कामकाजी
ज़िंदगी में रविवार एक इत्मीनान है और दिन भर वही इत्मीनान तारी रहता है । कुछ भी करिए
कहीं भी जाइए, कहीं भी समय पर पहुँचना नहीं है बस अपनी इच्छा पर है जितनी देर जहां मन
किया ठहर लिए । मन किया सो गए , नही तो कुछ उठा के पढ़ लिए । यूं इस दिन भी काम कम नहीं होते बल्कि
आम दिनों के मुक़ाबिल देखें तो ज्यादा ही होते हैं पर समय की पाबंदी नहीं रहती सो मन
एक प्रकार से आज़ाद ख़याल हो कर यहाँ वहाँ जा सकता है , ये-वो कर सकता है ।
यहाँ
तो अपना काम रविवार के दिन भी बिना अलार्म के नहीं चलता । सप्ताह के अन्य दिनों की
तुलना में यह आज भले ही देर से बाजा पर नींद का असर वही था जो रोज़ रहता है । आज भी
चक्रव्यूह फिल्म के गाने ‘ भैया देख लिया है बहुत तेरी सरदारी रे’ को कोसते हुए मन जागा था ।
इस गाने को कोसा इसलिए कि इसे मैंने अलार्म टोन लगा रखा है आजकल । इसकी आवाज़ जरा तेज़
है ! बच्चन की कविता ‘आत्मपरिचय’ की तरह ‘शीतल वाणी में आग लिए फिरता हूँ’ वाला भाव नहीं है इस गाने में । आग है तो आग के ज्वाला-युक्त
वाणी भी चाहिए और जरूरी भी है । घिघिया के यदि सच कहा भी जाए तो सच का क्या असर होगा
? बच्चन
की कविता कविता के लिए ठीक है पर वो कवि को ‘आर्मचेयर इंटेलेक्चुअल’ से ज्यादा कुछ नहीं बनाती
।
सुबह
सुबह यदि नहाने का विचार त्याग दिया जाए तो आधा घंटा सोने को और मिल जाता है । ऐसा
हर दो-तीन दिनों के अंतराल से मैं कर लेता हूँ और हर बार का बहाना खुद से यही बनाना
होता है कि – सुबह की इतनी प्यारी नींद के लिए इतना चलता है ।
नाश्ते
के बाद आज मन थोड़ा भटकने का कर रहा था । अनायास ही पैर रास्ता नापने की तैयारी करने
लगे । यहाँ स्कूल में कुमुदनी का एक छोटा सा तालाब है । जब से वहाँ फूल खिलने शुरू
हुए हैं तब से वहाँ जाने के मन को मनाना नहीं पड़ता । आज वहाँ एक ही फूल खिला था ,
वह भी क्षत-विक्षत-सा लेकिन पौधे से जुड़े होने के कारण उसमें जीवन की संभावनाएं दिख
रही थी । कटा-फटा फूल भी मुसकुराता है ! उसका तन चोटिल है मन में उन चोटों के निशान
भी जरूर ही होंगे पर वह फूल जीतने भी हिस्से में मेरे सामने था अपनी मुस्कान से लबरेज
! कुमुदनी के इन पौधों के पास छात्र खेलते हैं बल्कि बच्चे खेलते हैं । बहुत से पौधों
के हिस्से नीचे पानी में दबे पड़े हैं । क्या ये पौधे किसी की शिनाख्त कर सकते हैं !
