सितंबर 25, 2013

साल दर साल वही प्रहसन : सन्दर्भ हिंदी पखवाड़ा


हिंदी पखवाड़ा चल रहा है । इस पखवाड़े के पंद्रह दिनों तक हिन्दी वहाँ वहाँ विराजमान होगी जहां जहां इसके होने की कल्पना भी न हो । इन्हीं पंद्रह दिनों में ही हम यह देख लेते हैं कि कितना दयनीय है इस तरह के कुछ दिन एक भाषा को दे देना । यह उस तरह लगता है जैसे इसका श्राद्ध-पक्ष चल रहा हो । जिसे लोग पिछले पक्ष की तरह ही किसी तरह काट कर फारिग होना चाहते हैं । यहाँ यह पढ़ने में बहुत बुरा लग सकता है कि हिन्दी पखवाड़ा हिन्दी का श्राद्ध-पक्ष है लेकिन बुरे लगने से वास्तविकता बदल तो नहीं जाती ।

हिन्दी दिवस यानि 14 सितंबर को केंद्र सरकार से जुड़े संस्थान हिन्दी के लिए अगले पंद्रह दिनों तक नाटक अपने हर छोटे बड़े कार्यालय में रखते हैं । फिर अगले पंद्रह दिन नाटक लगातार चलता रहता है । एक – दो दिन तो उत्साह दिख जाता है लेकिन उसके बाद यह एक मज़ाक से बढ़कर कुछ नहीं रह जाता है । फिर इस सरकारी नाटक को देख कर लगता है कि इससे बेहतर हो कि ये नाटक हो ही न ।
इस तरह की अवस्था का अंदाजा तो था कि हिन्दी पखवाड़ा कुछ ऐसा ही होता होगा । क्योंकि आज तक हिन्दी क्षेत्र से बाहर नहीं निकला था तो यह समझने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी कि हिन्दी को साल के पंद्रह दिन देखने पर कैसा लगता है ।  जिन संस्थाओं में पढ़ाई हुई थी वहाँ हिन्दी ही पढ़ी तो ये भाषायी स्यापा करने की कोई जरूरत ही नहीं थी । 

उस समय और आज भी यह लगता है कि हिन्दी का दिवस मनाना लेना ऐसा है जैसे  भाषा के समाप्त हो जाने , बेदखल हो जाने की पूर्व - घोषणा हो । उधर केवल किसी बैंक में ही पता चल पाता था या आज भी चलता होगा कि हिन्दी पखवाड़े जैसी कोई चीज होती है । लेकिन यहाँ आने पर ज्यों-ज्यों सितंबर नजदीक आया त्यों-त्यों कई बार यह सामने आया कि यहाँ हिन्दी पखवाड़ा होगा या कि होता है जो बहुत बड़ा आयोजन होगा या कि होता है ।

सितंबर का ग्यारहवाँ या बारहवाँ दिन रहा होगा यहाँ पास में नारियल विकास बोर्ड , भारत सरकार का कार्यालय है वहाँ से हिन्दी दिवस पर बोलने का न्योता आया था । पर वे अपना हिन्दी दिवस 14 सितंबर नहीं बल्कि 13 को ही माना रहे थे । मेरे दिन महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए हाँ हो गयी । वहाँ जाने पर पता चला कि नारियल विकास बोर्ड में शनिवार को भी छुट्टी होती है और वहाँ के अफसर और कर्मचारी अपनी एक छुट्टी खराब नहीं करना चाहते इसलिए इसे तेरह को ही माना रहे थे और इस बार से उनहोंने हिन्दी पखवाड़ा भी मनाने का निश्चय किया है जो 27 सितंबर तक चलेगा । हिन्दी पखवाड़ा आम तौर पर तो चौदह से शुरू होकर अट्ठाईस सितंबर तक चलता है पर वहाँ यह एक दिन पहले शुरू होकर एक दिन पहले ही खत्म हो रहा था । एक तरह से देखें तो हिन्दी के लिए दिन तो पंद्रह मिल ही रहे हैं लेकिन ये दिन हिन्दी के लिए नहीं बल्कि अपनी सुविधा के लिए रखे गए कियोंकि उनकी एक दिन की छुट्टी बर्बाद न हो । यह स्थिति तब थी जब वहाँ के अधीक्षक मध्यप्रदेश के निवासी हैं । बहरहाल वह कोई बहुत बड़ा आयोजन नहीं था । बस बीसेक कर्मचारियों का एक झुंड था जिसे संबोधित करना था । 

