जुलाई 26, 2013

लाइब्रेरी में चिरकुटई !


[ देखिये साहब अब विद्यालय के धंधे में हूँ तो इसकी ज्यादा बातें तो करूंगा ही ! फिर आप चाहे जो कह लीजिये लेकिन पत्रकार जब केवल पत्रकारिता छांटते रहते हैं और ऊ तथाकथित साहित्यकार सब जो आजकल केवल एन्ने-उन्ने कर रहे हैं सो ? अपनी खेत के कोने में टिकना ज्यादा न बढ़िया होता है । पर जब खेतवे में खद्धाई (संभ्रांत हिन्दी वालों के लिए गड्ढा) हो तो मन करबो करेगा त नहीं ने बाहर जा सकते हैं ! ]
ऊ रही भूमिका ई रहा मजमून !

        लाइब्रेरी होता है एगो जिसको प्रेमचंद महराज गोदानवा में रायबरेली कहे हैं । ऊ बड़े आदमी थे कुछो कह सकते हैं । लेकिन एगो बुद्धू हम थे जो केतना दिन तक ने उसको प्रिंटिंग का मिस्टेक मान के बैठे रहे । कनिए उससे भी पहले चलिये जब हम इसकूल में पढ़ रहे थे । पहले तो साल का एगो-दू गो महिना ऐसे-हिये निकल जाता था – बिना किताबे का । फिर कोनो जोगाड़ भिड़ा के किसी छौड़ा ( ऊँह मुंह न देखअ सीनियर के ) से अधिया दाम में किनते थे । बहुत घीच-तान हुआ त मायो-बाप ला देता था एगो-दूगो किताब । तब तक इसकुल में ऐसेहिए आना आ जाना । मौजे न था एकदम ! ( फेसबुक होता त दूगो एस्माइलीयो न साट देते ) । त आगु बढ़िए ई का पैर में जाँता बान्ह लिए हैं । त साहब कौनों लाइब्रेरी जैसा नहीं था । इसी तरह होते-हवाते सतमा पास कर गए आ निकल के आ गए सहरसा । बिधायक के दादा के नाम पर हाई-इसकुल त था लेकिन लाइब्रेरी नहीं था । अपना बस्ता ले के जाना आ उसी को पढ़ना । पढ़ना क्या झख मारना । शुरू में कुछ पढ़ाई-पुढाइ हुई बाद में बस महिना में दू बार फी-कलेक्सन होता था । पता नहीं ऊ पइसवा किसके पास जाता था । तो ऊ हाई इसकुलवो में लाइब्रेरी नहिये देखे । मैट्रिक परीक्षा के बाद पहली बार पता चला कि सहरसो में एगो लाइब्रेरी हाई - डी.बी. रोड में । कुछ दिन ऊहों गए । किताब निकाले के औकात हमारा तभियो न हुआ था । चार-छ गो अकबार पड़ल रहता था । किताबो सब था लेकिन उठा नै सकते थे । बाद में ऊ लाइब्रेरी उठ के हुआं से सुपर मार्केट चला गया और हम उठ के सहरसा से सिद्धे दिल्ली ।
         
            दिल्ली में देखा त एक से एक बड़का-बड़का लाइब्रेरी ! कौलेज में एडमिसन हुआ तब आया लाइब्रेरी से किताब उठाने का औकात । पर एगो समस्या यहाँ भी था – एक तो जो किताब कोर्स में लगा था ऊ मिलता नहीं था और मिल गया तो कुछ जरूरी और ज्यादा बहुत जरूरी हिस्सा गायब रहता था । फिर इधर उधर का बहुत किताब पढे । धन्न ऊ सीआरएल का लाइब्रेरी जो उतना जगह दिया और उतना बढ़िया बढ़िया किताब का दर्शन कराया कि असली पढाय बिसर के झाड-फ़नूस पढ़ते रहे । एमे हिन्दी में उसी से कम नंबर आया !  लेकिन अपसोच कहाँ है ! ऊ झाडे-फ़नूस है जे आज काम दे रहा है ।
               
               इधर हम कर लिए नोकरी आ आ गए केरल । यहाँ एगो इसकुल में काम मिला है हिन्दी पढ़ाने का । ऐसे त ईधर पादनेयो का फुर्सत नै है लेकिन जब गलती से ऊ करने का टैम मिल जाता है त चढ़ लेते हैं दस-बारह सिरही – आ जाता है लाइब्रेरी । तीन गो गोदरेज (गोदरेज कंपनी का स्टील का आलमारी एतना ने बिका कि अब सहरसा का महाबीर चौक बाला अलमारी भी गोदरेजे हो गया है ।  ) है हिन्दी का ! पहले दिन गए थे त ऊ मैडमिया केतना गर्व से दिखाई थी कि एतना किताब है जी तुम यहीं आ के पढ़ लिया करो । अब जब हम सच्चे के एक दिन पढ़ने पहुँच गए त क्या देखते हैं कि पचास गो किताब को एन्ने से उन्ने कीजिये त एगो किताब मिलेगा उहो कहिया का छपा हुआ ! बाकी ऊंचास गो किताब में हिन्दू धर्म के महान संत , वीर शिवाजी , भारत के महान राष्ट्रपति वी.वी गिरि , योग क्या है और इससे भी बढ़कर इसका-उसका, न जाने किस किस का  एमफिल’, पीएचडी का छपा हुआ शोध-परबन्ध । छांट छांट के अपने लिए कुछ किताब अलग किए कुछ छात्रों के ले जाने के लिए । सब किताब पर केंद्रीय हिन्दी संस्थान या कि कोनो इसी का निदेशालयवा है कहीं पर उस सब का मोहर । साथ में इ भी लिखल था कि ई कितबिया फलाने संस्थान ने सप्रेम-भेंट किया है ।
                     मंगनी बरदा का दाँत नहीं देखते हैं कि ऊ कितना बूढ़ा है । चाहे ऊ कल्हे काहे न मर जाए पर मुफ्त में ले जरूर लेंगे । सबसे बड़ ई है कि दाम नहीं न लगा जी । जो मिला रख लिया । कौन सा किसी को पढ़ना है । पढ़ना है त अपना खरीदो ।
              
                  ई हिन्दी का जो केंद्रीय दुकान सब है ई पता नहीं कहाँ से ई एक से एक बेकार किताब उठा उठा के ले आता है आ भेज देता चुन चुन के सब सरकारी ईस्कूल में - उपकार का बोझा बना के , बोरा में भर के ! एगो बात इहो है कि केरल में किसी को हिन्दी तो आता नै है उतना सो जो सो किताब भेज दिया सब रख लिया आ कहियो उ संस्थानवाँ सब के बोला भी नहीं कि - रे भाय , तुमको कोई फिरी में देता है त तुम रखो हमको काहे दे देते हो ई कूड़ा-करकट । ई अरकच – भतुआ अपनैए पास रख लो ।

                 आ दु गो बात ऊ किताब लिखे बला सब से ! हे भाय- बहिन काहे जिद करते हो कि कुच्छो ते लिखबे करेंगे ! कोई कोई नहीयो लिखता है । आ कि सब कुकुर काशिए चला जाएगा त बाबू हो पत्तल कौन चाटेगा गाम के भोज में ! ऊ फेसबुक आ बेबसाइट बना बना के साहित्य में भुंकेगा कौन ! ई जो बेकार किताब लिख लिख के शाहदरा , लक्ष्मीनगर आ मौजपुर से छपाते हो ऊ में पैसबे न लगता है जी ! ऊ बचा लोगे तो धीया-पूता के प्राइभेट इसकुल का दू-तीन साल का फीस न भरा जाएगा । पर नै जी तुमको तो एगो किताब छपाना है । रे तोरा केतना कहें कि कोन का दिमाग खराब हुआ है जो तुम्हरा ऊ कॉपी-पेस्ट वाला डीजर्टेसन पढ़ेगा । छोटका बच्चा सब त ऐसेहिए कोनो किताब नै पढ़ना चाहता है ऊपर से तुम्हारा ई हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील । चूल्हे में झोंको ऐसे किताब को । तुम तो ससुर फिरी में किताब लिखने के नाम पर राष्ट्रपति भवन में अनूप भाई का किताबियो ले गए आ जैसे ही किताब छपा आ ऊ जाने लगी कि लगा दिया नोकरी राजस्थान के कौलेज में ! ई बेकार का किताब लिख के हमरे आ हमरे जैसे कैक इसकुल के लाइब्रेरी को तो 4-4 गो कॉपी भेज के भरिए न दिये हो !

