जुलाई 14, 2013

हमारी आग पर उनकी रोटी


इसे जिस भी तरह से प्रस्तुत किया जाता है अच्छाई से लबरेज़  और सुखद रूप से क्रांतिकारी भी लगने लगा है कि एक लड़की गोलियां खाकर भी अपनी शिक्षा को जारी रखना चाहती है . यह सबकुछ ऐसा है कि अब लगने लगा है उसकी देखा देखी सभी लड़कियां स्कूल जाने के लिए गोलियाँ तक झेलने की हिम्मत कर बैठेगी और किसी ने उन्हें रोका तो संसार को दिशा दिखाने वाले राष्ट्र और वैश्विक संस्था तो है ही . वे रोकने वालों को अपने हवाले ले लेंगे .
    

 आलोक धन्वा की एक कविता है -पतंग . ढेर सारे बिंबों से भरी इस कविता में वे बताते हैं कि , बच्चे पतंग की पतली डोर के सहारे छत के कोर तक जाने का सहस कर लेते हैं और ऐसे लगने लगता है कि यह डोर उन्हें थामे हुए है . कभी यदि वे गिर जाएँ और उन्हें कुछ नही हो तो उनका साहस और बढ़ जाता है . यह समाज भी ठीक वैसी ही दशा प्रस्तुत कर रहा है . शिक्षा प्राप्त करना पतंग की डोर के समान है और थोड़े से लोगों को छोड़ दिया जाये तो बहुसंख्यक बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना छत की कोर तक चले जाने जैसा 'रिस्की' है और अधिकांश बार उन्हें गिरते पाया जाता है . एक आधा बार ही ऐसा हुआ होगा कि वे गिरे और उन्हें कुछ हुआ नही ! मार्क टुली की एक किताब है 'द हार्ट ऑफ़ इंडिया'. पूर्वांचल के उत्तर प्रदेश वाले हिस्से पर लिखित यह किताब यूँ तो हमें वाही सब बताती है जो हम आम जीवन में देखते हैं परन्तु जैसा कि हमेशा से होता आया है  एक विदेशी की नजर इसे आश्चर्यजनक रूप से विश्वसनीय बना देती है . इसी किताब में दो भाइयों का जिक्र है जो जाती और वर्ग दोनों के अनुसार तथाकथित निम्न मानी जाने वाली पृष्ठभूमि से आते हैं . वहां शिक्षा का प्रवेश दिखाया गया है लेकिन शिक्षा अंततः उन्हें इतना ही दे पाती है कि रोजगार को प्राप्त करने के लिए उन्हें भारी घूस की जरुरत है . जो वे कभी जमा नहीं कर पाते . उनका रोजगार विहीन होकर रह जाना उनके आस पास के लोगों की शिक्षा पर विश्वसनीयता को स्थायी तौर पर समाप्त कर देता है .
               

शिक्षा हमारी कितनी मदद कर सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए बार- बार इतना ही उभर कर आता है कि थोड़े बहुत वैचारिक परिवर्तन और कुछ सूचनाओं के भर देने के अतिरिक्त इसका कोई काम नहीं . परन्तु कई लाख बार इसे ही बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाता रहा  है . जबकि जो कार्य शिक्षा अक्षरों और लिपियों के माध्यम से करती है वह अनुभव और जरुरत के अनुसार आ ही जाता है . फिर तुरंत शिक्षा के पैरोकार शिक्षा का दायरा बढ़ा कर सबकुछ उसी के भीतर ले आते हैं . ठीक उसी समय यह कहने की जरुरत है कि जब सबकुछ शिक्षा के घेरे में ही आता है तो ये शिक्षित-अशिक्षित के ढोंग और विभाजन , ये विद्यालयी तामझाम आदि कहाँ से आवश्यक हो गए . एक बड़ी आबादी का केवल हीनता के साए में या हाशिये पर रहना कि वे शिक्षित नहीं हैं और उनकी इस दशा पर ही सारे दोष मढने की प्रक्रिया को भी देखने और फिर से समझने की जरुरत है . देखा जाए तो शिक्षा की दी हुई व्याख्या ही हम लगातार ढो रहे हैं . यह व्याख्या उसी 'व्हाइट मैन्स बर्डन' वाली बात से निकलती है .
      

