सितंबर 25, 2013

साल दर साल वही प्रहसन : सन्दर्भ हिंदी पखवाड़ा


हिंदी पखवाड़ा चल रहा है । इस पखवाड़े के पंद्रह दिनों तक हिन्दी वहाँ वहाँ विराजमान होगी जहां जहां इसके होने की कल्पना भी न हो । इन्हीं पंद्रह दिनों में ही हम यह देख लेते हैं कि कितना दयनीय है इस तरह के कुछ दिन एक भाषा को दे देना । यह उस तरह लगता है जैसे इसका श्राद्ध-पक्ष चल रहा हो । जिसे लोग पिछले पक्ष की तरह ही किसी तरह काट कर फारिग होना चाहते हैं । यहाँ यह पढ़ने में बहुत बुरा लग सकता है कि हिन्दी पखवाड़ा हिन्दी का श्राद्ध-पक्ष है लेकिन बुरे लगने से वास्तविकता बदल तो नहीं जाती ।

हिन्दी दिवस यानि 14 सितंबर को केंद्र सरकार से जुड़े संस्थान हिन्दी के लिए अगले पंद्रह दिनों तक नाटक अपने हर छोटे बड़े कार्यालय में रखते हैं । फिर अगले पंद्रह दिन नाटक लगातार चलता रहता है । एक – दो दिन तो उत्साह दिख जाता है लेकिन उसके बाद यह एक मज़ाक से बढ़कर कुछ नहीं रह जाता है । फिर इस सरकारी नाटक को देख कर लगता है कि इससे बेहतर हो कि ये नाटक हो ही न ।
इस तरह की अवस्था का अंदाजा तो था कि हिन्दी पखवाड़ा कुछ ऐसा ही होता होगा । क्योंकि आज तक हिन्दी क्षेत्र से बाहर नहीं निकला था तो यह समझने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी कि हिन्दी को साल के पंद्रह दिन देखने पर कैसा लगता है ।  जिन संस्थाओं में पढ़ाई हुई थी वहाँ हिन्दी ही पढ़ी तो ये भाषायी स्यापा करने की कोई जरूरत ही नहीं थी । 

उस समय और आज भी यह लगता है कि हिन्दी का दिवस मनाना लेना ऐसा है जैसे  भाषा के समाप्त हो जाने , बेदखल हो जाने की पूर्व - घोषणा हो । उधर केवल किसी बैंक में ही पता चल पाता था या आज भी चलता होगा कि हिन्दी पखवाड़े जैसी कोई चीज होती है । लेकिन यहाँ आने पर ज्यों-ज्यों सितंबर नजदीक आया त्यों-त्यों कई बार यह सामने आया कि यहाँ हिन्दी पखवाड़ा होगा या कि होता है जो बहुत बड़ा आयोजन होगा या कि होता है ।

सितंबर का ग्यारहवाँ या बारहवाँ दिन रहा होगा यहाँ पास में नारियल विकास बोर्ड , भारत सरकार का कार्यालय है वहाँ से हिन्दी दिवस पर बोलने का न्योता आया था । पर वे अपना हिन्दी दिवस 14 सितंबर नहीं बल्कि 13 को ही माना रहे थे । मेरे दिन महत्वपूर्ण नहीं था इसलिए हाँ हो गयी । वहाँ जाने पर पता चला कि नारियल विकास बोर्ड में शनिवार को भी छुट्टी होती है और वहाँ के अफसर और कर्मचारी अपनी एक छुट्टी खराब नहीं करना चाहते इसलिए इसे तेरह को ही माना रहे थे और इस बार से उनहोंने हिन्दी पखवाड़ा भी मनाने का निश्चय किया है जो 27 सितंबर तक चलेगा । हिन्दी पखवाड़ा आम तौर पर तो चौदह से शुरू होकर अट्ठाईस सितंबर तक चलता है पर वहाँ यह एक दिन पहले शुरू होकर एक दिन पहले ही खत्म हो रहा था । एक तरह से देखें तो हिन्दी के लिए दिन तो पंद्रह मिल ही रहे हैं लेकिन ये दिन हिन्दी के लिए नहीं बल्कि अपनी सुविधा के लिए रखे गए कियोंकि उनकी एक दिन की छुट्टी बर्बाद न हो । यह स्थिति तब थी जब वहाँ के अधीक्षक मध्यप्रदेश के निवासी हैं । बहरहाल वह कोई बहुत बड़ा आयोजन नहीं था । बस बीसेक कर्मचारियों का एक झुंड था जिसे संबोधित करना था । 

उससे पहले अधीक्षक जी से बात हो रही थी तो पता चला कि वे मधेपुरा बिहार में काम कर चुके हैं और वहाँ से सीधे यहाँ आए । जब तक औपचारिक सम्बोधन नहीं शुरू हो गया तब तक वही शाश्वत टाइमपास चलता रहा राजनीति , भ्रष्टाचार आदि पर वही पुरानी चबाई, उगली व थूकी हुई बातें । दूसरी बात, जब बिहार को जानने वाला कोई गैर-बिहारी हो और उसे मौका मिल जाए तो बिहार की बुराई तो करता ही है यह तो कोई अनोखी बात नहीं है । हाँ उन्हें आश्चर्य तब होता है जब आप उनकी सभी बातों से सहमति जता दें फिर बंदे का सारा उत्साह छू-मंतर हो जाता है । इसके बाद जाकर अधीक्षक महोदय अपने काम पर आए थे । नारियल कितने प्रकार के होते हैं , देश के किस भाग में कौन सी किस्म अच्छा उत्पादन देती है , और सबसे जरूरी कि नारियल की जीन-संरचना ठीक मनुष्यों जैसी होती है इसलिए जब तक वह फल न देने लगे तब तक कहा नहीं जा सकता है कि उसकी कौन सी किस्म है । और यही कारण है कि नारियल का हर पेड़ दूसरे से भिन्न होता है और इसी के साथ उसके गुण भी । तभी तमाम नयी नयी विधियों के आविष्कार हो जाने के बाद भी बीज से पौधा उगाने की परंपरागत विधि को तरजीह दी जाती है । इस बीच मैं देख रहा था कि मझोले से एक बरामदे में नोटिस बोर्ड के आर-पार कपड़े का एक बैनर टांगा गया, वक्ता और अधीक्षक की कुर्सी जमाई गयी और उनके सामने एक टेबल रखा गया फिर सामने-सामने बीस-पाचीस लोगों के बैठने का इंतजाम ।

चूंकि ऑफिस उनका था इसलिए पहले अधीक्षक जी को ही बोलना था और वही बोले भी । उनके प्रधान कार्यालय को पिछले कई वर्षों से हिन्दी में ज्यादा काम करने के लिए भारत सरकार की ओर से प्रथम पुरस्कार मिल रहा है । इस बार भी द्वितीय पुरस्कार मिल रहा है । फिर वह बताने लगे कि उनके ऑफिस में कितने लोग हिन्दी जानते हैं कितने नहीं । बोलते बोलते वे वह बोल गए जो इन हिन्दी के प्रति सरकारी कार्यालयों की प्रतिबद्धता की कलई उतारता है ।