त भैया इस तरह पूरा हुआ हमरे आज के भड़ास का कोटा !  

जुलाई 23, 2013

झपकियाँ लेते हुए


मैं अपनी डायरी और उसके लिखने को उसी तरह बेतरतीब मानता हूँ जैसा कि मैं हूँ । और कोई आश्चर्य नहीं कि यह मेरी तरह ही उथली या कि बकवास से भरी है और एक मित्र कि भाषा में कहूँ तो अल्हड़ सी ! पता नहीं उन्होने मेरे लिए अल्हड़ शब्द का प्रयोग सकारात्मक या नकारात्मक दोनों मे से किस अर्थ में किया पर आज तक तो मैं अल्हड़ को नकारात्मक ही मानता ,सुनता और समझता आया हूँ ! हालांकि इन सब से अब कोई फर्क नही पड़ता । आप अपने जीवन के एक बड़े हिस्से में ऐसे ही हैं तो अपने उसी व्यक्तित्व के साथ जीना सीख लेते हैं और आपको पता होता है कि लोग जो कह रहे हैं वह क्या और कैसे है । बहरहाल सोमवार यानि कि कल सुबह क्लास में जाने से पहले स्टाफ रूम में बैठा था और उस बेकारी भरे माहौल में नींद का झोंका आ-जा रहा था पास में एक पन्ना पड़ा था तो कुछ कुछ गोदता गया । यहाँ नज्र किए देता हूँ ... शायद अपने होने और उसकी व्यर्थता को आप भी समझ सकें ।

सुबह 8.10
विद्यालय में बैठा हूँ और आज की पहली दोनों कक्षा खाली है , मेरा काम नाश्ते के बाद शुरू होगा यानी  9.30 बजे । अभी तक अखबार भी नहीं मिल पाया है दो-तीन राउंड फेसबुक के भी देख लिए । जब से सीधे द हिन्दू वालों से अखबार लेना शुरू किया तब से यही हो रहा है । जो भाई जी घर पे दे जाते थे उन्हें बंद करवा कर सीधे कंपनी से ही लेना शुरू किया है । सीधे खरीदने में हर महीने के 50 रुपयों की बचत है । पर इस बचत में वो आजादी नहीं है । अखबार स्कूल में डाला जाता है घर पर नहीं तो ज़ाहिर है रविवार को भी यहीं आना पड़ता है अखबार लेने । रविवार को विद्यालय के प्रांगण में आना ऐसा लगता है अपने को जैसे मैंने कोई सज़ा दे दी हो ! खैर , फेसबुक के एक दो राउंड और देखने के बाद टेबल पर पड़े चार-पाँच नोटबुक भी जांच लिए और जो काम तीन दिनों पहले का था उस पर तीन दिन पहले की तारीख आज डाल कर हस्ताक्षर कर दिए । यहाँ यह बताता चलूँ कि ये वे बचे हुए नोटबुक हैं जो घर से वापस आए छात्रों ने आज सुबह दिए हैं ।

छात्रों के नोटबुक से ऊब गया हूँ ... वही गाइड बुक के उत्तर छाप दिये हैं सबने । यदि बुलाकर पूछता हूँ तो साफ नकार मार देंगे कि जी मैंने नकल नहीं की । पर हो भाय और बहिन जब तुम एक वाक्य शुद्ध शुद्ध नही लिख सकते तो ये उत्तर कैसे सटीक और शुद्ध भाषा में लिख मारे हो । तुम्हारी हिन्दी क्या हमसे इतनी छिपी है ! इधर एक दो ने नयी चालाकी शुरू कर दी है वे जानबूझ कर एक प्रश्न के उत्तर में दो- तीन गलत वर्तनी डाल देते हैं ताकि मैं समझ जाऊँ कि उनहोने कोई नकल नहीं मारी है और मैं उसे गाइड बुक की प्रतिलीपि मानने की भूल नही करूँ ।

इधर नींद आँखों पर चढ़ने लगी है । लग रहा है ऊपर की पलकों पर बहुत मोटा बोझ रखा हुआ है जो धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा है । स्टाफ रूम में एक दो लोग बैठे हैं जैसे किसी छोटे स्टेशन पर आधी रात के बाद की अंतिम गाड़ी का इंतेजार करते हुए एक-दो लोग मिलते हैं । उनमें भी शायद नींद की पहचान उभर रही है या रात की नींद का असर घुस रहा है । जिस भी टेबल पर नजर जाती है नोटबुक के ढेर लगे हैं जैसे किसी सरकारी दफ्तर में बाबुओं की टेबल पर होता है । छात्रों की नोटबुक की जांच एक ऐसा काम लगता है जो अध्यापकों का नहीं लगता । ऐसा करते हुए वह किसी भी दफ्तर के बाबू सा लगता  है या वही बन जाता है । वही खीज़ , वही बिना देखे कलम घिसते जाना । बीच बीच में कहीं कहीं अपनी लाल कलम से कोई निशान छोड़ देना ताकि गहराई से पढे जाने का भ्रम बना रहे । मेरे लिए यह और आसान है दो-चार शब्दों के हिज्जे को घेरकर नया लिख दो .... तो कहने को कोई भी कह सकता है कि मैंने या किसी बहुत समय देकर ध्यान  से पढ़ा है पर मामला बहुत कम बार ऐसा हो पाता है ।

8.20 बजे :
अबे ! ये जॉनसन इतनी ज़ोर से घंटी बजाता है कि कान फट जाए । जबकि एलेक्ट्रानिक घंटी भी पड़ी है लेकिन भाई साहब उसे छोडकर यही बजाएँगे ! सोमवार की सुबह का अपना एहसास ही नींद की खुमारी में रहना है और थोड़े जागे और थोड़े सोये से बैठना है उसे ये हज़रत घंटी बजा कर तोड़ देने पर उतारू हैं ।
ये सोमवार का ही दिन है जब मैं शिद्दत से सोचता हूँ और अभी भी सोच रहा हूँ कि , एक अध्यापक को भी कॉलेज के प्राध्यापकों की तरह अपनी कक्षा भर में आने की छूट होनी चाहिए । इससे उसकी उत्पादकता बढ़ेगी क्योंकि उसे आराम मिलेगा । यूं नींद की झपकियों से भरे वह स्टाफ रूम में रहे तो कौन सा पहाड़ तोड़ेगा ?
यहाँ खाली बैठने से लगता है कि , सब काम पर गए हैं और हम ही एक –दो निठल्ले बचे हैं । यह एहसास और थका देता है यहां से उठकर काम करने के लिए जाने में हिम्मत के कई डोज़ की जरूरत पड़ेगी । फिर भी कक्षा के मोड में आते-आते अपने को थोड़ा टाइम तो लग ही जाएगा ।

यहाँ बैठे बैठे ये सब कुछ गोदने से और भी भाव उभर कर आ रहे हैं । एक तो बड़ा सही सा लगा है जिसका क्रम भी थोड़े से फेरबदल के साथ जुड़ता चला जा रहा है । इसे जोड़-जाड़ के एक बड़ी कहानी बनाई जा सकती है । पिछले कुछ समय से लग रहा है कि कहानी लिखना तो छूट ही गया । अब पता नहीं कहानी शुरू भी हो पाएगी भी या नहीं । उसकी अपनी मांग है और उन्हें पूरा करने का धैर्य अब खत्म हो रहा है । मानसिक स्तर पर बहुत सारा सोच –विचार हो जा रहा है पर उसे भौतिक रूप देना कठिन होता जा रहा है ...



जुलाई 21, 2013

धूप में निकल कर !


