सितंबर 28, 2021

हिंदी हिंदी के शोर में

 

                               


हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश और हिन्दी भाषी राज्यों के दिल से और दूसरे हिमाचल में कहीं से । दो चार दिनों की आपसी मुलाकातों के बाद एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया कि साब हिन्दी में आजकल आपलोग क्या क्या पढ़ रहे हैं ! उनकी पढ़ी जाने वाली किताबों में यूजीसी नेट की गाइड, प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए ज़रूरी हिन्दी की किताबें ही थी । साहित्य के बारे में पूछने पर महादेवी , प्रेमचंद से आगे बढ़कर निराला - मुक्तिबोध तक ही नाम मिले । उसके बाद के कुछ नाम यूँ ही दिये कि वे परिचित हों उनका लिखा कुछ पढ़ा हो और याद न आ रहा हो ! नई कहानी , नई कविता से लेकर समकालीन लेखन तक के नामों के बारे इनका नाम सुना हुआ हैही सुनने को मिला ।

 

हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को रोजगारोन्मुख पत्रिकाओं ने उनके दृश्य क्षेत्र से बाहर कर दिया । समकालीन हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण काम भी उनके लिए वस्तुनिष्ठ प्रश्न के एक उत्तर बराबर हैसियत ही रखते हैं, शेष कुछ नहीं ! सार सार को गहि रहे थोथा देत उड़ाय ! उन्होंने उतना ही पढ़ा जितना उन्हें नौकरी दिला दे उसके बाद का सारा साहित्य पड़ा रहे अपनी बला से ! अपरिग्रह की इस प्रक्रिया में उन अध्यापकों का योगदान कम है ।

 

हिन्दी भाषा को बरतने वाले लोग बहुत हो सकते हैं लेकिन उनसे रोजगार के बाज़ार का काम नहीं चलता । दसवीं के बाद हिन्दी पढ़ने वालों में ज़्यादातर वे लोग होते हैं जो अंकों की लड़ाई में पिछड़ जाते हैं । बहुत कम होते हैं जो अपनी मर्ज़ी से हिन्दी पढ़ते हैं । दसवीं के बाद की हिन्दी की दुनिया हीनताबोध की दुनिया है जो लगातार साथ चलती है । कहीं-कहीं आत्मविश्वास बचा रहता है तो वहाँ खूब सारा अंतरानुशासनिक अध्ययन होता है । लेकिन वह भी हिन्दी की हीनता से भागने का ही काम है क्योंकि आम तौर पर हिन्दी का पाठ्यक्रम किसी भी प्रकार की समकालीनता , दुनिया से जुड़ने आदि से परहेज करता है । यहाँ मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले अपने एक मित्र याद आ रहे हैं । वे पहले प्रयास में जेआरएफ हासिल करने वाले विद्यार्थी रहे । उन दिनों आज की तरह खूब सारे जेआरएफ नहीं होते थे । जाड़ों के दिन खत्म हो रहे थे और कला संकाय में बाहर धूप सेंकने वाले विद्यार्थियों की संख्या निरंतर कम हो रही थी । एक समाचार चैनल के कुछ लोग ग्लोबल वार्मिंग पर बाइट लेने के लिए घूम रहे थे (दिल्ली विश्वविद्यालय में इस तरह के अवसर बहुत मिलते थे) । उनमें से एक रिपोर्टर ने उक्त मित्र से ग्लोबल वार्मिंग के बारे में जानना चाहा । मित्र उसे मना कर देते तो ठीक था लेकिन मना करते हुए उनका कथन हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की स्थिति ज्यादा स्पष्ट करता है – हम हिन्दी के विद्यार्थी हैं , हमें नहीं पता ।

 

