । क्या रखने लायक
है और क्या साथ ले जाने लायक ऐसा तय करना बहुत मुश्किल था और जब कुछ किताबें लेकर
यहाँ आया तो लगा कि जो वहाँ छूट गए वे ज्यादा जरूरी थे । बीच में दो बार दिल्ली
जाना हुआ वहाँ अपनी किताबों को देख कर दुख हुआ । लगा अपने बच्चे को किसी अनाथालय
में छोड़ा हो और वहाँ उसकी दुर्दशा हो रही हो । उन किताबों को पढ़ने वाला तो कोई
नहीं है ये मैं जानता था पर वे इस तरह बोरे में भरकर ऊपर फेंके हुए से रखे जाएंगे
इसकी उम्मीद नहीं थी । इस संबंध में मुझे पिताजी की कई बार दुहराई गयी बात सहज ही
प्रासंगिक लगी कि भाइयों में जब अलगाव हो जाए तो दोनों एक दूसरे के लिए पड़ोसी की
तरह हो जाते हैं । मेरी किताबें भाई के यहाँ थी लेकिन भाई के यहाँ पड़े हुए किसी के
किसी अवांछित सामान की तरह । वे वहाँ अभी भी उसी तरह से हैं और तब तक रहेंगी जबतक
उनका कोई ठोस इंतजाम नहीं हो जाता और तब तक मुझे लगता रहेगा कि वे सब बहुत दुख में
हैं ।
जब
यहाँ आया तो लगा कि धीरे धीरे यहाँ भी उसी तरह से किताबें जुटायी जा सकती हैं और
प्रतिदिन न सही तो कम से कम हफ्ते में एक बार तो हिन्दी की किताबों के लिए एर्णाकुलम
तक जाया ही जा सकता है । पर हफ्तों की बात तो जाने दीजिये महीनों होने को आए और
मैं वहाँ न जा सका । किताबें खरीदने की बात तो दूर रही ढंग का उत्तर भारतीय खाना
खाने भी नहीं जा पाया । ये नवोदयी मशरुफियत है ही कुछ ऐसी कि दो घंटे सोकर गुजार
देना ज्यादा प्यारा लगने लगा है । वह तो भला कहिए विद्यालय का कि आज किताबें
खरीदने की ही ड्यूटी लगा दी और वह भी हिन्दी में । सो सुबह सुबह निकल पड़े जी
किताबें खरीदने वह भी हिन्दी की । मुझे दुकानें तो दो तीन बताई गयी थी पर जिस पर
सबसे पहले जाने का मन किया वह थी दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा केरल की दुकान ।
जो हिन्दी प्रचार सभा के कार्यालय में ही स्थित है ।
दुकान
के अंदर घुसते ही लगा किसी पुराने से पुस्तकालय में पहुँच गया । हिन्दी में एक साथ
इतनी किताबें देखे हुए एक अरसा हो गया था । महीनों से भूखे को यदि ढेर सारा खाना
दिख जाए तो जैसा लगता है ठीक वैसी ही दशा थी । कुछ हो न हो पर इतना जरूर है कि
हिन्दी की किताबें आज भी दिख जाएँ तो मन मचलने लगता है । वैसा सा ही कुछ आज भी हो
रहा था । हिन्दी के सभी नामचीन लेखकों किताबें यहाँ तक कि कुछ नयें उगे हुए लेखकों
की किताबें भी दिख गयी । सभी बड़े प्रकाशकों तक की किताबें । राजकमल की पुरानी
पेपरबैक किताबें भी जिनके दाम आज भी कम हैं । मिथिलेश राय एक कवि हुए हैं वे अपने
एमए के दिनों में जो किताबें पढ़ने के लिए ले गए वे उनके गाँव लालपुर वापस चले जाने
के बाद भी नहीं मिली । वे सब वहाँ पर दिख गयी । राजकमल प्रकाशन ने पुरानी पेपरबैक
किताबों की कीमतें बहुत बढ़ा दी । ऐसे हालत में बेरोजगारी के दिनों में राजकमल
पेपरबैक्स की नयी किताबें खरीदना शाहखर्ची लगती थी इसलिए मिथिलेश द्वारा ले गईं
किताबों के न मिलने की सूरत में मैं उन्हें दुबारा नहीं खरीद पाया । लेकिन आज
हिन्दी प्रचार सभा की उस दुकान में घुसते ही लग गया कि अपने उस छोटे से पुस्तकालय
के सभी खाली स्थान फिर से भर जाएंगे और कई तो भर भी गए । कीमतों में इस अंतर को
समझना कोई बड़ा काम नही है । यहाँ लोग हिन्दी की किताबें नहीं के बराबर खरीदते हैं
और खरीदते भी हैं तो काम भर की उपन्यास और कविता संग्रह तो कतई नहीं । ऐसे में
किताबें पड़ी नहीं रहेंगी तो और क्या होगा उनका आचार तो डलना नहीं है जी । राजकमल
