जुलाई 21, 2021

आइडिया ऑफ इंडिया और बकरीद

यात्राओं में अक्सर कुछ न कुछ ऐसा दिख जाता है जो याद रहने लायक हो , एक मुस्कान ले आये या फिर चारों ओर की कड़वाहट के  बीच कोई मधुर , स्नेहसिक्त पल दे सके । मेरे लिए यात्राओं के ये पल बेहद ख़ास होते हैं । मैं उन्हें सहेजकर रखता हूँ किसी यादगारी सामान की तरह । बेशक मेरे फ्रिज़ पर अलग अलग जगहों से जुड़े फ्रिज़ मैग्नेट न हों, चाहे अपने को 'ट्रेवलर' कहने का कभी मन न हो लेकिन वे कहानियाँ खूब सारी हैं जो दिल खुश कर दे । मजे की बात ऐसी कि हर यात्रा में ऐसे एकाध किस्से ज़रूर जुड़ते हैं । 


आज दोपहर बाद दिल्ली छूट रही थी और धीरे -धीरे वे बातें हावी होती जा रही थी जो रोज़ाना की ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हैं । अपने काम में मुझे बहुत आनंद आता है लेकिन अंततः वह काम ही है , उसकी अपनी आवश्यकताएँ और तरीके हैं जो अक्सर निराश कर जाते हैं । दिल्ली में बकरीद मनाया जा रहा होगा लेकिन मैं जहाँ काम करता हूँ वहाँ कल ही यह त्योहार बीत चुका था । अपना बैग जमा करवाने के लिए मैं लाइन में लग गया । आज शायद पहली बार था जब मैं किसी झुंझलाहट में नहीं था वरना लंबी लाइन , अनाप शनाप नियम कायदे और लाइन तोड़कर आगे बढ़ जाने वाले और सबसे बढ़कर दिल्ली छूटने का असर एक अलग ही नकारात्मक भाव में भरे रहते हैं । 


इंडिगो एयरलाइंस के ग्राउंड स्टाफ के लोग अपने लिए निर्धारित वेश के बदले अलग ही सजधज में लोगों की मदद कर रहे थे । लड़कियों के लिए चूड़ीदार और लड़कों का कुर्ता - पाजामा - बंडी या फिर केवल कुर्ता - पाजामा । यह एक चकित करने वाला नज़ारा था ।  एक बार को इसका कारण समझ नहीं आया फिर बत्ती जली कि भैया आज तो बकरीद है । इंडिगो वाले बकरीद मना रहे हैं । आज सामान्य नीली ड्रेस नहीं बल्कि वे वस्त्र थे जिनसे आंशिक रूप से ही सही लेकिन मुसलमान पहचान अवश्य उभर रहा था । आगे एक बैनर पर उस लिपि में ईद मुबारक लिखा था जिसे देखते ही एक बड़ी आबादी बिदकने लगती है । लेकिन उस बैनर की खास बात अंग्रेजी में लिखी थी - India by Indigo. 


लोगों के पास इस पूरी क़ावयद को कॉरपोरेट का ड्रामा, पब्लिसिटी स्टंट आदि करार करने के तर्क हो सकते हैं । वे खारिज़ करने पर आएँ तो ऐसा करने के कई स्तर खोज लेंगे । लोग थोड़े दिनों पहले से ही बकरों की ज़िंदगी बचाने में लग गए हैं । खास आज के दिन तो इस त्योहार के ख़िलाफ़ बहुत कुछ ट्रेंड कर रहा है । कल से अगली बकरीद तक जो बकरे कटेंगे उनके लिए कुछ भी ट्रेंड फ्रेंड नहीं करेगा । पर बकरीद की खिलाफत होगी । असल विरोध बकरीद का नहीं है बल्कि मुसलमान पहचान का है । उस पहचान से जुड़ी बातों का विरोध होना ही है वरना देश में कितनी ही देवियों के द्वार पर कितने ही जानवरों की बलि दी जाती है और उसे 'प्रसाद' मानकर 'ग्रहण' किया जाता है । 