कुमुदनी
को लेकर अफसोस तो था पर मन इसके लिए तैयार न था कि अफसोस किया जाए । बाहर निकला तो
चलने की इच्छा और तेज़ जैसी हो गयी । बहुत दिनों बाद धूप देखी थी सो धूप का आकर्षण संभाले
नहीं संभल रहा था । मैं जिन इलाकों में अब तक रहता आया था उनमें से कहीं भी मैंने धूप
के लिए इतना आकर्षण महसूस नहीं किया । इसके विपरीत लगातार यह भाव बनते रहते थे कि धूप
जाए और छांव आए । पर यहाँ केरल के इस इलाके में बादल और बारिश धूप को जिस तरह दबाये
रखते हैं कि अपना बचपन याद आ जाता है जब मैं दब्बू- सा हुआ करता था । बारिश और धूप
के खेल में धूप को पिछले डेढ़ महीने में कभी भी जीतते नहीं देखा बल्कि मुक़ाबला करते
भी नहीं देखा । आज बहुत दिनों बाद धूप देखी तो उसके मुक़ाबले के लिए तैयार होने की हिम्मत
के आमंत्रण को अस्वीकार करने का कोई प्रश्न ही नहीं रहा । किताब की दुकान पर ज़्यादातर
मलयालम की सामाग्री ही थी और जो अंग्रेजी में थी उन्हें बहुत पुरानी से कम कुछ नहीं
कह सकते । हिन्दी ? ‘हिन्दी
इल्ला’ ! हिन्दी यहाँ नहीं मिलेगा एर्णाकुलम जाओ ।
केरल के इस क्षेत्र में मैं रहता हूँ वहाँ के बहुत से बाज़ारों को देख आया हूँ यहाँ
किताबों को लेकर एक खास तरह का चलन देखने को मिला है । ज़्यादातर इंजीनियरिंग से जुड़ी
किताबें मिलती हैं और उसके बाद नर्सिंग से जुड़ी हुई । इसका कोई न कोई सामाजिक आधार
जरूर होगा । दुकानों में अंग्रेजी या मलयालम के उपन्यास ही खोजिए तो नहीं मिलेंगे उसके
लिए भी बड़े शहर जाना पड़ेगा । यहाँ की किताब की दुकानों में उपलब्ध समग्रियों के आधार
पर इतना तो मानना पड़ रहा है कि यहाँ,
पढ़ने की आदतों को पाठ्यक्रम आधारित पुस्तकों तक सीमित रखने की कवायद काफी पहले से चल
रही है ।
कभी
कभी निकालने वाली इस प्यारी धूप में मैं उस रास्ते पर दूसरी बार चल रहा था । वह रास्ता
डरावना तो है पर उसकी घनी हरियाली आकर्षित करती है । यही वजह है कि कई बार सहकर्मियों
के मना करने के बावजूद मैं उस रास्ते का मोह त्याग नहीं सकता । वे इधर आने को इसलिए
मना करते हैं क्योंकि वह जंगल का क्षेत्र है जहां कई प्रकार के जानवर हैं विशेषकर हाथी
दूसरे मेरे साथ भाषा की भी समस्या है । उनके कहने से भी मन नहीं मानता कि उस रास्ते
पर कभी कोई हाथी मिल जाएगा । ऊपर से जंगल के स्वतंत्र वातावरण में जानवरों को देख पाने
का मोह और उस रास्ते की ओर खींचता ही है ।
मैं
उस सुनसान रास्ते पर चल रहा था । एक्का-दुक्का कोई गाड़ी निकल जाती पर इससे रास्ते की
शांति पर कोई असर नहीं पड़ता महसूस हुआ । आगे एक स्थान पर पहाड़ से गिरता पानी सड़क पर
बह रहा था । पक्की काली सड़क पर पारदर्शी पानी एक मोहक दृश्य बना रहा था ! रास्तों के ऊपर से बहता पानी मैं खूब देख
चुका था पर वह कच्ची सड़क पर बहता था हाँ उनमें कभी कभी मछलियाँ जरूर दिख जाती थी ।
उस
रास्ते पर जितना बढ़ते जाओ जंगल उतना घना होता जाता है । एक बिन्दु के बाद आकर्षण पर