हिन्दी में काम करना कई तरीके से गिना जाता है और ये कार्यालय बड़ी चालाकी से उनमें हेरा-फेरी कर अपने हिन्दी में काम करने के अंक बढ़ाते रहते हैं जबकि असलियत में काम हुआ ही नहीं रहता है । पत्र अमूमन अंग्रेजी में ही भेजे जाते हैं लेकिन उसके साथ हिन्दी में एक चिट जिसे कवरिंग लेटर कहते हैं, लगाकर हिन्दी का पत्र बना डालना किसी चमत्कार से कम नहीं है ! ऐसा करते हुए हिन्दी में किया गया पत्र-व्यवहार सौ प्रतिशत हो जाता है । आगे अधीक्षक ने यदि किसी दस्तावेज़ पर हिन्दी में हस्ताक्षर कर दिए हैं तो वह भी हिन्दी में किया गया काम गिना जाएगा । कंप्यूटर में हिन्दी में प्रारूप तय हैं उनमें बस नाम , दिनांक आदि डालकर बहुत से दस्तावेज़ और पत्र तैयार किए जाते हैं फिर वह हिन्दी में किए गए काम की श्रेणी में आता है । बीच बीच में राजभाषा विभाग को भेजी जाने वाली रपट की प्रति कंप्यूटर में तैयार रहती है बस संख्या आदि नए डालकर नयी रिपोर्ट तैयार कर ली जाती है ।
इसके बाद अपने वक्तव्य को लेकर मेरा अनुत्साहित हो जाना स्वाभाविक था । लेकिन तमाम राजनीतिक और ऐतिहासिक पहलुओं से बचते हुए उनको लताड़ लगा ही गया । केवल पुरस्कार के लिए काम करने की उनकी प्रवृत्ति इस पखवाड़े के मूल आदर्शों का तो गला ही घोंट रही हैं न ।  इसके साथ ही कार्यालय में वास्तविक रूप से हिन्दी में काम करने की सलाह भी दे डाली जो जनता हूँ उन लोगों को अच्छी नहीं लगी । पर उनका बुरा लगना बहुत देर तक रहा नहीं क्योंकि भाषण के बाद खाना बहुत बढ़िया खिलाया था ।
विद्यालय में ,
विद्यालय में भी हिन्दी दिवस की औपचारिकता पूरी की गयी । उस दिन मंच पर एक बड़ा सा दीप रखा गया पीछे कपड़े का वही बैनर जिस हिन्दी पखवाड़ा समारोह लिखा रहता है । एक दिन पहले ही राजभाषा के साथ की जा रही बाजीगरी पर क्षुब्ध होकर लौटा था इसलिए अपने विद्यालय में बोलते समय पहले तो सारी भड़ास निकाली फिर इस पर ज़ोर दिया कि काम करना हो तो पूरी तरह किया जाये अन्यथा नाटक बंद करने का समय आ गया है ।
ओणम की छुट्टी के सिलसिले में विद्यालय उसी दिन बंद होना था इसलिए हिन्दी पखवाड़े की बस औपचारिक शुरुआत हो पायी उससे जुड़े कार्यक्रमों की नहीं । ये कार्यक्रम नहीं बल्कि छात्र-छात्राओं के लिए प्रतियोगिताएं थे  जिनके माध्यम से उनमें हिन्दी के प्रति रुचि जगाने का काम होता । छुट्टियों के बाद विद्यालय जब पुनः शुरू हुआ तब से हर दोपहर कोई न कोई प्रतियोगिता हो रही है । व्याकरण, विभिन्न प्रकार के भाषण , रचनात्मक लेखन , कविता गायन , सुलेख आदि की प्रतियोगिताएँ चल रही हैं ।
छात्र कविता प्रतियोगिता के लिए कवितायें ले गए और किस धुन में गाना है वह भी लेकिन जब मंच पर चढ़े तो कविता कहीं थी ही नहीं । जो छात्र कविता लेने के लिए नहीं आए वे या तो बच्चन की अग्निपथ कविता सुना रहे थे या महादेवी की मधुर मधुर मेरे दीपक जल । अग्निपथ कविता जितनी आसान है उतनी ही आकर्षक भी क्योंकि इसे हाल ही रितिक रोशन ने अपनी फिल्म में पढ़ा है । बच्चे उसी अंदाज में पढ़कर जैसा फिल्म में है । महादेवी की वह कविता भी यहाँ बहुत लोकप्रिय है ।
भाषण प्रतियोगिता और निबंध प्रतियोगिता के विषय पहले ही तय कर दिए गए थे । इसका परिणाम यह हुआ कि परीक्षा कक्ष से बाहर और मंच पर जाने से पहले छात्र निबंध की विभिन्न किताबों को लेकर अपनी बारी आने तक  तैयारी करते रहे । जब निबंध को जांच रहा था तब लगा कि हिन्दी के लिए इस नाटक की आवश्यकता नहीं है । वरिष्ठ समूह के बीस बच्चों में से बारह ने मानो एक ही किताब से निबंध रटा था एक एक शब्द मिल रहे थे । और यही हाल भाषण प्रतियोगिता का भी रहा था । मित्रता विषय पर कृष्ण और सुदामा की मित्रता का उदाहरण सब के पास था क्योंकि उनहोंने जिस किताब से तैयारी की थी उसमें यही उदाहरण था ।
हिन्दी पखवाड़ा एक नाटक सा लगता है जो चल तो रहा है पर इसके भीतर बस इसे किसी तरह खींच कर अंत तक ले जाने तक की ही ताकत है । एक बात यह आती है कि यहाँ केरल जैसे राज्य में हिन्दी इस तरह भी आए तो कम बात नहीं है लेकिन यहाँ यह बताना जरूरी है कि यह पखवाड़ा हिन्दी के लिए नहीं बल्कि राजभाषा के प्रयोग को सुनिश्चित करने के लिए आयोजित किया जाता है । विद्यालय में इस पखवाड़े से जुड़े कार्यक्रम दोपहर को हो रहे हैं इसलिए सारे शिक्षक खुश हैं क्योंकि उनकी ड्यूटी के समय यह काम किया जा रहा है जिससे वे अपनी ड्यूटी से बच जा रहे हैं ।  
यह खयाल आजकल कई बार आ रहा है कि हिन्दी दिवस या कि पखवाड़ा सब मिलकर हिन्दी पर किए गए समूहिक एहसान या दया का भाव निर्मित करते हैं । साथ में अपने लिए यह स्पेस भी रख ले जाते हैं कि हिन्दी को जो महत्व दिया है वह किसी अन्य भाषा को नहीं । जबकि एक बार भी इन आयोजनों और उनके कार्यक्रमों को देख लें तो लग जाएगा कि यह सब महज रस्म हैं जो अपना अर्थ खो चुके हैं बल्कि इनमें से यदि अति-आशावादी होकर भी रस तलाशने की कोशिश की जाए तो भी यह हिन्दी के विकास को नहीं दर्शाते हैं बल्कि उसके प्रति और उदासीन ही करते हैं । इन कार्यक्रमों को एक झंझट से अधिक मानने वाले कम ही हैं और जो हैं वे इसलिए इसकी बात करते हैं क्योंकि इनके माध्यम से उनका कुछ फायदा हो जाता है ।
राष्ट्रभाषा और सरकारी भाषा हिन्दी के अलावा हिंदीभाषियों की मातृभाषा भी है, यह सच्चाई कई बार हमारे जेहन से बाहर चली जाती है क्योंकि आज जिस प्रकार का वातावरण बन रहा है उसमें हिन्दी की बात करना बहुलता को अस्वीकार करने जैसा बना दिया गया है । हिन्दी के नाम पर जो भी काम होते हैं या बातें होती हैं उसमें राष्ट्रभाषा हिन्दी के नाम पर जो इसकी कमियाँ (यह कितना सच है इस यह चर्चा का विषय है ) हैं उसकी गाज़ मातृभाषा हिन्दी पर आकार गिरती है ।

हर साल होने वाला यह रस्मी आयोजन हिन्दी के प्रति कोई विश्वास नहीं जागता है । इसके अतिरिक्त दूसरे सामाजिक और विशेषकर आर्थिक कारण हैं जो हिन्दी के प्रसार को बढ़ा रहे हैं । जरूरत इस स्थिति को समझने की है और फिर नए तरह की कार्यप्रणाली अपनाने की ।  केरल में हिन्दी का कोई समाचारपत्र नहीं आता है और यदि बहुत कोशिश कर के मंगवाया भी जाए तो वह दो दिन से पहले नही मिल पाता । इस स्थिति में भी हिन्दी पखवाड़ा मनाकर यह साबित करने का छद्म ओढ़ लिया जाता है कि हिन्दी के प्रचार – प्रसार के लिए काम हो रहा है । इस तरह की सोच पर हंसी आती है ।  

सितंबर 23, 2013

सर जी , फ़र्जी !


बात तो बीएड के दौर की है । उन दिनों हमारा शिक्षण अभ्यास चल रहा था जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के उस महाविद्यालय में सभी टीचिंग – प्रैक्टिस कहते थे । यह दरअसल वह काम था जिसमें प्रत्येक प्रशिक्षु को वास्तविक विद्यालयों में जाकर छात्रों को पढ़ाना होता था । बाहर से तो ऐसा लगता है कि यह एक अभ्यास हो लेकिन जानकर आश्चर्य होगा कि इसमें गज़ब की वास्तविकता थी ।

उस समय हमें छात्र-अध्यापक कहा जाता था । अध्यापक शब्द जुड़ जाने से ही उसके जितना अधिकार मिल जाए ऐसा हम भले ही सोचते थे पर न तो हमें पढ़ाने वाले शिक्षक , न ही संबन्धित विद्यालयों के शिक्षक और तो और छात्र तक भी हमें अध्यापक समझने की गलती नहीं करते थे । ज़ाहिर है ऐसे में छात्र हमें बहुत गंभीरता से लें ये तो हो ही नहीं सकता । उनके व्यवहारों ने बहुत से ऐसे अनुभव दिए जो लंबे समय तक याद रहेंगे । छात्राएं तक हंसी मज़ाक से नहीं चूकती थी । जबतक हमारे सुपरवाइज़र कक्षा में होते तबतक तो वे यूं चुप रहते थे मानो उनसे आदर्श बच्चे मिल ही नहीं सकते । मैं दिल्ली सरकार के एक प्रतिभा विकास विद्यालय में पढाता था और बहुत से अपने दोस्त इसी तरह दिल्ली सरकार के विद्यालयों में पढ़ाते थे । हम सब के जो अनुभव हैं वे उन विद्यालयों को सभी अर्थों में सरकारी स्कूल साबित करते हैं ।

