केरल के पहाड़ी इलाकों को बारिश की आदत हो जाती है सो बारिश बंद होते ही पहाड़ मायूस हो जाते हैं । ज्यों ज्यों उनकी मायूसी बढ़ती है त्यों त्यों उनका हरापन कम होता जाता है । कम होते हरेपन की वजह से पहाड़ों की वह रौनक नहीं रह जाती जो बारिश में रहती है । बारिश के जाते जाते तक पहाड़ बड़े खुश रहते हैं उनकी सतह पर जमी हल्की से हल्की घास से पानी रस बनकर रिसता रहता है ।
अभी बारिश नहीं हो रही है । आधे दिसंबर के बाद से मौसम गरम होने लगा है । पेड़ पौधे पानी की कमी के कारण अपनी पत्तियाँ गिराने लगे हैं । पतझर के इस मौसम में आम बौरा रहे हैं और शुरू हो चुका है कोयल का गीत ! कोयल ही क्यों कई पक्षी गाने लगे हैं । उनकी आपसी होड़ , पेड़ों पर आनेवाले नए पत्तों की चमक और आम कटहल और अन्य पेड़ पौधों के फूलों से उठने वाली महक सब मिलकर जो संसार यहाँ रचते हैं उसमें अपनी सुध तक भूल जाना कोई बड़ी बात नहीं है ।
पर इस संसार की एक बड़ी कमी यह है कि तेज़ धूप में पहाड़ तपने लगे हैं । उनके ताप का असर हर ओर महसूस होता है । उमस नहीं होती पर चिलचिलाती , चमकदार धूप की गरमी से दोपहर बाद मन तक जलने लगता है । उस समय लगता है कि कहीं कोई सोता हो जहां गरदन तक पानी में अपने को डुबो लिया जाये और इस गरम एहसास को उसी गहराई में कहीं छोड़ दिया जाये । ऐसे ही किसी क्षण में हम निकल जाते हैं जंगल की तरफ ।
जंगल आश्चर्यजनक रूप से ठंडे हैं । बड़े बड़े और घने पेड़ धूप को मुश्किल से ही अपने नीचे आने देते हैं इसलिए नीचे का वातावरण सुखद ही बना रहता है । यहाँ के जंगल मुझे हर बार चकित करते हैं । कभी किसी सोते के पास हाथी का ताजा गोबर मिल जाता है तो कभी उड़ने वाली गिलहरी दिख जाती है तो कभी धनेश का झुंड । मतलब जितना भीतर जाते जाइए उतने रंग निखरते जाएंगे ।
आजकल जंगल के जिस हिस्से की ओर जाता हूँ उसके विशेषता है एक बड़े दायरे में फैला झरना । वह झरना इतना बड़ा और प्यारा है कि इतनी बार गए हो गए फिर भी वहाँ जाने से मन नहीं भरता । झरना काफी बड़ा है और कई खंडों में विभाजित । यह विभाजन इतना मजेदार है कि वहाँ कई झरने एक साथ गिरते प्रतीत होते हैं । ऊंचाई बहुत ज्यादा नहीं है फिर भी बहाव बहुत तेज़ है । एक तो जंगल उसमें भी मुख्य सड़क से पतली सी सड़क उतरकर आगे घने जंगल में सबकी नजरों से बचकर फैला हुआ है वह झरना । उसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं सो भीड़भाड़ तो जाने दीजिये मुश्किल से एक दो लोग मिलते हैं वह भी कभी कभार ।
आज की बात बताता हूँ । बादल छाए हुए थे इसलिए उतनी तेज़ गरमी नहीं थी इसके बावजूद दोपहर के बाद मन मचलने लगा । आजकल हम वहाँ नहाते हैं - झरने में घुसकर । उपर से तेजी से आता हुआ पानी एक एक गोल दायरे में गिरता है । वह दायरा बहुत गहरा नहीं है । पर इतना गहरा है कि छाती तक पानी जरूर चढ़ जाता है । अनगढ़ पत्थरों से बना वह दायरा एक छोटा सा प्राकृतिक तालाब है जिसमें आराम से पीठ टिकाकर बैठते हुए हर सेकेंड बदलते पानी को महसूस किया जा सकता है । पानी में पैर रखते ही महसूस हो गया कि मौसम के मिज़ाज के हिसाब से ही पानी भी आज ठंडा है ।
ऊपर से गिरता पानी उस गोल दायरे को एक ही क्षण में भर देता है और अगले ही क्षण वही पानी कहीं दूर चला जाता है । पानी की गति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह एक साथ दो तीन लोगों को थोड़ी दूर तक बहा देता है । वह तो घेरे के सामने वाले पत्थर का भला कहिए जिनके भरोसे हम पानी पर अपने को छोड़ देते हैं । बचपन में हम खेत में पानी देने वाले बोरींग में नहाते थे । उस जैसे कम से कम दस बोरिंग के के बराबर का पानी एक आदमी को बहा देने के लिए काफी ही है लेकिन प्रकृति ने झरने बनाए ही इस कदर होते हैं कि बहने का खतरा बहुत ज्यादा नहीं होता है । हमारा नहाने का स्थान बहुत ही गोपनीय सा है । पहाड़ियों से घिरा हुआ । घेरे के ठीक ऊपर एक पेड़ है और दायीं तरफ बाँस का एक बीट । यह सब मिलकर ऐसा वातावरण बनाता है जैसे झरना उसी पेड़ की जड़ों से निकल रहा हो । मतलब वह स्थान केवल सामने की तरफ से खुला है । वह खुलना भी कोई खुलना नहीं है क्योंकि दूर तक बड़े बड़े पत्थर हैं । उन पत्थरों के पार फैला है जंगल का विस्तार ।
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