यह कहा जा सकता है कि कुछ ही उदाहरणों से बात कही जा रही है और कुछ लोग यह साबित करने भी आ जाएँगे कि वे हिन्दी पढ़ने के बावजूद बहुत सी बातें जानते हैं , अलग अलग विषयों में दखल रखते हैं । ऐसे लोग सोशल हैं लेकिन बहुत नहीं । और जो हैं वे अपनी इस पहचान से भागते रहते हैं । देश भर में फैले हिन्दी विभागों में बिना गए भी यदि कोई यह कहना चाहे कि हिन्दी पढ़ रहे विद्यार्थियों को किस तरह कूपमंडूक की तरह रखा जा रहा है तो इन सबसे संबद्ध विश्वविद्यालयों के हिन्दी विषय का पाठ्यक्रम पढ़कर कह सकता है । हिन्दी में पढ़ायी जाने वाली बातें जीवन से नहीं जुड़ती । वे जीवन से तो बाद में जुड़ेंगी पहली हिन्दी की ही समकालीनता से नहीं जुड़ती ।

 

बहुत क्रांतिकारी पाठ्यक्रम होगा तो उदय प्रकाश की कोई रचना शामिल कर लेगा । नए नाम और भी आ सकते हैं लेकिन देखना पड़ेगा कि वे पाठ्यक्रम में किस रूप में आते हैं । पाठ्यक्रम में रचनाओं को शामिल करने पर बहुत सी बातें हो सकती हैं उसे गठजोड़ और राजनीति से जोड़ा जा सकता है लेकिन समकालीन प्रवृत्तियों को शामिल करने से कौन रोकता है ? समकालीन लेखक की रचनाओं की बजाय हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ा एक पेपर पढ़ाने से कई सारे सवाल एक साथ हल हो सकते हैं ।

 

हमारे हिन्दी के विभाग विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ाते हुए केवल प्रोफेसर बनने की तैयारी कराकर बड़ी चूक कर देते हैं । महाविद्यालयों में नौकरी पा सकने वाले बहुत कम होते हैं फिर उनके पास विद्यालय , पत्रकारिता और दूसरे विकल्प ही रहते हैं जिनकी उनके पास कोई तैयारी और रुचि नहीं होती । स्कूल के विध्यार्थी हिन्दी साहित्य के बड़े पाठक बन सकते हैं लेकिन उनके अध्यापकों का प्रशिक्षण ही इतना संकीर्ण होता है कि वे झट से अंक व्यवस्था में फिट होकर हिन्दी को महज़ गद्यांश और प्रश्नोत्तर में समेटने के आदि हो जाते हैं ।  

सितंबर 09, 2021

संस्थानों की रैंकिंग या नए तरह का सामंतवाद


 


 

अपने देश की शैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग आयी है । उच्च स्थानों पर अधिकांश वही संस्थान हैं जो पहले से ही श्रेष्ठमान लिए गए हैं और खबरों में जगह भी वही बना पा रहे हैं । निचली सीढ़ीयों पर कौन से संस्थान हैं यह जानने की दिलचस्पी किसी की नहीं और वे वहाँ क्यों हैं इसके लिए तो सोचने की ज़रूरत भी नहीं ठहरी ! जबकि देश भर में सबसे ज्यादा विद्यार्थी वहीं नामांकित हैं जिनके बारे में किसी को नहीं जानना है ।

 

हमारे देश की शैक्षिक संस्थाएँ एक सी नहीं हैं । न तो उनका निर्माण एक से मानकों पर हुआ है न ही उनके चालन – संचालन में कोई एकरूपता है । एक ही तरह के नाम वाली संस्था होने पर भी उनमें समानता का अभाव है। मसलन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को लेते हैं । इनकी तर्ज़ पर अलग अलग जगहों पर खूब सारे एम्स खुले लेकिन क्या वे सब दिल्ली वाले एम्स की बराबरी कर पाये ? इसका उत्तर नहीं ही होगा चाहे कोई भी मानक ले लें । यही हाल बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के अलग अलग खुले कैंपस के साथ भी है । भारतीय जनसंचार संस्थान के दिल्ली और ढेंकनाल परिसरों का स्तर एक समान नहीं है ।

 

