बात
तो बीएड के दौर की है । उन दिनों हमारा ‘शिक्षण अभ्यास’ चल रहा था जिसे दिल्ली
विश्वविद्यालय के उस महाविद्यालय में सभी ‘टीचिंग – प्रैक्टिस’ कहते थे । यह दरअसल
वह काम था जिसमें प्रत्येक प्रशिक्षु को वास्तविक विद्यालयों में जाकर
छात्रों को पढ़ाना होता था । बाहर से तो ऐसा लगता है कि यह एक अभ्यास हो लेकिन
जानकर आश्चर्य होगा कि इसमें गज़ब की वास्तविकता थी ।
उस
समय हमें ‘छात्र-अध्यापक’ कहा जाता था । ‘अध्यापक’
शब्द जुड़ जाने से ही उसके जितना अधिकार मिल जाए ऐसा हम भले ही सोचते थे पर न तो
हमें पढ़ाने वाले शिक्षक , न ही संबन्धित विद्यालयों के शिक्षक और तो और
छात्र तक भी हमें अध्यापक समझने की गलती नहीं करते थे । ज़ाहिर है ऐसे में छात्र
हमें बहुत गंभीरता से लें ये तो हो ही नहीं सकता । उनके व्यवहारों ने बहुत से
ऐसे अनुभव दिए जो लंबे समय तक याद रहेंगे । छात्राएं तक हंसी मज़ाक से नहीं चूकती
थी । जबतक हमारे सुपरवाइज़र कक्षा में होते तबतक तो वे यूं चुप रहते थे मानो उनसे
आदर्श बच्चे मिल ही नहीं सकते । मैं दिल्ली सरकार के एक प्रतिभा विकास विद्यालय
में पढाता था और बहुत से अपने दोस्त इसी तरह दिल्ली सरकार के विद्यालयों में पढ़ाते
थे । हम सब के जो अनुभव हैं वे उन विद्यालयों को सभी अर्थों में ‘सरकारी
स्कूल’ साबित करते हैं ।
अब
जब बात टीचिंग प्रैक्टिस की चल ही पड़ी है तो थोड़ी सी उसकी राजनीति से भी होते चलते
हैं । जो शायद इस क्षेत्र को समझने में सहायता करे । दिल्ली विश्वविद्यालय के बीएड महाविद्यालय में
जब टीचिंग प्रैक्टिस का समय आता है तब वहाँ आपको एक बहुत स्पष्ट बात नजर आएगी । जो लड़कियां कार से
आती हैं, ठीकठाक कपड़े पहनती हैं और अँग्रेजी बोलती हैं उनके लिए एड़ी-चोटी
का ज़ोर लग जाता है कि उन्हें उजड्ड सरकारी विद्यालयों के छात्रों के बदले ‘पब्लिक स्कूल’ के पालतू बच्चे मिलें । दूसरी ओर अन्य लड़कियां
जिनके लिए बीएड करना परिवार के लिए रोटी जुटाने का साधन बनेगा उन्हें खराब से खराब
हालात वाले सरकारी विद्यालयों में भी भेजने से लोग नहीं हिचकते हैं । उनके अनुभव
बहुत कटु होते हैं । स्वयं हमारे साथ की कुछ लड़कियों के अनुभव ऐसे रहे कि वे किसी
भी सरकारी विद्यालय में नौकरी का आवेदन तक करने से डरती हैं । लेकिन इतना करने से
वे बच नहीं सकती क्योंकि पब्लिक स्कूल के दरवाजे उनके शाश्वत रूप से बंद होते हैं
। शायद ही किसी ने देखा हो कि कोई पब्लिक स्कूल उन ‘सुंदर’
लड़कियों के अलावा किसी को नौकरी देता हो । यहाँ लड़कों का तो प्रश्न ही नहीं उठता
है ।
हालांकि
यह यहीं पर नहीं रुकता है । लड़कियों और सौंदर्य को लेकर शिक्षा-संस्थाएं जितनी भी
उदार हो जाएँ लेकिन वहाँ के लोग बार बार वही कार्य करते रहते हैं जो पुराने सामंत
करते थे । हमारे उस महाविद्यालय की प्रधानाचार्य ने अपने स्तर से एक कार्यक्रम
करवाया विशुद्ध अपने अकादमिक लाभ के लिए । उसमें उन्होने अपने करीब की छात्राओं को