वातावरण की भयावहता हावी होने लगती है । सागवान के ऊंचे–ऊंचे पेड़ और न जाने कई अन्य
कौन-कौन से पेड़ जिनकी बनावट से कई बार उनमें मनुष्य के चेहरे जैसे भाव उभरते प्रतीत
होते थे फिर पेड़ों की फुनगी को छूती मोटी जड़ों वाली लताएँ । सब मिलकर ऐसा घना आवरण
बना रहे थे कि उसके पार देखना संभव न हो । ऐसे में छोटी सी चिड़ियाँ की आवाज भी बहुत
डरावनी लग रही थी । दो दिन पहले ही रश्किन बॉन्ड की ट्रेडमार्क भुतहा कहानियाँ पढ़ी
थी सो कई तरह के चित्र और भाव एक साथ उभर रहे थे । जंगल के उतने भीतर जाने के बाद भी
मैंने न कोई जानवर देखा और न ही कोई चेहरा । लेकिन उन दोनों का भय बना रहा । पर ऐसा
नहीं लग रहा था कि कहीं से कुछ झट से सामने आ जाएगा ।
कुछ
साल पहले मैं भीमबेटका की गुफाओं में आदि मानव द्वारा बनाए गए चित्रों को देखने के
लिए गया हुआ था । मध्य-प्रदेश की सरकार और उसका पर्यटन विभाग कितनी भी अपनी प्रशंसा
कर ले और अपने यहाँ आने को आमंत्रण पर आमंत्रण दे लेकिन भोपाल से महज़ 20 किलोमीटर दूर
ये गुफाएँ यातायात की दृष्टि से संपर्कहीन ही हैं । ओबेदुल्ला गंज के आगे कोई सवारी
मिलनी संभव नहीं है मालवाहक ट्रकों और ट्रैक्टरों के अलावा कोई साधन नही है । जाते
समय तो एक ट्रक वाले ने भीतर बैठा लिया था पर लौटते हुए एक रेत लदे ट्रक के पेछे रेत
पर बैठ कर आना पड़ा । इतना ही नहीं ट्रक वाले जहां छोडते हैं वहाँ से गुफाएँ और तीन-चार
किलोमीटर चढ़ाई पर हैं जहां तक जाने के लिए या तो आपके पास अपनी सवारी हो अन्यथा पैदल
ही आसरा है । यह दशा देखकर यह सोचने को विवश होना पड़ा कि ये पर्यटन सीमित संसाधनों
वाले लोगों का काम नहीं है उनके लिए तो घूमा-फिरी है । जेब जितनी आज्ञा दे उतना घूम-टहल
लो । बहरहाल जब मैं ट्रक से उतर कर ऊपर गुफाओं की ओर पैदल जा रहा था तो अकेला था ।
मई की तेज़ धूप में सूखी पहाड़ी तप रही थी और पेड़ों से गिरे पत्तों का पानी जल चुका था
। चारों ओर सन्नाटा था कहीं कोई नहीं । उस सन्नाटे में एक मक्खी का भिनभिनाना भी किसी
बड़े जीव की आवाज जैसा सुनाई दे रहा था । तब हर विचित्रता एक अलग तरह का भय पैदा कर
रही थी । वहाँ भी अकेला था और आज इधर केरल के जंगल में भी अकेला था । मैं ऐसा नही कहता
कि मुझे भय नहीं हुआ पर भय से जुड़ी जितनी कहानियाँ सुन रखी थी उस जैसा कभी नहीं लगा
। ऐसा कभी नहीं लगा कि कोई कहीं से आ के दबोच लेगा या कि कुछ और ।
आज
धूप ने मौका दिया तो अपने हिम्मत की जांच करने का मौका इधर भी मिल गया । मैं अपने भय
के तमाम मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलू को जब देखता हूँ तो ये फिर से मुझे अपने मन की
ही ऊपज लगती है ।
रविवार
शायद इसी तरह की बातों के लिए होता है जब कपड़े धोते-धोते किन्हीं बेवजह से खयालात को
समेटने का मन कर जाए या फिर समस्त भय को दरकिनार कर मन फिर से एक बार जंगल या कि भीमबेटका
के चित्रों को देखने के लिए ललचा जाए ।
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