जब
बस गुंटूर से विजयवाड़ा की तरफ बढ़ रही थी तब जरा भी अंदाजा नही था कि ज़िंदगी के उस
चेहरे से कुछ यूं मुठभेड़ हो जाएगी जो स्याह है । बाहर अंधेरा बहुत घना था लेकिन यह
पता नहीं था कि वह बस अंधेरे से होकर अंधेरे में ही चल रही है । बस रोज चलती होगी
। राह का अंधेरा यूं ही रहता होगा और बस जिस अंधेरे में जाती है वह भी यूं ही पसरा
होगा ।
वह
एक शाम थी । मैं बस से उतरकर स्टेशन की ओर जा रहा था । बस स्टेंड से स्टेशन का
रास्ता पूछा और बढ़ गया । मैं आगे बढ़ता जा रहा था और पीछे कुछ ऑटो वाले भी आते जा
रहे थे मैं सबको मना करता जा रहा था । कुछ कदम चलने के बाद उन्होने मेरा पीछा छोड़
दिया शायद उन्हें अंदाजा लग गया होगा कि मैं ऑटो नहीं करने वाला । ऑटो वालों से
फारिग होकर मैं आगे बढ़ा तो एक पुल नजर आया । पुल छोटा था पर उसके दूसरे छोड़ से
रास्ता दो भागों में बंट रहा था । इसलिए अब पुल पार करने से पहले स्टेशन का रास्ता
पूछ लेना जरूरी था । पुल पर अंधेरा था । वही अंधेरा जो शहर के बाहर फैला था । उस
अंधेरे में भी पुल पर भीड़ थी जैसे लोग शाम की हवाखोरी करने आए हों । या नहीं तो
किसी खास बस के लिए खड़े हों जो ठीक पुल पर ही आकर रुकती है । वहाँ खड़े लोगों से
रास्ता पूछ लेना जरूरी लगा । एक से पूछा और उसने बताया भी । लेकिन वहाँ खड़े लोगों
के खड़े होने के अंदाज से एक बात तो साफ हो गयी कि वे किसी के बस के इंतजार में
वहाँ खड़े नही थे । उनके खड़े होने से लेकर हंसी ठट्ठे तक में कहीं जाने की जल्दी या
बस न मिलने की व्यग्रता नहीं थी ।
तो
वहाँ हो क्या रहा था ? यह प्रश्न अपने से पूछने से बेहतर विकल्प यह था कि
थोड़ी देर खड़े होकर देखा जाये कि वहाँ हो क्या रहा है और यह पता लगाया जाये कि
लोगबाग खड़े क्यों हैं । वहाँ रुककर जब इधर उधर देखा तो वहाँ की संरचना समझ में आनी
शुरू हुई ।
रात
के आठ बजे घुप्प अंधेरे में वहाँ पुल की बांह के सहारे खड़े या उस पर बैठे लोगों
में केवल पुरुष नहीं थे ठीक ठाक संख्या में स्त्रियाँ भी थी । शाम के ढलने की बाद
भी उस अंधेरे में स्त्रियों की उपस्थिती से ज्यादा उनकी और उनके आसपास के लोगों की
गतिविधियां मेरे कौतूहल का विषय बन गयी ।
स्त्रियाँ
जगह जगह दो-दो , तीन-तीन की संख्या में खड़ी थी । कभी साथ मिलकर
किसी पुरुष की तरफ बढ़ती तो कभी अकेले । पुरुष भी उनके आस पास मंडरा रहे थे । अब
माजरा समझना मुश्किल नहीं था । जिनकी बात पक्की हो जा रही थी वे आगे बढ़कर ऑटो पकड़ रहे
थे ।
मैं
थोड़ी देर वहीं रुका रहा । अब मुझे पुल पर दो स्पष्ट विभाजन दिख रहे थे – स्त्री और
पुरुष । लेकिन वे स्त्रियाँ उन स्त्रियों से बिलकुल अलग थी जो उन पुरुषों के घरों
में रहती हैं । इसलिए वे उन पुरुषों के हंसी मज़ाक और छेड़छाड़ के केंद्र में थी ।
पुरुष जो सौदा कर रहे थे और पुरुष जो वहाँ खड़े मजे ले रहे थे वे एक सी मानसिक दशा
में न भी हों लेकिन व्यवहार में एक से ही लग रहे थे । अधिकार भाव ,
आनंद उठाने से पहले आंतरिक हलचल और केवल इस सब को महसूस कर लेने से ही आनंदित
पुरुष मन वहाँ अलग अलग चेहरों के साथ मौजूद था ।
वे
स्त्रियाँ , स्त्रियाँ ही थी – उम्र और पहनावे दोनों से । उनके
चेहरे के एक समान भाव और बिना किसी झिझक से एक से दूसरे संभावित ग्राहक से बात
करने जाने की क्रिया यह बताने के लिए काफी थी कि वे इसे किसी आनंद के बजाय भूख
मिटाने के एक माध्यम की तरह ले रही हैं ।
पुरुष