अब जब बात टीचिंग प्रैक्टिस की चल ही पड़ी है तो थोड़ी सी उसकी राजनीति से भी होते चलते हैं । जो शायद इस क्षेत्र को समझने में सहायता करे । दिल्ली विश्वविद्यालय के बीएड महाविद्यालय में जब टीचिंग प्रैक्टिस का समय आता है तब वहाँ आपको एक  बहुत स्पष्ट बात नजर आएगी । जो लड़कियां कार से आती हैं, ठीकठाक कपड़े पहनती हैं और अँग्रेजी बोलती हैं उनके लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लग जाता है कि उन्हें उजड्ड सरकारी विद्यालयों के छात्रों के बदले पब्लिक  स्कूल के पालतू बच्चे मिलें । दूसरी ओर अन्य लड़कियां जिनके लिए बीएड करना परिवार के लिए रोटी जुटाने का साधन बनेगा उन्हें खराब से खराब हालात वाले सरकारी विद्यालयों में भी भेजने से लोग नहीं हिचकते हैं । उनके अनुभव बहुत कटु होते हैं । स्वयं हमारे साथ की कुछ लड़कियों के अनुभव ऐसे रहे कि वे किसी भी सरकारी विद्यालय में नौकरी का आवेदन तक करने से डरती हैं । लेकिन इतना करने से वे बच नहीं सकती क्योंकि पब्लिक स्कूल के दरवाजे उनके शाश्वत रूप से बंद होते हैं । शायद ही किसी ने देखा हो कि कोई पब्लिक स्कूल उन सुंदर लड़कियों के अलावा किसी को नौकरी देता हो । यहाँ लड़कों का तो प्रश्न ही नहीं उठता है ।

हालांकि यह यहीं पर नहीं रुकता है । लड़कियों और सौंदर्य को लेकर शिक्षा-संस्थाएं जितनी भी उदार हो जाएँ लेकिन वहाँ के लोग बार बार वही कार्य करते रहते हैं जो पुराने सामंत करते थे । हमारे उस महाविद्यालय की प्रधानाचार्य ने अपने स्तर से एक कार्यक्रम करवाया विशुद्ध अपने अकादमिक लाभ के लिए । उसमें उन्होने अपने करीब की छात्राओं को स्वयंसेवक के रूप में इस्तेमाल किया । ध्यान नहीं पड़ता कि किसी लड़के को बोला हो । और जब कार्यक्रम का समापन हुआ तो उनहोने नाम ले-लेकर केवल उन्हीं लड़कियों को धन्यवाद दिया जो खूबसूरत थी और जिनके पास कार थी । उन मोहतरमा की सौंदर्योपासना किसी कामुक पुरुष से भी आगे जाकर ठहरती है । उनसे मिलने की दिल से इच्छा नही होती थी लेकिन किसी वजह से जाना ही पड़ा तो उनकी व्यर्थ की नफ़ासत गुस्सा ही दिलाती थी ।

खैर इस भड़ास के चक्कर में मूल किस्सा छूटा जा रहा है । मूल किस्से की याद अभी इसलिए आई क्योंकि परसों पुरानी डायरी पलट रहा था तो उसमें उन दिनों के एक दो किस्से दर्ज मिले । लिखने के तरीके में बदलाव भले ही आया हो पर बातें आज भी सच हैं । इसलिए उन्हें डायरी से निकाल कर ब्लॉग पर चेप देने का मन कर गया । इसी मन करने ने वैसे बहुत सा कूड़ा-कबाड़ा करवाया है और फिर एक बार मन कर गया है !

शिक्षण – अभ्यास (अरे महाराज वही टीचिंग-प्रैक्टिस) के दौरान हमें न सिर्फ स्वयं कक्षा लेकर वास्तविक अध्यापन सीखना था बल्कि आसपास के दूसरे विद्यालयों में पढ़ा रहे अपने सहपाठियों की भी कक्षाएं देखनी थी , उसने सीखना था । सीखे न सीखे लेकिन रिपोर्ट बनानी थी कि इससे यह सीखा और उससे वह ! वह एक वास्तविक खानापूर्ति सी थी । पर हमारे सुपरवाइज़र ने इस प्रचलन में थोड़ा सा बदलाव कर दिया ।  उनके हिसाब से हमें अपने सहपाठी नहीं बल्कि जिस विद्यालय में हम वह बहु-प्रचारित अभ्यास करते थे उसी के स्थायी शिक्षकों की कक्षाओं को देखना था , सीखना था और रिपोर्ट बनानी थी । उसी के तहत मैंने कई अध्यापकों की कक्षाएं देखि और कुछ अपनी कक्षाओं के अनुभव भी रहे । यहाँ पर हिन्दी विषय से संबन्धित दो टुकड़े डाल रहा हूँ । ये टुकड़े सरकारी टुकड़े हैं । कैसे ? जरा देखिये !

एक , राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय, शंकरचार्य मार्ग, दिल्ली ।  कक्षा दसवीं ब, पाठ लिंग निर्धारण ।
अध्यापक की आवाज़ सुस्पष्ट है , छात्र पाठ में रुचि ले रहे हैं और यह रुचि शायद इसलिए है कि अध्यापक यहाँ के स्थायी शिक्षक हैं जो कक्षा से बाहर भी देख लेने की बात अभी-अभी कर रहे थे । एक लड़के को बोर्ड पर दो वर्ग बनाने को कहा गया – स्त्रीलिंग और पुर्लिंग । मुझे लगा शायद श्रीमान की जबान लड़खड़ा गयी होगी हो सकता है ऐसा ही उस बच्चे को भी लगा हो । उसने जो दो वर्ग बनाए वे थे स्त्रीलिंग और पुर्लिंग । उसके लिखने की देरी थी कि कक्षा में अध्यापक का गुस्सा और गंभीर स्वर गूंजने लगा ! उस गुस्से का शब्दांतरण कुछ यूं था – ओए, बेवकूफ ! ये क्या लिखा ? ... दसवीं में आ गया है पर तुम्हारा अशुद्ध लिखना नहीं छूटा । तुमलोग कभी नहीं सीख सकते ... अबे पुल्लिंग नहीं पुर्लिंग होता है । लड़का खुले मुंह से माट्साब की ओर देख रहा था और मैं भी इस प्रश्न के साथ कि ये कौन सी हिन्दी है भई ?’ माट्साब का गुस्सा फिर से चनका – ओय देख क्या रहा है , पुल्लिंग वाले आधे को मिटा और लि के ऊपर रेफ़ लगा रेफ़ । उनहोंने दो बार रेफ़ बोला था और दूसरे पर ज़ोर ज्यादा डाला था । अब उनके कहे अनुसार बोर्ड पर दो सफ़ेद वर्ग चमक रहे थे – स्त्रीलिंग और पुर्लिंग !
शिक्षक महाराज एक – एक शब्द कह रहे थे और बच्चे बारी - बारी से आकर उन्हें उनके लिंग के अनुसार इधर या  उधर डाल रहे थे । पुरुष वाचक शब्द एक एक बाद ऐसे खाने में गिर रहे थे जिसका हिन्दी भाषा में कोई अस्तित्व ही नहीं था । इसके बावजूद मैंने उस अध्यापक की कक्षा के बारे यही लिखा कि वह बहुत अच्छी थी और मैंने उससे बहुत कुछ सीखा । क्योंकि मैं जनता हूँ उस रिपोर्ट को कोई पढ़ने नहीं जा रहा था । एक खानापूर्ति दूसरे तरह की खानापूर्ति के लिए रास्ता तो बनाती ही है । इसलिए उस रिपोर्ट में वास्तविकता भरी हो या कल्पना क्या फर्क पड़ता है !

दो ! उसी राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय, शंकराचार्य मार्ग, दिल्ली में एक दिन मैं ग्यारहवीं 
कक्षा को महदेवी वर्मा की कविता जाग तुझको दूर जाना पढ़ा रहा था । मैं कविता पर बात करते करते उसके भाव के साथ वर्तमान तक चला आया और मेरी यह उम्मीद थी छात्र अपने समकालीन संदर्भों में कविता को ज्यादा बेहतर समझेंगे । पर छात्रों ने फट से टोक दिया 
– सर जी यह कविता तो आजादी से पहले की है इसे आप आज से क्यों जोड़ रहे हैं ?

