जनवरी 27, 2016

चंद लोगों में से वो



चाहे कितने ही दिनों पहले से तय करने बैठ जाएँ कि अगले रविवार को कहाँ जाना है लेकिन बात तय होती है खास उसी रविवार की सुबह जब नींद टूटने में आनाकानी करती है । कल अपने साथ भी यही हुआ । आखिर सो कर उठते समय ही तय हो पाया कि ज़्यादा दूर नहीं बस Mattanchery, Fort Kochi के इलाके की ख़ाक छानी जाये । आम तौर पर जो हम कर नहीं पाते वह किया जाये ।
यह इलाका यहूदियों का है और उसी नाम से जाना जाता है Jew Town । वहाँ आजादी से पहले के भी कुछेक घर हैं और कुछ नए भी हैं । मुझे उम्मीद थी कि वहाँ हर घर में यहूदी मिलेंगे मकान , दूकान हर जगह ! पर स्थानीय केरलवासी और धुर उत्तर के कश्मीरियों के अलावा कोई दिखा ही नहीं ।

यहूदियों का पूजा स्थल 'सिनेगोग' कहलाता है यह बचपन से रट रखा था (हालांकि किसी परीक्षा में यह पूछा नहीं गया ) । मैं इस उम्मीद में उधर निकल गया कि वहाँ पूजा स्थल पर तो यहूदी होंगे ही होंगे । वहाँ पहुँचने पर घोर निराशा हाथ लगी वह बंद था और वापस तीन बजे खुलता ।

अब अपने मन में जिद बैठ गयी कि आज तो किसी न किसी यहूदी को जरूर देखना है । वजह यह थी कि मैंने किसी यहूदी को देखा नहीं था । यूं तो मार्क जकरबर्ग भी यहूदी है ।

वहाँ पास ही में केरल पुलिस का एक इंटेरनेशल टूरिज़म पुलिस थाना है । वहाँ गया तो कुछ बड़ी जानकारियाँ हाथ लगी । पहली तो निराश करने वाली थी कि कोचीन में अब केवल 5 ही यहूदी बच गए हैं उनमें भी एक ही की उम्र 40 के आसपास है बाकी सब बूढ़े हो चुके हैं । दूसरी कि उनमे से ही एक उस सिनेगोग की देखभाल करती हैं । तीसरी जानकारी यह थी कि थाने के बगल वाली दुकान पर एक बर्तन रखा है जिसका नाम सबसे बड़े बर्तन के रूप में लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड में दर्ज़ है ।

तीन बजने में समय था सो बर्तन देखने चला गया । बर्तन सच में बड़ा था । फिर उस पुलिस वाले के बताए घर की ओर चला गया । वहाँ एक दुकान थी हैंड मेड कढ़ाई के समान की । मैं उसके भीतर गुस गया । वहाँ एक लड़का दुकान पर था उससे मैंने बात की कि मुझे साराह से मिलना है । लड़का उखड़ ही गया उसने कहा जाओ । वह अब किसी से नहीं मिलती । मैं बहुत उदास हो गया । फिर जब मैं निकलने लगा तो खिड़की पर नज़र पड़ी एक पोपले मुंह वाली स्त्री बैठी थी खिड़की के पास ।

तब तक तीन बज गए थे । सिनेगोग के खुलने का समय हो रहा था । मुझे विश्वास था कि वहाँ तो पाँच में से कोई न कोई जरूर आएगा । वहाँ तो फोटो लेना मना था ही ऊपर कोई भी यहूदी नहीं आया/आयी । काफी देर बैठने के बाद और देसी गाइडों द्वारा विदेशी तो विदेशी देसी को भी ठगते हुए देखने के बाद मैं उदास होकर चल दिया ।

मैं फिर से उस उम्मीद में उस दुकान के पास जाकर खड़ा हो गया जो साराह के घर में थी । इस बार दुकान पर काम करने वाला लड़का बाहर आया और मुझे भीतर ले गया । यह वैसी बात थी जिसकी मैंने उम्मीद भी नहीं की थी । मैंने साराह की तस्वीर ली ।

साराह काफी बूढ़ी हो गयी हैं पर मलयालम , अङ्ग्रेज़ी , हिब्रू और हिन्दी बोल लेती हैं । हिब्रू के अलावा सभी भाषाओं में मैंने भी थोड़ा बहुत जवाब दिया । मैं बस उनको सुनना चाहता था । मैं बस इसका अंदाजा लगाना चाहता था कि उनके मन में इस उम्र में क्या चल रहा है । उनसे हुई बातचीत पर विस्तार से लिखुंगा अलग से । फिलहाल इतना ही !

तीसरी कसम उर्फ लुट गए शैलेंद्र



राजकपूर और शैलेंद्र ये दो नाम केवल इसलिए साथ नहीं लिए जाते रहेंगे कि इनहोंने साथ काम किया और बहुत अच्छा काम किया बल्कि इसलिए भी कि जिस दिन राजकपूर अपना जन्मदिन मना रहे थे उसी दिन शैलेंद्र ने या दुनिया छोड़ दी । एक जबर्दस्त जोड़ी का क्लाइमेक्स इससे बदलकर कुछ भी क्या हो सकता था । वह भी उस माहौल में जब शैलेंद्र तीसरी कसम को लेकर आकंठ कर्ज़ में डूबे हुए थे और राजकपूर उनसे नाराज़ ! शैलेंद्र इससे भी गीत निकाल सकते थे । फिल्म तीसरी कसम का वो गीत याद करिए जिसमें वे लिखते हैं – सजनवा बैरी हो गए हमार ...।

तीसरी कसम ने शैलेंद्र का सबकुछ दांव पर ले लिया था यहाँ तक कि राजकपूर से दोस्ती तक । राज कपूर एक ही रुपैया एडवांस लेकर काम करने के लिए राजी हो गए थे लेकिन फिल्म की तमाम खूबियों के बीच उन्हें फिल्म के सुखांत न होने के कारण फिल्म के व्यापार न कर पाने की चिंता थी । सो वे और उनके वितरक (दोनों के बारे में शैलेंद्र मुतमइन थे कि ये कहीं नहीं जाने वाले ) शैलेंद्र पर दबाव डालने लगे थे फिल्म का अंत बदलने के लिए । पर शैलेंद्र तो ठहरे शैलेंद्र ! फिल्म उन्होने दिल से बनाई थी , दो और दो चार करने का उन्होने सोचा भी नही था । उन्होने अंत बदलने से साफ मना कर दिया । जब दबाव बहुत बढ़ गया तो उन्होने सभी वितरकों से कह दिया कि यदि आप मूल कथाकार को मना लें तो अंत बदल दिया जाएगा ।

इसके बाद फणीश्वर नाथ रेणु वितरकों से बात करने अंदर भेज दिए गए । मजा देखिए कि शैलेंद्र को व्यावसायिक दबाव में अपने कमजोर पड़ जाने का डर था इसलिए उन्होने रेणु को भेजा और रेणु ने उनकी भावनाओं की लाज रख ली वे किसी तरह अंत बदलने को राजी नहीं हुए । वितरक भड़क गए । फिल्म नहीं चली और बीमार शैलेंद्र को अपनी फिल्म का प्रिमियर भी देखना नसीब नहीं हुआ । राज कपूर नाराज हुए सो अलग । फिर वह दिन भी आया जब शैलेंद्र राज साहब के जन्मदिन के ही दिन चल बसे !

