समूचा केरल आजकल दहेज़ से जुड़ी हत्या , अत्महत्या और प्रताड़नाओं की खबरों से ओतप्रोत है । जिधर देखो इसी बात की चर्चा है और सरकार से लेकर आम जन के बीच समझदारी का ऐसा ज्वार उठा है कि लगता है दहेज़ सदा के लिए इसमें बहकर हिन्द महासागर में समा जाएगा । मीडिया ने इन मुद्दों को मजबूती से उठा रखा है, सरकार पर दबाव बन रहा है और उस दबाव में से वह अदर्श निर्णय ले रही है । सरकारी आदेश देखकर कोई भी व्यक्ति प्रशंसा कर उठेगा । बल्कि केरल और इस सरकार के प्रशंसक देश भर में इन आदेशों को आदर्श सरकार के तौर – तरीके की तरह पेश कर रहे हैं । सरकार के निर्णयों में कुछ भी बुरा नहीं है न ही उसकी प्रशंसा बुरी है । लेकिन एक ‘प्रगतिशील’ सरकार तब जागती है जब उत्पीड़न की कई खबरें आ जाती हैं । वह उस समय नहीं चेतती जब एक पति अपनी पत्नी को साँप से कटवा देता है और दुल्हन ऊपर से नीचे तक सोने में लदकर मंडप में पहुँचती है और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो महिलाओं के प्रति हिंसा में केरल को काफी ऊपर रखता है ।
आम तौर पर देखा जाये तो केरल एक आदर्श राज्य प्रतीत होता है । निकट इतिहास में हुई सामाजिक क्रांतियों, आधारभूत संरचना और शिक्षा – स्वास्थ्य आदि की दिशा में किए गए सरकारी प्रयासों के मद्देनज़र जो केरल उभरता है वह वाक़ई किसी भी राज्य को ईर्ष्या से भर देने में सक्षम है । हाल में आयी नीति आयोग की रिपोर्ट भी इस बात पर मुहर लगाती है । केरल एक आदर्श राज्य है जहाँ साक्षरता दर उच्च है , चमचमाती सड़कें और सक्षम परिवहन व्यवस्था है । फिर दहेज़ हत्या जैसी प्रतिगामी चीज क्यों होती हैं ?
केरल को बाहर से देखने वाले या फिर पर्यटन की दृष्टि रखने वाले लोगों के लिए इस राज्य की आम छवि से निकल पाना कठिन है साथ में सरकारी प्रचार और यहाँ के आम नागरिकों का श्रेष्ठता बोध आदि मिलकर जो मुखौटा निर्मित करते हैं उसके भीतर बहुत कुछ ऐसा है जो छिपकर रह जाता है । लैंगिक भेदभाव ऐसा ही पक्ष है । ऊपर से देखा जाये तो केरल में वह नहीं दिखेगा । इस न दिखने कारण भेदभाव को देखने वाले मानकों में निहित है । केरल में महिला साक्षरता दर काफी ज्यादा है , बड़ी संख्या में स्त्रियाँ घर के बाहर काम करने जाती हैं, स्त्री – पुरुष लिंगानुपात बहुत बुरा नहीं है । आँकड़ों के आधार पर राय बनाने वालों के लिए केरल में लैंगिक भेदभाव जैसी किसी चीज का होना एक अपवाद की तरह होगा । केरल में स्त्री की दशा का आकलन आँकड़ों की बजाय सामान्य पारिवारिक निर्णयों में उनकी भूमिका , सड़कों पर उनकी आम उपस्थिती , अंतरजातीय और अंतरधार्मिक विवाहों को हतोत्साहित के तरीकों, उनके पहनावे संबंधी दृष्टिकोण और कपड़ों पर पड़ते परंपरा के दबाव व उनके प्रति होते अपराध के आधार पर हो तो स्थिति बेहतर तरीके से साफ होगी । फिर उस मुखौटे के भीतर की असल छवि बाहर आएगी ।
केरल के मालाबार इलाके में बाल-विवाह होता है । इस राज्य के बाहर के लोगों के लिए यह एक चौंकाने वाली खबर हो सकती है लेकिन स्थानीय लोगों के लिए नहीं । वे इतना कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि यह केवल मुसलमानों में प्रचलित है । एक झटके में साढ़े छब्बीस प्रतिशत आबादी को अपने से अलग कर दिया जाता है जैसे वे इस राज्य के निवासी ही न हों । जबकि धार्मिक आधार पर देखें तो हिंदुओं के बाद इस्लाम मतावलंबियों की ही संख्या आती है । स्त्रियों पर नियंत्रण को यहाँ बिना किसी धार्मिक भेदभाव के देखा जा सकता है, पहनावे में ख़ासकर । बहुत साल नहीं हुए जब प्रसिद्ध गायक येसुदास ने लड़कियों के जींस पहनने पर टिप्पणी की थी । इस तरह की बातें उत्तर भारत में ख़ासकर बीमारू प्रदेशों में सुनी और देखी जाती हैं । ऐसे में केरल के नागरिकों और इसके बाहरी प्रशंसकों के तर्क इस बात की ओर जाते हैं कि अन्य राज्यों की अपेक्षा यहाँ ये बातें कम हैं । अव्वल तो यह कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े इस अपेक्षाकृत कम वाली बात को ख़ारिज़ करते हैं दूसरे स्त्री के प्रति कम और ज्यादा अपराध वाली बात यदि मान भी ली जाये तो यह केवल मात्रा का फर्क बताता है , अपराध तो हो ही रहे हैं । जब यही हाल रहना है तो जिस उच्च साक्षरता दर के कसीदे पढे जाते हैं और उसकी कसमें खायी जाती है वह किसी काम की नहीं मालूम पड़ती ।
इसी राज्य में एक गांव है निलांबुर । उसके प्रवेश द्वार पर ही यह बता दिया जाता है कि ‘आप दहेज़ मुक्त गाँव में प्रवेश कर रहे हैं’ । देश भर में इस बात का खूब प्रचार – प्रसार होता है । अच्छी बातों का प्रचार होना चाहिए साथ ही दहेज़ से जुड़ी प्रताड़ना और मौतों को भी स्थानीय समाज को स्वीकार करना होगा । कम और ज्यादा का द्वैत खड़ा करके मुँह मोड़ लेने से बचना होगा ।
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