वापस इंडिगो पर । यह कंपनी मुसलमानों के इस त्योहार को मना रही है । हमारे देश में हाल के दिनों में अलग धार्मिक पहचान मुसलमानों की मुश्किलें बढ़ी हैं । उन्हें अपने बीच का समझने के बजाय देश भर में उनके प्रति अदरिंग की प्रवृत्ति बढ़ी है । हिंसा , घृणा द्वेष सब में भारी वृद्धि हुई है । ऐसे  में देश की अग्रणी विमानन कंपनी बहुसंख्यक समुदाय के साथ जाने वाली वैचारिकी के विरुद्ध खुले तौर पर ईद मना रही है और असल आइडिया ऑफ इंडिया को दिखा रही है । 


आज के माहौल में ऐसा करना हिम्मत का काम है । जरा जरा सी बात पर बायकॉट ट्वीट करने वाले लोगों का भय रहा होगा , कंपनी के शेयर गिरने की आशंका रही होगी लेकिन सबके विरुद्ध जाने की एक हिम्मत भी रही होगी । मैंने वहाँ मौजूद दो कर्मचारियों से बात कर उनकी फोटो ले ली , उन्होंने मुझे अपने फ्रेम में रखकर तस्वीर खींची । वहाँ जितने लोग मौजूद थे उनमें से कोई मुसलमान नहीं था लेकिन त्योहार की मेलजोल थी,  हँसी - मुस्कान थी । 

नोट : इस साल की बकरीद भी बिना किसी दावत के गुज़री , इंडिगो ने कोई विशेष सुविधा मुझे नहीं दी । 

जुलाई 19, 2021

परखनली और टेस्ट ट्यूब


हमारे विद्यालय की एक प्रयोगशाला से उन परखनलियों और काँच के अन्य सामानों को निकाला जा रहा था जो टूट गए थे और विद्यार्थियों के उपयोग लायक नहीं बचे थे । मुझे उनमें से एक बीकर काम का लगा । हालाँकि वह लगभग आधा टूट चुका था फिर भी उसके निचले हिस्से में पानी भरकर कुछ नन्हीं मछलियाँ या कोई पौधा अथवा फूल रखे जा सकते थे । मैंने उसे साफ कर उसे एक नन्हें मछलीघर का रूप दे दिया । एक मित्र से बात करते हुए मैंने परखनली शब्द का प्रयोग किया तो वे हँसे । उनकी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी रहा है इसलिए उन्हें इसके बदले टेस्ट ट्यूब कहना पसंद था और संभव है उन्हें परखनली पता भी न हो । हिंदी माध्यम का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए यह कोई अनोखा शब्द नहीं रहा कभी । मेरे जैसे अनेक लोग जिन्होंने कभी हिंदी में विज्ञान पढ़ा हो वे परखनली को लेकर उतने ही सहज होंगे जितने कि मैं । इस विश्वास के पीछे का आधार इस शब्द के दुहराव में छिपा है । 

पिछले दिनों कक्षा में कृत्रिम बुद्धिमत्ता के उपयोग पर हिंदी के अध्यापकों के एक प्रशिक्षण कार्यक्रम में किसी ने विषय विशेषज्ञ से हिंदी की शब्दावली प्रयोग करने का आग्रह किया । विशेषज्ञ क्रोधित हो गयी और कहने लगी कि आधुनिक तकनीक को हिंदी में व्यक्त करने के लिए एक तो उचित शब्द नहीं हैं दूसरे इनका प्रयोग हास्यास्पद लगेगा साथ ही लोग समझेंगे भी नहीं । फिर उनके पास कृत्रिम अनुवाद के कुछ शब्द थे , क्रिकेट के लिए मज़ाक में कहा जाने वाला हिंदी वाक्य था , कम्प्यूटर के लिए 'संगणक' भी था । अंग्रेजी माध्यम हिंदी में आये प्रशिक्षुओं ने विशेषज्ञ की हाँ में हाँ मिलायी और उनके मज़ाक को ईंधन ही दिया । 