शंकर दास शैलेंद्र , रेलवे वर्कशॉप में तकनीकी कर्मचारी रहे और वहीं के ट्रेड यूनियन में बेहद सक्रिय थे । एक बार एक काव्यपाठ में राजकपूर ने उन्हें सुना । तुरंत एक ओर ले जाकर अपने लिए गाने लिखने को कहा । पर जा रे जमाना , शैलेंद्र ने यह कह कर मना कर दिया कि मैं अपनी नौकरी में खुश हूँ । इतने साफ़ इंकार के बाद भी राज सहम ने उन्हें अपना कार्ड दिया और कहा कि जब भी जरूरत हो तब आ जाना । बात आई गयी हो गयी । कुछ दिनों बाद शैलेंद्र की पत्नी बीमार पड़ गयी । अपनी जमा पूंजी और दोस्तों से लिए गए उधार भी चुक गए तो शैलेंद्र को राज की याद आयी ।

राज कपूर उस समय बरसात बना रहे थे । उस फिल्म के सारे गाने हसरत जयपुरी ने लिखे थे और बड़ी बात ये थी कि वे गीत रिकॉर्ड हो चुके थे । राज हसरत के पास गए और उन्हें कहा कि मुझे इस नौजवान की मदद करनी है इसलिए मैं तुम्हारे दो गाने काट रहा हूँ । उस फिल्म से हसरत के दो गाने –‘प्रेम नगर में बसने वाले’ और ‘मईन जिंदगी में हरदम रोता ही रहूँगा’ कट गए । उन गीतों का स्थान लिया शैलेंद्र के लिखे ‘बरसात में हमसे मिले तुम सनम तुमसे मिले हम’ और ‘पतली कमर है तिरछी नज़र है’ गानों ने । हम सभी जानते हैं कि ये दोनों गीत कितने लोकप्रिय हुए । यह थी उस दोस्ती की शुरुआत जिसका अंत तीसरी कसम तक आते आते जिस दर्द के साथ हुआ वह किसी ने नहीं सोचा था ।

राजकपूर और शैलेंद्र का ही उदाहरण लें तो भी यह दिखता है कि एक निर्देशक गीतकार को कुछ खास नहीं दे पाता लेकिन गीतकार निर्देशक को बहुत कुछ देता है । उस पर यदि फिल्म निर्देशक खुद ही अभिनेता भी हो तो यह अवदान बहुत अहम हो जाता है । याद करिए शैलेंद्र के लिखे वे गीत जिसने राजकपूर की शख्शियत गढ़ी । यह कल्पना से ही परे लगता है कि यदि शैलेंद्र के गीत – मेरा जूता है जापानी , प्यार हुआ इकरार हुआ , होठों पे सच्चाई रहती है , जीना यहाँ मरना यहाँ आदि नहीं होते तो राजकपूर की जो छवि आज हमारे सामने है वह कितनी खंडित सी रही होती । शैलेंद्र के गीतों ने राजकपूर के अभिनय को भावप्रवण और मासूमियत भरे गानों से लोकप्रिय किया ।

शैलेंद्र बहुत भावुक इंसान थे । इस बात की तसदीक फणीश्वर नाथ रेणु करते हैं । वे अपनी किताब में लिखते हैं कि शैलेंद्र महुआ घटवारिन का किस्सा सुनकर बहुत भावुक हो गए थे । फिर बंदिनी फिल्म आई उसमें उन्होने वह प्रसिद्ध गीत लिखा था – अबके बरस भेजो । रेणु लिखते हैं कि वह गीत रिकॉर्ड होकर आया ही था । शैलेंद्र और रेणु दोनों ही पहली बार सुन रहे थे । गीत कब का खत्म हो चुका था फिर भी रेणु और शैलेंद्र गले लगे हुए हिचकियाँ ले लेकर रो रहे थे । बाद में शैलेंद्र के ड्राइवर ने दोनों को अलग कराया ।

शैलेंद्र गहरे भावबोध के गीतकार रहे । उनके गीतों में व्यर्थ का बिम्ब निर्माण नहीं है न ही अनावश्यक कलाकारी । उनके गीत हमें एक साथ सपाट और अर्थपूर्ण दोनों लगते हैं और दोनों में कोई विरोध भी नहीं रहता । ऐसा बहुत कम गीतकारों के साथ हुआ है । यहाँ तक कि गुलजार के गीतों में भी अनावश्यक बिम्ब विधान भाव को बहुत पीछे धकेलते रहे हैं जिससे गीत का सारा दारोमदार धुन पर आ जाता है । शैलेंद्र किसी भी हालत में गीत का भाव बचाए रखते हैं । जीवन दर्शन से भरा हुआ झूठ न बोलने की हिदायत देता हुआ गीत – सजन रे झूठ मत बोलो कभी बोझिल नहीं लगता ।

शैलेंद्र ने एक ही फिल्म बनाई और उनके पूरे फिल्मी जीवन पर यह फिल्म हावी है । कई बार उनके मूल्यांकन पर भी तीसरी कसम ही छाई रहती है । पर हम कभी भी दो शैलेंद्र नहीं देखते । तीसरी कसम वाला शैलेंद्र और गीतकार शैलेंद्र दोनों एक ही रहते हैं । तभी तो दोस्त की नाराजगी लेकर भी फिल्म का अंत नहीं बदलते , शंकर जयकिशन जैसे संगीतकारों की आपत्ति के बाद भी – ‘रात दसों दिशाओं से कहेगी अपनी कहानियाँ’ में दस के बजाय चार दिशाएँ नहीं करते ।
जब शैलेंद्र का ड्रीम प्रोजेक्ट तीसरी कसम ही सुखांत नहीं थी तो उससे जुड़कर शैलेंद्र का जीवन कैसे सुखद रह सकता था ।

हिन्दी किताबों का छोटा संसार



आज किताबें खरीदने गया था - पुस्तकालय के लिए भी और विद्यालय के वार्षिकोत्सव पर दिए जाने वाले पुरस्कारों के लिए भी । हिन्दी में हालाँकि यहाँ बहुत कम किताबें मिलती हैं पर दो खास तरह की किताबें जरूर दिख जाती हैं । एक तो हिन्दी की कालजयी किताबें , दूसरी बिलकुल ताज़ा ताज़ा आई किताबें । उस समय निर्णय करना बड़ा जरूरी हो जाता है कि कौन सी किताब ली जाये ।

वैसे यह तो देखते ही तय हो जाता है कि अजय नवरिया की पटकथा और अन्य कहानियाँ से कई हजार गुना बेहतर जूठन के दोनों खंड हैं । रेणु , राजेन्द्र यादव और मन्नू भंडारी की किताबें । कमलेश्वर की कोई भी किताब मोहन राकेश की प्रतिनिधि कहानी की किताब के आगे नहीं टिकती । मंटो आते हैं , अमृता प्रीतम आती हैं । ज्ञान रंजन , काशीनाथ सिंह भी मिल जाते हैं राग दरबारी वाले भाई साहब के साथ ।

कमी खलती है कुछ लेखकों / कवियों की किताबों की जो यहाँ नहीं आ पाती - उनमे सबसे पहले Jitendra भाई की किताबें , फिर पंकज मित्र की किताबें । सोचा राकेश मिश्र की कहानियाँ भी मिल जाती उनकी तक्षशिला में आग बहुत दिनों तक छाई रही थी ।

