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देखिये साहब अब विद्यालय के धंधे में हूँ तो इसकी ज्यादा बातें तो करूंगा ही ! फिर
आप चाहे जो कह लीजिये लेकिन पत्रकार जब केवल पत्रकारिता छांटते रहते हैं और ऊ तथाकथित
साहित्यकार सब जो आजकल केवल ‘एन्ने-उन्ने’ कर रहे हैं सो ? अपनी खेत के कोने में टिकना ज्यादा न बढ़िया होता है
। पर जब खेतवे में खद्धाई (संभ्रांत हिन्दी वालों के लिए गड्ढा) हो तो मन करबो करेगा
त नहीं ने बाहर जा सकते हैं ! ]
ऊ
रही भूमिका ई रहा मजमून !
लाइब्रेरी
होता है एगो जिसको प्रेमचंद महराज गोदानवा में ‘रायबरेली’ कहे हैं । ऊ बड़े आदमी थे कुछो कह सकते हैं । लेकिन
एगो बुद्धू हम थे जो केतना दिन तक ने उसको प्रिंटिंग का मिस्टेक मान के बैठे रहे ।
कनिए उससे भी पहले चलिये जब हम इसकूल में पढ़ रहे थे । पहले तो साल का एगो-दू गो महिना
ऐसे-हिये निकल जाता था – बिना किताबे का । फिर कोनो जोगाड़ भिड़ा के किसी छौड़ा ( ऊँह
मुंह न देखअ सीनियर के ) से अधिया दाम में किनते थे । बहुत घीच-तान हुआ त मायो-बाप
ला देता था एगो-दूगो किताब । तब तक इसकुल में ऐसेहिए आना आ जाना । मौजे न था एकदम !
( फेसबुक होता त दूगो एस्माइलीयो न साट देते ) । त आगु बढ़िए ई का पैर में जाँता बान्ह
लिए हैं । त साहब कौनों लाइब्रेरी जैसा नहीं था । इसी तरह होते-हवाते सतमा पास कर गए
आ निकल के आ गए सहरसा । बिधायक के दादा के नाम पर हाई-इसकुल त था लेकिन लाइब्रेरी नहीं
था । अपना बस्ता ले के जाना आ उसी को पढ़ना । पढ़ना क्या झख मारना । शुरू में कुछ पढ़ाई-पुढाइ
हुई बाद में बस महिना में दू बार ‘फी-कलेक्सन’ होता था । पता नहीं ऊ पइसवा किसके पास जाता था । तो
ऊ हाई इसकुलवो में लाइब्रेरी नहिये देखे । मैट्रिक परीक्षा के बाद पहली बार पता चला
कि सहरसो में एगो लाइब्रेरी हाई - डी.बी. रोड में । कुछ दिन ऊहों गए । किताब निकाले
के औकात हमारा तभियो न हुआ था । चार-छ गो अकबार पड़ल रहता था । किताबो सब था लेकिन उठा
नै सकते थे । बाद में ऊ लाइब्रेरी उठ के हुआं से सुपर मार्केट चला गया और हम उठ के
सहरसा से सिद्धे दिल्ली ।
दिल्ली में देखा त एक से एक बड़का-बड़का लाइब्रेरी
! कौलेज में एडमिसन हुआ तब आया लाइब्रेरी से किताब उठाने का औकात । पर एगो समस्या यहाँ
भी था – एक तो जो किताब कोर्स में लगा था ऊ मिलता नहीं था और मिल गया तो कुछ जरूरी
और ज्यादा बहुत जरूरी हिस्सा गायब रहता था । फिर इधर उधर का बहुत किताब पढे । धन्न
ऊ सीआरएल का लाइब्रेरी जो उतना जगह दिया और उतना बढ़िया बढ़िया किताब का दर्शन कराया
कि असली पढाय बिसर के झाड-फ़नूस पढ़ते रहे । एमे हिन्दी में उसी से कम नंबर आया ! लेकिन अपसोच कहाँ है ! ऊ झाडे-फ़नूस है जे आज काम
दे रहा है ।
इधर हम कर लिए नोकरी आ आ गए केरल । यहाँ एगो इसकुल
में काम मिला है हिन्दी पढ़ाने का । ऐसे त ईधर पादनेयो का फुर्सत नै है लेकिन जब गलती
से ऊ करने का टैम मिल जाता है त चढ़ लेते हैं दस-बारह सिरही – आ जाता है लाइब्रेरी ।
