(इस पोस्ट को पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगेगा जैसे पहला शिक्षक दिवस न हो गया पहला करवा चौथ हो गया ! अब जहां व्यक्तिगत होने की गुंजाइश होती है वहाँ ऐसा तो लग ही जाता है )
इस
पेशे में आने के बाद यह पहला शिक्षक दिवस था । पहले को लेकर मन उत्साहित रहता है
और कभी कभी हल्की घबराहट भी होती है । यह घबराहट तब दिखने भी लगती है जब अपने स्तर
से ही किसी कार्य का निष्पादन करना पड़े मसलन,
कोई कार्यक्रम संचालित करना या फिर भाषण ही देना । वैसे कई बार ऐसा हुआ कि घबराहट
के बावजूद अंत में लोगों की सराहना मिली हैं पर भीतर किस तेजी से मन और मस्तिष्क
काम करते हैं वह मैं ही जानता हूँ ।
बहरहाल
, इस बार के शिक्षक दिवस पर मेरे लिए छात्रों
और सहकर्मियों की कुछ योजनाएँ तो थी पर इसे मेरे और उनके लिए दुखद ही कहना उचित
होगा कि, मैं अपने विद्यालय से
बाहर था । इतना बाहर कि , चाहकर भी न आया
जा सके । कई बार ऐसा लगा कि घर में कोई बहुत बड़ा आयोजन हो और मुझे किसी काम से
बाहर भेज दिया गया हो । आंध्र प्रदेश के जिस विद्यालय में मैं ठहरा हुआ था वहीं
मेरे साथ एक और व्यक्ति थे अमिताभ । उनका भी पहला ही शिक्षक दिवस था । उनका फोन
सुबह से ही बजने लगा । गज़ब की मुस्कुराहट और घमंड के साथ उन्होने दो – तीन बार बताया
कि , उनके छात्रों के फोन आ रहे हैं जो उन्हें
शिक्षक दिवस की शुभकमनाएं दे रहे हैं । तब तो मुझे और बुरा लागने लगा । उतना ही
बुरा, जितना बचपन में किसी त्योहार पर आस पास के
बच्चों को नए कपड़े मिल जाते थे और मुझे तथा मेरे छोटे भाई को नहीं मिलते थे ,
जितना हमारी नानी द्वारा हमें बरफ़ खरीदने के लिए बेच नहीं देते और दूसरे बच्चों का
हमारे सामने बरफ़ खाते समय लगता था । जब नानी बेच नहीं देती तब यह समझ में आने लगा
था कि , नाना-नानी हमें कितना
ही प्यार करें पर हमारा उन पर खासकर उनकी संपत्ति पर वह अधिकार नहीं है जो उनके
पोते-पोतियों ने भोगा । इसलिए हमारे हठ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था फिर जमीन पर
लोटकर देह पटकना तो दूर की बात है । लगभग वही स्थिति मैं वहाँ वेट्टम के नवोदय
विद्यालय में महसूस कर रहा था ।
मैं
जानता हूँ कि मुझे ऐसा महसूस नहीं करना चाहिए था । हालांकि जो महसूस कर रहा था वह
किसी पर ज़ाहिर भी नहीं होने दिया लेकिन मन तो तमाम आदर्शों और सिद्धांतों से परे
है । यह आध्यात्म नहीं बल्कि वास्तविकता है । बाहर पाँच सितंबर एक सामान्य सा दिन
था और मुझे भी इसे ऐसे ही लेना चाहिए था लेकिन मन के बंधन तो होते ही नहीं न ! तभी
तो दोपहर बाद जब मेरी बारहवीं की छात्राओं ने फोन किया तो मन संयत नहीं रह पाया ।
धन्यवादों के अलावा मैंने क्या बोला यह मुझे न तब पता चल पाया और न ही अब याद आ
रहा है । पर उसके बाद एक संतोष जैसा तो मिल ही गया था । मेरे भी छात्रों ने मुझे
फोन कर के ‘विश’
किया पर शायद मैं अब उस आत्मप्रशंसा वाली बिहारीयत को भूलता जा रहा हूँ । इसलिए न
तो अमिताभ के सामने जाकर जताया और न ही ऐसा कुछ करने की इच्छा ही हुई ।
वेट्टम
का शिक्षक दिवस –
अमिताभ
के छात्रों के फोन से हम दोनों की नींद टूट ही चुकी थी और फिर अपने चयनित
खिलाड़ियों को तैयार कर सात बजे तक खेलों के लिए लाना भी था इसलिए चेहरे पर एक बूंद
पानी डाले बिना ही लगभग भागकर छात्रावास की ओर जाना पड़ा । जब तक छात्रों को लाकर
सबकुछ व्यवस्थित किया और सोचा कि कॉटेज पर जाया जाए तब तक नवोदय विद्यालय वेट्टम
के छात्र अपनी प्रातः कालीन सभा ( मन में आ रहा है कि मॉर्निंग असेंबली लिख दूँ पर
लिखुंगा नहीं ) की तैयारी करने लगे । बिना बोले ही हम दोनों में यह सहमति बन गयी
कि अपने अपने विद्यालयों की प्रातः कालीन सभाएँ तो हमने देख ही राखी हैं अब मौका
मिला है तो यहाँ भी खड़े हो लेते हैं और ऊपर से आज शिक्षक दिवस भी है । सभी नवोदय
विद्यालय में एक सी प्रक्रिया ही प्रतिदिन दोहराई जाती है यही कारण था कि ,
सभा शुरू होने के कुछ मिनटों के भीतर धीमी आवाज़ में अपने अपने विद्यालयों की सभाओं
पर बात करने लगे । उस समय न मैं बिहारी था और न ही अमिताभ । हम दोनों यह सब भूलकर
आंध्र प्रदेश में सुदूर केरल के दो जिलों के नवोदय विद्यालयों की प्रशंसा कर रहे
थे और वह भी एक दूसरे की बातों को काटते हुए !