 मलाला के जन्मदिन को संयुक्त राष्ट्र संघ ने मलाला दिवस घोषित कर दिया . दुनिया भर के समाचार प्रदाताओं के लिए यह पहली बारिश के जैसी सुखद अहसास भरने वाली खबर थी . और पूरी पश्चिमी राजनीति के लिए ऐसा तब था जब वर्ष 2012 के अक्तूबर में किसी दिन मलाला को गोली मार दी गयी थी . मानवाधिकार का हमेशा दम भरने वाले देशों के सामने अफगानिस्तान , ईराक फिलिस्तीन और पकिस्तान आदि देशों के बड़े क्षेत्र में लगातार की जा रही भारी हिंसा और मानवाधिकार हनन के डरावने आंकड़ों के बीच इससे सुखद खबर कुछ नहीं हो सकती थी . अपना चेहरा छुपाने के उन्हें बड़ी चादर मिल गयी थी . अचानक से मलाला उनकी बच्ची हो गयी और उन्होंने उसके लिए हर संभव व्यवस्था कर दी . मलाला के माध्यम से उन्हें युद्ध झेल रही जनता के मन को भ्रम में डालने का एक सुनहरा मौका मिल गया था .


                कसी भी समाज में युद्ध को स्वीकार नहीं किया जाता उस पर जब युद्ध बाहर से थोपा जाये तब तो और नहीं  . इसका सीधा सा करण है अव्यवस्थित जीवन और खून-खराबा . ऐसा नही है कि ईराक , अफगानिस्तान , फिलिस्तीन और पाकिस्तान के हालात एक जैसे हों लेकिन इन सब के बीच एक कड़ी है पश्चिमी देशों का यहाँ चल रहे युद्ध में शामिल होना . बहुतेरे हैं जो इन युद्धों के पक्ष में खड़े हैं और आने-बहाने यही बात करते हिं कि ये युद्ध प्रतिक्रियावादी शक्तियों के खिलाफ लड़े गए या लड़े जा रहे हैं . मजमून यह कि ये शक्तियां इन देशों में रह रहे नागरिकों के जीवन को 'विकास' नहीं बल्कि 'रूढ़ियों' की और धकेल रही हैं या थी . लेकिन इन युद्धों से व्यक्ति की स्वतंत्रता मिल गयी हो वह पुनः 'विकास' के रास्ते पर लौट आया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता . इसके विपरीत जान -माल की भारी क्षति ही हुई जो शायद उन प्रतिक्रिया वादियों के रहने से या उनके डर से नहीं होती .


          पश्चिम की यह युद्धप्रियता निश्चित तौर पर एक ही धर्म के खिलाफ दिखती है लेकिन यह उससे भी बढ़कर एक समान संस्कृति थोपने का कार्य है . क्या हो गया जो लोनों ने केवल पारंपरिक शिक्षा ही ग्रहण की . हालाँकि ऐसा कहने के अपने खतरे हैं फिर भी क्या हो गया जो लड़कियों या कि लड़कों ने पश्चिमी तर्ज की शिक्षा ग्रहण नहीं की ? जहाँ तक लड़कियों के घर बैठ जाने और पर्देदारी में रहने के लिए दी जाने वाली धमकियों की बात है तो उसके विरुद्ध परिवर्तन भीतर से संभव है जो थोड़े से देर सवेर से हो जायेगा . समाजशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर देखा जाये तो समाज में अपेक्षित परिवर्तन थोपा नहीं जा सकता बल्कि यह स्वाभाविक रूप से ही हो पाता है . अभी यदि मलाला को पश्चिमी देशों और उनकी संतान संयुक्त राष्ट्र संघ ने गोद ले ही लिया तो क्या इन देशों में या कि विश्व भर में लड़कियों , वंचितों के लिए प्रतिक्रियावादियों के खिलाफ कम से कम स्कूल जाने के मामले में लोग खड़े हुए ?
इस पूरे घटनाक्रम को पश्चिम की स्वयं को श्रेष्ठ मानने और इस पर  बार-बार जोर दिए जाने की प्रक्रिया के रूप में ही देखे जाने की आवश्यकता है . एक दौर था जब ये देश खुलेआम इन बातों को कहा करते थे पर आज वे स्वयं कहने से बच रहे हैं . आज उनहोंने इसके लिए पहले से भी कारगर हथियार गढ़ लिया है . ये देश अब तीसरी दुनिया की उन प्रतिभाओं , घटनाओं और विशेषताओं को अपना संरक्षण देते हैं जो इस दुनिया की रुढियों , पारंपरिक ज्ञान और कटु वास्तविकताओं को पश्चिम की घृणा भरी दृष्टि से देखते हैं . यही करण है कि पश्चिमी देशों को जहाँ भी इस तरह के मौके मिले उन्होंने खूब भुनाया . यदि लगन फिल्म में क्रिकेट का मैच अंग्रेज जीत जाते तो फिल्म का ऑस्कर जीतना पक्का था . इसे 'स्लमडॉग मिलिनेयर' की ऑस्कर में सफलता और अरविन्द अदिगा के 'द व्हाइट टाइगर' और इस जैसी ई अन्य किताबों के बुकर पुरस्कार जीत जाने से जोड़ कर देखें तो कड़ी जुडती प्रतीत होती है . लगन किसी भी दृष्टि से स्लमडॉग से बेहतर फिल्म थी लेकिन उसकी असफलता थी उसमें स्थानीय सोच की जीत होना . पश्चिम उन लोगों को प्रश्रय देकर अब अपना काम कर रहा है जो तीसरी दुनिया के भीतर की वास्तविकताओं को पश्चिम की नजर से देखते हैं .


