हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश और हिन्दी भाषी राज्यों के दिल से और दूसरे हिमाचल में कहीं से । दो चार दिनों की आपसी मुलाकातों के बाद एक दिन मैंने उनसे पूछ लिया कि साब हिन्दी में आजकल आपलोग क्या क्या पढ़ रहे हैं ! उनकी पढ़ी जाने वाली किताबों में यूजीसी नेट की गाइड, प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए ज़रूरी हिन्दी की किताबें ही थी । साहित्य के बारे में पूछने पर महादेवी , प्रेमचंद से आगे बढ़कर निराला - मुक्तिबोध तक ही नाम मिले । उसके बाद के कुछ नाम यूँ ही दिये कि वे परिचित हों उनका लिखा कुछ पढ़ा हो और याद न आ रहा हो ! नई कहानी , नई कविता से लेकर समकालीन लेखन तक के नामों के बारे ‘इनका नाम सुना हुआ है’ ही सुनने को मिला ।
हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं को रोजगारोन्मुख पत्रिकाओं ने उनके दृश्य क्षेत्र से बाहर कर दिया । समकालीन हिन्दी साहित्य के महत्वपूर्ण काम भी उनके लिए वस्तुनिष्ठ प्रश्न के एक उत्तर बराबर हैसियत ही रखते हैं, शेष कुछ नहीं ! सार सार को गहि रहे थोथा देत उड़ाय ! उन्होंने उतना ही पढ़ा जितना उन्हें नौकरी दिला दे उसके बाद का सारा साहित्य पड़ा रहे अपनी बला से ! अपरिग्रह की इस प्रक्रिया में उन अध्यापकों का योगदान कम है ।
हिन्दी भाषा को बरतने वाले लोग बहुत हो सकते हैं लेकिन उनसे रोजगार के बाज़ार का काम नहीं चलता । दसवीं के बाद हिन्दी पढ़ने वालों में ज़्यादातर वे लोग होते हैं जो अंकों की लड़ाई में पिछड़ जाते हैं । बहुत कम होते हैं जो अपनी मर्ज़ी से हिन्दी पढ़ते हैं । दसवीं के बाद की हिन्दी की दुनिया हीनताबोध की दुनिया है जो लगातार साथ चलती है । कहीं-कहीं आत्मविश्वास बचा रहता है तो वहाँ खूब सारा अंतरानुशासनिक अध्ययन होता है । लेकिन वह भी हिन्दी की हीनता से भागने का ही काम है क्योंकि आम तौर पर हिन्दी का पाठ्यक्रम किसी भी प्रकार की समकालीनता , दुनिया से जुड़ने आदि से परहेज करता है । यहाँ मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले अपने एक मित्र याद आ रहे हैं । वे पहले प्रयास में जेआरएफ हासिल करने वाले विद्यार्थी रहे । उन दिनों आज की तरह खूब सारे जेआरएफ नहीं होते थे । जाड़ों के दिन खत्म हो रहे थे और कला संकाय में बाहर धूप सेंकने वाले विद्यार्थियों की संख्या निरंतर कम हो रही थी । एक समाचार चैनल के कुछ लोग ग्लोबल वार्मिंग पर बाइट लेने के लिए घूम रहे थे (दिल्ली विश्वविद्यालय में इस तरह के अवसर बहुत मिलते थे) । उनमें से एक रिपोर्टर ने उक्त मित्र से ग्लोबल वार्मिंग के बारे में जानना चाहा । मित्र उसे मना कर देते तो ठीक था लेकिन मना करते हुए उनका कथन हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों की स्थिति ज्यादा स्पष्ट करता है – हम हिन्दी के विद्यार्थी हैं , हमें नहीं पता ।
यह कहा जा सकता है कि कुछ ही उदाहरणों से बात कही जा रही है और कुछ लोग यह साबित करने भी आ जाएँगे कि वे हिन्दी पढ़ने के बावजूद बहुत सी बातें जानते हैं , अलग अलग विषयों में दखल रखते हैं । ऐसे लोग सोशल हैं लेकिन बहुत नहीं । और जो हैं वे अपनी इस पहचान से भागते रहते हैं । देश भर में फैले हिन्दी विभागों में बिना गए भी यदि कोई यह कहना चाहे कि हिन्दी पढ़ रहे विद्यार्थियों को किस तरह कूपमंडूक की तरह रखा जा रहा है तो इन सबसे संबद्ध विश्वविद्यालयों के हिन्दी विषय का पाठ्यक्रम पढ़कर कह सकता है । हिन्दी में पढ़ायी जाने वाली बातें जीवन से नहीं जुड़ती । वे जीवन से तो बाद में जुड़ेंगी पहली हिन्दी की ही समकालीनता से नहीं जुड़ती ।
बहुत क्रांतिकारी पाठ्यक्रम होगा तो उदय प्रकाश की कोई रचना शामिल कर लेगा । नए नाम और भी आ सकते हैं लेकिन देखना पड़ेगा कि वे पाठ्यक्रम में किस रूप में आते हैं । पाठ्यक्रम में रचनाओं को शामिल करने पर बहुत सी बातें हो सकती हैं उसे गठजोड़ और राजनीति से जोड़ा जा सकता है लेकिन समकालीन प्रवृत्तियों को शामिल करने से कौन रोकता है ? समकालीन लेखक की रचनाओं की बजाय हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं से जुड़ा एक पेपर पढ़ाने से कई सारे सवाल एक साथ हल हो सकते हैं ।
हमारे हिन्दी के विभाग विद्यार्थियों को हिन्दी पढ़ाते हुए केवल प्रोफेसर बनने की तैयारी कराकर बड़ी चूक कर देते हैं । महाविद्यालयों में नौकरी पा सकने वाले बहुत कम होते हैं फिर उनके पास विद्यालय , पत्रकारिता और दूसरे विकल्प ही रहते हैं जिनकी उनके पास कोई तैयारी और रुचि नहीं होती । स्कूल के विध्यार्थी हिन्दी साहित्य के बड़े पाठक बन सकते हैं लेकिन उनके अध्यापकों का प्रशिक्षण ही इतना संकीर्ण होता है कि वे झट से अंक व्यवस्था में फिट होकर हिन्दी को महज़ गद्यांश और प्रश्नोत्तर में समेटने के आदि हो जाते हैं ।