या कि कोई और कमल ने किताबें भेजी पुराने दाम में फिर एक तो वे बिक नहीं रही है
ऊपर से इक्का-दुक्का बिक भी गयी तो कीमत आज की नहीं बल्कि पुरानी ही मिलती है ।
इसके बाद भी राजकमल या कि कोई अन्य प्रकाशन का धंधा बंद करके दूसरा धंधा करने के
बजाय इसी में जमे हुए हैं तो ताज्जुब के बजाय अपना सोचने का तरीका बदलता है ।
गया
तो था विद्यालय की तरफ से किताबें खरीदने लेकिन वहाँ पहले अपने मतलब की किताबें
खरीदने लगा और वहाँ यदि मेरी कक्षा का कोई छात्र होता तो उसे ‘आए थे हरी भजन को ओटन लगे
कपास’
लोकोक्ति समझाने में मुझे कोई कठिनाई नहीं होती । खैर, इस टुच्चे से मज़ाक से आगे
बढ़ते हैं । विद्यालय में हिन्दी पखवाड़ा हुआ था । उस दौरान कई सारी प्रतियोगिताएं
भी हुई थी जिनमें लोगों ने पहला , दूसरा और तीसरा स्थान भी पाया था । अब मामला भले ही हिन्दी का
ही क्यों न हो विजेताओं का सम्मान तो करना ही पड़ता है । उन्हें ही पुरस्कार स्वरूप
हिन्दी की किताबें दी जानी हैं जिसकी खरीद का जिम्मा मेरे ऊपर था । काम-धाम और
दिखने- सुनने में आप जीतने भी नाकारे लगें पर सरकार की नजर में यदि आप
विभागाध्यक्ष हैं तो हैं । फिर सरकार आपको आपकी गरिमा भले ही न दे पर काम तो
करवाएगी ही । मैं भी ऐसा सा फर्जी विभागाध्यक्ष हूँ जो अपने पहली ही नियुक्ति के
साथ इस स्थान पर काबिज हो गया । उसी एवज़ में हिन्दी
पखवाड़े का उदघाटन करना , एक ‘संक्षिप्त सा वक्तव्य’ देना, प्रतियोगिताओं का
निर्णायक बनना और ये किताबों को खरीद कर रख देना आदि करना पड़ा ।
हिन्दी
प्रचार सभा की दुकान में तीन लोग काम करते हैं उन्हें जब पता चला कि मैं सौ के
आसपास किताबें खरीदने वाला हूँ तो उन्होने सीधे भीतर बुला लिया । इसके बाद न जाने
कहाँ से केंद्र के सचिव और उनके पीछे केरल की विशिष्ट ‘फिल्टर कॉफी’ भी आ गयी । तब जाकर लगा
कि यार हाँ थोड़ी तो गाहक की भी रौब होती ही है , फिर पोपुलर कल्चर के कई जुमले भी भी याद आए । सबसे
ज्यादा याद आया निजी कंपनियों में चलने वाला ‘टार्गेट सिस्टम’ जिसके नहीं पूरा होने की स्थिति में कंपनी अपने
कर्मचारियों की छंटनी करती है ।
बच्चों
के लिहाज से ढेर सारी किताबें देखी - तमस , विकलांग श्रद्धा का दौर , स्वदेश दीपक का कोर्ट
मार्शल , सर्वेश्वर की बकरी , आपका बंटी , व्याकरण , शब्दकोश आदि । पर जिस स्थिति में अपने छात्रों को
मैंने देखा है उसमें उनके लिए किसी भी श्रेष्ठ रचना के बदले भाषायी संरचना विकसित
करने वाली पुस्तकें होनी जरूरी लगी । तमाम श्रेष्ठ रचनाओं को परे करते हुए ये
व्याकरण , शब्दकोश और बोलचाल की हिन्दी जैसी किताबें एक अच्छा निवेश लगी
। एक साथ पच्चीस पच्चीस व्याकरण या शब्दकोश न तो छात्रों के पास हैं और न ही
विद्यालय के पुस्तकालय में । इसलिए तमाम कालजयी रचनाओं का मोह त्यागते हुए भाषा की
बात सोचना ठीक लगी ।
दक्षिण
भारत हिन्दी प्रचार सभा के कर्मचारियों ने बताया कि केरल में छह-सात हजार रूपय के
किताबों की बिक्री बहुत कम ही होती है और एक तरह से देखा जाए तो यह उनकी महीने भर
की बिक्री के बराबर है । यह समझना भी उतना ही सरल था क्योंकि संस्थान के सचिव ने बाद
में मुझे बस अड्डे तक अपनी गाड़ी में छुड़वाया ।
काम
जो भी किया हो या कि वहाँ पर जितनी भी आवभगत मिली हो लेकिन अरसे बाद एक ऐसा दिन
गुजरा जो हिन्दी की किताबों को समर्पित रहा । यही वजह है कि अभी भी नाक में पुरानी
पड़ती किताबों की गंध उसी तरह बरकरार है जो अच्छी लग रही है ।
I like your blog very much.
जवाब देंहटाएंYogendra Solanki
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