हम कोई भी शब्द जब पहली बार सुनते हैं तो उसके प्रति अनजानापन होना स्वाभाविक ही है । लेकिन शब्दों के लगातार प्रयोग से हम उनके अर्थ के स्तरों और विस्तार आदि को समझते हैं फिर वह हास्य का कारण नहीं लगता । यदि हम कंप्यूटर के लिए संगणक शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से करते तो यह हमारी आम बातचीत का हिस्सा बन जाता फिर यह उदाहरण के तौर पर कभी नहीं आता । भाषा में आम प्रयोग और अभ्यास का महत्व है । यहाँ तमिल भाषा का उदाहरण उपयुक्त होगा । द्रविड़ परिवार की इस भाषा में अंग्रेजी के शब्दों के तमिल प्रतिरूप उपलब्ध हैं और आम बोलचाल में अंग्रेजी शब्दों के बदले तमिल शब्द ही प्रयोग में लाये जाते हैं । और सबसे अच्छी बात यह कि ऐसा करने को हीन नहीं माना जाता और बोलने वालों का मज़ाक नहीं उड़ाया जाता ।  हिंदी में देश की अन्य भाषाओं के साथ साथ विदेशी भाषाओं के शब्द भी खूब सारे हैं और वे दूध और पानी की तरह मिले हुए हैं । उन पर हिंदी का व्याकरण भी उसी तरह से काम करता है जैसे हिंदी शब्दों पर । हिंदी ने यह लचीलापन स्वीकार किया लेकिन हिंदी के शब्दों को अंग्रेजी से बदल देने की यह क़वायद और जल्दबाज़ी इस तर्क के साथ स्वीकार नहीं की जा सकती कि भाषा में शब्द नहीं हैं और शब्द हैं तो जुबान पर चढ़ने लायक नहीं हैं । इस आधार पर भाषा को कमतर साबित करना और ख़तरनाक कार्य बन जाता है । मलयालम भाषा में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग आम हैं । कुछ शब्द तो ऐसे हैं जिनके मलयालम समकक्ष खोजने में पसीना छूट जाए लेकिन इसमें भी 'ट्रेन' के लिए 'तीवंडी' शब्द का ही प्रयोग होता है और वक्ता हास्य का पात्र नहीं बनता । 

भाषा की सीमा बताने वाले शब्दों के प्रयोग संबंधी अपनी सीमा को ढाल के रूप में सामने रख देते हैं । इससे उनके लिए हिंदी को त्यागने के झूठे आधार निर्मित हो जाते हैं साथ ही अपने को विशेष प्रदर्शित करने का अवसर भी मिल जाता है । इस तरीके से हिंदी को बरतने वालों ने हिंदी में अपने सहज रूप से अभिव्यक्त करने वालों में हीनभावना भरनी शुरू कर दी है । नुकसान हिंदी का होना ही है । 

जुलाई 15, 2021

ऐसी किताबें कहाँ मिलती हैं !

 

 


 बारिश आजकल उसी पहाड़ी से नीचे उतरती है जिसे गर्मियों में मैं रोज़ जलते हुए देखता था । बूंदों का संकुल उसकी हरीतिमा को ठीक उसी तरह ढँक लेता है जैसे शीशे वाले बाथरूम के धुंधलके से झाँकता कोई झिलमिलाता अक्स ! हर ओर एक पारभासी आलस ! ज़ाहिर और छिपा हुआ भी ! जीवन को इसी तरह होना होता है । यह तय है कि जिंदगी के एक एक हिस्से में मन को मलिन रखने और करने के कई साधन हैं, मौके हैं लेकिन उस मलिनता के पार भी जीवन ही है ।

  

इन दिनों बिस्तर उस महक को लिए रहता है जो अक्सर बंधे हुए बालों में छिपी रहती थी । याद है , एक बार मैंने मज़ाक में कहा था तुम्हें कि इस ओर महिलाएँ अपनी वेणी में मोगरे के सुगंधित फूल इसलिए बाँधती हैं कि बालों में बसी नारियल तेल की पुरानी गंध बेले के मादक मोह में मिलकर नशे सा चढ़ जाये !