सभा
में स्थानीय प्रधानाध्यापक ने शिक्षक दिवस की औपचारिक सी शुभकामनाओं के साथ यह भी
कहा कि उनका विद्यालय शिक्षक दिवस संबंधी कार्यक्रम और उसका विधिवत आयोजन बाद में
करेगा । कम से कम दूसरे विद्यालय में ही सही शिक्षक दिवस की विद्यालयी व्स्ताविकता
से वाकिफ़ होने का मौका मिलता पर वह भी बनते बनते रह गया । सभा समाप्त होने पर
स्थानीय छात्रों ने डरते डरते ही सही ‘विश’
करना शुरू किया । कुछ हाथ मिलाने तक आ गए पर लगा कि इसी बहाने हम जो उनके लिए
अजनबियों से थे करीब आ सकते हैं । हमने भी झिझक तोड़कर उनकी शुभकामनायें स्वीकार की
और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की । इसके बाद हम भागे थे कॉटेज की ओर क्योंकि
जल्दी ही तैयार होकर नाश्ते के लिए आना था !
नाश्ते
पर भी शुभकामनाओं का एक दौर चला । इस बार पिछले दो दिनों से हैदराबाद संभाग के जिन
तीसेक शिक्षक-शिक्षिकाओं से जान-पहचान हो चली थी उन्हें हमने और हमें उन्होने ‘विश’
किया । इसके साथ ही शिक्षक दिवस संबंधी औपचारिकता का समापन हो गया क्योंकि याद
नहीं आ रहा कि उसके बाद किसी ने किसी को कुछ कहा हो ! अब तो वह आवश्यक रूप से एक
सामान्य दिन था ।
खीज़-
यहाँ
यह कहने का बड़ा मन कर रहा है कि , शिक्षकों की तरह
उनके लिए निर्धारित दिन भी निरीह है । ऐसा इसलिए कहना पर रहा है कि ,
इसके आयोजन का भार भी शिक्षकों पर ही होता है इसलिए वे अपने लिए बहुत कुछ ऐसा जुटा
पाने की हिम्मत भी नहीं कर पाते जो थोड़ा सा तड़क – भड़क वाला हो ,
हल्की विलासिता वाला हो । वह किसी तरह एक कामचलाऊ दिन अपने लिए बनाने की कोशिश
करता है जो आधे घंटे या फिर एक घंटे के औपचारिक से कार्यक्रम के बाद खत्म हो जाता
है । दूसरे इस दिन को मनाने में आम लोगों की भागीदारी होती ही नहीं है और उनकी दिलचस्पी
भी नहीं । यह शिक्षकों की सामाजिक स्वीकृति !