तीन गो गोदरेज (गोदरेज कंपनी का स्टील का आलमारी एतना ने बिका कि अब सहरसा का महाबीर
चौक बाला अलमारी भी गोदरेजे हो गया है । )
है हिन्दी का ! पहले दिन गए थे त ऊ मैडमिया केतना गर्व से दिखाई थी कि एतना किताब है
जी तुम यहीं आ के पढ़ लिया करो । अब जब हम सच्चे के एक दिन पढ़ने पहुँच गए त क्या देखते
हैं कि पचास गो किताब को एन्ने से उन्ने कीजिये त एगो किताब मिलेगा उहो कहिया का छपा
हुआ ! बाकी ऊंचास गो किताब में ‘हिन्दू धर्म के महान संत’ , ‘वीर शिवाजी’ , भारत के महान राष्ट्रपति वी.वी गिरि , ‘योग क्या है’ और इससे भी बढ़कर इसका-उसका, न जाने किस किस का ‘एमफिल’, ‘पीएचडी’ का छपा हुआ शोध-परबन्ध । छांट छांट के अपने लिए कुछ किताब अलग किए
कुछ छात्रों के ले जाने के लिए । सब किताब पर केंद्रीय हिन्दी संस्थान या कि कोनो इसी
का निदेशालयवा है कहीं पर उस सब का मोहर । साथ में इ भी लिखल था कि ई कितबिया फलाने
संस्थान ने ‘सप्रेम-भेंट’ किया है ।
मंगनी
बरदा का दाँत नहीं देखते हैं कि ऊ कितना बूढ़ा है । चाहे ऊ कल्हे काहे न मर जाए पर मुफ्त
में ले जरूर लेंगे । सबसे बड़ ई है कि दाम नहीं न लगा जी । जो मिला रख लिया । कौन सा
किसी को पढ़ना है । पढ़ना है त अपना खरीदो ।
ई
हिन्दी का जो केंद्रीय दुकान सब है ई पता नहीं कहाँ से ई एक से एक बेकार किताब उठा
उठा के ले आता है आ भेज देता चुन चुन के सब सरकारी ईस्कूल में - उपकार का बोझा बना
के , बोरा में
भर के ! एगो बात इहो है कि केरल में किसी को हिन्दी तो आता नै है उतना सो जो सो किताब
भेज दिया सब रख लिया आ कहियो उ संस्थानवाँ सब के बोला भी नहीं कि - रे भाय , तुमको कोई फिरी में देता है
त तुम रखो हमको काहे दे देते हो ई कूड़ा-करकट । ई अरकच – भतुआ अपनैए पास रख लो ।
आ
दु गो बात ऊ किताब लिखे बला सब से ! हे भाय- बहिन काहे जिद करते हो कि कुच्छो ते लिखबे
करेंगे ! कोई कोई नहीयो लिखता है । आ कि सब कुकुर काशिए चला जाएगा त बाबू हो पत्तल
कौन चाटेगा गाम के भोज में ! ऊ फेसबुक आ बेबसाइट बना बना के साहित्य में भुंकेगा कौन
! ई जो बेकार किताब लिख लिख के शाहदरा , लक्ष्मीनगर आ मौजपुर से छपाते हो ऊ में पैसबे न लगता
है जी ! ऊ बचा लोगे तो धीया-पूता के प्राइभेट इसकुल का दू-तीन साल का फीस न भरा जाएगा
। पर नै जी तुमको तो एगो किताब छपाना है । रे तोरा केतना कहें कि कोन का दिमाग खराब
हुआ है जो तुम्हरा ऊ कॉपी-पेस्ट वाला डीजर्टेसन पढ़ेगा । छोटका बच्चा सब त ऐसेहिए कोनो
किताब नै पढ़ना चाहता है ऊपर से तुम्हारा ई ‘हमारी राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटील’ । चूल्हे में झोंको ऐसे किताब
को । तुम तो ससुर फिरी में किताब लिखने के नाम पर राष्ट्रपति भवन में अनूप भाई का किताबियो
ले गए आ जैसे ही किताब छपा आ ऊ जाने लगी कि लगा दिया नोकरी राजस्थान के कौलेज में !
ई बेकार का किताब लिख के हमरे आ हमरे जैसे कैक इसकुल के लाइब्रेरी को तो 4-4 गो कॉपी
भेज के भरिए न दिये हो !
त
भैया इस तरह पूरा हुआ हमरे आज के भड़ास का कोटा !
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