मैंने कहा - वह इसलिए कि यह कविता आज के संदर्भों में भी लागू होती है ।

इस पर एक ने कहा – गाइड में आजादी से पहले के बारे में लिखा है आप भी वही पढ़ाओ ।

इसके बाद मैंने गाइड पढ़ने के नुकसान विषय पर उस कक्षा में एक संक्षिप्त भाषण दिया जिसके समाप्त होते ही एक दनदनाती टिप्पणी मेरे कानों में पड़ी – मैडम भी तो गाइड से ही पढ़ाती हैं ।

अब मेरे पास कोई जवाब नहीं था । भई मैडम जो वहाँ की स्थायी शिक्षिका थी वह भी गाइड से पढ़ाती होंगी इसका मुझे अंदाजा नही था । बल्कि यह एक सदमा था मेरे लिए ।


मैं इन सब को इस तरह भी प्रस्तुत कर सकता हूँ कि ये प्रक्रियाएं भाषा का नुकसान कर रही हैं लेकिन ऐसा करूंगा नहीं । क्योंकि यह उससे कहीं आगे बढ़कर वर्तमान सरकारी स्कूल की शिक्षा-प्रक्रिया के स्वरूप का निर्धारण करता है जहां पर रचनात्मक होने के बदले यथास्थितिवादी होना पसंद किया जाता है । ऐसा माना जाता है कि यूं ही हर साल नए नामांकन होते हैं और होते रहेंगे इसलिए ज्यादा माथा-पच्ची के बजाय छात्रों को अपने हाल पर छोड़ दिया जाए ।
( भले ही मुखर होकर शिक्षक ऐसा न कहें पर कर तो वही रहे हैं और भीतर भी वे यही मानते हैं)!

सितंबर 16, 2013

शिक्षक दिवस पर इधर-उधर की


(इस पोस्ट को पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगेगा जैसे पहला शिक्षक दिवस न हो गया पहला करवा चौथ हो गया ! अब जहां व्यक्तिगत होने की गुंजाइश होती है वहाँ ऐसा तो लग ही जाता है )

इस पेशे में आने के बाद यह पहला शिक्षक दिवस था । पहले को लेकर मन उत्साहित रहता है और कभी कभी हल्की घबराहट भी होती है । यह घबराहट तब दिखने भी लगती है जब अपने स्तर से ही किसी कार्य का निष्पादन करना पड़े मसलन, कोई कार्यक्रम संचालित करना या फिर भाषण ही देना । वैसे कई बार ऐसा हुआ कि घबराहट के बावजूद अंत में लोगों की सराहना मिली हैं पर भीतर किस तेजी से मन और मस्तिष्क काम करते हैं वह मैं ही जानता हूँ ।

बहरहाल , इस बार के शिक्षक दिवस पर मेरे लिए छात्रों और सहकर्मियों की कुछ योजनाएँ तो थी पर इसे मेरे और उनके लिए दुखद ही कहना उचित होगा कि, मैं अपने विद्यालय से बाहर था । इतना बाहर कि , चाहकर भी न आया जा सके । कई बार ऐसा लगा कि घर में कोई बहुत बड़ा आयोजन हो और मुझे किसी काम से बाहर भेज दिया गया हो । आंध्र प्रदेश के जिस विद्यालय में मैं ठहरा हुआ था वहीं मेरे साथ एक और व्यक्ति थे अमिताभ । उनका भी पहला ही शिक्षक दिवस था । उनका फोन सुबह से ही बजने लगा । गज़ब की मुस्कुराहट और घमंड के साथ उन्होने दो – तीन बार बताया कि , उनके छात्रों के फोन आ रहे हैं जो उन्हें शिक्षक दिवस की शुभकमनाएं दे रहे हैं । तब तो मुझे और बुरा लागने लगा । उतना ही बुरा, जितना बचपन में किसी त्योहार पर आस पास के बच्चों को नए कपड़े मिल जाते थे और मुझे तथा मेरे छोटे भाई को नहीं मिलते थे , जितना हमारी नानी द्वारा हमें बरफ़ खरीदने के लिए बेच नहीं देते और दूसरे बच्चों का हमारे सामने बरफ़ खाते समय लगता था । जब नानी बेच नहीं देती तब यह समझ में आने लगा था कि , नाना-नानी हमें कितना ही प्यार करें पर हमारा उन पर खासकर उनकी संपत्ति पर वह अधिकार नहीं है जो उनके पोते-पोतियों ने भोगा । इसलिए हमारे हठ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था फिर जमीन पर लोटकर देह पटकना तो दूर की बात है । लगभग वही स्थिति मैं वहाँ वेट्टम के नवोदय विद्यालय में महसूस कर रहा था ।

मैं जानता हूँ कि मुझे ऐसा महसूस नहीं करना चाहिए था । हालांकि जो महसूस कर रहा था वह किसी पर ज़ाहिर भी नहीं होने दिया लेकिन मन तो तमाम आदर्शों और सिद्धांतों से परे है । यह आध्यात्म नहीं बल्कि वास्तविकता है । बाहर पाँच सितंबर एक सामान्य सा दिन था और मुझे भी इसे ऐसे ही लेना चाहिए था लेकिन मन के बंधन तो होते ही नहीं न ! तभी तो दोपहर बाद जब मेरी बारहवीं की छात्राओं ने फोन किया तो मन संयत नहीं रह पाया । धन्यवादों के अलावा मैंने क्या बोला यह मुझे न तब पता चल पाया और न ही अब याद आ रहा है । पर उसके बाद एक संतोष जैसा तो मिल ही गया था । मेरे भी छात्रों ने मुझे फोन कर के विश किया पर शायद मैं अब उस आत्मप्रशंसा वाली बिहारीयत को भूलता जा रहा हूँ । इसलिए न तो अमिताभ के सामने जाकर जताया और न ही ऐसा कुछ करने की इच्छा ही हुई ।

वेट्टम का शिक्षक दिवस
अमिताभ के छात्रों के फोन से हम दोनों की नींद टूट ही चुकी थी और फिर अपने चयनित खिलाड़ियों को तैयार कर सात बजे तक खेलों के लिए लाना भी था इसलिए चेहरे पर एक बूंद पानी डाले बिना ही लगभग भागकर छात्रावास की ओर जाना पड़ा । जब तक छात्रों को लाकर सबकुछ व्यवस्थित किया और सोचा कि कॉटेज पर जाया जाए तब तक नवोदय विद्यालय वेट्टम के छात्र अपनी प्रातः कालीन सभा ( मन में आ रहा है कि मॉर्निंग असेंबली लिख दूँ पर लिखुंगा नहीं ) की तैयारी करने लगे । बिना बोले ही हम दोनों में यह सहमति बन गयी कि अपने अपने विद्यालयों की प्रातः कालीन सभाएँ तो हमने देख ही राखी हैं अब मौका मिला है तो यहाँ भी खड़े हो लेते हैं और ऊपर से आज शिक्षक दिवस भी है । सभी नवोदय विद्यालय में एक सी प्रक्रिया ही प्रतिदिन दोहराई जाती है यही कारण था कि , सभा शुरू होने के कुछ मिनटों के भीतर धीमी आवाज़ में अपने अपने विद्यालयों की सभाओं पर बात करने लगे । उस समय न मैं बिहारी था और न ही अमिताभ । हम दोनों यह सब भूलकर आंध्र प्रदेश में सुदूर केरल के दो जिलों के नवोदय विद्यालयों की प्रशंसा कर रहे थे और वह भी एक दूसरे की बातों को काटते हुए !

सभा में स्थानीय प्रधानाध्यापक ने शिक्षक दिवस की औपचारिक सी शुभकामनाओं के साथ यह भी कहा कि उनका विद्यालय शिक्षक दिवस संबंधी कार्यक्रम और उसका विधिवत आयोजन बाद में करेगा । कम से कम दूसरे विद्यालय में ही सही शिक्षक दिवस की विद्यालयी व्स्ताविकता से वाकिफ़ होने का मौका मिलता पर वह भी बनते बनते रह गया । सभा समाप्त होने पर स्थानीय छात्रों ने डरते डरते ही सही विश करना शुरू किया । कुछ हाथ मिलाने तक आ गए पर लगा कि इसी बहाने हम जो उनके लिए अजनबियों से थे करीब आ सकते हैं । हमने भी झिझक तोड़कर उनकी शुभकामनायें स्वीकार की और उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना की । इसके बाद हम भागे थे कॉटेज की ओर क्योंकि जल्दी ही तैयार होकर नाश्ते के लिए आना था !