कामकाजी ज़िंदगी में रविवार एक इत्मीनान है और दिन भर वही इत्मीनान तारी रहता है । कुछ भी करिए कहीं भी जाइए, कहीं भी समय पर पहुँचना नहीं है बस अपनी इच्छा पर है जितनी देर जहां मन किया ठहर लिए । मन किया सो गए , नही तो कुछ उठा के पढ़ लिए । यूं इस दिन भी काम कम नहीं होते बल्कि आम दिनों के मुक़ाबिल देखें तो ज्यादा ही होते हैं पर समय की पाबंदी नहीं रहती सो मन एक प्रकार से आज़ाद ख़याल हो कर यहाँ वहाँ जा सकता है , ये-वो कर सकता है ।


यहाँ तो अपना काम रविवार के दिन भी बिना अलार्म के नहीं चलता । सप्ताह के अन्य दिनों की तुलना में यह आज भले ही देर से बाजा पर नींद का असर वही था जो रोज़ रहता है । आज भी चक्रव्यूह फिल्म के गाने भैया देख लिया है बहुत तेरी सरदारी रे को कोसते हुए मन जागा था । इस गाने को कोसा इसलिए कि इसे मैंने अलार्म टोन लगा रखा है आजकल । इसकी आवाज़ जरा तेज़ है ! बच्चन की कविता आत्मपरिचय की तरह शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ वाला भाव नहीं है इस गाने में । आग है तो आग के ज्वाला-युक्त वाणी भी चाहिए और जरूरी भी है । घिघिया के यदि सच कहा भी जाए तो सच का क्या असर होगा ? बच्चन की कविता कविता के लिए ठीक है पर वो कवि को आर्मचेयर इंटेलेक्चुअल से ज्यादा कुछ नहीं बनाती ।
सुबह सुबह यदि नहाने का विचार त्याग दिया जाए तो आधा घंटा सोने को और मिल जाता है । ऐसा हर दो-तीन दिनों के अंतराल से मैं कर लेता हूँ और हर बार का बहाना खुद से यही बनाना होता है कि – सुबह की इतनी प्यारी नींद के लिए इतना चलता है ।


नाश्ते के बाद आज मन थोड़ा भटकने का कर रहा था । अनायास ही पैर रास्ता नापने की तैयारी करने लगे । यहाँ स्कूल में कुमुदनी का एक छोटा सा तालाब है । जब से वहाँ फूल खिलने शुरू हुए हैं तब से वहाँ जाने के मन को मनाना नहीं पड़ता । आज वहाँ एक ही फूल खिला था , वह भी क्षत-विक्षत-सा लेकिन पौधे से जुड़े होने के कारण उसमें जीवन की संभावनाएं दिख रही थी । कटा-फटा फूल भी मुसकुराता है ! उसका तन चोटिल है मन में उन चोटों के निशान भी जरूर ही होंगे पर वह फूल जीतने भी हिस्से में मेरे सामने था अपनी मुस्कान से लबरेज ! कुमुदनी के इन पौधों के पास छात्र खेलते हैं बल्कि बच्चे खेलते हैं । बहुत से पौधों के हिस्से नीचे पानी में दबे पड़े हैं । क्या ये पौधे किसी की शिनाख्त कर सकते हैं !


कुमुदनी को लेकर अफसोस तो था पर मन इसके लिए तैयार न था कि अफसोस किया जाए । बाहर निकला तो चलने की इच्छा और तेज़ जैसी हो गयी । बहुत दिनों बाद धूप देखी थी सो धूप का आकर्षण संभाले नहीं संभल रहा था । मैं जिन इलाकों में अब तक रहता आया था उनमें से कहीं भी मैंने धूप के लिए इतना आकर्षण महसूस नहीं किया । इसके विपरीत लगातार यह भाव बनते रहते थे कि धूप जाए और छांव आए । पर यहाँ केरल के इस इलाके में बादल और बारिश धूप को जिस तरह दबाये रखते हैं कि अपना बचपन याद आ जाता है जब मैं दब्बू- सा हुआ करता था । बारिश और धूप के खेल में धूप को पिछले डेढ़ महीने में कभी भी जीतते नहीं देखा बल्कि मुक़ाबला करते भी नहीं देखा । आज बहुत दिनों बाद धूप देखी तो उसके मुक़ाबले के लिए तैयार होने की हिम्मत के आमंत्रण को अस्वीकार करने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा । किताब की दुकान पर ज़्यादातर मलयालम की सामाग्री ही थी और जो अंग्रेजी में थी उन्हें बहुत पुरानी से कम कुछ नहीं कह सकते । हिन्दी ? हिन्दी इल्ला ! हिन्दी यहाँ नहीं मिलेगा एर्णाकुलम जाओ । केरल के इस क्षेत्र में मैं रहता हूँ वहाँ के बहुत से बाज़ारों को देख आया हूँ यहाँ किताबों को लेकर एक खास तरह का चलन देखने को मिला है । ज़्यादातर इंजीनियरिंग से जुड़ी किताबें मिलती हैं और उसके बाद नर्सिंग से जुड़ी हुई । इसका कोई न कोई सामाजिक आधार जरूर होगा । दुकानों में अंग्रेजी या मलयालम के उपन्यास ही खोजिए तो नहीं मिलेंगे उसके लिए भी बड़े शहर जाना पड़ेगा । यहाँ की किताब की दुकानों में उपलब्ध समग्रियों के आधार पर इतना तो मानना पड़ रहा है कि यहाँ, पढ़ने की आदतों को पाठ्यक्रम आधारित पुस्तकों तक सीमित रखने की कवायद काफी पहले से चल रही है ।

कभी कभी निकालने वाली इस प्यारी धूप में मैं उस रास्ते पर दूसरी बार चल रहा था । वह रास्ता डरावना तो है पर उसकी घनी हरियाली आकर्षित करती है । यही वजह है कि कई बार सहकर्मियों के मना करने के बावजूद मैं उस रास्ते का मोह त्याग नहीं सकता । वे इधर आने को इसलिए मना करते हैं क्योंकि वह जंगल का क्षेत्र है जहां कई प्रकार के जानवर हैं विशेषकर हाथी दूसरे मेरे साथ भाषा की भी समस्या है । उनके कहने से भी मन नहीं मानता कि उस रास्ते पर कभी कोई हाथी मिल जाएगा । ऊपर से जंगल के स्वतंत्र वातावरण में जानवरों को देख पाने का मोह और उस रास्ते की ओर खींचता ही है ।


मैं उस सुनसान रास्ते पर चल रहा था । एक्का-दुक्का कोई गाड़ी निकल जाती पर इससे रास्ते की शांति पर कोई असर नहीं पड़ता महसूस हुआ । आगे एक स्थान पर पहाड़ से गिरता पानी सड़क पर बह रहा था । पक्की काली सड़क पर पारदर्शी पानी एक मोहक दृश्य बना  रहा था ! रास्तों के ऊपर से बहता पानी मैं खूब देख चुका था पर वह कच्ची सड़क पर बहता था हाँ उनमें कभी कभी मछलियाँ जरूर दिख जाती थी ।
उस रास्ते पर जितना बढ़ते जाओ जंगल उतना घना होता जाता है । एक बिन्दु के बाद आकर्षण पर वातावरण की भयावहता हावी होने लगती है । सागवान के ऊंचे–ऊंचे पेड़ और न जाने कई अन्य कौन-कौन से पेड़ जिनकी बनावट से कई बार उनमें मनुष्य के चेहरे जैसे भाव उभरते प्रतीत होते थे फिर पेड़ों की फुनगी को छूती मोटी जड़ों वाली लताएँ । सब मिलकर ऐसा घना आवरण बना रहे थे कि उसके पार देखना संभव न हो । ऐसे में छोटी सी चिड़ियाँ की आवाज भी बहुत डरावनी लग रही थी । दो दिन पहले ही रश्किन बॉन्ड की ट्रेडमार्क भुतहा कहानियाँ पढ़ी थी सो कई तरह के चित्र और भाव एक साथ उभर रहे थे । जंगल के उतने भीतर जाने के बाद भी मैंने न कोई जानवर देखा और न ही कोई चेहरा । लेकिन उन दोनों का भय बना रहा । पर ऐसा नहीं लग रहा था कि कहीं से कुछ झट से सामने आ जाएगा ।