एक बात समझ नहीं आती है कि जो उम्दा और स्थापित लेखक व कवि हैं उनकी किताबें यहाँ तक आ ही नहीं पाती पर हाल की दो बकवास किताबें - इश्क़ में शहर होना और इश्क़ में माटी सोना भारी मात्रा में पहुंचा दी जाती हैं कोचीन की दुकानों में । रविश की किताब पहले ही खरीदकर पढ़ ली थी सो उस संत्रास से फिर नहीं गुजरना चाहता था इसलिए उनके शिष्य गिरीन्द्र की किताब का एक बड़ा हिस्सा वहीं दुकान में ही खड़े खड़े पढ़ने की कोशिश की । मने लपरेक कह देने से बकवास भी साहित्य नहीं न हो जाता है महात्मन । एक बात है कि शिष्य ने गुरु से कम बकवास की है पर पैटर्न तो बकवास का ही है । सो जो भी बंधु इस पुस्तक मेले में लपरेक पर विश्वास दिखाने वाले हैं वे अपने पैसे बचा लें । और यदि गिरीन्द्र या रविश आपके करीबी हैं तो वहीं खड़े खड़े पढ़ लें । यकीन मानिए उन बकवासों से गुजरने में आपको समय नहीं लगेगा ।

किताबों की खरीद बड़ा जटिल काम है । कई निर्णय करने होते हैं और किताबों से गुजरते हुए मानसिक और शारीरिक तौर पर खटना पड़ता है । जिससे थकान होनी स्वाभाविक है । सो थक तो गया ही हूँ । इसके बावजूद एक बात कहूँगा कि अच्छी और गम्भीर किताबें आज भी पढ़ी जाती हैं । लपरेक - फपरेक तो बस ऐसे ही नए लोगों का बुढ़भस है ! ये अफसोस के साथ बुढ़ायेंगे !

सतह पर तैरती हिन्दी आलोचना



समय मिलने पर कुछ न कुछ पढ़ लेना एक बड़ी उपलब्धि की शक्ल लेता जा रहा है । राष्ट्रीय पुस्तक न्यास (नेशनल बुक ट्रस्ट) से अजय तिवारी के संपादन में निकली किताब 'रामविलास शर्मा संकलित निबंध' पढ़ना शुरू किया है । उसकी भूमिका पढ़ रहा तो बरबस डॉ. कृष्ण कुमार की लिखी भूमिका याद आ गयी जो उन्होंने रघुवीर सहाय की संचयिता बनाते हुए लिखी थी । वह किताब राजकमल प्रकाशन द्वारा महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के सहयोग से प्रकाशित हुई है ।

कृष्ण कुमार और अजय तिवारी दोनों ही मेरे अध्यापक रहे हैं । कक्षाओं के मामले में दोनों का ही अपने अपने विभागों में कोई मुकाबला नहीं है ।

कृष्ण कुमार ने हिंदी में बहुत कम लिखा है लेकिन हिंदी को बरतने का तरीका उनका हिंदी के स्थापित लेखकों से बीस ठहरता है । यह बात अजय तिवारी की भूमिका को भी साथ में रखकर पढ़ने से और स्पष्ट होती है ।

दोनों ही भूमिकाओं में कोई न कोई साहित्यकार केंद्र में है इसलिए तुलना का स्पष्ट आधार निर्मित हो जाता है । एक तरफ कृष्ण कुमार रघुवीर सहाय की रचना प्रक्रिया और रचनाओं की पृष्ठभूमि के गहन विश्लेषण को पकड़ते वहीं तिवारी जी का नजरिया मूल्यांकन परक ही रह पाता है । तिवारी जी के मूल्यांकन का रास्ता पाठकों को रामविलास शर्मा और उनकी रचनाओं को लेकर वही दृष्टिकोण दे पाता है जो वे देना चाहते हैं । पाठक निरपेक्ष नहीं रह पाता । हिंदी के आलोचनात्मक लेखन में ज्यादातर यही प्रवृत्ति रही है ।

शब्दजाल का आतंक विषय को खोलने के बजाए उसे उलझा कर रख देता है यह प्रवृत्ति दो विरोधी विचारधारा के आलोचकों , कृष्णदत्त पालीवाल और अजय तिवारी दोनों में देखी जा सकती है । इससे यह स्पष्ट है कि यह किसी विचारधारा का गुण होने के बजाय हिंदी आलोचना की आम विशेषता की शक्ल ले चुका है ।

कृष्ण कुमार के संपादकीय भूमिका की एक और विशेषता यह है उसका अंतरानुशासनिक होना । हिंदी में यह बहुत कम देखने को मिलता है । उपर से हिंदी वाले अपनी इस कमी को ढँकने के लिए कहते मिलते हैं कि 'वह ज्ञान का आडंबर' पैदा करता है । जबकि होता इससे ठीक अलग है । यह विषय को समझना बहुत आसान कर देता है इतना ही नहीं इससे विषय का जुड़ाव आम जनजीवन से देखने में सहायता मिलती है । इस मामले में प्रणय कृष्ण का काम हिंदी में महत्वपूर्ण है ।

एक बार फिर से - अपने दोनों ही पूर्व अध्यापकों के प्रति पूर्ण सम्मान प्रदर्शित करते हुए कह रहा हूँ कि मेरा उद्देश्य दोनों व्यक्तियों की तुलना के बदले उनके तरीकों की तुलना करना है ।

अपने तरीके




केरल में रहते हुए मैंने कई बार देखा है कि जो बुराइयाँ हैं उन्हें या तो यहाँ के लोग सिरे से खारिज कर देते हैं अन्यथा उसे बहुत कम करके आँकते हैं । ताज़ा उदाहरण रोहित वेमुला की मौत का है ।

यह तो ज़ाहिर सी बात है कि इस मौत ने पूरे देश में जातीय भेदभाव की बहस को नए सिरे से उठाया है । कल यहाँ भी चर्चा हो रही थी । कई शिक्षकों ने इसे मानने से इंकार कर दिया कि ऐसा कुछ भी केरल में हो सकता है । जबकि यहाँ के नंबूदरी और नायर आदि यहाँ की दूसरी जातियों के साथ कैसा सलूक करते हैं ये इन सबको पता है पर ये स्वीकार नहीं करते । ऊपर से कह दिया कि ये केवल उत्तर भारत में होता है । यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि जब ये उत्तर भारत कहते हैं तो इसका मतलब बिहार और उत्तर प्रदेश होता है । बाकी राज्य इन्हें नहीं मालूम हों जैसे ।

यहाँ एक प्रकार का नृत्य होता है ' तैयम' । उस नृत्य का किस्सा ही शंकरचार्य के ब्राह्मण वाद के खिलाफ दलितों के विद्रोह का है । हालाँकि वह किस्सा और विद्रोह भी धार्मिक है लेकिन विद्रोह महत्वपूर्ण है । आज के समय में तैयम की वह परंपरा कायम है लेकिन जो नृत्य है वह दलित समुदाय के नर्तकों द्वारा ही किया जाता है । इसके प्रमाण के लिए दो बातें की जा सकती हैं - या तो यहाँ आकर तैयम देखा जाये या नहीं तो विलियम डेरलिमपल की किताबNine Lives: in Search of the Sacred in Modern India उसके पहले ही अध्याय में तैयम पर पूरी कहानी है उसे पढ़ा जाये ।

अगली बात यह कि यहीं केरल में ही एक निम्न जाति Ezhva की स्त्रियों के लिए कमर से ऊपर के वस्त्र पहनना प्रतिबंधित था ।

आज हमारे एक सहकर्मी हैं उनसे इसी विषय पर बात हो रही थी तो उन्होने सीधे सीधे कहा कि केरल जैसे 'एडवांस' राज्य के प्रोफेशनल कॉलेजेस की हालत भी HCU जैसी ही है । उन्होने त्रिशूर के एक मेडिकल और दो तीन इंजीनियरिंग महाविद्यालयों का जिक्र किया । उन्होने कहा कि उन महाविद्यालायों में जो छात्र SC - ST कोटे के तहत नामांकन कराते हैं उनकी हालत बहुत खराब ही रहती है । उनका एक तरह से अघोषित बहिष्कार हुआ रहता है । ऊँची जाति के छात्र उनसे दोस्ती नहीं करते और घुलते मिलते भी नहीं हैं ।

