पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब
खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब
मैं जब बड़ा हो रहा था तो यह दोहा मेरे आसपास था । दोहा इसी तरह सबके आसपास हो ज़रूरी नहीं लेकिन इसका आशय हर जगह एक सा ही रहता होगा । बच्चे के बड़े होने और अपना जीवन शुरू करने में खेलकूद की भूमिका को सीमित ही नहीं बल्कि फ़िजूल क़रार कर देने वाली यह बात हमारे समाज का यथार्थ है । जब – जब ओलंपिक खेलों का आयोजन होता है हमें खेल की याद आती है और एक दुख छा जाता है कि हम इतनी बड़ी जनसंख्या रखते हुए भी वैश्विक स्तर पर मुक़ाबले के लिए खिलाड़ी नहीं तैयार कर पा रहे हैं और छोटे छोटे देशों से पीछे रह जा रहे हैं । आत्मग्लानि के इस वक़्त में लड़के – लड़कियाँ पढ़ाई के अलावा जो भी करते दिखाई देते हैं वही चिढ़ पैदा करने लगती है । लेकिन हम इस बात पर कभी क्षोभ करते नहीं देखे जाते कि उनके करने के लिए रख क्या छोड़ा है । पढ़ने – लिखने को मुख्यधारा मान लिया गया है । रोजगार के लिए उधर जाएँ और उसके अलावा जो है सब फ़िजूल की श्रेणी में रखें । वहाँ भी सफलता मिलने की कोई गारंटी नहीं है । खेल और प्रदर्श कलाओं की ओर हमने हमेशा हिक़ारत भरी दृष्टि से ही देखा । संगीत ,पेंटिंग , नृत्य , खेल , नाटक आदि में जो शीर्ष पर पहुँच जाते हैं उन्हें हम पूजने भले ही लगें लेकिन उस स्थिति तक पहुँचने की प्रक्रिया को कभी नहीं देखते । ऐसा किया तो , हर उस व्यक्ति को स्वीकार करना पड़ेगा और सम्मान देना पड़ेगा जो अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं । इस तरह देखा जाये तो ये क्षेत्र पढ़कर नौकरी हासिल करने से ज्यादा संघर्षपूर्ण है । कठिन रास्ता है जहां सफल होने से पहले तक न सिर्फ गुमनामी रहती है बल्कि तिरस्कार का माहौल भी बराबर बना रहता है । ओलंपिक खेलों में पदकों की कमी को लेकर हम निराश हो सकते हैं और हमारा निराश होना जायज़ भी है लेकिन उससे भी निराशाजनक खेलों को बरतने की प्रक्रिया है । हम जिन देशों से अपनी तुलना करते हैं उनके यहाँ खेलों में निवेश होता है समाज की आवश्यक भूमिका होती है और जहाँ – तहाँ खेलने के लिए मैदान और सुविधाएँ रहती हैं । हमने अपने मैदान खत्म कर वहाँ घर बना लिए , खेती शुरू कर दी । शहरों में पार्क हैं लेकिन वहाँ कोई भी खेल न पाये इसलिए बाहर ‘पार्क में खेलना मना है’ का बोर्ड लगा दिया । गाँवों में जमीन का कोई न कोई टुकड़ा ऐसा होता था जिसे सार्वजनिक जमीन माना जाता था और उस पर गाँव के माल-मवेशी चरते थे , वहीं कोई न कोई खेल खेलने का विकल्प रहता था । वह चरी की ज़मीन अब दिख जाये यही बहुत बड़ी बात है ।
यूँ हमारे पास चौड़ी और तेज़ी से गाडियाँ चला सकने वाली सड़कें हैं उनसे सटे स्टेडियम हैं , जिम हैं , खेल के सेंटर भी हैं लेकिन वह हमारी उस जनसंख्या के लिए कितनी उपयोगी है यह देखने की बात है । अव्वल तो हमने जिसे दीवारों में घेर दिया उस तक आम पहुँच अपने आप कम हो जाती है । फिर वह जगह सार्वजनिक पहुँच में रह ही नहीं जाती । राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के भीतर मौजूद स्टेडियम को रग्बी स्टेडियम बनाया गया । ऊपर से देखा जाये तो यह एक अच्छा प्रयास ही लगता है क्योंकि सुविधाओं में विस्तार हुआ और चमक दमक बढ़ गयी । लेकिन इसकी कीमत उस स्टेडियम की सहज उपलब्धता से चुकानी पड़ी । पुनरुद्धार से पहले वह स्टेडियम विद्यार्थी और आसपास के मोहल्लों में रहने वाले विद्यार्थीनुमा लोगों के लिए खुला था । उनसे वहाँ का वातावरण गुलज़ार रहता था लेकिन बदली हुई परिस्थिति में तमाम सुविधाओं के होने के बाद भी चंद लोग ही उस तक पहुँच सकते हैं और उसका उपभोग कर सकते हैं । ऐसे में किसी प्रतियोगिता की तैयारी को तो भूल जाना ही बेहतर ।
खेलों को लेकर सरकारी उदासीनता और उसके खर्चे में कटौती की बात करना बार बार एक ही राग दोहराना लगता है लेकिन यह हमेशा ध्यान में रखने वाली बात है । सरकार की खेल नीति तब दिखती है जब कोई पदक जीतता है उससे पहले तक यह नीति सात तहों में दबी रहती है । आजकल कटौतियों का दौर है तो खेल के बजट में भी कमी की गयी । पहले भी हालत कोई बहुत बेहतर नहीं थे । खेल सेंटर्स में अधिकारियों की मनमानी है , भ्रष्टाचार है । वहाँ मिलने वाले भोजन में दाल के दाने तक ढूँढने से नहीं मिलते तो पौष्टिकता कहाँ से मिलेगी । शिकायत की तो करियर चौपट करने की धमकी सामने ही रहती है । यह सब खुले रूप में चल रहा है ।
पदकों की उम्मीद लगाना बढ़िया है लेकिन यह मौसमी ज्वार अखबारों में ओलंपिक की खबरें आनी बंद होने के साथ न उतरे तो बेहतर होगा । खेल भी करियर का एक रास्ता हो सकता है इस सोच तक हमें आना होगा ।
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