जिम्मेदारियाँ
तो बहुत डाली गयी हैं शिक्षकों पर और उन्हें निभाते हुए भी देखा जा सकता है लेकिन
जिस समाज ने उन्हें ज़िम्मेदारी दी है उसमें उनकी स्वीकृति उस स्तर पर है जहां से
एक पायदान भी नीचे गिरे तो अस्वीकृति का दारा शुरू हो जाता है । यह कहना बहुत सरल
है कि शिक्षकों ने अबतक अपना काम नहीं किया और यह कहना बहुत कठिन और कहने वाले की
सोच से परे कि , शिक्षकों को करने कहाँ
तक दिया जा रहा है ।
शिक्षक
समस्याओं की पहचान सबसे पहले कर सकता है बल्कि करता है लेकिन अपनी व्यवस्था में
सबसे नीचे होने के कारण उसके लिए एकमात्र विकल्प यही रह जाता है कि आगे-पीछे ध्यान
दिये बगैर घिसे-पिटे पाठ्यक्रम को और घिसता रहे । यदि उसके पास नए विचार हैं और उस
विचार में संभावनाएं भी हैं तो भी हर बार किसी न किसी बोर्ड ,
समिति या फिर संगठन के कार्य करने के तरीकों का हवाला देकर उन विचारों की हत्या
करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है । आगे नेतागिरि ,
माता-पिता , धार्मिक ,
सामाजिक और आर्थिक समूह शिक्षकों को किस तरह से पंगु करते रहते हैं उसे यदि समझाने
की जरूरत रह गयी है तो इतना अनभिज्ञ और अज्ञानी समाज कहीं और नहीं मिल सकता !
सीख रहा हूँ -
शिक्षक
दिवस बीता तो लगा कि , अपने एक शिक्षक
के तौर पर बिताए गए समय पर तो गौर करना ही चाहिए । यह एक लेखा-जोखा नही ,
अनुभवों में हुआ परिवर्तन है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह अनुभवों के
साधनों में हुआ बदलाव है । पिछले शिक्षक दिवस से पहले अपने को इस बाबत शुभकामनाएँ
देने का तो न तो कोई औचित्य था और न लोग देते थे । जिन एक दो ने लीक से हट कर ऐसा
किया वे भी बी एड के बाद के ही लोग हैं । यह भी की उनकी संख्या दो –तीन से ज्यादा
नहीं थी ।
बचपन
में शिक्षक दिवस का अर्थ हमने बस यही जाना था की उस दिन आधी छुट्टी के बाद एक अध्यापक
सौ – पचास डाक टिकट लेकर एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते थे और छात्रों से पाँच
रूपय लेकर एक टिकट बेचते थे । उनका बेचना कम और हड़काना ज्यादा होता था । हड़काते
हुए कहते थे कि इससे एकत्र किया हुआ पैसा शिक्षकों के कल्याण में लगाया जाएगा ! जो
बच्चे पैसे बचाना चाहते थे वे तो दूसरी पाली में विद्यालय आते ही नहीं थे मतलब उन
शिक्षकों के कल्याण का पैसा स्वयं हड़प कर जाते थे । इस तरह बहुत कम पैसा जमा हो
पाता था । उन शिक्षकों के साथ ऐसा ही होना चाहिए था ! नानी गाँव का मिडिल स्कूल था
इसलिए मैं चाह कर भी पाँच रूपय बचाने की कोशिश नहीं करता था क्योंकि शाम होने से
पहले ही शिकायत पहुँच जाती और उसके बाद अगले कई दिनों तक कई स्तरों पर ताने सुनने
को मिलते । इसलिए टिकट न खरीदने का मन होते हुए भी पैसा जेब से अपने आप निकल आता
था । बाद के दिनों में शिक्षक दिवस कवल सूचना भर होती और थोड़ा और बाद में पता चला
की उस दिन राष्ट्रपति उत्कृष्ट सेवा प्रदान करने वाले शिक्षकों को पुरस्कृत भी
करते हैं ।
अब
शिक्षक बन गया हूँ तो ज़ाहिर है शिक्षकीय दशा से दो-चार होना ही पड़ता है । इसे
मैंने दो-चार होना इसलिए कहा क्योंकि यह अपने – आप में एक अनाकर्षक सा ही पेशा है
जैसा बाहर से दिखता है । इस पेशे में होना अपने आप में एक स्तरहीन अवस्था है जहां
काम के अनुसार परिश्रमिक नही है , असीमित गति से
प्रोन्नति नही है और आगे बढ़कर कहें तो इसमें ‘ऊपरी
आमदनी’ की गुंजाइश नहीं है । इससे अनाकर्षक क्या हो
सकता है ? हमारे एक सहकर्मी का
चयन हाल ही में केरल राज्य पुलिस में सहायक उपनिरीक्षक पद के लिए हुआ है । उनहोंने