यहाँ के दिन प्रतिदिन के मेरे अपने अनुभव बताते हैं कि यह राज्य भी उसी तरह जातिवादी है जिस तरह कि मेरा बिहार । यहाँ सोमवार और शुक्रवार को मुर्गे का माँस मिलता है मैस में तो हमारे सहकर्मी व्यंग्य मे ही सही पर बार बार कटाक्ष जरूर करते हैं कि ब्राह्मण होकर भी माँस खाते हो ... कैसे ब्राह्मण हो ? ( यहाँ सबको पता है कि झा ब्राह्मण होते हैं ) ।

फिर छात्रों से समय समय की बातचीत में यह पता चलता रहा है कि जो छात्र इस जाति आधारित अराक्षण का विरोध करते हैं वे अक्सर सवर्ण ही होते हैं और वही छात्र स्त्रियॉं के काम करने का भी विरोध करते हैं ।

ये ऐसे अनुभव हैं जिन्हें सीधे तौर पर खारिज नहीं किया जा सकता इसके बावजूद केरल के लोग अपने को जातिवादी खांचे में रखने के लिए तैयार नहीं होते । उनके लिए यह बिहार और उत्तर प्रदेश की चीज है । जबकि जैसा ब्राह्मणवाद यहाँ फैला है वह किसी भी स्तर से उत्तर भारत में व्याप्त जातिवाद से अलग नहीं है । हाँ यहाँ उसे छिपाने के अलग अलग मुखौटे जरूर मौजूद हैं ।

झरने का आनंद

केरल के पहाड़ी इलाकों को बारिश की आदत हो जाती है सो बारिश बंद होते ही पहाड़ मायूस हो जाते हैं । ज्यों ज्यों उनकी मायूसी बढ़ती है त्यों त्यों उनका हरापन कम होता जाता है । कम होते हरेपन की वजह से पहाड़ों की वह रौनक नहीं रह जाती जो बारिश में रहती है । बारिश के जाते जाते तक पहाड़ बड़े खुश रहते हैं उनकी सतह पर जमी हल्की से हल्की घास से पानी रस बनकर रिसता रहता है ।

अभी बारिश नहीं हो रही है । आधे दिसंबर के बाद से मौसम गरम होने लगा है । पेड़ पौधे पानी की कमी के कारण अपनी पत्तियाँ गिराने लगे हैं । पतझर के इस मौसम में आम बौरा रहे हैं और शुरू हो चुका है कोयल का गीत ! कोयल ही क्यों कई पक्षी गाने लगे हैं । उनकी आपसी होड़ , पेड़ों पर आनेवाले नए पत्तों की चमक और आम कटहल और अन्य पेड़ पौधों के फूलों से उठने वाली महक सब मिलकर जो संसार यहाँ रचते हैं उसमें अपनी सुध तक भूल जाना कोई बड़ी बात नहीं है ।

पर इस संसार की एक बड़ी कमी यह है कि तेज़ धूप में पहाड़ तपने लगे हैं । उनके ताप का असर हर ओर महसूस होता है । उमस नहीं होती पर चिलचिलाती , चमकदार धूप की गरमी से दोपहर बाद मन तक जलने लगता है । उस समय लगता है कि कहीं कोई सोता हो जहां गरदन तक पानी में अपने को डुबो लिया जाये और इस गरम एहसास को उसी गहराई में कहीं छोड़ दिया जाये । ऐसे ही किसी क्षण में हम निकल जाते हैं जंगल की तरफ ।

जंगल आश्चर्यजनक रूप से ठंडे हैं । बड़े बड़े और घने पेड़ धूप को मुश्किल से ही अपने नीचे आने देते हैं इसलिए नीचे का वातावरण सुखद ही बना रहता है । यहाँ के जंगल मुझे हर बार चकित करते हैं । कभी किसी सोते के पास हाथी का ताजा गोबर मिल जाता है तो कभी उड़ने वाली गिलहरी दिख जाती है तो कभी धनेश का झुंड । मतलब जितना भीतर जाते जाइए उतने रंग निखरते जाएंगे ।

आजकल जंगल के जिस हिस्से की ओर जाता हूँ उसके विशेषता है एक बड़े दायरे में फैला झरना । वह झरना इतना बड़ा और प्यारा है कि इतनी बार गए हो गए फिर भी वहाँ जाने से मन नहीं भरता । झरना काफी बड़ा है और कई खंडों में विभाजित । यह विभाजन इतना मजेदार है कि वहाँ कई झरने एक साथ गिरते प्रतीत होते हैं । ऊंचाई बहुत ज्यादा नहीं है फिर भी बहाव बहुत तेज़ है । एक तो जंगल उसमें भी मुख्य सड़क से पतली सी सड़क उतरकर आगे घने जंगल में सबकी नजरों से बचकर फैला हुआ है वह झरना । उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं सो भीड़भाड़ तो जाने दीजिये मुश्किल से एक दो लोग मिलते हैं वह भी कभी कभार ।

आज की बात बताता हूँ । बादल छाए हुए थे इसलिए उतनी तेज़ गरमी नहीं थी इसके बावजूद दोपहर के बाद मन मचलने लगा । आजकल हम वहाँ नहाते हैं - झरने में घुसकर । उपर से तेजी से आता हुआ पानी एक एक गोल दायरे में गिरता है । वह दायरा बहुत गहरा नहीं है । पर इतना गहरा है कि छाती तक पानी जरूर चढ़ जाता है । अनगढ़ पत्थरों से बना वह दायरा एक छोटा सा प्राकृतिक तालाब है जिसमें आराम से पीठ टिकाकर बैठते हुए हर सेकेंड बदलते पानी को महसूस किया जा सकता है । पानी में पैर रखते ही महसूस हो गया कि मौसम के मिज़ाज के हिसाब से ही पानी भी आज ठंडा है ।

ऊपर से गिरता पानी उस गोल दायरे को एक ही क्षण में भर देता है और अगले ही क्षण वही पानी कहीं दूर चला जाता है । पानी की गति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह एक साथ दो तीन लोगों को थोड़ी दूर तक बहा देता है । वह तो घेरे के सामने वाले पत्थर का भला कहिए जिनके भरोसे हम पानी पर अपने को छोड़ देते हैं । बचपन में हम खेत में पानी देने वाले बोरींग में नहाते थे । उस जैसे कम से कम दस बोरिंग के के बराबर का पानी एक आदमी को बहा देने के लिए काफी ही है लेकिन प्रकृति ने झरने बनाए ही इस कदर होते हैं कि बहने का खतरा बहुत ज्यादा नहीं होता है । हमारा नहाने का स्थान बहुत ही गोपनीय सा है । पहाड़ियों से घिरा हुआ । घेरे के ठीक ऊपर एक पेड़ है और दायीं तरफ बाँस का एक बीट । यह सब मिलकर ऐसा वातावरण बनाता है जैसे झरना उसी पेड़ की जड़ों से निकल रहा हो । मतलब वह स्थान केवल सामने की तरफ से खुला है । वह खुलना भी कोई खुलना नहीं है क्योंकि दूर तक बड़े बड़े पत्थर हैं । उन पत्थरों के पार फैला है जंगल का विस्तार ।

उस तेज़ धार के बहाव में अपने को स्थिर रखने के लिए जो जद्दोजहद करनी पड़ती है उससे बड़ा व्यायाम कोई हो ही नहीं सकता । यही कारण है कि वहाँ से लौटने के बाद नींद आने लगती है ।

वर्कला बीच





वर्कला का समुद्र तट रंगा रहता है समंदर के रंग से , किनारे की लगातार ढहती हुई लाल मिट्टी के रंग से और सबसे बढ़कर सूरज के रंग से !