के लिए आनंद और स्त्री के लिए काम । सेक्स का यह मतलब वहीं समझ में आया । यह बात
कह देना कि वे यह काम पैसे के लिए झेल रही हैं कोई नयी बात नहीं होगी । लेकिन उनका
व्यवहार भरे पेट वाले लोगों के शारीरिक आनंद से बिलकुल मेल नहीं खाता था । यदि
किसी ने इसे महसूस किया होगा तो उसके जेहन से आनंद का खयाल ही मिट गया होगा ।
लेकिन पुरुषबोध जो लंबे समय से परत दर परत चढ़ते हुए निर्मित हुआ है यह बात सोचने
तक के लिए तैयार नहीं होता कि जो उसके लिए पैसे देकर खरीदा गया आनंद है वह उसके
साथ ही उस कार्य में शामिल विपरीत लिंगी के लिए एक काम भर है । आर्थिक काम । वह
बोध इस क्रिया के आनंद पक्ष में ही उगता डूबता रहता है । इस काम के बदले उन स्त्रियों
को जो कुछ भी मिलता है उसके साथ यह भी नत्थी रहता है कि वह इस काम को काम नही कह
सकती । कोई भी इस काम को काम मानने के लिए तैयार नहीं है । बल्कि वे स्त्रियाँ
नहीं रह जाती ।
मोहन राकेश ने अपने नाटक आषाढ़ का एक दिन में मल्लिका के मुंह से कहवाते
हैं कि – मैंने अपना नाम खोकर अपने लिए विशेषण अर्जित किया है । ये वही
तमाम औरतें हैं जो हर छोटे बड़े शहर में किसी खास गली – चौराहों के स्याह हिस्सों
में खड़ी रहती हैं । अपनी कमियों को ढँक छिपाकर रखने वाले निगाह फेर लेने में माहिर
लोगों की उनपर ‘नजर’ ही नहीं पड़ती ।
अब
मेरे लिए वह शाम बहुत भारी हो रही थी । ट्रेन रात के तीन बजे आने वाली थी । स्टेशन
जाने की जल्दी नहीं थी लेकिन वहाँ से हट जाना ज्यादा जरूरी लगा । वहाँ मौजूद
पुरुषों के हास्यास्पद क्रियाकलापों और हावभावों को भी झेल जाता लेकिन उन
स्त्रियों में से यदि कोई मेरे सामने आ जाती स्वयं को साथ ले जाने की बात करती तो
उनकी आँखों का सामना मैं नहीं कर पाता । इसलिए मैं तेजी से स्टेशन की ओर बढ़ गया ।
पूछताछ
वालों से पता चला कि ट्रेन सात घंटे की देरी से चल रही है दूसरे दिन दस बजे से
पहले आने की संभावना नहीं है । पता किया तो स्टेशन पर ही रेलवे के रिटाइरिंग रूम
की जानकारी मिली । दरें देखी कमरे सस्ते ही थे । एक कमरे की बुकिंग कर चाभी लेकर
चल पड़ा । तीसरी मंजिल के गलियारे में कहीं कमरा नंबर नौ था । कमरा संख्या एक के
बाद टिकट निरीक्षकों का विश्राम स्थल और उसके बाद एक के बाद एक कई कमरे । दूर वहाँ
तक जहां तक प्लेटफॉर्म की रोशनी भी नहीं पहुँच रही थी । मुझे न तो रोशनी से कोई
मतलब था न ही दूरी से । मेरे लिए रात का आराम जरूरी था ।
कमरा
संख्या नौ से ऐन पहले सामने से दो लड़कियाँ आकर मेरे पास खड़ी हो गयी । उन्होने
तेलुगू में कुछ कहा । मुझे समझ नहीं आया और यही बात मैंने उन्हें हिन्दी में बता
दी । फिर उनमें से एक ने कहा – फाइव हंड्रेड , फूल नाइट । मैं भागकर
अपने कमरे के सामने आ गया , जल्दी से कमरा खोला और दरवाजा बंद कर लिया ।
उन
लड़कियों का मैंने चेहरा नहीं देखा लेकिन वे उस समय उसी तरह लगी होंगी जैसी वहाँ बस
स्टेंड के पुल पर खड़ी स्त्रियाँ लग रही थी ।
मेरा
कमरा बंद था । बाहर ट्रेन के इंजनों की भयानक आवाज़ कभी कभी आने वाली उद्घोषणाओं के
स्वर और कमरे में चल रहे बड़े डैने वाले पंखों की डरावनी आवाज़ से मिलकर अलग ही
माहौल बना रहे थे । इसके बावजूद मेरा मन वहीं पुल पर अटका था । कई बार तो यह भी
लगा कि लड़कियां दरवाजे पर ही खड़ी हैं ।
मेरी
रात उन लड़कियों , पुल पर खड़ी औरतों और रेलवे में उद्घोषणा करने वाली
स्त्री इन सबके बीच गड्ड-मड्ड हुई जा रही थी ।
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