नाश्ते पर भी शुभकामनाओं का एक दौर चला । इस बार पिछले दो दिनों से हैदराबाद संभाग के जिन तीसेक शिक्षक-शिक्षिकाओं से जान-पहचान हो चली थी उन्हें हमने और हमें उन्होने विश किया । इसके साथ ही शिक्षक दिवस संबंधी औपचारिकता का समापन हो गया क्योंकि याद नहीं आ रहा कि उसके बाद किसी ने किसी को कुछ कहा हो ! अब तो वह आवश्यक रूप से एक सामान्य दिन था ।

खीज़-
यहाँ यह कहने का बड़ा मन कर रहा है कि , शिक्षकों की तरह उनके लिए निर्धारित दिन भी निरीह है । ऐसा इसलिए कहना पर रहा है कि , इसके आयोजन का भार भी शिक्षकों पर ही होता है इसलिए वे अपने लिए बहुत कुछ ऐसा जुटा पाने की हिम्मत भी नहीं कर पाते जो थोड़ा सा तड़क – भड़क वाला हो , हल्की विलासिता वाला हो । वह किसी तरह एक कामचलाऊ दिन अपने लिए बनाने की कोशिश करता है जो आधे घंटे या फिर एक घंटे के औपचारिक से कार्यक्रम के बाद खत्म हो जाता है । दूसरे इस दिन को मनाने में आम लोगों की भागीदारी होती ही नहीं है और उनकी दिलचस्पी भी नहीं । यह शिक्षकों की सामाजिक स्वीकृति !
जिम्मेदारियाँ तो बहुत डाली गयी हैं शिक्षकों पर और उन्हें निभाते हुए भी देखा जा सकता है लेकिन जिस समाज ने उन्हें ज़िम्मेदारी दी है उसमें उनकी स्वीकृति उस स्तर पर है जहां से एक पायदान भी नीचे गिरे तो अस्वीकृति का दारा शुरू हो जाता है । यह कहना बहुत सरल है कि शिक्षकों ने अबतक अपना काम नहीं किया और यह कहना बहुत कठिन और कहने वाले की सोच से परे कि , शिक्षकों को करने कहाँ तक दिया जा रहा है ।

शिक्षक समस्याओं की पहचान सबसे पहले कर सकता है बल्कि करता है लेकिन अपनी व्यवस्था में सबसे नीचे होने के कारण उसके लिए एकमात्र विकल्प यही रह जाता है कि आगे-पीछे ध्यान दिये बगैर घिसे-पिटे पाठ्यक्रम को और घिसता रहे । यदि उसके पास नए विचार हैं और उस विचार में संभावनाएं भी हैं तो भी हर बार किसी न किसी बोर्ड , समिति या फिर संगठन के कार्य करने के तरीकों का हवाला देकर उन विचारों की हत्या करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है । आगे नेतागिरि , माता-पिता , धार्मिक , सामाजिक और आर्थिक समूह शिक्षकों को किस तरह से पंगु करते रहते हैं उसे यदि समझाने की जरूरत रह गयी है तो इतना अनभिज्ञ और अज्ञानी समाज कहीं और नहीं मिल सकता !


सीख रहा हूँ  - 
शिक्षक दिवस बीता तो लगा कि , अपने एक शिक्षक के तौर पर बिताए गए समय पर तो गौर करना ही चाहिए । यह एक लेखा-जोखा नही , अनुभवों में हुआ परिवर्तन है बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि यह अनुभवों के साधनों में हुआ बदलाव है । पिछले शिक्षक दिवस से पहले अपने को इस बाबत शुभकामनाएँ देने का तो न तो कोई औचित्य था और न लोग देते थे । जिन एक दो ने लीक से हट कर ऐसा किया वे भी बी एड के बाद के ही लोग हैं । यह भी की उनकी संख्या दो –तीन से ज्यादा नहीं थी ।

बचपन में शिक्षक दिवस का अर्थ हमने बस यही जाना था की उस दिन आधी छुट्टी के बाद एक अध्यापक सौ – पचास डाक टिकट लेकर एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते थे और छात्रों से पाँच रूपय लेकर एक टिकट बेचते थे । उनका बेचना कम और हड़काना ज्यादा होता था । हड़काते हुए कहते थे कि इससे एकत्र किया हुआ पैसा शिक्षकों के कल्याण में लगाया जाएगा ! जो बच्चे पैसे बचाना चाहते थे वे तो दूसरी पाली में विद्यालय आते ही नहीं थे मतलब उन शिक्षकों के कल्याण का पैसा स्वयं हड़प कर जाते थे । इस तरह बहुत कम पैसा जमा हो पाता था । उन शिक्षकों के साथ ऐसा ही होना चाहिए था ! नानी गाँव का मिडिल स्कूल था इसलिए मैं चाह कर भी पाँच रूपय बचाने की कोशिश नहीं करता था क्योंकि शाम होने से पहले ही शिकायत पहुँच जाती और उसके बाद अगले कई दिनों तक कई स्तरों पर ताने सुनने को मिलते । इसलिए टिकट न खरीदने का मन होते हुए भी पैसा जेब से अपने आप निकल आता था । बाद के दिनों में शिक्षक दिवस कवल सूचना भर होती और थोड़ा और बाद में पता चला की उस दिन राष्ट्रपति उत्कृष्ट सेवा प्रदान करने वाले शिक्षकों को पुरस्कृत भी करते हैं ।

अब शिक्षक बन गया हूँ तो ज़ाहिर है शिक्षकीय दशा से दो-चार होना ही पड़ता है । इसे मैंने दो-चार होना इसलिए कहा क्योंकि यह अपने – आप में एक अनाकर्षक सा ही पेशा है जैसा बाहर से दिखता है । इस पेशे में होना अपने आप में एक स्तरहीन अवस्था है जहां काम के अनुसार परिश्रमिक नही है , असीमित गति से प्रोन्नति नही है और आगे बढ़कर कहें तो इसमें ऊपरी आमदनी की गुंजाइश नहीं है । इससे अनाकर्षक क्या हो सकता है ? हमारे एक सहकर्मी का चयन हाल ही में केरल राज्य पुलिस में सहायक उपनिरीक्षक पद के लिए हुआ है । उनहोंने बताया कि वे केवल घूस की संभावनाओं के चलते उधर जा रहे हैं ऊपर से पुलिस बनना अपने आप में बहुत सी स्वतंत्रताओं और छूटों की गारंटी है ।

हमारे कारयालय अधीक्षक बार बार मुझे कोसते हैं क्योंकि मैंने डीआरडीओ में एक ठीकठाक पद के बदले मैंने शिक्षक बनना स्वीकार किया । लेकिन मैं मानता हूँ कि यदि वहाँ होता तो प्रोन्नति मिलती , वेतन भी यहाँ से ज्यादा मिलता फिर रक्षा मंत्रालय का अपना रुतबा भी था लेकिन जो सीखते रहने और अपने में लगातार परिवर्तन करते रहने का अवसर यहाँ मिलता रहा है वह कभी नहीं मिलता ! ऐसा मैं किसी को नहीं समझा सकता । फिर किसी संकल्पना , बात या अर्थ को बच्चे को समझा देने की जो खुशी मिलती है उसे अन्यत्र पाना नामुमकिन है ।

मुझे यह स्वीकार करते हुए बहुत खुशी है कि यहाँ थोड़े समय में ही बहुत कुछ सीखने को मिला । सबसे पहले तो यह कि अबतक मेरे अकेले की ज़िम्मेदारी में भी कई बार उलझन होती थी पर अब अपने साथ साथ अपने छात्रों की भी ज़िम्मेदारी किसी न किसी बहाने आती ही रहती है । अभ्यास के इतने अवसर हैं कि सीखने में त्रुटियों का कम होते जाना स्वाभाविक है ।

वहाँ वेट्टम में शाम होते होते सनीश ने फिर से वही प्रसंग छेड़ा । सनीश से अभी हाल में परिचय हुआ है वह पास के एक नवोदय विद्यालय में कंप्यूटर का अस्थायी शिक्षक है । पालक्काड से आंध्र प्रदेश जाने , वहाँ रहने और वापस आने तक वह साथ रहा था । उसने कई बार बताया कि उसकी उप-प्रधानाचार्य ने जब देखा कि वह विज्ञान विषय से स्नातक है तो उसने अपनी कक्षाएं उसके नाम कर दी और अब खुद उस समय आराम फरमाती है । अब वह कंप्युटर के अतिरिक्त विज्ञान भी पढ़ाता है ! दूसरी बात यह कि दसवीं कक्षा की एक लड़की ने उसे बहुत तंग कर रखा है । वह आने बहाने कंप्यूटर लैब में आ जाती है , अकेले मिलने की कोशिश करती है वगैरह । और वह उसे थप्पड़ लगाने वाला है !