यहाँ पर बालू की पट्टी कम चौड़ी है जिसकी जगह पत्थर मिट्टी की खड़ी ऊंचाई ने ले रखी है और यही ऊंचाई इस तट को ख़ास अंदाज देती है जो भारत के किसी अन्य समुद्री तट से बिलकुल जुदा है ।
यह जितना रंगीन है उतना ही व्यक्तिगत और शांत भी ... जहाँ भीड़ रहती है उससे थोड़ी दूर दायें या बाएँ चले जाइए आप भीड़ से न सिर्फ अलग हो जाएंगे बल्कि ओझल भी । शायद इसीलिए विदेशियों का यह प्रिय तट है ।

एक बात मैंने फिर से देखी - विदेशी हमारी फोटो खींचने के लिए झट से तैयार हो जाते हैं पर अपने देसी तो पता नहीं किस गुमान में रहते हैं ।

सबसे मजेदार क्षण वह था जब सूरज ने पानी की सतह को छू लिया फिर दिन बड़ी जल्दी और खामोशी से छिप गया था तब सबसे ज्यादा जल्दी मुझे थी क्योंकि वहाँ से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर मैं ठहरा हुआ था ।

केरल के तटीय इलाकों में ट्रेन से जरूर यात्रा करिए ... हो सके तो पैसेंजर ट्रेन से । इस यात्रा में जो नजारे दिखेंगे वे आपकी उम्मीद से काफी अलग होंगे !

कोवलम बीच

मुझे कुछ जगहें इतनी प्यारी लगती हैं कि वहाँ कई बार जाने का मन करता है । चाहे कोई लाख कहे कि क्या बदल गया होगा वहाँ या फिर सब तो समुद्र तट ही हैं आदि लेकिन जो मजा अपनी प्रिय जगहों पर जाने का है वह कभी कम नहीं होता !

कोवलम का समुद्र तट मुझे भारत के सभी तटो में सबसे खूबसूरत लगता है (लक्षद्वीप और अंडमान नहीं गया हूँ तो वहाँ के बारे में राय नहीं है यह) ।

वहाँ का सौन्दर्य बड़ा ही मोहक है ... साथ ही मोहक हैं वहाँ के बड़े बड़े पत्थर जिन पर बैठकर सूरज को निहारा जा सकता है । उसे विदा दी जा सकती है । आने वाले कल के वादे लिए जा सकते हैं । उन पत्थरों के नीचे लहरों कि जिद है और ऊपर पत्थरों सा हौंसला । दो जिदों की जंग का अनुभव बड़ा ही सुखद होता है वहाँ !
और इन सब के बीच सूरज को पानी में डूब जाने तक देखना कम से कम इस आनंद को तो नए तरह से हर बार परिभाषित करता ही है !

न हो कमीज़ तो पैरों से पेट ढँक लेंगे

Alok Jha's photo.

आज मैंने अपनी कक्षा में एसएमएस मार्केटिंग का जिक्र किया बाजार के पहुँच को समझाने के लिए । पाठ था जैनेन्द्र का बाजार दर्शन । बात उस से आगे बढ़ गयी कि उसी तरह एसएमएस से जुड़े किस्से की तरफ ।

कुछ दिनों पहले एक एसएमएस आया था एक कंपनी का कि तीन कपड़े खरीदने पर कंपनी तीन और कपड़े मुफ्त दे देगी । मेरे पास पैसे नहीं थे तो मैंने अपने एक मित्र को यह बात बताई उसने कहा वो ले लेगा । हम दोनों चल दिए । दुकान वाले से उस छूट के बारे मे बात की तो उसने कहा हम ये छूट यहाँ नहीं देते । केरल में इस तरह की छूट नहीं चलती । मेरे लाख समझाने पर भी कि कंपनी वही है और एसएमएस में साफ कहा गया है कि यह राजस्थान में लागू नहीं है वह दुकानदार नहीं माना । हम दोनों दोस्त मायूस होकर चले आए ।

जब मैंने यह किस्सा अपने छात्रों को बताया तो उनमे से एक ने कहा कि गुरुजी आप केस कर दो । मैंने कहा रहने दो । पता नहीं कुछ हो भी पाएगा कि नहीं ।

इस पर एक लड़की बोल उठी कि गुरु जी आपने पिछले साल ग्यारहवीं में दुष्यंत का एक शेर कहा था -
न हो कमीज़ तो पैरों से पेट ढँक लेंगे
ये लोग मुनासिब हैं इस सफर के लिए ।
और आप ही कुछ नहीं होगा इसलिए केस नहीं कर रहे हैं ।

मैं इस बात से चकित था कि यहाँ केरल के विद्यालय में जहां कल का पढ़ाया हुआ आज भूल जाते हैं बच्चे , पिछले साल का पढ़ाया गया शेर याद कैसे रह गया उस बच्ची को । दूसरी बात कि हिन्दी की कोई कविता भी नहीं एक मुकम्मल शेर । कविता तो कई बार गाते सुनते हैं तो याद होना लाज़िमी है पर शेर और ग़ज़ल बड़ी चीज है इनके लिए ऐसा मैं मानता था ।

पर वह आश्चर्य ज्यादा देर तक नहीं रहा क्योंकि शेर दुष्यंत का था । दुष्यंत जिनके शेर लोकोक्तियों की शक्ल ले चुके हैं उनके लिए यह बड़ी बात नहीं कि किसी की जुबान पर चढ़ जाये और वह सही समय पर उपयोग कर ले ।

और ऐसे शायर हमे यह शुबहा भी दे जाते हैं कि छात्रों के साथ जो काम मैं करता हूँ या जो मेरा तरीका उसे आगे बढ़ाते रहना चाहिए ।

कौव्वे के बच्चे


बचपन से ही कौवों को देखता आ रहा हूँ । हाँ , सभी देखते हैं क्योंकि वे हैं ही इतनी बड़ी मात्रा में । वही कौवे जो कभी रोटी का टुकड़ा ले के भाग जाते थे कभी हमारे हाथ से कोई खाने का समान !