उससे पहले अधीक्षक जी से बात हो रही थी तो पता चला कि वे मधेपुरा बिहार में काम कर चुके हैं और वहाँ से सीधे यहाँ आए । जब तक औपचारिक सम्बोधन नहीं शुरू हो गया तब तक वही शाश्वत टाइमपास चलता रहा राजनीति , भ्रष्टाचार आदि पर वही पुरानी चबाई, उगली व थूकी हुई बातें । दूसरी बात, जब बिहार को जानने वाला कोई गैर-बिहारी हो और उसे मौका मिल जाए तो बिहार की बुराई तो करता ही है यह तो कोई अनोखी बात नहीं है । हाँ उन्हें आश्चर्य तब होता है जब आप उनकी सभी बातों से सहमति जता दें फिर बंदे का सारा उत्साह छू-मंतर हो जाता है । इसके बाद जाकर अधीक्षक महोदय अपने काम पर आए थे । नारियल कितने प्रकार के होते हैं , देश के किस भाग में कौन सी किस्म अच्छा उत्पादन देती है , और सबसे जरूरी कि नारियल की जीन-संरचना ठीक मनुष्यों जैसी होती है इसलिए जब तक वह फल न देने लगे तब तक कहा नहीं जा सकता है कि उसकी कौन सी किस्म है । और यही कारण है कि नारियल का हर पेड़ दूसरे से भिन्न होता है और इसी के साथ उसके गुण भी । तभी तमाम नयी नयी विधियों के आविष्कार हो जाने के बाद भी बीज से पौधा उगाने की परंपरागत विधि को तरजीह दी जाती है । इस बीच मैं देख रहा था कि मझोले से एक बरामदे में नोटिस बोर्ड के आर-पार कपड़े का एक बैनर टांगा गया, वक्ता और अधीक्षक की कुर्सी जमाई गयी और उनके सामने एक टेबल रखा गया फिर सामने-सामने बीस-पाचीस लोगों के बैठने का इंतजाम ।

चूंकि ऑफिस उनका था इसलिए पहले अधीक्षक जी को ही बोलना था और वही बोले भी । उनके प्रधान कार्यालय को पिछले कई वर्षों से हिन्दी में ज्यादा काम करने के लिए भारत सरकार की ओर से प्रथम पुरस्कार मिल रहा है । इस बार भी द्वितीय पुरस्कार मिल रहा है । फिर वह बताने लगे कि उनके ऑफिस में कितने लोग हिन्दी जानते हैं कितने नहीं । बोलते बोलते वे वह बोल गए जो इन हिन्दी के प्रति सरकारी कार्यालयों की प्रतिबद्धता की कलई उतारता है ।