कुछ साल पहले मैं भीमबेटका की गुफाओं में आदि मानव द्वारा बनाए गए चित्रों को देखने के लिए गया हुआ था । मध्य-प्रदेश की सरकार और उसका पर्यटन विभाग कितनी भी अपनी प्रशंसा कर ले और अपने यहाँ आने को आमंत्रण पर आमंत्रण दे लेकिन भोपाल से महज़ 20 किलोमीटर दूर ये गुफाएँ यातायात की दृष्टि से संपर्कहीन ही हैं । ओबेदुल्ला गंज के आगे कोई सवारी मिलनी संभव नहीं है मालवाहक ट्रकों और ट्रैक्टरों के अलावा कोई साधन नही है । जाते समय तो एक ट्रक वाले ने भीतर बैठा लिया था पर लौटते हुए एक रेत लदे ट्रक के पेछे रेत पर बैठ कर आना पड़ा । इतना ही नहीं ट्रक वाले जहां छोडते हैं वहाँ से गुफाएँ और तीन-चार किलोमीटर चढ़ाई पर हैं जहां तक जाने के लिए या तो आपके पास अपनी सवारी हो अन्यथा पैदल ही आसरा है । यह दशा देखकर यह सोचने को विवश होना पड़ा कि ये पर्यटन सीमित संसाधनों वाले लोगों का काम नहीं है उनके लिए तो घूमा-फिरी है । जेब जितनी आज्ञा दे उतना घूम-टहल लो । बहरहाल जब मैं ट्रक से उतर कर ऊपर गुफाओं की ओर पैदल जा रहा था तो अकेला था । मई की तेज़ धूप में सूखी पहाड़ी तप रही थी और पेड़ों से गिरे पत्तों का पानी जल चुका था । चारों ओर सन्नाटा था कहीं कोई नहीं । उस सन्नाटे में एक मक्खी का भिनभिनाना भी किसी बड़े जीव की आवाज जैसा सुनाई दे रहा था । तब हर विचित्रता एक अलग तरह का भय पैदा कर रही थी । वहाँ भी अकेला था और आज इधर केरल के जंगल में भी अकेला था । मैं ऐसा नही कहता कि मुझे भय नहीं हुआ पर भय से जुड़ी जितनी कहानियाँ सुन रखी थी उस जैसा कभी नहीं लगा । ऐसा कभी नहीं लगा कि कोई कहीं से आ के दबोच लेगा या कि कुछ और ।
आज धूप ने मौका दिया तो अपने हिम्मत की जांच करने का मौका इधर भी मिल गया । मैं अपने भय के तमाम मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलू को जब देखता हूँ तो ये फिर से मुझे अपने मन की ही ऊपज लगती है ।


रविवार शायद इसी तरह की बातों के लिए होता है जब कपड़े धोते-धोते किन्हीं बेवजह से खयालात को समेटने का मन कर जाए या फिर समस्त भय को दरकिनार कर मन फिर से एक बार जंगल या कि भीमबेटका के चित्रों को देखने के लिए ललचा जाए ।  

जुलाई 14, 2013

हमारी आग पर उनकी रोटी


इसे जिस भी तरह से प्रस्तुत किया जाता है अच्छाई से लबरेज़  और सुखद रूप से क्रांतिकारी भी लगने लगा है कि एक लड़की गोलियां खाकर भी अपनी शिक्षा को जारी रखना चाहती है . यह सबकुछ ऐसा है कि अब लगने लगा है उसकी देखा देखी सभी लड़कियां स्कूल जाने के लिए गोलियाँ तक झेलने की हिम्मत कर बैठेगी और किसी ने उन्हें रोका तो संसार को दिशा दिखाने वाले राष्ट्र और वैश्विक संस्था तो है ही . वे रोकने वालों को अपने हवाले ले लेंगे .
    

 आलोक धन्वा की एक कविता है -पतंग . ढेर सारे बिंबों से भरी इस कविता में वे बताते हैं कि , बच्चे पतंग की पतली डोर के सहारे छत के कोर तक जाने का सहस कर लेते हैं और ऐसे लगने लगता है कि यह डोर उन्हें थामे हुए है . कभी यदि वे गिर जाएँ और उन्हें कुछ नही हो तो उनका साहस और बढ़ जाता है . यह समाज भी ठीक वैसी ही दशा प्रस्तुत कर रहा है . शिक्षा प्राप्त करना पतंग की डोर के समान है और थोड़े से लोगों को छोड़ दिया जाये तो बहुसंख्यक बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना छत की कोर तक चले जाने जैसा 'रिस्की' है और अधिकांश बार उन्हें गिरते पाया जाता है . एक आधा बार ही ऐसा हुआ होगा कि वे गिरे और उन्हें कुछ हुआ नही ! मार्क टुली की एक किताब है 'द हार्ट ऑफ़ इंडिया'. पूर्वांचल के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से पर लिखित यह किताब यूँ तो हमें वाही सब बताती है जो हम आम जीवन में देखते हैं परन्तु जैसा कि हमेशा से होता आया है  एक विदेशी की नजर इसे आश्चर्यजनक रूप से विश्वसनीय बना देती है . इसी किताब में दो भाइयों का जिक्र है जो जाती और वर्ग दोनों के अनुसार तथाकथित निम्न मानी जाने वाली पृष्ठभूमि से आते हैं . वहां शिक्षा का प्रवेश दिखाया गया है लेकिन शिक्षा अंततः उन्हें इतना ही दे पाती है कि रोजगार को प्राप्त करने के लिए उन्हें भारी घूस की जरुरत है . जो वे कभी जमा नहीं कर पाते . उनका रोजगार विहीन होकर रह जाना उनके आस पास के लोगों की शिक्षा पर विश्वसनीयता को स्थायी तौर पर समाप्त कर देता है .
               

शिक्षा हमारी कितनी मदद कर सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए बार- बार इतना ही उभर कर आता है कि थोड़े बहुत वैचारिक परिवर्तन और कुछ सूचनाओं के भर देने के अतिरिक्त इसका कोई काम नहीं . परन्तु कई लाख बार इसे ही बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता रहा  है . जबकि जो कार्य शिक्षा अक्षरों और लिपियों के माध्यम से करती है वह अनुभव और जरुरत के अनुसार आ ही जाता है . फिर तुरंत शिक्षा के पैरोकार शिक्षा का दायरा बढ़ा कर सबकुछ उसी के भीतर ले आते हैं . ठीक उसी समय यह कहने की जरुरत है कि जब सबकुछ शिक्षा के घेरे में ही आता है तो ये शिक्षित-अशिक्षित के ढोंग और विभाजन , ये विद्यालयी तामझाम आदि कहाँ से आवश्यक हो गए . एक बड़ी आबादी का केवल हीनता के साए में या हाशिये पर रहना कि वे शिक्षित नहीं हैं और उनकी इस दशा पर ही सारे दोष मढने की प्रक्रिया को भी देखने और फिर से समझने की जरुरत है . देखा जाए तो शिक्षा की दी हुई व्याख्या ही हम लगातार ढो रहे हैं . यह व्याख्या उसी 'व्हाइट मैन्स बर्डन' वाली बात से निकलती है .
      

 मलाला के जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मलाला दिवस घोषित कर दिया . दुनिया भर के समाचार प्रदाताओं के लिए यह पहली बारिश के जैसी सुखद अहसास भरने वाली खबर थी . और पूरी पश्चिमी राजनीति के लिए ऐसा तब था जब वर्ष 2012 के अक्तूबर में किसी दिन मलाला को गोली मार दी गयी थी . मानवाधिकार का हमेशा दम भरने वाले देशों के सामने अफगानिस्तान , ईराक फिलिस्तीन और पकिस्तान आदि देशों के बड़े क्षेत्र में लगातार की जा रही भारी हिंसा और मानवाधिकार हनन के डरावने आंकड़ों के बीच इससे सुखद खबर कुछ नहीं हो सकती थी . अपना चेहरा छुपाने के उन्हें बड़ी चादर मिल गयी थी . अचानक से मलाला उनकी बच्ची हो गयी और उन्होंने उसके लिए हर संभव व्यवस्था कर दी . मलाला के माध्यम से उन्हें युद्ध झेल रही जनता के मन को भ्रम में डालने का एक सुनहरा मौका मिल गया था .