कौवे पहले ज्यादा खतरनाक काम करते थे । वे उड़ाई हुई रोटी के टुकड़े या कोई अन्य खाद्य पदार्थ खपड़े के नीचे छुपा देते थे और भूल जाते थे । फिर उन्हें जब याद आता तो छत के बड़े हिस्से के खपडों को उलटने पलटने की कोशिश करते । इस काम में कई खपड़े टूट जाते थे । फिर बारिश के मौसम में छत के उन टूटे हुए या खिसके हुए  हिस्सों से पानी की बूंदें टपकती थी । आज तो खपड़ैल वाली छत ही खतम हो गयी हैं ।

छठ पर्व के समय कौवों पर सबसे ज्यादा निगरानी रखी जाती थी । उस पर्व में पवित्रता का ज्यादा महत्व होता है । खरना के दिन जब आँगन में प्रसाद की सामाग्री धोयी -सुखाई और ओखली - मूसल में कूटी जाती थी तो स्त्रियाँ बांस की लंबी - लंबी करचियाँ लेकर कौवों को उड़ाती रहती थी । यदि किसी की सामाग्री में किसी कौवे ने चोंच भी भिड़ा दिया तो संबन्धित व्यक्ति और अन्य लोग भी इसे बड़ा अपशकुन मानते थे ।

पिछले कुछ वर्षों से छठ में शामिल ही नहीं हुआ हूँ तो अभी के हालात नहीं पता ।

खेतों में तो कौवों का उत्पात जग जाहिर है । मेरी माँ बताती हैं कि अपने बचपन में वे और उनके अन्य भाई बहन मकई बोने के बाद , फसलों में दाने आने के बाद खेतों में कौवों को भागने के लिए पुतले बनाकर लगते थे । उन पुतलों की शर्त ये होती थी कि वे डरावने हों । कभी कभी उन पुतलों से उन्हें ही डर हो जाता था । इतना ही नहीं वे कौवों को भागने के लिए गीत भी गाती थीं - 'हा - हो रे , पर्वतिया कौवा ...' ।

कौवों का उत्पात मैंने भी बहुत देखा है और ढेर सारी कहानियाँ भी सुनी हैं । लेकिन कभी कौवों का घोंसला देखने का मौका नहीं मिला । उनके बच्चों को तब ही देखता जब वे उड़ने लगते और बच्चे तभी लगते जब उनके माता - पिता उन्हें खाना खिलाते ।

अभी हाल में एक यात्रा के दौरान मुझे कौवे का घोंसला देखने को मिला साथ ही दिख गए कौवे के बच्चे । इतने छोटे जिनको बच्चे ही कह सकते हैं । उनकी चोंच काफी बड़ी थी उतनी ही जितनी वयस्क कौवों की होती है । कैमरा था तो तस्वीरें ले ली ।

वहीं मैंने एक और बात देखी कि उन बच्चों की देखभाल कौवा -कौवी ही कर रहे थे कोई कोयल नहीं । मैंने सुन रखा था कि कौवे अपने बच्चों की देखभाल नहीं करते , कौवे दुष्ट होते हैं और अपने अंडे कोयल के घोंसलों में रख आते हैं वगैरह । अब ये बातें कितनी सच हैं ये मैं नहीं जानता पर मैंने वहाँ जो देखा उससे कौवे मुझे दुष्ट नहीं लगे । हाल में दोस्तों ने बताया कि बात उल्टी ही है । कौवे के घोंसले में कोयल अपने अंडे रख जाती है । उसके बाद भी सभी बच्चे काले कौव्वे के समान ही थे । सो कोयल के होने की संभावना नहीं है । 
उनके बच्चे तो बहुत ही प्यारे थे ।

अपना अपना काम



चेन्नई हवाई अड्डे के बाहर 13-14 बरस का एक लड़का मिला । चेहरे की हवाइयाँ उडी हुई और आँखों के आसपास रोने के निशान ! मैं उसकी ओर ध्यान भी नहीं देता यदि उसने अपने पिता को फोन करने के लिए मेरा फोन नहीं मांगा होता ।

उसके पिता किसी दुर्घटना में घायल होकर अस्पताल में थे , वह दवाई लेने चेन्नई आया था । ऑटो वाले ने उसे लूट लिया । उसके पास फोन, लैपटाप आदि सब थे पर सब छीन लिया गया । उसने हवाई अड्डे के पुलिस वालों से शिकायत भी की लेकिन हमारे अलग अलग प्रकार के पुलिस वाले तो अलग अलग देशों की तरह व्यवहार करते हैं न । सो उन्होने उससे कहा कि जहां घटना हुई वह तो राज्य पुलिस के दायरे में आता है ।

इस बीच उसने जो दो फोन नंबर दिए थे वे भी सेवा में नहीं बताए जा रहे थे । मतलब एक पूरी सेटिंग बन गयी थी जिसके बाद मैं ही पहल करता और मैंने किया भी - तुमने खाना खाया ? उसने खाना नहीं खाया था । खाने की बात पूछते ही उसे लगा कि मैं उसकी मदद कर सकता हूँ । उसने अपने पिता की दवाई के लिए कुछ पैसे माँग लिए । मैंने दे भी दिए ।

रूपय देते देते समय मेरे मन में दो भाव थे । पहला तो यही था कि यह बच्चा मुश्किल में है इसकी मदद होनी चाहिए । पर दूसरा साफ कहता था कि यह बच्चा झूठ बोल रहा है । इतनी सारी त्रासदी इसी इसी लड़के के साथ नहीं हो सकती , और इसके बाद वह यहाँ हवाईअड्डे पर क्या कर रहा है आदि बातें दूसरे भाव का समर्थन भी कर रहे थे ।

मुझे दोनों ही स्थितियों में पैसे देने में कोई दिक्कत नहीं थी । मैं यह मानकर भी चलूँ कि उसने मुझे धोखा दिया तो भी मैं खुश हूँ । यदि मैं लोगों पर अविश्वास ही करता रहूँ तो किसी पर विश्वास कर ही नहीं पाऊँगा । उस हालत में तो मुझसे किसी जरूरतमन्द की भी मदद नहीं हो पाएगी । जान -बूझ कर भी यदि मैंने उसे पैसे दिए तो उसकी खुशी इसी लिए है ।

अंत में यह भी कि, सब अपना - अपना काम करते हैं । किसी के बुरा होने या करने के कारण मैं अपना काम तो नहीं छोड़ सकता न ।

उम्मीद




यह कबूतर के बच्चे के साथ मेरी सेल्फ़ी है ... सेल्फ़ी शब्द इतना चल पड़ा है कि इसे लिखते या बोलते हुए मन उसी तरह झिझकने लगता है जैसे व्हाइ दिस कोलावेरी , कोलावेरी , कोलावेरी डी सुन कर होता था / है ।

कुछ दिनों पहले की बात है , मैं घर से लौट रहा था काम पर । उसी सिलसिले में कुछ समय के लिए दिल्ली रुकना हुआ । जब समय कम हो तो आप अपने पुराने ठीहों पर अपने दोस्तों से शायद ही मिल पाते हैं ! मैंने भी दोस्तों को दिल्ली विश्वविद्यालय या उसके आसपास के बजाय कनॉट प्लेस के सेंट्रल पार्क बुला लिया ।

अभी अभी सुबह ही हुई थी वातावरण पर खास सुबह का रंग और असर था जो दिल्ली में अमूमन दिखने को नहीं मिलता । बरहखंभा रोड मेट्रो स्टेशन वाली सड़क के ऊपर कहीं पर सूरज टिका हुआ था जो पार्क में बने झरने के ऊपर के पुल के बीचोबीच खड़े होकर देखने से ठीक नाक की सीध में लग रहा था । इतना ही नहीं सूरज ने अपने नीचे के पूरे वातावरण को अपने अंदाज में इस कदर बदल दिया था कि किसी भी मकान / दुकान की कोई ख़ास छवि नहीं बन रही थी सब सूरज के रंग में ही रंगे थे ।

पार्क के भीतर एक दो लोग कसरत कर रहे थे , कुछेक दिल्ली की भागदौड़ में स्कूल , कॉलेज या काम पर जाने से पहले प्यार के हसीन लम्हों को जी रहे थे । और कुछ उन्हें ही देखे जा रहे थे जो सबकी नज़र बचा कर भी एक छोटे से किस के लिए तमाम मेहनत कर रहे हों ।