हिन्दी में काम करना कई तरीके से गिना जाता है और ये कार्यालय बड़ी चालाकी से उनमें हेरा-फेरी कर अपने हिन्दी में काम करने के अंक बढ़ाते रहते हैं जबकि असलियत में काम हुआ ही नहीं रहता है । पत्र अमूमन अंग्रेजी में ही भेजे जाते हैं लेकिन उसके साथ हिन्दी में एक चिट जिसे कवरिंग लेटर कहते हैं, लगाकर हिन्दी का पत्र बना डालना किसी चमत्कार से कम नहीं है ! ऐसा करते हुए हिन्दी में किया गया पत्र-व्यवहार सौ प्रतिशत हो जाता है । आगे अधीक्षक ने यदि किसी दस्तावेज़ पर हिन्दी में हस्ताक्षर कर दिए हैं तो वह भी हिन्दी में किया गया काम गिना जाएगा । कंप्यूटर में हिन्दी में प्रारूप तय हैं उनमें बस नाम , दिनांक आदि डालकर बहुत से दस्तावेज़ और पत्र तैयार किए जाते हैं फिर वह हिन्दी में किए गए काम की श्रेणी में आता है । बीच बीच में राजभाषा विभाग को भेजी जाने वाली रपट की प्रति कंप्यूटर में तैयार रहती है बस संख्या आदि नए डालकर नयी रिपोर्ट तैयार कर ली जाती है ।
इसके बाद अपने वक्तव्य को लेकर मेरा अनुत्साहित हो जाना स्वाभाविक था । लेकिन तमाम राजनीतिक और ऐतिहासिक पहलुओं से बचते हुए उनको लताड़ लगा ही गया । केवल पुरस्कार के लिए काम करने की उनकी प्रवृत्ति इस पखवाड़े के मूल आदर्शों का तो गला ही घोंट रही हैं न ।  इसके साथ ही कार्यालय में वास्तविक रूप से हिन्दी में काम करने की सलाह भी दे डाली जो जनता हूँ उन लोगों को अच्छी नहीं लगी । पर उनका बुरा लगना बहुत देर तक रहा नहीं क्योंकि भाषण के बाद खाना बहुत बढ़िया खिलाया था ।
विद्यालय में ,
विद्यालय में भी हिन्दी दिवस की औपचारिकता पूरी की गयी । उस दिन मंच पर एक बड़ा सा दीप रखा गया पीछे कपड़े का वही बैनर जिस हिन्दी पखवाड़ा समारोह लिखा रहता है । एक दिन पहले ही राजभाषा के साथ की जा रही बाजीगरी पर क्षुब्ध होकर लौटा था इसलिए अपने विद्यालय में बोलते समय पहले तो सारी भड़ास निकाली फिर इस पर ज़ोर दिया कि काम करना हो तो पूरी तरह किया जाये अन्यथा नाटक बंद करने का समय आ गया है ।
ओणम की छुट्टी के सिलसिले में विद्यालय उसी दिन बंद होना था इसलिए हिन्दी पखवाड़े की बस औपचारिक शुरुआत हो पायी उससे जुड़े कार्यक्रमों की नहीं । ये कार्यक्रम नहीं बल्कि छात्र-छात्राओं के लिए प्रतियोगिताएं थे  जिनके माध्यम से उनमें हिन्दी के प्रति रुचि जगाने का काम होता । छुट्टियों के बाद विद्यालय जब पुनः शुरू हुआ तब से हर दोपहर कोई न कोई प्रतियोगिता हो रही है । व्याकरण, विभिन्न प्रकार के भाषण , रचनात्मक लेखन , कविता गायन , सुलेख आदि की प्रतियोगिताएँ चल रही हैं ।
छात्र कविता प्रतियोगिता के लिए कवितायें ले गए और किस धुन में गाना है वह भी लेकिन जब मंच पर चढ़े तो कविता कहीं थी ही नहीं । जो छात्र कविता लेने के लिए नहीं आए वे या तो बच्चन की अग्निपथ कविता सुना रहे थे या महादेवी की मधुर मधुर मेरे दीपक जल । अग्निपथ कविता जितनी आसान है उतनी ही आकर्षक भी क्योंकि इसे हाल ही रितिक रोशन ने अपनी फिल्म में पढ़ा है । बच्चे उसी अंदाज में पढ़कर जैसा फिल्म में है । महादेवी की वह कविता भी यहाँ बहुत लोकप्रिय है ।