अस्थायी शिक्षकों के साथ तो खैर हर जगह शोषण का आलम है उस पर क्या कहें लेकिन दूसरी बात पर गौर करना जरूरी था । मैंने और अमिताभ ने उसे कई तरह से समझाया साथ में  अपने उदाहरण भी दिये इस वक्तव्य के साथ कि इस उम्र में उस लड़की का और उस जैसी और बहुत सारी लड़कियों का अपने शिक्षकों के प्रति आकर्षित हो जाना कोई असामान्य बात नहीं है । बल्कि स्वस्थ मानसिक विकास की पहचान है ऐसे में थप्पड़ लगाने के बदले उसे समझते हुए उसका उपयोग कक्षा को चलाने में किया जाना चाहिए ।

सनीश की सच्चाई अपनी और शायद अमिताभ की भी थी इसलिए मुद्दे को समझने – समझाने में आसानी हुई । जब अपने साथ ऐसी स्थिति आती है तो झूठ नहीं कहूँगा कि मैं गुस्सा हो जाता हूँ या कि दुखी लेकिन धीरे-धीरे उन से निपटना सीख लिया है क्योंकि हर अभी कुछ  साल तो यही होना है जबतक कि बुड्ढ़ा न लगने लगूँ !


इस जैसी कई बातें हैं जहां शिक्षक होना मतलब लगातार सीखते रहना है । कल की घटना आज का अनुभव बना रही है और यह क्रम जारी रहने की उम्मीद है ! 

सितंबर 15, 2013

असंतोष से आगे


पिछले कुछ दिनों की भाग-दौड़ अब थम चुकी थी । बाहर से बस कितनी भी तेज चलती हुई दिख रही हो लेकिन भीतर अब शांति गहरा चुकी थी । छात्र - छात्राओं के नृत्य का उत्साह भी कब का ठंढा पर चुका था और अंदर की हल्की रोशनी में नींद में उनकी गरदनों के इधर से उधर लुढ़कने 
पर ही पता चलता था कि बस के भीतर भी गति जैसी कोई चीज है ।

हम क्षेत्रीय खेलों के लिए छात्र-छात्राओं का दल लेकर जा रहे थे । उस दल में अलग अलग विद्यालयों से आए हुए छात्रों को शामिल किया गया था और लगभग इसी तरह शिक्षक भी जुटाये गए थे । पहले की तरह उस दिन भी लगा कि जड़त्व का नियम और न्यूटन के गति का पहला नियम वस्तुओं के साथ साथ मेरे जैसे मनुष्यों पर भी लगता है जो एक स्थान पर टिक जाने के बाद अपने स्थान से इंच भर भी हिलना नहीं चाहते जब तक कि उन पर बाहरी दबाव न हो । जीतने शिक्षक थे सभी इसी नियम के उदाहरण थे और एक तो ऐसी भी रहीं जिनको  बाहरी दबाव में आना तो पड़ा लेकिन उनका गुस्सा और नखरा देख कर किसी की भी हिम्मत नहीं थी कि उन्हें कोई ज़िम्मेदारी लेने के लिए कहने की हिम्मत करे ! और उनकी ही एक परिचित भी मिली लगातार सोने वाली ! कुल मिलाकर यदि देखा जाये तो जितनी देर बस चली उतनी देर उनकी नींद भी एक दूसरे को बराबर मात्र में संक्रमित करते हुए जारी रही ।

उन दोनों के अलावा तीन लोग और थे । इत्तिफाक़ से हम तीनों पुरुष थे और इस विद्यालयी व्यवस्था के रंगरूट भी सो कुछ उत्साह और कुछ ज़िम्मेदारी ने मिलकर हमें नींद जैसा महसूस नहीं करने दिया । बहुधा चार-पाँच झपकियों और एकाध घंटे की दो-एक झटकेदार नींद के सहारे उस रात में हम बढ़ रहे थे । कई बार न उठने का मन होने पर भी उठकर पीछे देखना पड़ता था कि पीछे बैठे लड़के लड़कियों के करीब तो नहीं आ गए । हमारा हाल नमक का दारोगा कहानी के पंडित अलोपीदीन जैसा हो रहा था जो अपनी टप्पर-गाड़ी में कुछ सोते, कुछ जागते चल रहे थे उस रात !
यूं तो हमें इसकी आशंका आंध्रप्रदेश जाने की सूचना मिलने के समय से ही थी पर ऊपर से बार – बार यह आश्वासन दिया गया था कि , जहां जाना है वह तेलंगाना है आंध्र नहीं ! तेलंगाना शांत है और आंध्र अशांत इसलिए इन खेलों को आंध्र से हटकर तेलंगाना के विद्यालयों में स्थानांतरित किया गया है । ऊपर वालों का तर्क एक बेफिक्री तो दे ही रहा था । लेकिन जब रात के दस बजे के करीब हम तमिलनाडु में खाने के लिए रुके तो वहाँ के लोगों और चालकों ने जो बताया उसने उस आशंका को डर में तब्दील कर दिया । उन्होने हमें रस्ता बदलकर कर्नाटक का लंबा चक्कर लगा कर सीधे तेलंगाना के उस क्षेत्र में जाने की सलाह दी । फिर हमारी असमर्थता और विवशता को भाँप कर सुबह होने से पहले ही आंध्रप्रदेश के अशांत क्षेत्र से निकल जाने की दूसरी सलाह दी । जल्दी जल्दी ठूंस-ठांस कर बस में बैठे और बस तेजी से चलने लगी । हालांकि बस की गति बहुत तेज थी लेकिन यात्रा के बचे हुए किलोमीटर को सुबह होने में बचे समय में नाप जाने की कोई सूरत बन ही नहीं रही थी और हम सभी जानते थे कि हमारा ड्राइवर हॉलीवुड बॉलीवुड तो जाने दीजिये स्थानीय मालीवुड का भी कोई सुपरमैन होता तभी यह संभव हो पाता ।

खाना खाते ही शिक्षिकाएँ सो गयी और हम तीन शिक्षक आगे की दशा और शायद आशंका की मन ही मन कल्पना करते हुए बैठ गए । और बच्चे सभी इन सबसे बेखबर गज़ब चहक रहे थे । किसी ने गाना बजाने का आग्रह किया । उसे हमने भी इसी लिए माना कि चलो इसी बहाने उस अशांत आंध्र से तो सबका ध्यान हटे । गाने बदलते रहे , बच्चों का नृत्य होता रहा गानों की लय के अनुरूप बदल-बदलकर ! उनका नृत्य शुरू होते ही शिक्षिकाएँ कुनमुना कर तो उठीं पर कुछ देर बाद फिर सो गयी । ठीक ठाक समय बीत जाने के बाद कई बार ऐसा लगा कि बच्चे थक गए अब नृत्य बंद कर देंगे पर हर बार वे उस लगने को धता बताते हुए अगले गीत पर अगले उत्साह से नाचने लगते । रात एक बजे आसपास हम चेन्नै से कुछ दूरी पर रहे होंगे लगभग तभी बच्चों का नाचता हुआ अंतिम समूह हमारे पास गाने बंद करा देने आया । बस में शिक्षिकाएँ सो रही थी , बच्चे भी । ड्राइवर से हैल्पर बात कर रहा था और हम तीन लोग लगभग जागते हुए तेजी से फोर लेन पर दौड़ती बस की गति पर मुग्ध हुए जा रहे थे । लेकिन अशांत आंध्र प्रदेश की आशंका उठते ही बस की गति की सीमा का अंदाजा आने लगता ।

करीब चार बज रहे होंगे । पता नहीं मेरी नींद कैसे टूटी लेकिन जब टूटी तब पता चला कि मैन बढ़िया नींद में था । नींद टूटी तो देखा सभी सो रहे थे । हम तीनों ने जो अलिखित सा नियम बनाया था कि जागते रहना है उसके टूटने पर आश्चर्य हुआ और उससे भी बड़ा आश्चर्य तो तब हुआ जब बस को रुका हुआ पाया । तमाम आशंकाओं के सर उठाने का यही समय था । एक बार तो लगा कि कोई टोल नाका हो पर बाहर देखा तो उस जैसा कुछ नहीं लग रहा था । घुप्प अंधेरा और इक्का-दुक्का ट्रक की रोशनी और आवाज़ ही थी वहाँ जो फोर लेन के वैभव और सौंदर्य से कोसों दूर थी ।  