 

मैला आंचलमें रेणु एक जगह लिखते हैं लड़कियों के गीले बाल नहीं छूने चाहिए पाप लगता है । सोचो, इस बारिश में हम घुस जाते... पानी तुम्हारे बालों के सहारे धार बनकर बहता मन के भीतर दूर-दूर तक फैले गाँवों में लगी आग बुझ जाती । रेणु कहाँ तक पाप लगने का हवाला देकर गीले बालों को छूने से रोक पाते!

 

हमारा अच्छा है न कि आसपास कोई अंबिका नहीं ! अंबिका को मल्लिका का बारिश में भीगना एक बार को सह्य था पर जब कालिदास साथ रहे तब ऐसा हो तो घोर कलह का कारण !

 

तुमने मुझे न हन्यतेपढ़ने को कहा था । अब तक नहीं पढ़ पाया । इसी बहाने किताब और तुम एक साथ दिखती हो जैसे उसे तुमने ही लिखा हो । अक्सर किताबों वाला प्रेम पढ़ते हुए उ जगहों पर मैं ठहर जाया करता हूँ जहाँ प्रेमी बिस्तर पर पड़े होते हैं और एक - दूसरे को अगली बार के लिए तैयार करने की जल्दी में प्रवेश किए बिना एक दूसरे को सुनते रहते हैं!

 

ऐसी किताबें कहाँ मिलती हैं !

 

 

जुलाई 14, 2021

ऐसी रातों का साथ



 

 

रात की सैर, अंधेरे के घर में अपना प्रवेश है ठीक जिंदगी की तरह ! बहुत पहले से मैंने जिंदगी को अंधेरी सुरंग मानना शुरू कर दिया था । हर बात की अनिश्चितता ! और एक बार कुछ तय हुआ तो फिर दिन निकलने के बाद जैसे अंधेरे का घर उजड़ता है जिंदगी भी खुल जाती है । तब शायद बिखर जाती है । बिखराव इंसान का हो तो एक बात लेकिन बिखरी हुई जिंदगी को जीना इंसान से बहुत कुछ ले लेता है ।

 

एक कड़क कॉफी की जरूरत इसलिए पड़ जाती है क्योंकि नींद में नहीं जाना । यह भी क्या कि सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल बनो और फिर थक कर सो जाओ । थकने के बाद का जागना समय के साथ अपनी लड़ाई को मजबूत करता है । कॉफी के ऊपर के फेन में जो कॉफी की गर्मी को सहेज रखने की क्षमता है वह अपने भीतर आ पाती ।

 

रात किसी स्थान के मायने को बदल देती है । सड़क से उस स्थान की खुली खिड़कियाँ नहीं बल्कि दुकानों के उदास शटर दिखते हैं । ये वही शटर हैं जिनके खुले होने को एंटोन चेखवभूखे जबड़ों की संज्ञा देते हैं । रात उन जबड़ों को उदास कर देती है । उन जबड़ों के पार खिड़कियाँ होंगी जिनके पर्दे की झिरी से घर का आनंद दिखता होगा लेकिन एक यात्री वह आनंद कभी नहीं देख पाता । यात्री जो देखता है वह बस बाहरी दुनिया है ।

 

बिना बारिश की मेघाच्छन्न रात में एक तारा कोई टिमटिमाता है और उसी के सहारे बाहर निकला व्यक्ति चलता है । दुकान में ऊँघते इन्सानों की आँखों में वही तारा कब आकार बैठ जाता है पता ही नहीं चलता ! अभी यह बेकार की बात लगती है । वह अकेला तारा आँखों में लेकिन देह पर हजारों बूंदें । बाइक की तेज़ी से खाली हुई जगह को भरने आती हवा विनोद कुमार शुक्ल की याद दिलाने से पहले बरनुली थ्योरम याद कराती है क्योंकि पहले वही पढ़ा गया था ! हवा पानी सब मिलकर कंपकपी छुड़ा देते हैं हाइवे पर भरी बारिश में एक ऊँघता व्यक्ति ही आसरा बनता है । वहाँ दूध कब का खत्म हो चुका है इक्का दुक्का रुकने वाले काली चाय या काली कॉफी के लिए रुक जा रहे हैं !   

