वहाँ
एक ऑफिस है जिसमें एक लड़का काम करता है ... सारे केबिन में काम करने वाले जा चुके
हैं बस उसका ही केबिन रौशन है,
बस उसी का कंप्यूटर चालू है...तभी घर से फोन आता है... परनाम-पाती से पता चलता है
उसकी माँ का फोन है ... माताजी पूछती हैं इस बार छठ में घर आओगे न बेटा ? वह मना कर देता
है ...माताजी एक बार फिर से आग्रह करती हैं कि छोटी बहन की आवाज आती है … छोटी बहन यह नहीं
पूछती है कि वह घर आएगा या नहीं बल्कि यह पूछती है कि इस बार वह उसके लिए क्या ला
रहा है ... उसके पास इसका कोई जवाब नहीं है ...फोन काटने का और इस बार छठ में घर न
जा पाने का एक ही कारण है रोजगार जनित व्यस्तता ! वह कुछ सोच रहा होता है कि बहन
का एस एम एस आ जाता है ...
यहाँ
तक हम जो भी देखते हैं वह छठ के अवसर पर अपने घर गाँव-घर से बाहर रहने वाले हर
किसी की बात है । जहां शारदा सिन्हा की आवाज़ में ‘हौ दीनानाथ...’ या ‘बहँगी लचकल
जाय...’
सुनाई देता है कि मन मचलने लगता है । लगता है दौड़कर घाट पर पहुँच जाएँ । ऐसे में
जब न पहुँच सकें तो मन विकल हो जाता है । यही विकलता एक महीने पहले से ही
पूर्वांचल की ओर जानेवाली रेलों को भर देती है । फिर कोई यह परवाह नहीं करता कि कैसे
जा रहा है ...उसे तो बस जाना है । उसे छठ का डाला उठने तक अपने घर पहुँचना है, संभव हो तो डाला
उठाकर भी चलना है । ...और जो नहीं पहुँच पाये वे अभागे हैं । इतनी उदासी वह और कभी
महसूस नहीं करता जितनी छठ के अवसर पर घर न जा पाने पर करता है ।
पूर्वांचल
में वैसे ही बहुत से त्योहार मनाए जाते हैं लेकिन शायद ही किसी को लबान (नवान्न)
या तिल संक्रांति में अपने घर न होने का दुख हो । पर छठ की तो बात ही दूसरी है ।
इस पर्व की सहजता ही इसे इतना लोकप्रिय बनाती है । जितनी श्र्द्धा हो उतनी ही
भक्ति ,
जितना जुट पाये वही प्रसाद । यहाँ तक कि अल्हुवा, सुथनी , गन्ना, हल्दी की गांठें और कोंहड़ा तक प्रसाद हैं ।
जरूरी नहीं कि पकवान ही चढ़ाया जाये साधारण रोटी भी प्रसाद ही है । शर्त बस एक कि
साफ़-सफ़ाई बनी रहे । इतनी साधारण अपेक्षाओं वाला त्योहार क्यों न लोकप्रिय हो ।
यह
छठ दो तरह से मनाया जाता है – एक तो वहाँ घाट पर सशरीर उपस्थित रहकर दूसरे घाट से
अलग अपनी यादों में । दूसरे प्रकार का मनाना बड़ा कष्टकारक होता है । वहाँ सब होंगे
और बस वही नहीं होगा यह भाव चैन से रहने नहीं देता । यही तो एक अवसर होता है जब
लोग अपने सभी काम छोडकर ,
छुट्टियाँ लेकर घर पहुँचते हैं ,
एक दूसरे की खोजख़बर लेते हैं । समय कितना भी बदल गया हो लेकिन छठ ने आपस में
मिलने-जुलने और लोगों को जोड़ने का काम नहीं छोड़ा है । इसलिए इस जुड़ाव में जहां भी
एक कड़ी टूटती है बड़ी पीड़ा देती है । उस कड़ी की याद वहाँ घाट से लेकर सुदूर स्थान
तक महसूस की जाती है जहां वह कड़ी है ।
सबसे ऊपर