                कसी भी समाज में युद्ध को स्वीकार नहीं किया जाता उस पर जब युद्ध बाहर से थोपा जाये तब तो और नहीं  . इसका सीधा सा करण है अव्यवस्थित जीवन और खून-खराबा . ऐसा नही है कि ईराक , अफगानिस्तान , फिलिस्तीन और पाकिस्तान के हालात एक जैसे हों लेकिन इन सब के बीच एक कड़ी है पश्चिमी देशों का यहाँ चल रहे युद्ध में शामिल होना . बहुतेरे हैं जो इन युद्धों के पक्ष में खड़े हैं और आने-बहाने यही बात करते हिं कि ये युद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों के खिलाफ लड़े गए या लड़े जा रहे हैं . मजमून यह कि ये शक्तियां इन देशों में रह रहे नागरिकों के जीवन को 'विकास' नहीं बल्कि 'रूढ़ियों' की और धकेल रही हैं या थी . लेकिन इन युद्धों से व्यक्ति की स्वतंत्रता मिल गयी हो वह पुनः 'विकास' के रास्ते पर लौट आया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता . इसके विपरीत जान -माल की भारी क्षति ही हुई जो शायद उन प्रतिक्रिया वादियों के रहने से या उनके डर से नहीं होती .


          पश्चिम की यह युद्धप्रियता निश्चित तौर पर एक ही धर्म के खिलाफ दिखती है लेकिन यह उससे भी बढ़कर एक समान संस्कृति थोपने का कार्य है . क्या हो गया जो लोनों ने केवल पारंपरिक शिक्षा ही ग्रहण की . हालाँकि ऐसा कहने के अपने खतरे हैं फिर भी क्या हो गया जो लड़कियों या कि लड़कों ने पश्चिमी तर्ज की शिक्षा ग्रहण नहीं की ? जहाँ तक लड़कियों के घर बैठ जाने और पर्देदारी में रहने के लिए दी जाने वाली धमकियों की बात है तो उसके विरुद्ध परिवर्तन भीतर से संभव है जो थोड़े से देर सवेर से हो जायेगा . समाजशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर देखा जाये तो समाज में अपेक्षित परिवर्तन थोपा नहीं जा सकता बल्कि यह स्वाभाविक रूप से ही हो पाता है . अभी यदि मलाला को पश्चिमी देशों और उनकी संतान संयुक्त राष्ट्र संघ ने गोद ले ही लिया तो क्या इन देशों में या कि विश्व भर में लड़कियों , वंचितों के लिए प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ कम से कम स्कूल जाने के मामले में लोग खड़े हुए ?
इस पूरे घटनाक्रम को पश्चिम की स्वयं को श्रेष्ठ मानने और इस पर  बार-बार जोर दिए जाने की प्रक्रिया के रूप में ही देखे जाने की आवश्यकता है . एक दौर था जब ये देश खुलेआम इन बातों को कहा करते थे पर आज वे स्वयं कहने से बच रहे हैं . आज उनहोंने इसके लिए पहले से भी कारगर हथियार गढ़ लिया है . ये देश अब तीसरी दुनिया की उन प्रतिभाओं , घटनाओं और विशेषताओं को अपना संरक्षण देते हैं जो इस दुनिया की रुढियों , पारंपरिक ज्ञान और कटु वास्तविकताओं को पश्चिम की घृणा भरी दृष्टि से देखते हैं . यही करण है कि पश्चिमी देशों को जहाँ भी इस तरह के मौके मिले उन्होंने खूब भुनाया . यदि लगन फिल्म में क्रिकेट का मैच अंग्रेज जीत जाते तो फिल्म का ऑस्कर जीतना पक्का था . इसे 'स्लमडॉग मिलिनेयर' की ऑस्कर में सफलता और अरविन्द अदिगा के 'द व्हाइट टाइगर' और इस जैसी ई अन्य किताबों के बुकर पुरस्कार जीत जाने से जोड़ कर देखें तो कड़ी जुडती प्रतीत होती है . लगन किसी भी दृष्टि से स्लमडॉग से बेहतर फिल्म थी लेकिन उसकी असफलता थी उसमें स्थानीय सोच की जीत होना . पश्चिम उन लोगों को प्रश्रय देकर अब अपना काम कर रहा है जो तीसरी दुनिया के भीतर की वास्तविकताओं को पश्चिम की नजर से देखते हैं .


   जहाँ तक मलाला का प्रश्न है तो संयुक्त राष्ट्र या कि उनके संरक्षकों को केवल वही क्यों दिखी ? और लड़कियां भी मारी गयी . स्वयं मलाला की डायरी में इसका जिक्र है . ये तो रही पढने लिखने वाली लड़कियों की बात क्या उन्हें उनका कुछ भी ध्यान है जो वर्षों तक चले युद्ध में मारे गए ? यदि चरमपंथियों ने स्कूल खाली करवाकर उसमें अपना ठिकाना बनाया तो अमेरिकी गठबंधन की सेना ने पूरा स्कूल ही उड़ा दिया . कोशिश भी नहीं की कि यदि स्कूल बचे रह गए तो छात्र-छात्रा वापस आयेंगे .

       वास्तव में मलाला उनके ही एजेंडे का हिस्सा है . जिसका अमेरिका नीत गठबंधन ने फायदा उठाया और अब भी ऐसा कर रहा है . पहले बीबीसी से उसकी डायरी प्रसारित हुई  जिसे उसके माध्यम से आम जनता में गठबंधन की सेना के लिए सहानुभूति प्राप्त करने की कोशिश की गयी . अंततः जब मलाला को गोली मारी गयी तब उन्हें अपने कार्यों  को छिपाने का और शेष विश्व को एक झुनझुना पकडाने का मौका मिल गया . चुकी उसकी जानकारी बीबीसी के माध्यम से गठबंधन को थी इसलिए उन्होंने इस मौके का पूरा फायदा उठाया . एक तरफ देखा जाये तो ऐसी कई लड़कियां मारी गयी और उन्हें केवल तालिबान या उन जैसों ने ही नहीं मारा . पर उनके बार में संयुक्त राष्ट्र या उसके खैरख्वाह क्या राय रखते हैं यह अब तक प्रकाश में नहीं आया है .


         मलाला को गोली मारी गयी यह एक शर्मनाक घटना है उसे सुरक्षित अपनी शिक्षा जारी रखने देना एक आदर्श स्थिति है लेकिन बार बार यही बात आती है कि केवल मलाला ही क्यों ? यदि पश्चिम अबतक उस 'सफ़ेद चमड़ी वाले आदमी' के 'बोझ' को ढो रहा है तो अन्य पीड़ितों की और ध्यान क्यों नहीं देता . इतना नहीं तो कम से कम वह अपनी तबाही मचने वाले कार्यों के दौरान इस बात का ख्याल क्यों नहीं रखता है ?

   हम प्रतीकों में जीने वाले लोग हैं और हमें झट से एक प्रतीक दे दिया जाता है . प्रतीक देने वालों के प्रति हमारी कृतज्ञता देखते ही बनती है वे इसी का मजा लेते हैं क्योंकि वैचारिक गुलामी उनके अन्य उद्देश्यों को बड़ी आसानी से पूरी कर सकती है .