स्वयंसेवक के रूप में इस्तेमाल किया । ध्यान नहीं पड़ता कि किसी लड़के को बोला हो ।
और जब कार्यक्रम का समापन हुआ तो उनहोने नाम ले-लेकर केवल उन्हीं लड़कियों को
धन्यवाद दिया जो खूबसूरत थी और जिनके पास कार थी । उन मोहतरमा की सौंदर्योपासना
किसी कामुक पुरुष से भी आगे जाकर ठहरती है । उनसे मिलने की दिल से इच्छा नही होती
थी लेकिन किसी वजह से जाना ही पड़ा तो उनकी व्यर्थ की नफ़ासत गुस्सा ही दिलाती थी ।
खैर
इस भड़ास के चक्कर में मूल किस्सा छूटा जा रहा है । मूल किस्से की याद अभी इसलिए आई
क्योंकि परसों पुरानी डायरी पलट रहा था तो उसमें उन दिनों के एक दो किस्से दर्ज
मिले । लिखने के तरीके में बदलाव भले ही आया हो पर बातें आज भी सच हैं । इसलिए
उन्हें डायरी से निकाल कर ब्लॉग पर चेप देने का मन कर गया । इसी मन करने ने वैसे
बहुत सा कूड़ा-कबाड़ा करवाया है और फिर एक बार मन कर गया है !
शिक्षण
– अभ्यास (अरे महाराज वही टीचिंग-प्रैक्टिस) के दौरान हमें न सिर्फ स्वयं कक्षा
लेकर वास्तविक अध्यापन सीखना था बल्कि आसपास के दूसरे विद्यालयों में पढ़ा रहे अपने
सहपाठियों की भी कक्षाएं देखनी थी , उसने सीखना था । सीखे न सीखे लेकिन रिपोर्ट बनानी
थी कि इससे यह सीखा और उससे वह ! वह एक वास्तविक खानापूर्ति सी थी । पर हमारे
सुपरवाइज़र ने इस प्रचलन में थोड़ा सा बदलाव कर दिया । उनके हिसाब से हमें अपने सहपाठी नहीं बल्कि जिस
विद्यालय में हम वह बहु-प्रचारित अभ्यास करते थे उसी के स्थायी शिक्षकों की
कक्षाओं को देखना था , सीखना था और रिपोर्ट बनानी थी । उसी के तहत मैंने
कई अध्यापकों की कक्षाएं देखि और कुछ अपनी कक्षाओं के अनुभव भी रहे । यहाँ पर
हिन्दी विषय से संबन्धित दो टुकड़े डाल रहा हूँ । ये टुकड़े सरकारी टुकड़े हैं । कैसे
? जरा देखिये !
एक
, राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय, शंकरचार्य मार्ग,
दिल्ली । कक्षा दसवीं ब,
पाठ लिंग निर्धारण ।
अध्यापक
की आवाज़ सुस्पष्ट है , छात्र पाठ में रुचि ले रहे हैं और यह रुचि शायद
इसलिए है कि अध्यापक यहाँ के स्थायी शिक्षक हैं जो कक्षा से बाहर भी ‘देख
लेने’ की बात अभी-अभी कर रहे थे । एक लड़के को बोर्ड पर दो वर्ग बनाने
को कहा गया – ‘स्त्रीलिंग’ और ‘पुर्लिंग’ । मुझे लगा शायद श्रीमान की जबान लड़खड़ा गयी होगी
हो सकता है ऐसा ही उस बच्चे को भी लगा हो । उसने जो दो वर्ग बनाए वे थे ‘स्त्रीलिंग’
और ‘पुर्लिंग’ । उसके लिखने की देरी थी कि कक्षा में अध्यापक का
गुस्सा और गंभीर स्वर गूंजने लगा ! उस गुस्से का शब्दांतरण कुछ यूं था – ओए,
बेवकूफ ! ये क्या लिखा ? ... दसवीं में आ गया है पर तुम्हारा अशुद्ध लिखना
नहीं छूटा । तुमलोग कभी नहीं सीख सकते ... अबे ‘पुल्लिंग’
नहीं ‘पुर्लिंग’ होता है । लड़का खुले मुंह से माट्साब की ओर देख
रहा था और मैं भी इस प्रश्न के साथ कि ‘ये कौन सी हिन्दी है भई ?’