 

जब तक वह काली कॉफी मिले ताबतक मेरे पास सोचने के लिए कुछ है । शायद दिन भर का हिसाब ! प्रकृति का शुद्धतम रूप मेरे पास है तो मैं उसे गर्व की बात मानता हूँ । मुझे उसकी तस्वीरें लेने और दिखाने में मज़ा आता है  मैं वहाँ घंटों बैठकर उसे निहारता रह सकता हूँ । जरूरी नहीं है कि मुझे इससे कुछ मिल ही जाये । मेरे लिए बस यही खुशी की बात है कि मैं किसी जंगल तक जा सकता हूँ, झरने में पाँव डालकर बैठ सकता हूँ कहीं कभी मौका मिला तो हाथी के आगे आगे जान बचाने के लिए भाग सकता हूँ । यह सब बिना किसी उद्देश्य के होता है मेरे लिए । कई बार मिलता भी है । भरी नदी में तैरना सीखा मैंने ! एक बार हथियों के झुंड ने दौड़ा लिया तो पता चला कि मौत के इतने करीब से बचकर निकल आने से कितना साहस भर जाता है ।

 

मुझे किसी और जगह की नदी की दुर्दशा पर बात करने का कोई हक़ समझ में नहीं आता जबतक मैं अपने आसपास की नदी के महत्व को न समझूँ । यदि जंगल अपने मूल रूप में बने हुए हैं तो यह एक उपलब्धि है, इसकी तस्वीर लगाना इसलिए ज़रूरी लग जाता है कि जंगल के असल रूप को दूसरे लोग भी देख सकें

 

काली कॉफी का स्वाद , बरसती ठंडी रात में हाइवे की दुकान पर कॉफी पीने जानेजैसी आभिजात्य सुलभ सुविधा के साथ न्याय नहीं करती !  

जुलाई 13, 2021

यात्राओं के नाम


 

 

 हमारे आसपास ऐसे कई दर्रे होते हैं जिनमें घुस जाएँ तो एक अलग ही दुनिया खुलती है । एनीमेशन फिल्मों ने ऐसे विचारों को खूब भुनाया है और उनकी मार्फत हमारे मन के दर्रे भी खुलते हैं और अलग रोशनी आती है । लेकिन ज़्यादातर बार हम उसे नज़रअंदाज़ कर के आगे बढ़ जाते हैं कि यहाँ क्या ही होगा’ ! 

 

घूमना फिरना एक लग्ज़री है उसके दृश्य परिदृश्य , चिंतन और विचार सब इसी दायरे में आते हैं । जहाँ दो रोटी का भी प्रबंध न हो वहाँ घूमने फिरने के मायने मारे मारे फिरनेकी तरह होते हैं । उस स्थिति मे में , मैं अपने एक्सलोरकरने को एक अश्लील गतिविधि मानता हूँ ।

 

आजकल ये किस्से बड़े आम हो चले हैं कि यात्राओं ने मेरी दुनिया बदल दी । इससे बड़ा झूठ कुछ नहीं होता है । या कम से कम यह कह ही सकते हैं कि जितनी बड़ी संख्या में लोग यात्राएँ कर रहे हैं उस अनुपात में ये दुनिया बदलनेवाला काम नहीं होता । हाँ सीखना जरूर होता है लेकिन वह सीखना किसी भी यात्रा के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ा होता है । नदी का पानी समुद्र तक पहुँचते पहुँचते अपने साथ बहुत कुछ ले जाता है तो उसमें कुछ अनोखा नहीं । यह कई बार बिना यात्राओं के भी हो जाता है ।

