यह एक ऐसे प्रदेश की यात्रा थी जो बहुत जल्द अस्तित्व हीन होने
वाला है । उसके जिस हिस्से में जाना संभव हुआ उसमें तो अभी से ‘उस’ जुए को उतार
फेंक दिए जाने के चिह्न पहचाने जा सकते हैं । लोग आपसी बातचीत में आवश्यक रूप से
तेलंगाना को शामिल करते हैं और ठीक उसी तरह आंध्रप्रदेश को बाहर रख रहे हैं ! जब
भी तेलंगाना का जिक्र आए बढ़िया मुस्कान खिल जाती है 'तेलंगानी' के चेहरे पर ! बाहर
बैठे लोग बस अंदाजे की फसल काटते रहेंगे कि आंध्रप्रदेश में इतने प्रदर्शन और
विरोध हो रहे हैं तो उसे दो भागों में बांटा न जाये पर तेलंगाना की ख़ुशी और शेष
आंध्र-प्रदेश का रोष देखकर तो यह बस थोड़ी सी कागज़ी कार्रवाई भर लग रही है .
यात्रा थी ही ऐसी कि तेलंगाना क्या समूचे आंध्रप्रदेश को करीब
से देखने का मौका मिल गया । दक्षिण के अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है यह राज्य !
दूर-दूर तक फैले धान के खेत , बीच में कहीं मक्के की गहरी हरियाली , लंबे से तने पर
मुट्ठी की शक्ल में बैठे बाजरे और लगभग पूरे दक्षिण भारत के सांभर के लिए भिंडी की
फसल देने वाले खेत ! इतना ही नही जब घर इंसान और जानवरों की शक्ल देखी जाए तब भी लगता
था कि बस उत्तर भारत में ही कहीं चल रही हो ! हाँ इसमें उत्तर की स्पष्ट छवि भरने
के लिए चमकदार बढ़िया सड़कें और खेतों में खड़ी पहाड़ियों को निकालना पड़ेगा इसके
बावजूद इसकी तमाम दक्षिण भारतीय विशेषताओं के विपरीत यह प्रदेश उत्तर का गुमान
देती है ! उत्तर को खोजते रहने की मेरी यह प्रवृत्ति सामान्य मानवीय प्रवृत्ति ही
है जो अपने आसपास के प्रति आकर्षण महसूस करता है और न हो सके तो उस जैसा खोजने की
कोशिश करता है . यहाँ दक्षिण में रहते हुए उत्तर की तलाश करना इसी प्रक्रिया के
तहत है .
वह बस यात्रा थी . 35 घंटे से ऊपर की बस यात्रा जिसमें डेढ़ हजार
किलोमीटर नापे गए . इतनी लम्बी यात्रा में मौसम का अपना मिजाज़ लगातार ज़ाहिर होता
रहा . कुछ किलोमीटर यदि बारिश थी तो आगे के किलोमीटर बेख़ौफ़ धूप के नाम रहते . फिर
कहीं बादल तो कहीं लगातार जंगल की हरियाली . पहाड़ी रस्ते पर जब बस चक्कर काटती तो
पेट में अजीब सी हलचल होती और लगता कि वहां कोई मंथन सा चल रहा हो और उसके
परिणामस्वरूप कुछ भी बहार आ जाये . और कईयों के तो बाहर ये भी ! पहाड़ी रास्ते के
दोनों तरफ कहीं भी चले जाइये खूबसूरती तो रहती ही है . पहाड़ी के एक ओर झांकता सूरज
तो दूसरी और उस सूरज की छाया . इसके बाद जब समतल पर बात होती तो राष्ट्रीय
राजमार्ग प्राधिकरण द्वारा निर्मित लम्बी-चौड़ी , चिक्कन-चुनमुन ‘फोर-लेन’ सड़क .
भाषा के नाम पर अपने देश में बहुत बाते होती हैं खासकर दक्षिण
भारत में . उत्तर में तो इसकी कोई जरुरत ही नहीं पड़ती पर दक्षिण भाषा को लेकर बड़ा
सजग रहता है . वह बार बार यह जरुर जता देता है कि इधर हिंदी नही चलेगी . लेकिन यह
जताना पूरी तरह राजनीतिक है ऐसा कह दिया जाना कोई बड़ी बात नहीं होगी . इस यात्रा में मैंने बहुत सी हिंदी देखी जो शायद किसी भी भाषा
की किताब में तो न मिले लेकिन आम जीवन में इस तरह काम करती थी कि सोच के दांग रह
जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता था . अपनी अपनी क्षेत्रीय भाषाओँ की विशेषताओं
से लबरेज हिंदी के एकाध क्रियाओं से जोड़ कर बोली जाने वाली ऐसी कम से कम दस भाषाएँ
देखी . इन्हें भाषा कहना अपने आप में एक अलग प्रकार की जटिलता पैदा करता है पर वे
सब भाषा का मुख्य काम तो कर ही रही थी . बाजार और रोजगार ने भाषा को राजनीति से बहार
कर दिया है . अब व्यक्ति पर अर्जन का दबाव है जो सीखी गयी थोड़ी बहुत हिंदी में
अपनी स्थानीयता डाल कर बोलने से कम हो रही है .