मैं जहाँ खड़ा था उसके ठीक नीचे कृत्रिम झरना था । उसके बंद होने के बावजूद मुझे वहाँ खड़ा होने में मजा आ रहा था । वहाँ ढेर सारे कबूतर थे और कुछ कौव्वे भी । कबूतर इधर उधर से कुछ कुछ चुनकर खाते फिर उनका पूरा झुंड एक साथ फर्र की आवाज करते हुए एक गोल चक्कर लगाने उड़ जाता । इसी दौरान मैंने देखा कि एक कबूतर पानी में तैर रहा है । मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । मुझे लगा कि यह तो जीव विज्ञान और उसके अनुकूलन की दिशा में एक नया आयाम है । पर अगले ही पल मेरा आश्चर्य उड़ गया । वह कबूतर पानी में गिर गया था और डूबने से बचने की जुगत में था ।

उस कबूतर के ऊपर कव्वे मंडराने लगे और एक चील तो बिलकुल उसके पास तक गोता लगाते हुए चली आई । मैं उस कबूतर को बचाना चाह रहा था पर वह जहाँ था वहाँ से उसे किनारे तक लाना एक बड़ी मुसीबत थी । इधर उधर नज़र दौड़ाई तो एक लंबा डंडा मिल गया । जब मैंने नीचे जाकर डंडे से उस कबूतर को अपनी ओर खींचना शुरू किया उस समय कई कव्वे पता नहीं कहाँ से मेरे आसपास आ धमके । बहरहाल किसी तरह मैंने उस कबूतर के बच्चे को पानी से निकाल लिया । उसका बदन पूरा भींगा हुआ था और ज़ोरों की कंपकंपी थी उसमें ।

उस झरने के पानी से बाहर ढेर सारे कबूतर दना चुग रहे थे मैंने उसे उनके बीच ही रख दिया । पर मेरे हटते ही कबूतर उड़ गए और उनका स्थान कौव्वों ने ले लिया जो उसे नोच डालना चाहते थे । वह बच्चा कबूतर उड़ भी न पाये । अंत में मैंने उसे सेंट्रल पार्क के गेट पर खड़े गार्ड के पास रखने का निश्चय किया । मैं जब उसे ले जा रहा था तो एक चील ने झपट्टा मारा । सही समय पर यदि मैंने हाथ न हटाया होता तो कबूतर उस चील के पंजे में होता । इतने नजदीकी हमले से कबूतर बहुत घबरा गया और मेरे हाथ में फंसा उसका शरीर ज़ोरों से काँपने लगा ।

अच्छी बात यह रही कि गार्ड उसकी देखभाल के लिए राजी हो गए । आज मैं यहाँ केरल में हूँ । मुझे नहीं मालूम कि उस कबूतर के बच्चे के साथ क्या हुआ होगा । पर मैं यह नहीं सोचता हूँ । मुझे मालूम है कि उसके साथ बहुत सी मुश्किलें पेश आयीं होंगी । नीचे कुत्ते और बिल्लियों का खतरा तो ऊपर कव्वे और चील का । पर उम्मीद करता हूँ कि वह बच गया होगा ।

अपने हिस्से का काम कर तो दिया है बाकी तो बस उम्मीद ही है ।

धनुष्कोटी के खंडहर


दरअसल मेरी यात्रा का उद्देश्य केवल धनुषकोटी ही जाना था बाकी जगहें तो आसपास होने के कारण बाद में जुड़ती चली गईं । यहाँ जाना उसी दिन तय कर लिया था जब मैंने इसके बारे में पढ़ा था मतलब काफी पहले । बस समय मिलने की देर थी और मैं पहुँच गया ।
धनुष्कोटि हमारे हालिया इतिहास का हिस्सा है । बहुत पुरानी बात नहीं है बस 1964 की है जब एक शाम भीषण चक्रवाती तूफान ने इस अंतिम छोर पर बसे गाँव को घेर लिया और कुछ ही घंटों में गाँव तबाह हो गया । कहते हैं धानुष्कोटि स्टेशन पर एक ट्रेन तभी तभी आकर रुकी थी जब वह तबाही शुरू हुई । उसमें ज़्यादातर बच्चे सवार थे । कुछ ही बच पाये । उस तूफान ने सब कुछ ख़त्म कर दिया । बहुत लोग मारे गए और यह गाँव लोगों के रहने के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया । जो लोग बचे उनसे वह स्थान खाली करवा लिया गया और वे आस पास के स्थानों में रहने भेज दिए गए ।

वह गाँव उस तबाही की रात से पहले एक भरा पूरा गाँव था ... हाँ समुद्र से उसकी कुछ ज्यादा ही निकटता थी सो उसके परिणाम से गाँव अवगत होगा ही लेकिन इतने बुरे परिणाम की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । वही डर है कि आज भी लोग वहाँ से रात को निकल जाते हैं और आज भी वहाँ स्थायी बसावट नहीं है ।

धनुष्कोटी राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या -49 का अंतिम बिन्दु है उसके बाद समुद्र फिर श्रीलंका । वहाँ तक जाने के लिए रामेश्वरम जाना ही पड़ता है जहां से आगे 20 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है । अब तो सरकारी बसें उस ना-आबाद गाँव से 6 किलोमीटर पहले तक जाती हैं फिर आप को या तो मेटाडोर या फिर जीप मिलेगी । पास में ही कथित राम सेतु और वह बिन्दु भी है जहां बंगाल की खाड़ी और हिन्दी महासागर मिलते हैं ।

धनुष्कोटि तक पहुँच जाना मेरी उपलब्धि थी । वहाँ पहुंचा तो उसे उसी तरह स्थिर और मूक पाया जैसी मैंने कल्पना की थी । उन इमारतों के हिस्से अब भी खड़े हैं जिन्हें देख कर अंदाजा लगा सकते हैं कि कभी इनमें लोग रहते होंगे , कभी यहाँ भी चहल पहल रही होगी । सड़क की ईंटें समुद्री लहरों से उखड़कर बाहर आ गयी हैं लेकिन भरपूर अंदाजा देती हैं कि कभी वह कितनी काम की रही होगी । रेलवे स्टेशन के अवशेष खड़े हैं उसकी पानी की टंकी कि पूरी की पूरी संरचना खड़ी है । स्कूल की दीवार के हिस्से बचे हैं , अस्पताल के कमरों के ऊपर छत नहीं हैं दरवाजे नहीं हैं लेकिन उसके कमरों की निजता अभी भी सुरक्षित है । हाँ उन कमरों में लारों द्वारा भर दी गयी रेत का साम्राज्य है । डाकघर, मंदिर और सबसे ऊंचे सिर उठाए खड़ा चर्च जिनमें कभी लोगो की ठीक ठाक आवाजाही रही होगी आज क्षत विक्षत खड़े हैं ।


स्टेशन , डाकघर , अस्पताल , मंदिर , चर्च आदि संस्थान बताते हैं कि यह उस 1964 में बड़े महत्व का स्थान रहा होगा । इसका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि यह श्रीलंका से बस 18 मील दूर है । वहाँ से कुछ दिखता तो नहीं था पर वोडाफोन मोबाइल पर श्रीलंका का संदेश जरूर आ गया ।

इन संस्थानों से अलग लोगों की बात करें तो उनके घर भी उसी तरह ध्वस्त हो गए जैसे उनके प्राण । जो बचे वे घर छोड़ कर चले गए भविष्य की किसी आपदा से बचने के लिए । यहाँ रह गए उनके घर जो समय के साथ खाली और नष्ट होते चले गए । मकानों की बनावट से पता चलता है कि धनुष्कोटि काफी पहले से आबाद रहा होगा और कालांतर में लोगों ने स्थायी घर बना लिए । पर तूफ़ान ने उन्हें यह मानने पर बाध्य कर दिया कि यह स्थान जीवन के अनुकूल नहीं है ।

इन खंडहरों और समुद्र को मिलाकर एक पूरे लैंडस्केप को देखें तो यह स्थान कितना ही सुंदर और भव्य लगता है । हल्की स्वर्णिम रेत पर खड़े धूसर रंग के खंडहर और इन सब की पृष्ठभूमि में जहां तक नजर ले जाइए नीला समंदर । इस गाँव में जहां कोई नहीं रहता , जहाँ समुद्र ने इतनी बड़ी तबाही मचाई उसका समुद्र तट इतना सुंदर, आकर्षक और शांत कैसे हो सकता है ?