संस्थाओं के निर्माण और उनको बरतने में बड़ी - बड़ी खामियाँ हैं । नाम घोषित कर देने से उनका स्तर नहीं बन जाता । उनके निर्माण में अध्यापक , आधारभूत संरचनाओं , सभी तरह के विद्यार्थियों की ज़रूरत को समेट सकने वाली व्यवस्था आदि यदि वर्षों तक लागू हो तो उनका नाम बनता है । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बड़ा विश्वविद्यालय है आये दिन आने वाली रैंकिंग में उसका नाम ऊपर भी आता है लेकिन क्या उसके वर्तमान स्वरूप को स्तरीय कहा जाएगा ? वहाँ की आज़ाद खयाली ने जो प्रतिष्ठा दिलायी थी उसे भोथरा बना दिया गया , किसी भी पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों का वहाँ दिल खोलकर स्वागत होता था जो तरह तरह के नियमों के आ जाने से अब उतना प्रभावी नहीं रह गया इसके बावजूद उसका स्थान ऊपर है । यह बताता है कि रैंकिंग के तरीके में अन्य जो भी बातें हों लेकिन सबको साथ लेकर चलने , हाशिये पर खड़े लोगों को बेहतर शिक्षा देने और शिक्षा की सामाजिक ज़िम्मेदारी तय करने वाले मानक नहीं ही हैं । और अगर हैं तो उनकी स्थिति केवल खानापूर्ति करने के लिए है ।

 

बेरोज़गारी की दर , गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोग , साक्षारता की स्थिति , जाति आधारित भेदभाव आदि के आँकड़ों से स्पष्ट पता चलता है कि हमारा समाज हाशिये पर रह रहे लोगों से बना है । लेकिन इसकी बागडोर आभिजात्य चेतना से ओतप्रोत मुट्ठीभर लोगों के पास है । उस चेतना के लिए रेंकिंग ज़रूरी है ताकि वहाँ से आने वाले विद्यार्थी यह चयन कर सकें कि उन्हें कहाँ पढ़ना है और इससे उनकी सांस्कृतिक पूंजी कितनी समृद्ध होगी , कितने ऐसे संपर्क बनेंगे जो जीवन में अलग अलग अवसरों पर काम आएंगे । जबकि हाशिये पर जी रहे परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना ही बहुत बड़ी बात है । वहाँ संस्थान के चयन की बात ही नहीं आती और आ भी जाये तो उन महाविद्यालयों , विश्वविद्यालयों को लालसा से देखने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह जाता । ऐसी अधिकांश संस्थाओं में अंकों के आधार पर प्रवेश मिलता है अर्थात जिनके ज्यादा अंक होंगे वही उनमें पढ़ पाएंगे बाकी विद्यार्थी कहीं और जाइए ! यह तरीका अपने आप में भेदकारी है । ऊपर से जहाँ परीक्षाएँ होती हैं वहाँ के लिए तैयारी , और तैयारी पर आने वाला खर्च व समय मिलना दुर्लभ है । साथ में उन सस्थाओं की भारी फीस उनके बारे में सोचने से भी रोकती है ।

 

पढ़ने लिखने की प्रक्रिया की बहुत सी मांगें हैं । उनको पूरा किए बिना अच्छे अंक पा जाना सरल नहीं है । विरले ऐसे होते हैं जो तमाम बाधाओं को पार कर बढ़िया अंक हासिल कर लेते हैं । पढ़ने के लिए एकांत , रोशनी की एक व्यवस्था , सहायक पारिवारिक वातावरण उन जगहों पर मिल पाना दुर्लभ है जहाँ दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम पहली प्राथमिकता है । ऐसे गुरुभक्त आरुणिजैसे फ़र्जी प्रेरक किस्सों से काम नहीं चल पाता । तथाकथित अच्छी संस्थाओं में सबके लिए जगह नहीं है इसलिए प्रतिस्पर्धा ही इतनी कड़ी कर दी जाती है  कि विद्यार्थियों के पास स्वयं को दोष देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है ।

 

हमारे संस्थान एक से नहीं हैं ऐसी स्थिति में एक ही सूत्र से उन्हें जाँचा जाना न्यायसंगत नहीं ठहरता । इस तरह की रैंकिंग उन विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं उनकी शैक्षिक प्रक्रिया और स्तर पर कोई भी दृष्टि डालने से रोकते हैं , जहाँ वंचित तबके के विद्यार्थी पढ़ते हैं । ऐसे संस्थान ज्यादा हैं , उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत है लेकिन हमारे लिए रैंकिंग ही सबकुछ है !  

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...