भारत
की फिल्मों में लड़कियों को अपना कुछ भी चुनने में मुश्किलों का सामना करना या खुद
को साबित करना आदि दर्शाने वाले कथानक बड़े आम से हैं । लंबे समय से इस तरह के विषय
फिल्मों के आधार बनते रहे हैं ऐसे में जब उसे ठीक से बरता न जाये और सीधे शब्दों
में कहा जाये तो उसमें छौंक न लगाई जाये तब तक मजा नहीं आता । फिल्म बॉबी जासूस
में वह छौंक जासूसी के द्वारा लगाई गयी ।
बॉबी छोटी मोटी जासूसी करती है और इसी में अपना
भविष्य देखती है । भारत की आम लड़कियों के किसी भी पेशे में जाने से पहले की
मुश्किलें घर से ही शुरू होती हैं बॉबी के साथ भी वही होता है । घर के लोग उसके
जासूस बनने के खिलाफ़ हैं । यही कारण है कि ज्यों ज्यों उसके रोजगार की शक्ल थोड़ी
स्पष्ट होने लगती है त्यों त्यों घर में उसकी उपेक्षा बढ़ने लगती है । यह सब देख कर
ऐसा नहीं लगता कि कोई फिल्म देख रहे हों बल्कि एक सामान्य सी चलने वाली प्रक्रिया
की हद तक सामान्यीकृत हो गयी है यह बात । वस्तुतः यह एक सामाजिक यथार्थ के रूप में
रूढ हो चुका है । यहीं पर यह इस फिल्म के लिए मुश्किल खड़ी करने वाली बात बन जाती
है ।
जासूसी
वाली फिल्मों को लेकर हम पहले से आश्वस्त होते हैं कि उनमें कुछ पीछा करने वाले
दृश्य होंगे कुछ नाटकीयता होगी और चूंकि हिंदुस्तानी फिल्म है तो प्यार और उनसे
जुड़े गीत तो होंगे ही । ऐसे सरलीकरण के साथ जब दर्शक ‘हॉल’ में घुसता है तो
ज़ाहिर है वह अपने मन में एक आड़ी-तिरछी और छितरी हुई सही मगर एक फिल्म तो लेकर
घुसता है । अब यदि फिल्म उन छितरे हुए दृश्यों में से ही कुछ दृश्यों में सिमटकर
रह जाये तो फिल्म से उसका निराश होना स्वाभाविक ही है । बॉबी जासूस नमक फिल्म की
इसी तरह से निराश करती है ।
फिल्म
के दृश्यों के संयोजन इस तरह से हैं कि रहस्य रोमांच उस सरलता के घेरे में ही घिर
जाता है और वह लगातार उसी घेरे में बंद रहता है । यदि यह जासूस बनने के बजाय एक
साधारण लड़की के सामान्य संघर्षों की बात होती तो इन प्रकार की दृश्य-छवि स्वीकार
की जा सकती थी । इसका परिणाम यह होता है कि फिल्म जासूसी के बदले दो-चार तुक्कों, संयोगों के घटने
का इंतजार करती रहती है । फिर कहानी के कहने के जब कई मोर्चे खोल दिए जाएँ और एक
मोर्चा भी आश्वस्त नहीं करता हो तो फिल्म का अ-प्रभावशाली होना लाज़मी हो जाता है ।
फिल्म
में एक बात लगातार बनी रही – बापों की उपस्थिती । एक बाप अपने बिछड़े बच्चों को
ढूंढवाने के क्रम में सामान्य सूझ बूझ वाली लड़की को जासूस बना देता है और दूसरा
बाप उस लड़की का है जो अपनी बेटी को जासूस नहीं बनने देना चाहता ।
जो
बाप अपने बच्चों से बिछड़ा है वह स्वाभाविक है उन्हें खोज निकालने के लिए कुछ भी कर
गुजरने की हिम्मत रखेगा । और यदि वह बाप पैसे वाला हो तो बात ही क्या है । फिल्म
यह चरित्र अमीर आदमी के मिथक से बाहर आकर कभी बाप जैसा नहीं दिखता । उल्टे फिल्म
के एक बड़े भाग में उसका चरित्र अपराधी के शक्ल में खड़ा रहता है । अंत में चंद
संवादों के जरिये दर्शकों को बता दिया जाता है कि वह एक बाप है जिसके बच्चे दंगों में
बिछड़ गए,
वह अमीर आदमी बन गया पर बच्चों को नहीं भुला । जासूसी फिल्में इस तरह के घुमावों
के लिए जानी जाती है लेकिन वे घुमाव,
घुमावों की तरह हो तब । सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उन घुमावों को वहीं दर्शकों के