माट्साब का गुस्सा फिर से चनका – ओय देख क्या रहा है ,
पुल्लिंग वाले आधे ‘ल’ को मिटा और ‘लि’ के ऊपर रेफ़ लगा रेफ़ । उनहोंने दो बार ‘रेफ़’
बोला था और दूसरे पर ज़ोर ज्यादा डाला था । अब उनके कहे अनुसार बोर्ड पर दो सफ़ेद
वर्ग चमक रहे थे – ‘स्त्रीलिंग’ और ‘पुर्लिंग’ !
शिक्षक
महाराज एक – एक शब्द कह रहे थे और बच्चे बारी - बारी से आकर उन्हें उनके लिंग के
अनुसार इधर या उधर डाल रहे थे । पुरुष वाचक
शब्द एक एक बाद ऐसे खाने में गिर रहे थे जिसका हिन्दी भाषा में कोई अस्तित्व ही
नहीं था । इसके बावजूद मैंने उस अध्यापक की कक्षा के बारे यही लिखा कि वह बहुत
अच्छी थी और मैंने उससे बहुत कुछ सीखा । क्योंकि मैं जनता हूँ उस रिपोर्ट को कोई
पढ़ने नहीं जा रहा था । एक खानापूर्ति दूसरे तरह की खानापूर्ति के लिए रास्ता तो
बनाती ही है । इसलिए उस रिपोर्ट में वास्तविकता भरी हो या कल्पना क्या फर्क पड़ता
है !
दो
! उसी राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय,
शंकराचार्य मार्ग, दिल्ली में एक दिन मैं ग्यारहवीं
कक्षा को महदेवी
वर्मा की कविता ‘जाग तुझको दूर जाना’ पढ़ा रहा था । मैं कविता
पर बात करते करते उसके भाव के साथ वर्तमान तक चला आया और मेरी यह उम्मीद थी छात्र
अपने समकालीन संदर्भों में कविता को ज्यादा बेहतर समझेंगे । पर छात्रों ने फट से
टोक दिया
– सर जी यह कविता तो आजादी से पहले की है इसे आप आज से क्यों जोड़ रहे हैं
?
मैंने
कहा - वह इसलिए कि यह कविता आज के संदर्भों में भी लागू होती है ।
इस
पर एक ने कहा – गाइड में आजादी से पहले के बारे में लिखा है आप भी वही पढ़ाओ ।
इसके
बाद मैंने गाइड पढ़ने के नुकसान विषय पर उस कक्षा में एक संक्षिप्त भाषण दिया जिसके
समाप्त होते ही एक दनदनाती टिप्पणी मेरे कानों में पड़ी – मैडम भी तो गाइड से ही
पढ़ाती हैं ।
अब
मेरे पास कोई जवाब नहीं था । भई मैडम जो वहाँ की स्थायी शिक्षिका थी वह भी गाइड से
पढ़ाती होंगी इसका मुझे अंदाजा नही था । बल्कि यह एक सदमा था मेरे लिए ।
मैं
इन सब को इस तरह भी प्रस्तुत कर सकता हूँ कि ये प्रक्रियाएं भाषा का नुकसान कर रही
हैं लेकिन ऐसा करूंगा नहीं । क्योंकि यह उससे कहीं आगे बढ़कर वर्तमान सरकारी स्कूल
की शिक्षा-प्रक्रिया के स्वरूप का निर्धारण करता है जहां पर रचनात्मक होने के बदले
यथास्थितिवादी होना पसंद किया जाता है । ऐसा माना जाता है कि यूं ही हर साल नए
नामांकन होते हैं और होते रहेंगे इसलिए ज्यादा माथा-पच्ची के बजाय छात्रों को अपने
हाल पर छोड़ दिया जाए ।
( भले ही मुखर होकर शिक्षक ऐसा न कहें पर कर तो वही रहे हैं
और भीतर भी वे यही मानते हैं)!
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