बाहर निकला तो देखा अपने ड्राइवर साहब अपने कागज़ात की फाइल सम्हाले एक ओर बढ़ रहे थे । समझते देर नहीं लगी कि पुलिस की चेकिंग चल रही है । मन की आशंका इस बात से  थोड़ी शांत हुई कि चलो यहाँ पुलिस तो है । उधर जाने के बजाय वापस बस में आ गया । बस में मुतमयीनी भरी थी जिसे बेपरवाह सोते चेहरों पर पढ़ा जा सकता था ।

काफी देर बाद भी जब ड्राइवर नही आया तो हम तीनों नीचे उतरे और उस ओर बढ़ गए । उस अंधेरे में भी पुलिस वाले की छवि अलग ही दिख रही थी । छोटे से कद पर तोंद निकली हुई और सर पर पुलिसिया टोपी हज़रत किसी जोकर से कम नहीं लग रहे थे । इससे स्पष्टवादी पुलिस वाला नहीं देखा था । हो सकता है और भी पुलिस वाले ऐसे होते हों पर चूंकि अपना साबका पुलिस से लगभग नहीं ही पड़ा है इसलिए इस संबंध में जानकारी कम है ।

वह सीधे-सीधे कह रहा था कि आंध्र प्रदेश में जाना है तो यहाँ रूपय देने पड़ेंगे । ड्राइवर अपनी चिरौरी कर रहा था तरह – तरह की काल्पनिक और वास्तविक विवशताओं का हवाला देकर । उस समय हमें भी यही सबसे अच्छा विकल्प लगा । हमने भी चिरौरी की । केंद्र सरकार , समिति , बच्चे , सीमित धनराशि सबका हवाला हमने भी दिया । हमने मतलब हम तीनों ने । तो एक बार हज़रत बोले कि चूंकि आपलोग केंद्र सरकार से संबन्धित हैं इसलिए बस सौ रूपय दीजिये । हमने फिर अपने हवालों को देना जारी रखा । तब शायद उसे लगा होगा कि उसका पुलिस वाला होना खतरे में पड़ रहा है । वह गरजने लगा । ए पी बंद है , प्रदर्शन हो रहे हैं कोई सुरक्षा नहीं बस वापस ले जाओ । हमारे पास अब विकल्प साफ हो गया था कि बस सौ रूपय की तो बात है निपटाओ यार ! वैसे भी ज्यादा ईमानदारी पर रहते तो रात के चार बजे न तो कोई प्रिंसिपल फोन उठाता और न समिति के किसी बड़े अधिकारी से उसकी बात करने की हिम्मत होती । ले – दे कर सुबह होने के बाद ही मामला सुलझ पाता । तब तक तो बस आंध्र के कई किलोमीटर टाप देती । सौ रूपय मिलते ही वह जोकर पुलिसवाला अगली गाड़ी को रुकवाने चला गया और हम सब बस में । हमारे अगले कुछ मिनट पुलिस के व्यवहार , भ्रष्टाचार, देश की दुर्दशा आदि की व्याख्या में ज़ाया हुए । सबसे ज्यादा इस बात पर हमने समय दिया कि उस पुलिस वाले ने हमसे घूस लिया भी तो सौ रूपय । और जैसा कि हर बार होता बिना किसी समाधान और निष्कर्ष के एक एक कर चुप होते गए ।

लगभग दस-बारह दुकानों के बाद एक दुकान पर पढ़ने को मिला चित्तूर । मतलब हम आंध्र प्रदेश में पवेश कर गए थे । अचानक मध्य एशिया , ईरान , इराक़ और कुछ मानों में अफगानिस्तान के दृश्य उभरने लगे जेहन में । ये वे दृश्य थे जो युद्ध की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों में देखे थे । सबकुछ शांत था । दुकानों, घरों के दरवाजे बंद थे । सड़क की पीली रोशनी भी रहस्यमय लग रही थी । किसी चौराहे पर एक पंडाल लगा था , लाल - लाल रखी थी करीने से । वहीं चाय की गुमटियों पर दो – चार लोग हंस बोल रहे थे । बस आगे बढ़ी तो फिर वही शांति । शांति को पाकर कोई अच्छा महसूस नहीं हो रहा था क्योंकि युद्ध प्रभावित जिन देशों पर फिल्में बनी हैं उन फिल्मों में तो यही देखा कि सब कुछ शांत रहता है और अचानक से कोई मोर्टार किसी गाड़ी पर दाग दी जाती है । एक अफरातफरी तो मचती है लेकिन उसके बाद फिर शांति अगले हमले तक । नींद अपना दबाव बढ़ा रही थी लेकिन जब बस की गति हल्की भी धीमी होती तो लगता कि बस को रोका जा रहा है या नहीं तो पथराव आदि से बचने के लिए ड्राइवर रास्ता बदलना चाहता हो । आँख खुलती तो वही शांति दिखती । नींद का दबाव बढ़ता ही गया ।

सुबह जब नींद खुली तो दूर दूर तक खेत फैले हुए थे । दायीं तरफ की पहाड़ी से सूरज निकलने की तैयारी कर रहा था । मैंने जब तक कैमरा निकाला तब तक तो किसी चिड़ियाँ के अंडे से निकले चूजे की तरह बाहर आ गया था । बस अब आबादी के बीच चल रही थी । सड़क के दोनों ओर सुबह की शुरुआत के नजारे देखे जा सकते थे । इन सब के बीच कहीं भी यह नहीं लग रहा था कि आंध्रप्रदेश सुलग रहा है , राह चलती गाड़ियों पर पथराव किया जाता है । युद्धभूमि की वास्तविकता से ज्यादा उससे जुड़ी अफवाहें बाहर फैलती हैं ऐसा कई बार उन फिल्मों में मैंने महसूस किया था और ज्यों ज्यों हम आंध्र में प्रवेश करते जा रहे थे त्यों – त्यों वहाँ भी यह बात पूष्ट हो रही थी । आगे दिन भर हम आंध्रप्रदेश में ही तब तक चलते रहे जब तक कि आंध्र और कर्नाटक की सीमा न आ गयी । लेकिन जिन अफवाहों से सहमकर हम चिंतित थे उनका नामोनिशान भी नहीं था । बस सरपट दौड़ रही थी । उसमें फिल्म और नृत्य के दौर पे दौर चल रहे थे ।


ऐसा नहीं है कि आंध्र प्रदेश में असंतोष नहीं होगा पर असंतोष अब वास्तविकता को स्वीकार करने में बदल रहा है । दोनों तरफ के लोग यह मानने लगे हैं कि प्रदेश के बँटवारे को वापस लिए जाने की संभावना अब नहीं बची । ऐसे में चक्का-जाम, प्रदर्शन, हिंसा आदि को जारी रखना लोगों के लिए कठिन होना स्वाभाविक ही है । लोग अपनी दिनचर्या में मशरूफ़ हैं । और उनहोंने बटवारे और उसके प्रभावों स्वीकार कर लिया है । इसके बावजूद जैसा कि हर प्रभावित क्षेत्र में होता है पुलिसवालों , कालाबाजारियों की सक्रियता बढ़ जाती है । स्थिति का फायदा ये अपने हित उठाने लगते हैं । यही आंध्रप्रदेश में आंध्र प्रदेश के नाम पर हो रहा है । 

सितंबर 10, 2013

यात्रा जितनी ही बेतरतीब


यह एक ऐसे प्रदेश की यात्रा थी जो बहुत जल्द अस्तित्व हीन होने वाला है । उसके जिस हिस्से में जाना संभव हुआ उसमें तो अभी से ‘उस’ जुए को उतार फेंक दिए जाने के चिह्न पहचाने जा सकते हैं । लोग आपसी बातचीत में आवश्यक रूप से तेलंगाना को शामिल करते हैं और ठीक उसी तरह आंध्रप्रदेश को बाहर रख रहे हैं ! जब भी तेलंगाना का जिक्र आए बढ़िया मुस्कान खिल जाती है 'तेलंगानी' के चेहरे पर ! बाहर बैठे लोग बस अंदाजे की फसल काटते रहेंगे कि आंध्रप्रदेश में इतने प्रदर्शन और विरोध हो रहे हैं तो उसे दो भागों में बांटा न जाये पर तेलंगाना की ख़ुशी और शेष आंध्र-प्रदेश का रोष देखकर तो यह बस थोड़ी सी कागज़ी कार्रवाई भर लग रही है .