जिस दृश्य का वर्णन किया गया है वह बिहार टूरिज़्म द्वारा हाल में जारी तीन मिनट के
चलचित्र का है । यह छठ के अवसर पर उपस्थित होने वाला सामान्य दृश्य है जो हर न
जानेवाला महसूस करता है । हाँ माध्यम दूसरे हो सकते हैं ।
अब
उस वीडियो के दूसरे हिस्से पर आते हैं । बहन के एस एम एस के बाद वह लड़का सोच में
पड़ जाता है ...यादें हिलोर मारने लगती है ... वे हिलोरें इतनी तेज़ हैं कि फिर मत
पूछिए क्या होता है ...उसके बाद उस लड़के के टैक्सी में चलने का दृश्य है ... शहर
छोडने का दृश्य है और दृश्य है ‘जयप्रकाश
नारायण अंतर्राष्ट्रीय विमान पत्तन पटना’
का ... से कैमरा घाट की ओर जाता है सुबह के अर्घ्य का समय है ... घाट सजा हुआ है
...व्रती भरे हुए हैं और नाटकीय रूप से अर्घ्य देने के समय वह लड़का अपनी माँ और
छोटी बहन के सामने पहुँचकर अर्घ्य देने लगता है ।
उस
लड़के का इस तरह घाट पर पहुँच जाना बाहर के लोगों को नाटकीय लग सकता है लेकिन
जिन्होने भी छठ की रौनक देखी है उनके लिए यह सामान्य बात है । छठ की याद ऐसी ही
होती है । एक माँ के लिए पुत्र का पर्व त्योहार में घर आ जाना (जिसके आने की कोई
संभावना नहीं थी) एक चमत्कार से कम नहीं होता । मुमकिन है अगले साल से वह अपने ‘कोनियां’ में हल्दी की एक
और गांठ इसी निमित्त और रखने लगे क्योंकि उसे लगता है कि यह उसके आराधन का ही फल
है ।
इस
वीडियो में हवाई जहाज का इस्तेमाल है । हवाई जहाज ‘किसी भी कीमत पर’ छठ में पहुँचने
का मूर्त माध्यम है । बिहार क्या तमाम भारत में हवाई जहाज एक लगजरी है । उससे घर
आना,
घर आने महत्व विशेषकर छठ के महत्व को दिखाता है ।
दूसरे यह एक शिफ्ट है उस बिहारी अस्मिता से जो छठ के समय समान्यतया दिखती
है – ठसाठस भरी हुई रेलगाड़ियां ,
लोहे के बक्सों और बोरों से लदे-फदे स्त्री-पुरुष । यहाँ हवाई जहाज एक सपना है । पर
वह सपना भी क्या जो खाली सीट वाली किसी रेलगाड़ी का दिखाया जाये । बिहारी
स्त्री-पुरुष बाहर जाकर मेहनत करते हैं । असुविधाओं में बड़ी सहजता से जी लेते हैं
। लोगों को यह भी बुरा लगता है । इस जीवटता को ‘सभ्य’
होने के नाम पर लगातार तिरस्कार मिलता रहा है ठीक अंग्रेजों के ‘व्हाइट मेंस
बर्डेन’
वाले अंदाज में । यही कारण है कि ‘पूजा
स्पेशल’
के नाम पर बिहार की ओर रेलवे जितनी गाडियाँ भेजता है उनमें से 90 प्रतिशत ‘ जनसाधारण’ एक्स्प्रेस होती
हैं । ऐसे में बिहार टूरिज़्म के वीडियो में हवाई जहाज का आना एक मजबूत कदम है जो
अपने साथ होते दोयम दर्जे के व्यवहार के खिलाफ खड़ा होता है ।
छठ
पर्व की शुरुआत हो चुकी है साथ ही शुरू हो चुका है उससे जुड़ी यादों का सफर ! ...
यहाँ उस नाटकीय स्थिति की दूर दूर तक संभावना नहीं है जिसमे मैं सुबह के अर्घ्य से
पहले घाट तक पहुँच जाऊँ !
बिहार टूरिज़्म के वीडियो को इस लिंक पर देखा जा सकता है
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