सामने गढ़ा गया है । म्यूट बातचीत होते हुए भी जिन प्रतीकों का सहारा लिया गया है उनसे दर्शकों द्वारा
रहस्य सूंघ लेना कठिन नहीं था और यह बात फिल्म को साधारण कर देने में कोई कसर नहीं
छोडती । खैर फिल्म में एक और बाप है ।
यह
बाप अपनी उपस्थिती दर्ज करवाता है एक वर्गीय चरित्र के रूप में जो कमोबेश हर घर
में पाये जाने वाले बापों जैसा है । उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अपना ‘बाप’ होना और ‘मर्द’ होना ज़ाहिर करता
रहता है । फिल्म में तो दिखाया गया है कि उसे अपनी बेटी का जासूस बनना नहीं पसंद ।
लेकिन जो बात लगातार दिखती है वह इससे भी आगे जाती है । उसे अपनी बच्चियों का काम
करना नहीं पसंद बल्कि उसे अपने घर की स्त्रियॉं का ही काम करना पसंद नहीं है । लेकिन
यह फिल्म का साध्य नहीं है ।
फिल्म
की स्त्रियाँ उतनी ही सशक्त हैं जितनी की साधारण भारतीय स्त्रियाँ । एक दायरे के
भीतर वे खुशमिजाज़,
ज़िंदादिल और खुश रहने की खुशफ़हमी पाली हुई हैं । लेकिन वह दायरा एक बड़े दायरे के
भीतर ही समाता है जिसका नाम है – मर्दों का दायरा । वहाँ आते ही स्त्रियाँ न तो
खुशमिजाज रह जाती हैं ,
न ही जिंदादिल और न ही किसी खुशफहमी में । उस समय वे फिल्म में एक भीड़ है । जिनके
होने से भीड़ तो है पर न होने से कुछ बिगड़ जाये ऐसा नहीं लगता । कथानक जरा-सी देर
के लिए भी उन स्त्रियों के जीवन के माध्यम से दर्शकों पर तनाव रच पता है । वे
स्त्रियाँ खाना पकाती हैं,
खाने पर इंतजार करती हैं ,
सहती हैं और चुप रहती हैं । हिन्दी फिल्मों में यह कोई नयी बात हो ऐसा नहीं है
लेकिन तब अटपटा लगता है जब फिल्म नायिका प्रधान हो । साधारणतया नायिका प्रधान
फिल्मों को नारीवादी विचारधारा के उदाहरण और पोषक दोनों ही रूप में देखा जाता है ।
कई ऐसी फिल्मों को देखने के बाद अबतक यही लगा कि उन फिल्मों में मुख्य चरित्र का
स्थान स्त्रियों को मिल जाता है पर उसके बाद फिल्म में सबकुछ वैसे ही बना रहता है
जैसे नायक प्रधान फिल्मों में । नायिका के आसपास का वातावरण , लोग कथानक और
फिल्म का समाजशास्त्र उसी पुरुष वर्चस्व वाले मॉडल पर कसा हुआ है । सबसे बड़ी बात
तो यह है कि इस नायिका प्रधान फिल्म में भी मुख्य किरदार का समाहार उसकी ‘समाजस्वीकृत’, ‘स्त्रियोचित
भूमिका में होता है । बॉबी के उस तथाकथित जद्दोजहद भरे सफर का , उसकी इच्छा का
समर्पण ‘पिता
रक्षतु कौमारे’
के पैटर्न पर ही होता है । फालतू के संवाद और रूपक पुरानी दृश्यावली ही गढ़ते हैं ।
निर्देशक
चरित्रों के पर कतर कर उन्हें पालतू बनाते हुए भी ‘लीक से हटकर’ चलने वाले तमगा हासिल करने की ज़िद में है ।
हैदराबाद जैसे शहर में तमाम मनमुटावों के बाद यदि लड़की अलग रहने लगे तो पहाड़ नहीं टूट
पड़ेगा और लड़की भी वैसी जो जासूस बनना चाहती हो जहां कदम कदम पर खतरे हों । और रही बात
अपवाद और नाक कटने की तो वह बॉबी के उस घर में रहते हुए भी हो ही रहा है । लेकिन निर्देशक
उस लड़की में ऐसा द्वंद्व भी पैदा नहीं कर पाता ।
बॉबी
जासूस एक ऐसी फिल्म बनकर निकली जो न तो रहस्य रोमांच ही भर पाती है, न ही किसी प्रकार
का द्वंद्व ही पैदा कर पाती है । अलबत्ता दावा जरूर करती है ।
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