नीले समंदर पर रुई जैसे सफ़ेद बादलों वाला आकाश ... और सूरज की तेज चमक वाली रोशनी सब तो हैं वहाँ पर उसके अपने लोग नहीं हैं । पर्यटक हैं जो शाम से पहले निकल जाएंगे या नहीं तो निकाल दिए जाएंगे ।

वहाँ किसी दीवार के साये में खड़े होकर या फिर टूटे हुए मंदिर में धूप से बचने के लिए बैठे हुए कुत्ते को देखकर कई बार यह खयाल आता है कि यहाँ भी ठीक वही दुनिया रही होगी जहाँ से हम आते हैं । उतनी ही हंसी और आँसू रहे होंगे । किसी ओर से मछलियाँ पकड़ी जा रही होंगी और किसी घर से मछलियों के पकने की महक आ रही होगी । पर अभी तो बस अंदाजे हैं ।

भारत सरकार बहुत तेजी से वहाँ तक का राष्ट्रीय राजमार्ग ठीक कर रही है जो तब तबाह हो गया था । यह काम कई सालों से चल रहा है । सड़क को दोनों तरफ से पत्थरों से घेरा जा रहा है ताकि कठिन से कठिन अवस्था में भी सड़क सुरक्षित रहे । इसलिए समय लग रहा है और एक दो साल और लगे । इस बीच वहाँ हो आना ज्यादा अच्छा है क्योंकि जो रोमांच मेटाडोर से पानी के बीच में चलने में है वह राष्ट्रीय राजमार्ग से कतई नहीं मिलने वाला ।

अब कहाँ दूसरों के दुख से दुखी होने वाले



निदा फ़ाजली ने एक गद्य लिखा है जो 'अब कहाँ दूसरों के दुख से दुखी होने वाले' नाम से हमारे यहाँ दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में लगा है । यह गद्य क्रमशः कम होती मानवता के बारे में है । हम अपने समान दूसरे मनुष्यों के प्रति असंवेदनशील तो हुए ही हैं साथ ही पशु - पक्षियों , पेड़ - पौधों के लिए अपने मन में सहानुभूति की कोई गुंजाइश नहीं रहने दी है ।

जब भी मैं यह गद्य पढ़ाना शुरू करता हूँ तो निदा का ही एक दोहा जरूर कहता हूँ , जो अपने एम ए के दिनों में उर्दू विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित मुशायरे में उनसे ही सुना था । तब सेलफ़ी का जमाना नहीं था अन्यथा इस बात के प्रमाण स्वरूप उनके साथ अपनी तस्वीर जरूर डाल देता । बहरहाल दोहा कुछ इस तरह है -
बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान 
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान


पहली बात तो यह कि इस दोहे को यहाँ पर समझाना बड़ा कठिन है लेकिन जब एक बार वे समझ लेते हैं तो बात बहुत तेजी से आगे बढ़ जाती है । क्योंकि जिस प्रकार की धार्मिक जिद यहाँ है वह शायद ही कहीं और देखने को मिले सो धर्म किसी बात को समझने समझाने का बड़ा ज़रिया बन जाता है ।

मैं आगे कहता हूँ कि बस अंदाजा लगाएँ कि आपके यहाँ हर गली - नुक्कड़ पर खड़े मंदिर , मस्जिद और चर्च कितनी बड़ी संख्या में हैं और इस बात का भी अंदाजा लगाएँ कि देश या आपके ही राज्य में कितने लोग बेघर हैं । यदि उन बेघरों को उनमें रहने दिया जाये तो देश की कितनी बड़ी समस्या हल हो जायेगी ।

इस स्थिति तक आते आते मैंने हर साल देखा है कि कक्षा बहुत शांत हो जाती है लगभग निस्तब्द्ध ! फिर एक बात उठती है हम ऐसा करते क्यों नहीं । तो हमारे छात्र लगभग एक से उत्तर देते हैं चाहे किसी भी धर्म के हों । उनके उत्तरों के हिसाब से बेघर लोगों के रहने से मंदिर , मस्जिद और चर्च अपवित्र हो जाएंगे ।

इसके बाद मेरा अगला प्रश्न होता है - मान लो यदि सच में ईश्वर उन जगहों पर रह रहे होते तो क्या वे उन बेघरों को मना करते ?
वे कहते हैं - नहीं ।
मैं फिर पूछता हूँ - क्यों ?
लगभग समवेत उत्तर आता है - क्योंकि ईश्वर सबसे दयावान है वह कभी नहीं चहेगा कि कोई बेघर रहे ।

फिर ईश्वर के नाम पर ही , हम बेघरों को उन स्थानों में रहने से मंदिरों , मस्जिदों और चर्च के अपवित्र हो जाने की चिंता किए बगैर रहने क्यों नहीं देते ? हिन्दू धर्म में तो दलितों के मंदिरों में प्रवेश तक को रोकते हैं , रहना तो दूर की बात है । यहाँ तक आते आते छात्र निरुत्तर हो जाते हैं और मुझे भी लगने लगता है कि यह उनके साथ ज्यादती है ।

मैं निदा के लिखे प्रसंगों की ओर चला जाता हूँ । लेकिन मन में इतना निश्चिंत जरूर हो जाता हूँ कि जो प्रश्न उनके भीतर छोड़ चुका हूँ वे उनसे जरूर लड़ेंगे । शायद उत्तर खोजने की कोशिश करें और न खोज पाये तो भी एक बेघर को उस अपवित्रता वाले चश्मे से नहीं देखेंगे ।

सबके खियावे के अनवा दs






चंदा मामा , चंदा मामा , हँसुआ दअ 
ऊ हँसुआ काहे के , खरई कटावे के ,
ऊ खरई काहे के , बरधा खियावे के ,
बरधा खियावे के खरई दअ ...
चंदा मामा , चंदा मामा, हँसुआ दअ


ऊ बरधा काहे के , हरवा चलावे के , 
ऊ हरवा काहे के , खेतवा जोतावे के,
खेतवा जोतावे के हरवा दअ .... 
चंदा मामा , चंदा मामा, हँसुआ दअ


ऊ खेतवा काहे के , अन्न उपजावे के, 
ऊ अन्नवा काहे के , सबके खियावे के,
सबके खियावे के अन्नवा दअ ... 
चंदा मामा , चंदा मामा हँसुआ दअ !





भोजपुरी भाषा की यह लोरी कितनी छोटी जरूरतों की बात करती है ... जब हम इस तरह के गीत सुनते - पढ़ते हैं तो स्वाभाविक रूप से पुरानी चीजों को याद करने लगते हैं और आज से उसकी तुलना करने लगते हैं , जिसे कई बार लोग स्वीकार नहीं करते । लेकिन केवल पुरानी बात और नोस्टाल्जिया का हवाला देकर ऐसे गीतों को ख़ारिज नहीं किया जा सकता । ये गीत हमें जीवन का वास्तविक अर्थ समझाते हैं और अंत तक आते आते जिस तरह सब की बात करने लगते हैं वह आज की लोरियों में नहीं मिल सकता !

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...