   जहाँ तक मलाला का प्रश्न है तो संयुक्त राष्ट्र या कि उनके संरक्षकों को केवल वही क्यों दिखी ? और लड़कियां भी मारी गयी . स्वयं मलाला की डायरी में इसका जिक्र है . ये तो रही पढने लिखने वाली लड़कियों की बात क्या उन्हें उनका कुछ भी ध्यान है जो वर्षों तक चले युद्ध में मारे गए ? यदि चरमपंथियों ने स्कूल खाली करवाकर उसमें अपना ठिकाना बनाया तो अमेरिकी गठबंधन की सेना ने पूरा स्कूल ही उड़ा दिया . कोशिश भी नहीं की कि यदि स्कूल बचे रह गए तो छात्र-छात्रा वापस आयेंगे .

       वास्तव में मलाला उनके ही एजेंडे का हिस्सा है . जिसका अमेरिका नीत गठबंधन ने फायदा उठाया और अब भी ऐसा कर रहा है . पहले बीबीसी से उसकी डायरी प्रसारित हुई  जिसे उसके माध्यम से आम जनता में गठबंधन की सेना के लिए सहानुभूति प्राप्त करने की कोशिश की गयी . अंततः जब मलाला को गोली मारी गयी तब उन्हें अपने कार्यों  को छिपाने का और शेष विश्व को एक झुनझुना पकडाने का मौका मिल गया . चुकी उसकी जानकारी बीबीसी के माध्यम से गठबंधन को थी इसलिए उन्होंने इस मौके का पूरा फायदा उठाया . एक तरफ देखा जाये तो ऐसी कई लड़कियां मारी गयी और उन्हें केवल तालिबान या उन जैसों ने ही नहीं मारा . पर उनके बार में संयुक्त राष्ट्र या उसके खैरख्वाह क्या राय रखते हैं यह अब तक प्रकाश में नहीं आया है .


         मलाला को गोली मारी गयी यह एक शर्मनाक घटना है उसे सुरक्षित अपनी शिक्षा जारी रखने देना एक आदर्श स्थिति है लेकिन बार बार यही बात आती है कि केवल मलाला ही क्यों ? यदि पश्चिम अबतक उस 'सफ़ेद चमड़ी वाले आदमी' के 'बोझ' को ढो रहा है तो अन्य पीड़ितों की और ध्यान क्यों नहीं देता . इतना नहीं तो कम से कम वह अपनी तबाही मचने वाले कार्यों के दौरान इस बात का ख्याल क्यों नहीं रखता है ?

   हम प्रतीकों में जीने वाले लोग हैं और हमें झट से एक प्रतीक दे दिया जाता है . प्रतीक देने वालों के प्रति हमारी कृतज्ञता देखते ही बनती है वे इसी का मजा लेते हैं क्योंकि वैचारिक गुलामी उनके अन्य उद्देश्यों को बड़ी आसानी से पूरी कर सकती है .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

स्वागत ...

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...