जून 28, 2013

अयप्पन की जो तस्वीर मैंने देखी


मुझे नहीं पता कि समूचे भारत में इसकी कोई खबर है भी या नहीं । यह भी मेरी जानकारी से बाहर ही है कि हिन्दी के 'राष्ट्रीय' अखबार और समाचार चैनलों ने इसको कितना महत्व दिया । पर जिस तरह से हम समाचार के संबंध में पढ़ते आए हैं कि उसमें अनोखापन होना चाहिए तो इसमें अपनी तरह का अनोखापन भी है ।  समाचार की दुनिया में ऐसा माना जाता है कि कुत्ते ने आदमी को काट लिया तो सामान्य बात और आदमी ने कुत्ते को काट लिया तो अनोखापन और जब बात में अनोखापन आ जाए तो वह खबर बन सकती है । बहरहाल उस घटना में इस अनोखेपन का मसाला भी था सो उसके खबर बनने की पूरी संभावना दिखती है ।


अयप्पन की जो तस्वीर मैंने देखी उसमें वह कोई बहुत मजबूत युवक नहीं लगता और इतना मजबूत तो कतई नहीं कि वह अपनी गर्भवती पत्नी को अपनी पीठ पर लाद कर लगभग 18 घंटे चलता रहे और उसे अस्पताल तक ले आए । इस असंभाव्यता के बावजूद उसने ऐसा किया । अयप्पन की यदि पहचान बताई जाये तो यह बताना ही पड़ेगा कि वह आदिवासी है । यहाँ मेरा आदिवासी शब्द से परहेज इसलिए है कि हमने जिस तरह से इस शब्द को समझा है वह इस शब्द के प्रयोग को ही कटघरे में खड़ा कर देता है । शायद सबसे बुरी पहचान यही शब्द देता है । इसी तरह इसका अंग्रेजी समकक्ष 'ट्राइबल' भी एक हीनता ही प्रदर्शित करता है ।  अयप्पन एक आदिवासी है और उसका घर केरल के घने वनों के इलाके कोन्नी में है । अबतक शायद किसी ने ये नाम सुना भी न होगा पर अचानक से यह नाम कम से कम केरल के सभी समाचार पत्रों में तो आ ही गया । 


जो तस्वीर अखबारों में छपी उसमें वह पीली कमीज पहने हुए है खूब बढ़ी हुई दाढ़ी है और बिखरे से बाल, नजरें नीचे । तस्वीर देखने से लगता है कि वह बिलकुल ही निरपेक्ष सा है । आम तौर पर होता है कि मिडियाकर्मियों को देखते ही लोग मुखर हो जाते हैं । कष्ट में हैं तो गहरी विह्वलता प्रदर्शित की जाती है ताकि उनकी ओर ध्यान जाए । अयप्पन शायद न जनता हो कि उसने जो किया उसे लोग एक कौतूहल की दृष्टि से देखेंगे । लोगों के लिए भले ही यह एक अनोखी बात हो पर उसने तो केवल अपनी पत्नी की जान बचाई ।


अयप्पन का घर देश के उन्हीं इलाकों में से एक है जहां स्वास्थ्य सेवा स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी नहीं पहुँच पायी हैं । उसकी पत्नी सुधा जब गर्भवती हुई तो उसके लिए वहाँ कोई डॉक्टरी नहीं थी । इन इलाकों में कोई सुविधा ही नहीं है तो सुधा क्या किसी की भी हालत खराब हो क्या फर्क पड़ता है ! देश को भी कोई फर्क नहीं पड़ता ! सुधा को उसके पति अपनी पीठ पर ढ़ोकर बाहर अस्पताल तक पहुंचा तो दिया पर उसका बच्चा नहीं बच पाया । शायद सुधा भी नहीं बच पाती पर समस्याओं से लड़ने की जिद ने उसे बचा लिया । इसके साथ ही यह उस अंधेरे दायरे में हमें ले जाता है जहां अब भी यदि आदमी बीमार हो तो अपने हाल पर छोड़ दिया जाता है । मीडिया इसे अपने तरह की पहली और एकमात्र  घटना मान रहा है । इसकी यह विशेषता यह सोचने पर बाध्य करती है कि यदि सुधा का पति उससे इतना प्यार नहीं करता तो सुधा का क्या होता ! जो उसके इलाके या उस जैसे कई इलाकों के लोगों का होता आया है वही होता । मौत उसे बता कर आती और कोई कुछ नहीं कर पाता ।


अयप्पन जब अपनी पत्नी को पीठ पर बांध कर चला था तब सुबह भी ठीक से नहीं हुई थी और लगातार बारिश भी हो रही थी । जंगल और पहाड़ी रास्ते पर धारासार वर्षा पर अयप्पन के लिए चिंता का विषय केवल जंगली हाथी थे । उसे पता था कि उसकी हिम्मत उसे बारिश और रास्ते के असहयोगों से तो बचा लेगी पर उन्मत्त जंगली हथियों से बचना मुश्किल है । उसे हाथी नहीं मिले । किसी तरह वह रात को अस्पताल पहुँच पाया । छोटे अस्पताल से फिर उन्हें बड़े अस्पताल जाना पड़ा । उसने जब ये बातें पत्रकारों को बताई होगी तो उसके चेहरे पर भी संतोष रहा होगा और देखने सुनने वाले के लिए यह किसी आश्चर्य से कम नही रहा होगा । यह तो वही जनता होगा कि कितना कठिन रहा यह सब ।



इसे एक गाथा के तौर पर मैं भी देख रहा हूँ और मुझ जैसे बहुत से लोग होंगे । हम इस बात से खुश हो सकते हैं कि हमें एक ऐसी प्रेम गाथा मिल गयी  जो हमारे समय में घटित हुई है और इसकि हम जांच कर सकते हैं । अन्यथा हमारी गाथाएँ तो अपने ऊपर संदेह करने का भी अवसर नहीं छोडती । पर क्या यह गाथा हमारे समाज के लिए जरूरी थी । निश्चित तौर पर नहीं । लेकिन हम जिस तरह से काम करते हैं बल्कि हमारी तमाम प्रणालियाँ जिस तरह से काम करती हैं वे इस तरह की गाथाओं के प्रकाश में आने के बाद भी यह ज़ाहिर भी होने देती हैं कि उनका अस्तित्व भी है । अयप्पन जैसे लोग हमारी व्यवस्था के मुखौटे को उतार कर उसे उसके मूल रूप में ले आते हैं जहां लोककल्याण जैसी कोई बात ही नहीं है । अपनी पत्नी से प्रेम प्रदर्शित करना बहुत बढ़िया बात है पर यदि ऐसा करने के लिए इतना संघर्ष करना पड़े तो विरले ही हिम्मत कर पाएंगे । सरकार के लिए तो यह उन्हीं बहुत सारी घटनाओं में से एक है जो शायद कोई महत्व नहीं रखती पर इसके माध्यम से स्वास्थ्य सेवाओं की बहाली के प्रति उसकी उदासीनता छिप नहीं पाती है । 

जून 19, 2013

खाली जेब और गरीब मानने का चलन



ये दिन ऐसे हैं कि कह सकता हूँ कि गरीबी में काट रहा हूँ  क्योंकि आज तक जो सीखा है उसके भीतर गरीबी की समझ केवल पैसे के न होने से ही बनती है । जेब में पैसे न हो तो गरीब और हों तो जो कह लीजिये पर अभी तक दूसरी स्थिति आई नहीं है । वो दशा बनते बनते रह जाती है और मन  यह महसूस करते करते कि गरीबी के इतर भी कोई भाव हो सकता है । नौकरी सरकारी लेकिन नयी है । सो सरकार को अब तक  विश्वास नहीं हुआ है कि मैं उसी के साथ रहूँगा इसलिए छुट्टियों के दो महीने का वेतन अपने पास ही रख लिया है और वह तभी जारी करेगी जब उसे विश्वास हो जाएगा कि मैं भागने वाला नौकर नहीं हूँ । यह अवधि साल भर की भी हो सकती है और छह महीने की भी । आपसदारी की बात तो ये है कि मैं भी सरकार पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ ! मेरा अविश्वास कुछ और बातों को लेकर है । दूसरे, सरकार को यह समझना चाहिए कि आज के भारत में कोई भी उसकी चाकरी छोडने से पहले हजार बार सोचता होगा ।  खैर , जब जेब खाली है तो गरीब मानता हूँ खुद को क्योंकि ऐसा ही मानने का चलन है । ये ऐसी स्थिति है कि कुछ ही पानी बचा हो आपके पास और प्यास तेज हो जाए ! जब केरल पहुंचा था तब अंटी में कुछ खास रह नहीं गया था । पिताजी के हवाले से जो प्राप्त हुआ था वो जहाज के किराए से टैक्सी तक के किराए में चला गया और अपनी कुल संपत्ति सैकड़ों में पहुँच गयी ।