‘हल्लू हल्लू चल’ , ‘तू शोर नक्को कर रे’ जैसे दकनी हिंदी के
प्रयोग तो खैर आम हैं पर तमिल और मलयालम में एक दो हिंदी की क्रियाएं मिलाकर बोली
गयी भाषा तत्काल जन्म लेती है और तभी मर भी जाती है लेकिन इसके माध्यम से वह बड़ा
काम करके चली जाती है .
केरल से ऊपर बढ़ते हुए राज्य और उसकी आय के साधनों में हो रहे
परिवर्तन से राज्य की स्थिति में होने वाले परिवर्तन तो साफ़ ही दिख जाते हैं .
केरल ज्यादातर पर्यटन , बागानी कृषि आदि पर निर्भर है तो ज़ाहिर है उसे खुबसूरत रहना
पड़ेगा और यह खूबसूरती लगातार दिखती है लेकिन तमिलनाडु आते आते यह खूबसूरती पसरने
लगती है फिर धीरे धीरे विलीन होकर आंध्र-प्रदेश आते-आते धुल उड़ाती हुई सडकों में
तब्दील जाती है . तमिलनाडु का दक्षिणी हिस्सा फिर भी पर्यटन को समर्पित है इसलिए
सड़कें और उसके आस-पास थोड़ी चिकनाई रहती है लेकिन आंध्र-प्रदेश में से तो यह सब
निकाल ही दीजिये . दूर दूर तक फैले हुए खेत हैं , खेतों में पशु हैं और कहीं कहीं
एक छोटी सी पहाड़ी सर उठाये खड़ी है पर लोगों को देखें तो वही परिचित से आत्मविश्वासहीन
चेहरे नज़र आते हैं .
इस सफ़र का ज्यादातर हिस्सा आंध्र में कटा . मैं जिस नवोदय
विद्यालय में शिक्षक हूँ वहां भी और केरल के कुछेक और विद्यालयों को यदि शामिल कर
लूँ तो मैं मानता हूँ कि यहाँ तो ये विद्यालय होने ही नहीं चाहिए . क्योंकि जिनके
लिए इन्हें बनाया गया है वे नहीं दीखते हैं इन विद्यालयों में . लेकिन आंध्र के
जिस विद्यालय में मैं गया हुआ था उसमें जाते ही अहसास हो गया कि यहाँ तो सच में इस
तरह के विद्यालय की जरुरत है जो पढाई लिखाई तो दूर की बात है कम से कम दो जून का
भोजन दे सके . विद्यालय के शिक्षकों से बात हुई तो पता चला कि छात्र छुट्टियों में
घर नहीं जाना चाहते क्योंकि वहां खाने का ठिकाना नहीं है और कई बार खाने के लिए
मजदूरी करनी पड़ेगी . जहाँ हम ठहरे थे वहां दो ही महत्त्वपूर्ण चीज थी एक तो वह
नवोदय विद्यालय और दूसरा एक मंदिर . मंदिर के ही अहाते में एक छोटी से दूकान थी .
उस दस- पंद्रह किलोमीटर के दायरे में आबादी तो बहुत है पर विशेष चीजें यही दो . तब
लगता है कि कुछ वर्ष पहले जब देश में भाजपा की सरकार थी और आंध्र में तेलेगुदेशम पार्टी
की तो उन दोनों के द्वारा बहुप्रचारित सूचना-तकनीक से सज्जित गाँव का नारा क्यों
पिट गया ! खाने के लिए अन्न न हों और रोजगार का अभाव हो तब यदि इ-चौपाल लगे और
नुक्कड़ पर सरकारी साइबर कैफे कितना क्रूर लगेगा !
आन्ध्र का वह हिस्सा अब आंध्र में नहीं रहेगा बल्कि यह कहा जाये
कि आन्ध्र ही नहीं रहेगा . राज्य से अलग होकर एक नया राज्य बनने का भाव ही अपने आप
में मादक है . सन 2000 में मैंने इसे बिहार में महसूस किया था . झाड़खंड बन रहा था
तो बिहार शोक मना रहा था कितने ही स्थानीय गाने दोनों ही स्थितियों को भुनाने के
लिए बने थे . ठीक यही दशा आन्ध्र की देखी . एक हिस्सा अपनी जीत पर झूम रहा है तो
दूसरा रोष से पूर्ण है और वह रोष भी अब धीरे धीरे दब रहा है क्योंकि लोगों को
सरकारी निर्णय में बदलाव के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं . लेकिन दोनों ही तरफ फायदा
उठाने वालों की अपनी ही तरकीब देखी . कुछ खास और चर्चित नेताओं की तस्वीरें और
कटआउट दोनों ही तरफ देखी . मुझे तेलुगु नहीं आती और न ही बस में बैठे किसी अन्य को
लेकिन उन तस्वीरों के भाव और पैटर्न यह बताने के लिए काफी थे कि अलग अलग हिस्सों
में वे अलग अलग मंशा से लगायी गयी हैं .
राजनीती, समाज, भाषा और घुमक्कड़ी से भरी हुई यह यात्रा बहुत
सस्ते में मुझे नहीं छोड़ने वाली .
लिखने को बहुत कुछ और भी है बस समय मिलने की बात
है ....
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