बताया कि वे केवल ‘घूस’
की संभावनाओं के चलते उधर जा रहे हैं ऊपर से पुलिस बनना अपने आप में बहुत सी
स्वतंत्रताओं और छूटों की गारंटी है ।
हमारे
कारयालय अधीक्षक बार बार मुझे कोसते हैं क्योंकि मैंने डीआरडीओ में एक ठीकठाक पद
के बदले मैंने शिक्षक बनना स्वीकार किया । लेकिन मैं मानता हूँ कि यदि वहाँ होता
तो प्रोन्नति मिलती , वेतन भी यहाँ से
ज्यादा मिलता फिर रक्षा मंत्रालय का अपना रुतबा भी था लेकिन जो सीखते रहने और अपने
में लगातार परिवर्तन करते रहने का अवसर यहाँ मिलता रहा है वह कभी नहीं मिलता ! ऐसा
मैं किसी को नहीं समझा सकता । फिर किसी संकल्पना ,
बात या अर्थ को बच्चे को समझा देने की जो खुशी मिलती है उसे अन्यत्र पाना नामुमकिन
है ।
मुझे
यह स्वीकार करते हुए बहुत खुशी है कि यहाँ थोड़े समय में ही बहुत कुछ सीखने को मिला
। सबसे पहले तो यह कि अबतक मेरे अकेले की ज़िम्मेदारी में भी कई बार उलझन होती थी
पर अब अपने साथ साथ अपने छात्रों की भी ज़िम्मेदारी किसी न किसी बहाने आती ही रहती
है । अभ्यास के इतने अवसर हैं कि सीखने में त्रुटियों का कम होते जाना स्वाभाविक
है ।
वहाँ
वेट्टम में शाम होते होते सनीश ने फिर से वही प्रसंग छेड़ा । सनीश से अभी हाल में
परिचय हुआ है वह पास के एक नवोदय विद्यालय में कंप्यूटर का अस्थायी शिक्षक है ।
पालक्काड से आंध्र प्रदेश जाने , वहाँ रहने और
वापस आने तक वह साथ रहा था । उसने कई बार बताया कि उसकी उप-प्रधानाचार्य ने जब
देखा कि वह विज्ञान विषय से स्नातक है तो उसने अपनी कक्षाएं उसके नाम कर दी और अब
खुद उस समय आराम फरमाती है । अब वह कंप्युटर के अतिरिक्त विज्ञान भी पढ़ाता है !
दूसरी बात यह कि दसवीं कक्षा की एक लड़की ने उसे बहुत तंग कर रखा है । वह आने बहाने
कंप्यूटर लैब में आ जाती है , अकेले मिलने की
कोशिश करती है वगैरह । और वह उसे थप्पड़ लगाने वाला है !
अस्थायी
शिक्षकों के साथ तो खैर हर जगह शोषण का आलम है उस पर क्या कहें लेकिन दूसरी बात पर
गौर करना जरूरी था । मैंने और अमिताभ ने उसे कई तरह से समझाया साथ में अपने उदाहरण भी दिये इस वक्तव्य के साथ कि इस
उम्र में उस लड़की का और उस जैसी और बहुत सारी लड़कियों का अपने शिक्षकों के प्रति
आकर्षित हो जाना कोई असामान्य बात नहीं है । बल्कि स्वस्थ मानसिक विकास की पहचान
है ऐसे में थप्पड़ लगाने के बदले उसे समझते हुए उसका उपयोग कक्षा को चलाने में किया
जाना चाहिए ।
सनीश
की सच्चाई अपनी और शायद अमिताभ की भी थी इसलिए मुद्दे को समझने – समझाने में आसानी
हुई । जब अपने साथ ऐसी स्थिति आती है तो झूठ नहीं कहूँगा कि मैं गुस्सा हो जाता
हूँ या कि दुखी लेकिन धीरे-धीरे उन से निपटना सीख लिया है क्योंकि हर अभी कुछ साल तो यही होना है जबतक कि बुड्ढ़ा न लगने लगूँ
!
इस
जैसी कई बातें हैं जहां शिक्षक होना मतलब लगातार सीखते रहना है । कल की घटना आज का
अनुभव बना रही है और यह क्रम जारी रहने की उम्मीद है !
alok babu hame ek hi jindagi milti hai use apne jivan darshan ke anusar hi jina chahiye. Apke darshan se samne wala sahmat hi ho aisi apeksha rakhna bemani hai. Khas kar tab jab wo leek se hat kar ho.
जवाब देंहटाएंApka najariya to sandaar hai hi aur aise najariye wale sikshon ki jarurat is sankran kaal me khas kar hai.
Anubhav sajha karte rahe. Prakash chandra jha
प्रकाश जी ... सही कह रहे हैं कि सबको अपना जीवन दर्शन समझाना कठिन है ... पर अपना नजरिया उनके सामने रख तो सकते ही हैं ....
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