यात्रा थी ही ऐसी कि तेलंगाना क्या समूचे आंध्रप्रदेश को करीब से देखने का मौका मिल गया । दक्षिण के अन्य राज्यों से बिल्कुल अलग है यह राज्य ! दूर-दूर तक फैले धान के खेत , बीच में कहीं मक्के की गहरी हरियाली , लंबे से तने पर मुट्ठी की शक्ल में बैठे बाजरे और लगभग पूरे दक्षिण भारत के सांभर के लिए भिंडी की फसल देने वाले खेत ! इतना ही नही जब घर इंसान और जानवरों की शक्ल देखी जाए तब भी लगता था कि बस उत्तर भारत में ही कहीं चल रही हो ! हाँ इसमें उत्तर की स्पष्ट छवि भरने के लिए चमकदार बढ़िया सड़कें और खेतों में खड़ी पहाड़ियों को निकालना पड़ेगा इसके बावजूद इसकी तमाम दक्षिण भारतीय विशेषताओं के विपरीत यह प्रदेश उत्तर का गुमान देती है ! उत्तर को खोजते रहने की मेरी यह प्रवृत्ति सामान्य मानवीय प्रवृत्ति ही है जो अपने आसपास के प्रति आकर्षण महसूस करता है और न हो सके तो उस जैसा खोजने की कोशिश करता है . यहाँ दक्षिण में रहते हुए उत्तर की तलाश करना इसी प्रक्रिया के तहत है .

वह बस यात्रा थी . 35 घंटे से ऊपर की बस यात्रा जिसमें डेढ़ हजार किलोमीटर नापे गए . इतनी लम्बी यात्रा में मौसम का अपना मिजाज़ लगातार ज़ाहिर होता रहा . कुछ किलोमीटर यदि बारिश थी तो आगे के किलोमीटर बेख़ौफ़ धूप के नाम रहते . फिर कहीं बादल तो कहीं लगातार जंगल की हरियाली . पहाड़ी रस्ते पर जब बस चक्कर काटती तो पेट में अजीब सी हलचल होती और लगता कि वहां कोई मंथन सा चल रहा हो और उसके परिणामस्वरूप कुछ भी बहार आ जाये . और कईयों के तो बाहर ये भी ! पहाड़ी रास्ते के दोनों तरफ कहीं भी चले जाइये खूबसूरती तो रहती ही है . पहाड़ी के एक ओर झांकता सूरज तो दूसरी और उस सूरज की छाया . इसके बाद जब समतल पर बात होती तो राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण द्वारा निर्मित लम्बी-चौड़ी , चिक्कन-चुनमुन ‘फोर-लेन’ सड़क .

भाषा के नाम पर अपने देश में बहुत बाते होती हैं खासकर दक्षिण भारत में . उत्तर में तो इसकी कोई जरुरत ही नहीं पड़ती पर दक्षिण भाषा को लेकर बड़ा सजग रहता है . वह बार बार यह जरुर जता देता है कि इधर हिंदी नही चलेगी . लेकिन यह जताना पूरी तरह राजनीतिक है ऐसा कह दिया जाना कोई बड़ी बात नहीं होगी . इस यात्रा में मैंने बहुत सी हिंदी देखी जो शायद किसी भी भाषा की किताब में तो न मिले लेकिन आम जीवन में इस तरह काम करती थी कि सोच के दांग रह जाने के अलावा कोई चारा नहीं रहता था . अपनी अपनी क्षेत्रीय भाषाओँ की विशेषताओं से लबरेज हिंदी के एकाध क्रियाओं से जोड़ कर बोली जाने वाली ऐसी कम से कम दस भाषाएँ देखी . इन्हें भाषा कहना अपने आप में एक अलग प्रकार की जटिलता पैदा करता है पर वे सब भाषा का मुख्य काम तो कर ही रही थी . बाजार और रोजगार ने भाषा को राजनीति से बहार कर दिया है . अब व्यक्ति पर अर्जन का दबाव है जो सीखी गयी थोड़ी बहुत हिंदी में अपनी स्थानीयता डाल कर बोलने से कम हो रही है .
‘हल्लू हल्लू चल’ , ‘तू शोर नक्को कर रे’ जैसे दकनी हिंदी के प्रयोग तो खैर आम हैं पर तमिल और मलयालम में एक दो हिंदी की क्रियाएं मिलाकर बोली गयी भाषा तत्काल जन्म लेती है और तभी मर भी जाती है लेकिन इसके माध्यम से वह बड़ा काम करके चली जाती है .

केरल से ऊपर बढ़ते हुए राज्य और उसकी आय के साधनों में हो रहे परिवर्तन से राज्य की स्थिति में होने वाले परिवर्तन तो साफ़ ही दिख जाते हैं . केरल ज्यादातर पर्यटन , बागानी कृषि आदि पर निर्भर है तो ज़ाहिर है उसे खुबसूरत रहना पड़ेगा और यह खूबसूरती लगातार दिखती है लेकिन तमिलनाडु आते आते यह खूबसूरती पसरने लगती है फिर धीरे धीरे विलीन होकर आंध्र-प्रदेश आते-आते धुल उड़ाती हुई सडकों में तब्दील जाती है . तमिलनाडु का दक्षिणी हिस्सा फिर भी पर्यटन को समर्पित है इसलिए सड़कें और उसके आस-पास थोड़ी चिकनाई रहती है लेकिन आंध्र-प्रदेश में से तो यह सब निकाल ही दीजिये . दूर दूर तक फैले हुए खेत हैं , खेतों में पशु हैं और कहीं कहीं एक छोटी सी पहाड़ी सर उठाये खड़ी है पर लोगों को देखें तो वही परिचित से आत्मविश्वासहीन चेहरे नज़र आते हैं .

इस सफ़र का ज्यादातर हिस्सा आंध्र में कटा . मैं जिस नवोदय विद्यालय में शिक्षक हूँ वहां भी और केरल के कुछेक और विद्यालयों को यदि शामिल कर लूँ तो मैं मानता हूँ कि यहाँ तो ये विद्यालय होने ही नहीं चाहिए . क्योंकि जिनके लिए इन्हें बनाया गया है वे नहीं दीखते हैं इन विद्यालयों में . लेकिन आंध्र के जिस विद्यालय में मैं गया हुआ था उसमें जाते ही अहसास हो गया कि यहाँ तो सच में इस तरह के विद्यालय की जरुरत है जो पढाई लिखाई तो दूर की बात है कम से कम दो जून का भोजन दे सके . विद्यालय के शिक्षकों से बात हुई तो पता चला कि छात्र छुट्टियों में घर नहीं जाना चाहते क्योंकि वहां खाने का ठिकाना नहीं है और कई बार खाने के लिए मजदूरी करनी पड़ेगी . जहाँ हम ठहरे थे वहां दो ही महत्त्वपूर्ण चीज थी एक तो वह नवोदय विद्यालय और दूसरा एक मंदिर . मंदिर के ही अहाते में एक छोटी से दूकान थी . उस दस- पंद्रह किलोमीटर के दायरे में आबादी तो बहुत है पर विशेष चीजें यही दो . तब लगता है कि कुछ वर्ष पहले जब देश में भाजपा की सरकार थी और आंध्र में तेलेगुदेशम पार्टी की तो उन दोनों के द्वारा बहुप्रचारित सूचना-तकनीक से सज्जित गाँव का नारा क्यों पिट गया ! खाने के लिए अन्न न हों और रोजगार का अभाव हो तब यदि इ-चौपाल लगे और नुक्कड़ पर सरकारी साइबर कैफे कितना क्रूर लगेगा !

आन्ध्र का वह हिस्सा अब आंध्र में नहीं रहेगा बल्कि यह कहा जाये कि आन्ध्र ही नहीं रहेगा . राज्य से अलग होकर एक नया राज्य बनने का भाव ही अपने आप में मादक है . सन 2000 में मैंने इसे बिहार में महसूस किया था . झाड़खंड बन रहा था तो बिहार शोक मना रहा था कितने ही स्थानीय गाने दोनों ही स्थितियों को भुनाने के लिए बने थे . ठीक यही दशा आन्ध्र की देखी . एक हिस्सा अपनी जीत पर झूम रहा है तो दूसरा रोष से पूर्ण है और वह रोष भी अब धीरे धीरे दब रहा है क्योंकि लोगों को सरकारी निर्णय में बदलाव के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं . लेकिन दोनों ही तरफ फायदा उठाने वालों की अपनी ही तरकीब देखी . कुछ खास और चर्चित नेताओं की तस्वीरें और कटआउट दोनों ही तरफ देखी . मुझे तेलुगु नहीं आती और न ही बस में बैठे किसी अन्य को लेकिन उन तस्वीरों के भाव और पैटर्न यह बताने के लिए काफी थे कि अलग अलग हिस्सों में वे अलग अलग मंशा से लगायी गयी हैं .

राजनीती, समाज, भाषा और घुमक्कड़ी से भरी हुई यह यात्रा बहुत सस्ते में मुझे नहीं छोड़ने वाली . 
लिखने को बहुत कुछ और भी है बस समय मिलने की बात है ....

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...