 

ईट प्रे लव’, ‘नीलाकाशम पच्चाकडल चुवर्णभूमिऔर जिंदगी न मिलेगी दोबाराजैसी फिल्में व अपनी यात्राओं को मैं और कुछ नहीं बस अपना खर्चा उठा सकने वाले लोगों द्वारा अपने यंग एडल्टहुडको खींचते जाने की कवायद मानता हूँ । (फिल्मों के नाम बस प्रतीकात्मक हैं । हो सकता है आपके ज़ेहन ज्यादा और बेहतर यात्रा वाली फिल्में हों )

 

मैं दो साल से ज्यादा अवसाद में रहा लेकिन उसे कम करने में यात्राओं ने कुछ नहीं किया । मुझे याद है, मेरी एक सहयात्री ने कहा था कि जब तक तुम्हारा मन शांत नहीं होता और तुम्हारी आँखों में वह अशांति दिखती है, तबतक चश्मा लगाया करो ! वाकई उन दिनों की तसवीरों की बेचारगी साफ दिखती है जिसे मैं यात्राओं की मन को शांति न पहुँचा सकने वाली विफलता ही कहूँगा ।

 

मैंने जो थोड़ी बहुत यात्राएँ की उसमें लड़कियों को घूमते देखा लेकिन औरतें नहीं के बराबर दिखी । वही लड़कियाँ थी जो अपने घर से बाहर पढ़ रही हो या फिर घर से झूठ बोलकर बाहर जा सकने की स्थिति में हो । हालाँकि, वे अपनी स्वतन्त्रता जिस तरह से जीती हैं उसे देखकर कल्चरल शॉक लगने की प्रबल संभावना रहती है लेकिन यही वह बात है, जिसके लिए वे निकलती हैं । लड़के और लड़कियों के घूमने में मुझे यही मूल फर्क दिखता है ।

 

एक बार किसी ट्रेकिंग पर एक इज़राइली नागरिक मिला । वह कहने लगा कि उसके देश के लोग आवश्यक रूप से घूमने निकलते हैं वेकेशनउनके जीवन का अनिवार्य अंग है । लड़कियाँ पढ़ने लिखने और काम करने के सिलसिले में बाहर रहती हैं या उसका बहाना बनाकर झूठ बोल सकती हैं लेकिन औरतों के लिए यह असंभव होता है । उनके लिए वेकेशन तो नहीं ही है साथ ही घूमने के लिए झूठ बोलने वाली सुविधा भी नहीं रहती है । मेरी माँ जैसी औरतों की यात्राएँ रिश्तेदारी में होने वाले विवाह आदि कामों, इलाज और धार्मिक यात्राओं तक ही सीमित हैं । इसलिए दामाद के पैसे से गंगा नहाने का सपना आया’ , ‘गंगा नहाने से कोरोना माई शांत होती हैजैसी अफवाहों का मैं बहुत स्वागत करता हूँ । इनसे उन औरतों को भी ट्रेन - बस पर चढ़ने का मौका मिल जाता है जिनके लिए यह सब एक सपना हो ।

 

यात्राएँ नए लोगों से मिलाती हैं और अन्तःक्रिया के लिए अवसर का निर्माण करती हैं । कबीर की भाषा पंचमेल खिचड़ी क्यों है यह समझना आसान हो जाता है ।

 

जुलाई 07, 2021

परिंदे की उड़ान

 



पूना के उस होटल के कमरे में उन्हें पहली बार अपने माता – पिता से अलग हो जाने का एहसास हुआ खासकर अपनी माँ से । माँ की बेचारगी और सुलगता हुआ दुख वे महसूस कर रहे थे । माँ ने निश्चित रूप से आगा जी से कुछ नहीं कहा होगा । लेकिन भीतर ही भीतर बहुत दुखी हुई होगी ! वे देर तक सो नहीं पाये । उन्हें अपनी अम्मी याद आ रही थी ।