नवोदय की व्यवस्था है सो रहने - खाने चिंता नहीं है और इसी ने एक बेफिक्री भी दे रखी है कि चलो जी कुछ सौ रूपय भी हों तो जीवन चल सकता है खाने और रहने के अलावा चाहिए ही क्या ! और वह मिल ही रहा है । लेकिन बचपन में एक कहानी पढ़ी थी संस्कृत की किताब में उसमें एक चूहे ने अपने बिल में बहुत सारा धन जमा कर रखा था ।  वह अनायास अपनी बाहें फड़का कर चलता था । उसे लगता था वह सबसे धनी है । जंगल में चोरों को इसकी भनक लग लग गयी फिर एक दिन चूहे के बाहर निकलते ही चोर सारा धन लेकर चंपत हो गए । धन के चोरी हो जाने के बाद चूहा बहुत दिनों तक घर से बाहर ही नहीं निकला और जब निकला तो उसकी चाल की सारी अकड़ गायब थी । संस्कृत में पढे ज्ञे पाठ से संस्कृत में केवल एक टर्म याद आ रहा है - धनीनंबल्ल्वांलोके । इसका अर्थ जो भी हो पर इस कहानी से यह समझ आया था कि पैसे की कमी हो जाने से व्यक्ति की अकड़ खत्म हो जाती है - उस चूहे की तरह । 


कुछ तो यहाँ काम के घंटे  इस तरह के हैं और दूसरा यह भी कि प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो ही जाती है सो बाहर बाजार की ओर रुख बहुत सोच विचार के पहले नहीं होता । पर जब बाजार की ओर जाना होता है तो बाजार बहुत आकर्षक नहीं लगता । जो जरूरत की सामाग्री है वही लेकर आना हो तो इधर उधर देख कर भी एक अपरिग्रह सा बना रहता है क्योंकि  मन अनावश्यक भटकता ही नहीं । मन को पता है कि बाहर जेब में उतने ही पैसे हैं जितने में आवश्यक सामाग्री आ जाए । सो मन बहुत सारी चीजों को प्राप्त कर लेने की दृष्टि से देखता ही नहीं । मुझे पता है कि यह मेरे मन की स्थायी स्थिति है जो बहुत हद तक परिस्थितियों के दबाव में बनी है पर ऐसी स्थिति यदि लगातार बनी रहे तो मन बहुत नियंत्रित हो सकता है । मन पर इस तरह का नियंत्रण एक तरह से सब इच्छाओं के निरोध की स्थिति है । पर क्या सभी इच्छाओं का दमन हो सकता है ? यदि ऐसा है तो वह बाहर से तो बहुत अच्छी स्थिति होगी पर आंतरिक रूप से बड़ी जटिल दशा होगी । मन को पता होगा कि यह बाहर के लिए बनाया गया झूठ है ।  ठीक उसी तरह जैसे आँख बंद कर लेने से भी  दृश्य दिखते रहते हैं बाजार का लोभ भीतर बना ही रहता है । हठ से किए जा रहे योग कि तरह !


 ऊपर ही स्पष्ट कर दिया है कि यह चेतन पर जड़ की विजय की तरह से केवल क्षणिक बाह्य बदलाव है फिर भी इसने बाजार को देखने की एक दृष्टि तो दी ही है । मन पूर्ण है तो बाजार मेरे लिए निरर्थक है । मतलब यदि यह पहले से ही तय है कि क्या और कहाँ से खरीदना है तो बाजार की पूरी रौनक और उसके रंग और उसका आकर्षण मेरे लिए निरर्थक है । जरूरत का समान खरीदते ही पूरा बाजार आसानी से मेरे लिए नहीं के बराबर हो जाता है । चला आता हूँ चुपचाप एक अनावश्यक हाय-तौबा से बचते हुए । यह स्थिति मजबूर करती है उन दिनों को याद करने के लिए जब जरूरत न होने पर भी व्यर्थ में कुछ भी खरीदने के लिए बाज़ारों में यहाँ-वहाँ भटकता था । दो तीन साल पहले हम कुछ दोस्त चाँदनी चौक से सदर बाजार और फिर नयी सड़क यूं ही भटकते रहते थे और कितनी ही बार बेकार और अनावश्यक समान खरीद लाते थे । ऐसे ही मैंने एक साग काटने की मशीन खरीदी जो बिना एक भी दिन प्रयोग में आए हुए छज्जे पर पड़ी है वहाँ बिहार में ।


पर्चेजिंग पावर एक गर्व देता है जिसकी हीनता मैं पहले भी महसूस किया करता था क्योंकि बेरोजगारी थी और आमदनी कुछ थी नहीं । वहीं दोस्तों में इसको लेकर एक उन्मुक्तता थी जिसे वे लगातार ज़ाहिर भी करते चलते थे । उन क्षणों में अपने को मैं बहुत स्पष्टवादी पाता रहा हूँ जो सीधे स्वीकार करता था कि उसकी जेब में पचास रूपय हैं । ये रूपय किस मूल्य के हैं ये तो हम सभी जानते हैं पर इसके होने भर से के आत्मविश्वास होता था  कि कुछ तो है पास में ! कम पैसों में काम चलाने का ढंग सीखने की जरूरत नहीं थी ।  मेरे बचपन  के बिहार सरकार के किसी कर्मचारी के बच्चों के लिए यह अनुभव आधारित ज्ञान था जो वे सहज ही सीख लेते थे । हमारे घर स्थिति अभी भी कमोबेश वैसी ही है पर बाकी घरों का अब कह नहीं सकता क्योंकि वह सब बहुत दूर हो गया । बहरहाल एडजस्ट करना सीखने की जरूरत नहीं थी । अपने दोस्त सभी यू जी सी की फ़ेलोशिप पाने लगे थे सो उनका अंदाज तो अलग रहता ही था क्योंकि उनके पास एक क्रय शक्ति थी और उसी के अधीन उनहोंने मुझ पर भी थोड़े बहुत खर्च करने की नैतिक ज़िम्मेदारी ले ही ली थी । पर यह एक हीनता का भाव देती थी जिसे मित्रों पर ज़ाहिर तो नहीं ही होने दी अलबत्ता मैं यारबाशियों में कम शामिल होता था । लगातार तो कभी नहीं । अपने दोस्तों की फ़ेलोशिप से बने उनके पर्चेजिंग पावर का अनुभव है और फिर कुछ आए दिन के अनुभव तो हैं ही जो ये बताते हैं कि बाजार के पास व्यंग्य की शक्ति है ।


विश्वविद्यालय के बस स्टॉप पर बहुत देर तक खड़े रहने के बाद भी कोई बस नहीं मिलती थी तो सड़क पर दौड़ती चमकती गाड़ियों को देख कर कोसने को जी चाहता था । वह एक कठिन व्यंग्य जैसा ही होता था अपने लिए । जैसे किसी ने आँखों में उंगली डालकर दिखाया हो कि देखो उसका नाम गाड़ी है जिससे तुम वंचित हो यदि वह तुम्हारे पास होती तो तुम अब तक घर पहुँच गए होते । शायद यही मेरे उस मित्र ने भी महसूस किया हो जब कोई उसे कहता है कि तुम्हारे पास वैसा फोन क्यों नहीं है जिसमें सारी सुविधाएं रहती हैं और ऐसा ही मेरे भाई ने जब उसे लोग कहते हैं कि उसको अब तो एक गाड़ी ले ही लेनी चाहिए । पर यहाँ रुकना पड़ेगा । बाजार का मुझ पर किया गया व्यंग्य मेरे दोस्त और मेरे भाई से अलग तो नहीं पर सापेक्षिक अंतर लिए तो जरूर है । जैसे जिसके पास बस में देने के पैसे नहीं है उसके लिए बस एक व्यंग्य हो सकता है । मेरे नानीगाँव से कई बार यह कोशिश हुई कि गाँव से स्टेशन तक की सीधी यातायात सेवा हो जाए । कई जीप वालों ने तिपहिया वालों ने ज़ोर लगाया ।  कुछ दिनों तक गाडियाँ चलायी भी लेकिन कुछ दिनों के बाद बंद कर देनी पड़ी । इसका कारण था सवारी की कमी । लोग उन गाड़ियों के सामने से पैदल ही निकल जाते थे क्योंकि गाड़ी में बैठकर स्टेशन जाना उनके लिए एक सुविधा थी जिसका उपभोग करने के लिए उनके पास 10 रूपय नहीं थे । तब मैं बहुत छोटा था फिर भी उन वाहन मालिकों का व्यंग्य समझ ही सकता था । व्यंग्य की यह शक्ति बाजार के चरित्र में निहित है और इसी ने बाजार को जरूरतों को पूरा करने वाली व्यवस्था के बदले आज का चरित्र प्रदान किया है ।