भाषण प्रतियोगिता और निबंध प्रतियोगिता के विषय पहले ही तय कर दिए गए थे । इसका परिणाम यह हुआ कि परीक्षा कक्ष से बाहर और मंच पर जाने से पहले छात्र निबंध की विभिन्न किताबों को लेकर अपनी बारी आने तक  तैयारी करते रहे । जब निबंध को जांच रहा था तब लगा कि हिन्दी के लिए इस नाटक की आवश्यकता नहीं है । वरिष्ठ समूह के बीस बच्चों में से बारह ने मानो एक ही किताब से निबंध रटा था एक एक शब्द मिल रहे थे । और यही हाल भाषण प्रतियोगिता का भी रहा था । मित्रता विषय पर कृष्ण और सुदामा की मित्रता का उदाहरण सब के पास था क्योंकि उनहोंने जिस किताब से तैयारी की थी उसमें यही उदाहरण था ।
हिन्दी पखवाड़ा एक नाटक सा लगता है जो चल तो रहा है पर इसके भीतर बस इसे किसी तरह खींच कर अंत तक ले जाने तक की ही ताकत है । एक बात यह आती है कि यहाँ केरल जैसे राज्य में हिन्दी इस तरह भी आए तो कम बात नहीं है लेकिन यहाँ यह बताना जरूरी है कि यह पखवाड़ा हिन्दी के लिए नहीं बल्कि राजभाषा के प्रयोग को सुनिश्चित करने के लिए आयोजित किया जाता है । विद्यालय में इस पखवाड़े से जुड़े कार्यक्रम दोपहर को हो रहे हैं इसलिए सारे शिक्षक खुश हैं क्योंकि उनकी ड्यूटी के समय यह काम किया जा रहा है जिससे वे अपनी ड्यूटी से बच जा रहे हैं ।  
यह खयाल आजकल कई बार आ रहा है कि हिन्दी दिवस या कि पखवाड़ा सब मिलकर हिन्दी पर किए गए समूहिक एहसान या दया का भाव निर्मित करते हैं । साथ में अपने लिए यह स्पेस भी रख ले जाते हैं कि हिन्दी को जो महत्व दिया है वह किसी अन्य भाषा को नहीं । जबकि एक बार भी इन आयोजनों और उनके कार्यक्रमों को देख लें तो लग जाएगा कि यह सब महज रस्म हैं जो अपना अर्थ खो चुके हैं बल्कि इनमें से यदि अति-आशावादी होकर भी रस तलाशने की कोशिश की जाए तो भी यह हिन्दी के विकास को नहीं दर्शाते हैं बल्कि उसके प्रति और उदासीन ही करते हैं । इन कार्यक्रमों को एक झंझट से अधिक मानने वाले कम ही हैं और जो हैं वे इसलिए इसकी बात करते हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनका कुछ फायदा हो जाता है ।
राष्ट्रभाषा और सरकारी भाषा हिन्दी के अलावा हिंदीभाषियों की मातृभाषा भी है, यह सच्चाई कई बार हमारे जेहन से बाहर चली जाती है क्योंकि आज जिस प्रकार का वातावरण बन रहा है उसमें हिन्दी की बात करना बहुलता को अस्वीकार करने जैसा बना दिया गया है । हिन्दी के नाम पर जो भी काम होते हैं या बातें होती हैं उसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के नाम पर जो इसकी कमियाँ (यह कितना सच है इस यह चर्चा का विषय है ) हैं उसकी गाज़ मातृभाषा हिन्दी पर आकार गिरती है ।

हर साल होने वाला यह रस्मी आयोजन हिन्दी के प्रति कोई विश्वास नहीं जागता है । इसके अतिरिक्त दूसरे सामाजिक और विशेषकर आर्थिक कारण हैं जो हिन्दी के प्रसार को बढ़ा रहे हैं । जरूरत इस स्थिति को समझने की है और फिर नए तरह की कार्यप्रणाली अपनाने की ।  केरल में हिन्दी का कोई समाचारपत्र नहीं आता है और यदि बहुत कोशिश कर के मंगवाया भी जाए तो वह दो दिन से पहले नही मिल पाता । इस स्थिति में भी हिन्दी पखवाड़ा मनाकर यह साबित करने का छद्म ओढ़ लिया जाता है कि हिन्दी के प्रचार – प्रसार के लिए काम हो रहा है । इस तरह की सोच पर हंसी आती है ।  

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