 

दिलीप साहब जेब में चालीस रुपय लेकर घर छोड़ दिये थे । पिता से किसी बात पर हल्की सी बहस हुई और पिता जी जिन्हें घर में सब आग़ा जीबुलाया करते थे, बिगड़ पड़े । दूसरे विश्वयुद्ध का काल था बंबई का उनका फल का व्यापार मंदा पड़ा था । उत्तर – पश्चिम सीमाप्रांत में कुछ ज्यादा सख़्ती थी । वहाँ से आने वाली ट्रेनों में ही पेशावर से इनके फल आते । युद्ध काल में अति आवश्यक वस्तु न होने के कारण फल नहीं आ रहे थे । उसका असर इतने बड़े परिवार का पेट भरने वाले पर पड़ रहा था । आग़ा जी चिड़चिड़े होने लगे थे । पिता की डांट के बाद दिलीप साहब ने घर छोडने का फैसला कर लिया । उस फैसले के पीछे गुस्सा नहीं था बल्कि दुख और अपमान की भावना थी ।

 

चालीस रुपय से ही उन्हें नौकरी मिलने तक अपना काम चलाना था इसलिए शाहख़र्ची चल नहीं सकती थी । बंबई से पूना की ट्रेन में वे तीसरे दर्जे में जा बैठे रास्ते भर उन्हें यह डर सता रहा था कि कोई जान न जाये कि आग़ा जी का लड़का तीसरे दर्जे में सफर कर रहा है । उनके पिता ने हमेशा अपने बच्चों खासकर बेटों को हमेशा बढ़िया सुविधाएं दी थी ।

 

पूना पहुँचने पर उन्हें नौकरी की तलाश करनी थी । घर से भाग आए हैं और बंबई से पूना इतना भी दूर नहीं है ऊपर से उनके पिता ठहरे नामी फल और मेवों के व्यापारी जिनको लोग जानते – पहचानते थे । अगली सुबह वे नौकरी की तलाश में थे । एक केफे के ईरानी मालिक से उन्होंने काम के सिलसिले में बात की । उन्हें किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी सो उन्होने एक एंग्लो – इंडियन जोड़े द्वारा चलाये जा रहे कैफे का पता दिया । वे झट से वहाँ पहुँच गए । वह जोड़ा इनकी अंग्रेजी से बहुत प्रभावित हुआ सो उन्होंने, इनको ब्रिटिश आर्मी की केंटीन के ठेकेदार के पास भेज दिया । दिलीप साहब अगले दिन केंटीन ठेकेदार के ऑफिस के लिए निकल पड़े । वे प्रार्थना कर रहे थे कि वह उनको पहचान न पाये क्योंकि आग़ा जी अपनी बातचीत में पूना के अपने दोस्त फतेह मोहम्मद ख़ान ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एंपायर का कई बार ज़िक्र कर चुके थे । लेकिन वहाँ पर उनका छोटा भाई ताज मोहम्मद ख़ान था जिसने दिलीप की ओर उतना ध्यान नहीं दिया और उन्हें काम पर रख लिया । केंटीन के मेनेजर को एक सहायक चाहिए था । वहाँ पर दिलीप साहब की धाराप्रवाह अंग्रेजी बहुत काम आयी । बाद में उनके वहाँ ढेर सारे संपर्क बने और चीजें बदलने के कगार पर पहुँच गयी । 

 


 

युसुफ घर से निकल गए और अपनी राह बनायी । लीक पर चलते रहते और पिता की डांट सह लेते तो उनका जीवन शायद कुछ और होता । परिंदे की उड़ान के लिए सारा आकाश पसरा रहता है पर जब परिंदा निकलने की हिम्मत ही न कर पाये तो आकाश क्या कर सकता है । युसुफ दिलीप कुमार न होते यदि वे अपने अलग व्यक्तित्व को स्वीकार न किए होते ।    

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...