अभी गरीबी को केवल इसी तरह समझा है जिस तरह समझाया गया । लेकिन इधर के दिनों में इसे दूसरी तरह से समझने के लिए भले ही बाध्य हुआ हूँ लेकिन समझ में बदलाव की खुशी है । रामकृष्ण परमहंस का अपरिग्रह या कि कबीर का साईं इतना दीजिये आदि भोग कर पहली बार समझ पाया । जेब खाली होने पर अब बेचैनी नहीं होती । आवश्यकता को जेब से तय होते देख रहा हूँ । मन बाजार में यूं ही फिरने को भी नहीं करता । अब जो हालात हैं उसमें मैं पैसे नहीं होने को एक स्थिति मानने लगा हूँ । लेकिन यहाँ भी एक पल ठहर कर तय कर लेना होगा कि यह जो स्थिति है वह केवल तब है जब मेरे खाने रहने की कोई चिंता नहीं है उस तरफ से बेफिक्री है । उस दशा की केवल कल्पना ही की जा सकती है जब जेब भी खाली होती और रहने खाने का भी कोई इंतजाम नहीं होता । पर एक बात यह भी है कि अब यदि वह दशा भी आएगी तो मन में उसके प्रति घबराहट कम ही होगी ।

जून 12, 2013

हम्माम में आँखें


सबकुछ ठीक चल रहा था और चलता ही जा रहा था ! रुकने का नाम ही न ले ! आखिर कितने दिनों तक कोई इतने ठीक होने की उम्मीद करता अखिर किसी भी बात की एक हद होती है सो ठीक चलने की भी होनी चाहिए । क्यों ! आखिर उनके काम का तरीका भी यही था कि सबकुछ ठीक चलता रहे । यह तरीका लगभग हम सभी स्वीकार चुके थे । सो अब अपने लिए तो कोई आश्चर्य की वस्तु नहीं रह गयी थी फिर भी उनकी लिए तो थी ही जो नए नए मिलते थे और जिनकी बिलकुल नयी आमद हुआ करती थी । इन नयों की हालत ठीक वैसी ही जैसे कि अपनी तरह का पहली बार धनी होने वाला । खूब बातें होती उस ठीक चलने पर । फिर एक दिन ऐसा हुआ कि लगा अब तो सब बंद हो जाएगा । जो अब तक ठीक चलते हुए आ रहा था वह रुक जाएगा । जिन साहब का यह सब ठीक चल रहा था संकट तो उनके लिए था । अपने लिए तो ये तब भी खालिस मनोरंजन था और अब भी । पर जिसकी ज़िंदगी ही वही हो !

अचानक से अखबारों में खबर आयी कि अमेरिका में इन्टरनेट पर जो भी किया जा रहा है उन सब को कोई देख रहा है । यह कोई और नहीं बल्कि वहाँ की खुफिया एजेंसी है जो सरकार के इशारे पर और सुरक्षा के नाम पर ऐसा कर रही है । वह भी आज से नहीं बल्कि पिछले कई वर्षों से । अमेरिका में तो भैया गज़ब हँगामा हुआ है और हो रहा है । आखिर जो सब चल रहा था वो व्यक्तिगत नहीं रह पाया था जिसकी आश्वस्ति के बाद ही लोग ऐसा या वैसा कर रहे थे ।

फर्ज़ कीजिये कि आप फेसबुक पर हैं और लोग यह समझ गए हैं कि आप वहाँ क्या करते हैं तो आप वहाँ से तुरंत भाग कर किसी अन्य साइट पर चले गए । आप अकेले ही नहीं गए बल्कि कई और को भी ले गए जो आपकी उस गतिविधि के धारक हैं । आप इस उम्मीद में गए कि चलो यहाँ तो अपन मजे में बहुत कुछ करेंगे और जनता को जब तक पता चलेगा तब तक हम नया ठिकाना तलाश लेंगे । जनता तो जब आती तब आती । आपकी फूटी किस्मत पर डाका डालने सरकार ही पहुंची हुई है वहाँ इस सूचना के साथ कि साहिब जो जितना गुप्त है वह उतना ही असुरक्षित ।

... तो इस ठीक चलती इन्टरनेट की दुनिया में अचानक से कुछ गलत होने जैसा मामला आ गया । बड़ी बड़ी कंपनियों ने फटाफट कह डाला कि हमारे यहाँ सब सुरक्षित है । पर उनके बयानों से असर का तत्व निकाला ओबामा प्रशासन ने । जी वो कहते हैं कि देश की सुरक्षा के लिए ऐसा तो किया ही जा रहा है । कंपनियों की घोषणा के बाद कुछ लोग मान चुके थे कि चलो हम जो कर रहे थे उसे खुफिया विभाग ने नहीं देखा होगा । पर सरकारी घोषणा के बाद तो सबकी हालत पतली हो गयी । अपने पति रॉबर्ट के बदले किसी भारतीय से स्काइप पर वीडियो चैट करने वाली मिस सुज़ेन और विदेशी के नाम पर भारत में सोशल नेटवर्किंग साइट पर बहुत सारी स्त्रियों में लोकप्रियता बटोरने वाले मार्क या अंटोनी की हालत देखने लायक है । उन्हें लगता है कि अब वे किसी को वीडियो चैट पर आमंत्रित करेंगे तो कोई नहीं आएगा । आएगा या आएगी भी तो जहां तक वे पहुँच चुके थे वहाँ तक तो शायद ही अब जा पाएँ । क्योंकि बड़ा भाई देख रहा है । अब कितने ही ढीठ बन जाओ पर कोई देख रहा हो ऐसी हालत में ढीठ होना भी नहीं चल पाता न ।   

अव्वल बात तो यह है कि देश की सुरक्षा के नाम पर तो इस विश्व में कुछ भी जायज है और इसे बड़ी बड़ी अदालत भी झुठला नहीं सकती । अमेरिका में बवाल मच रहा है । लोग व्यक्ति की निजता का हवाला दे रहे हैं । पर एक बात देखने की हैं कि देख लिए जाने का डर किन लोगों को है । जहां मन में चोर है वहीं डर खड़ा है । मतलब भैया कुछ तो है जिसके किसी के देख लिए जाने का डर है ।

इस खबर को आए हुए बहुत दिन नहीं हुए हैं और हर दिन नए नए देश इसमें जुडते जा रहे हैं कि अमुक देश भी अपने नागरिकों के सारे खटकरम चोरी चुपके से देख रहा है । अब तो भारत का भी नाम आ गया । अपना देश भी हमारी इंटरनेटी गतिविधियों पर नजर गड़ाए हुए है । यहाँ तो हालत और खराब है । अमेरिका तो खैर इतना खुला समाज है कि वहाँ इससे बदनामी नहीं होगी पर अपना देश तो खैर अपना ही देश है । किसी दिन कोई ऑफिसर स्काइप पर नजरें गड़ाए बैठा हो और उसे अपनी ही पत्नी दिख जाए चैट पर ! भैया उसकी नाइट ड्यूटी तो खराब हो ही जाएगी और जिंदगी भी !


अपने देश में जिस तरह से सब कुछ निजी कृत हो रहा है उस तरह से यह भी एक दिन बाजार में बिकने आ ही जाएगा । श्रीमती यादव कुछ हजार रूपय में अपने पति के सारे नए पुराने सत्कर्म निकलवा लेगी और कुचधूम मचा करेगा घर में । अमेरिका जैसे देश में इतनी उन्मुक्तता तो है ही कि लोग एक दूसरे को उन हालत में देखसुन कर भी मज़ाक से ज्यादा कुछ नही बनाएँगे और जीवन भी सामान्य हो जाएगा पर भारत में तो ऐसा न कभी चले । माता-पिता कुंडली से पहले लड़के य लड़की के इन्टरनेट डाटा मंगवाएंगे । आज जो पति-पत्नी एक दूसरे की गतिविधि नहीं जान पाते उनके लिए तो भैया ये वरदान होने वाला है । बस सर जी इसे बाजार में उतार दो और तमाशा देखते जाओ । 

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...