दिसंबर 07, 2013

गुंटूर और आसपास !

इधर दक्षिण भारत में भाषा का मामला बड़ा तगड़ा है । जरा सा हिलना हुआ नहीं कि एक नई भाषा सामने आ गयी । और जब से इस नवोदय की नौकरी में आया हूँ तब से घूमना फिरना कुछ ज्यादा ही हो रखा है । बल्कि ये इधर उधर जाना इसी नौकरी में आने के बाद संभव हुआ है । स्कूल में लोग कहीं जाना नहीं चाहते पर अपने को यह देश देखने का अवसर ही नजर आता है । इसलिए जब भी मेरा नाम आता है ख़ुशी ही होती है कि चलो जी एक और जगह देख लेंगे । यह ख़ुशी गुंटूर आने के नाम पर भी हुई पर जो यहाँ आ चुके थे उन्होंने कहा था कि बहुत बेकार सी जगह है । उस समय यह पता नहीं था कि गुंटूर ऐसा भी हो सकता है इसलिए ख़ुशी बहुत देर टिक नहीं पाई थी ।

जहाँ हमें ठहराया गया है वह स्टेशन के करीब ही है बीच शहर में । नवोदय में रहते हुए कुछ भी बीच शहर सा मिल जाये तो बड़ी बात होती है । स्टेशन से जब यहाँ पहुंचे उस समय कोई नही था सिवाय एक कुत्ते के जिसने हमें देखते ही भौंकना शुरू कर दिया । कुत्ते की आवाज सुनकर एक सज्जन ऊपर छत पर आये । हम तीन थे और सभी उत्तर भारतीय जिनका मुंह खुलता ही हिंदी में है और ऊपर वाले सज्जन पता नहीं कौन सी भाषा बोल रहे थे । फिर उनकी टूटी हुई हिंदी और हमारी टूटी-फूटी अंग्रेजी में जो संवाद बन पाया उसके अनुसार यही जगह थी जहाँ हमें ठहरना था और जहाँ हमारी ट्रेनिंग होनी थी ।

छिः ऐसी जगह में रहेंगे हम । मेरे साथ साथ सबके यही भाव थे । बहुत पुराना घर उसी में दीवारें डालकर छोटे छोटे कमरे बना रखी हैऔर सबसे ऊपर लकड़ी की सीढ़ी जिसका प्लेटफोर्म भी लकड़ी का ही है ।  भीतर दीवारों पर पुरानी पड़ती श्वेत श्याम तस्वीरें जो यह बताती थी कि यह घर कुछ ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । बाद में पता चला कि यह घर आजादी के आन्दोलन में खासकर आंध्र प्रदेश का केंद्र था जहाँ बड़े बड़े लोग आकर ठहरते थे और आन्दोलन को आगे बढ़ने पर विचार विमर्श करते थे । बाद में यह संपत्ति इसके मालिक ने देश को दे दी और देश ने  नवोदय को अपना ट्रेनिंग सेंटर चलाने के लिए ।

हम पहले आनेवालों में से थे और कमरे खुलवाकर अपने लिए बढ़िया जगह तलाश कर सकने वालों में से भी । कमरों का छोटापन और उनमें तैर रही घटिया सी गंध और मच्छरों की भरमार ने सबसे पहले यही सोचने को विवश किया कि ठीक है यह एक ऐतिहासिक स्थान है पर यहाँ इस सडी सी जगह में हमें ठहराने का क्या अर्थ है । यह सही बात है कि हम इस जगह को पाकर दुखी थे पर देश के इतिहास का हिस्सा बनने का भाव तो था ही । जिस कमरे में हमने अपना सामान लगाया बताया जाता है कि उसमें महात्मा गाँधी सोये थे । यह और कुछ दे न दे एक रोमांच तो देता ही है । उसी रोमांच पर टंग कर हमने संतोष करना चाहा कि मच्छरों ने बता दिया कि इस घर पर उनका अधिकार वर्षों से है । तभी एक मित्र ने चुटकी ली कि ये मच्छर महात्मा गाँधी को काटने वाले मच्छरों के वंशज हैं । हंसी छूट गयी और इसके साथ ही भूखे होने का एहसास भी होने लगा ।

नहा -धोकर निकले तो किस दिशा में खाना ढूंढने जाएँ यही तय करने में समय लग गया । वो कहते हैं न ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वही वाली मिसाल सामने आ गयी थी । खैर किसी तरह एक सड़क पकड़ी तो पता ही न चले कि खाने की दुकानें कौन सी हैं । और पता करने जाएँ तो हमारी भाषा आड़े आ जाये । हमने बहुत कुछ ट्राई कर लिया था यहाँ तक कि जो थोड़ी बहुत मलयालम सीखी वो भी लगा दिया । फिर भी वह भाषा न बना पाए जो हम किसी को सामझा सकें और कोई समझ सके । बड़ी मशक्कत के बाद एक ने एक दुकान का रास्ता बताया और जब वहां गए तो वह भी बंद थी । आंध्र प्रदेश जबसे बंटने के रस्ते पर चढ़ा है तब सइ यहाँ दुकानों का बंद होना सहज सा लगता है । खैर पैदल चलकर भूख और अगले स्तर पर चली गयी थी आगे एक दुकान दिखी और हम घुस गए । उस दुकान में हम क्या खाते यह समझाने में बहुत समय लग गया और आगे हम जब भी बाहर गए यह हमारी मुख्य समस्या बनी रही ।

किसी तरह खा कर बाहर आये और पेट भरते ही हमारी इच्छाओं ने हिलोरें मारनी शुरू कर दी कि दिन भर के फ्री टाइम का उपयोग करने के लिए यहाँ कोई देखने योग्य जगह है तो देख लिया जाये । यह पता करने में भी भाषा आड़े आ गयी । पर भाषा इस बार हमसे ज्यादा देर तक खेल न सकी । अपने एक साथी को जनकारी थी कि यह समुद्र से ज्यादा दूर नहीं है सो उन्होंने वही पूछा और जवाब भी सकारात्मक मिला । 50 किलोमीटर के बाद समुद्र । वही जो बांछें होती हैं खिल गयी । हम वापस उस ऐतिहासिक भवन की और न गए और न ही उन मच्छरों के वंशजों के पास जिन्होंने गांधीजी को काटा था ।

बस वाले ने हमें जहाँ उतारा वहां से समुद्र पांचेक किलोमीटर रहा होगा जो दूरी निश्चित रूप से तिपहिये से की जानी थी । उससे पहले हमने बहुत से संतरे बिकते देखे । एक अम्मा के खोमचे के पास पहुंचे और उनसे संतरे का रेट पूछा । उन्होंने अपनी भाषा में पता नही क्या समझा । कुछ बोली और कुछ इशारा किया जो हमें समझ नहीं आया । उन्होंने फिर कोशिश की हमें फिर समझ नही आया । फिर उन्हें ही एक युक्ति सूझी । अपनी अंटी से एक पचास का नोट निकाला और छह संतरे सामने रख दिए । हमें भक से समझ आ गया । अब एक बार समझ में आ गया तो मेरी मोलभाव की आदत जाग गयी । सोच लीजिये कितना कठिन रहा होगा पर साहब किसी तरह उँगलियों को बारह से घटाकर दस तक लाया और वो छह से बढ़कर दस तक आयीं उन्होंने भी ऊँगली का ही सहारा लिया । और जब संतरे चुनने की बारी आई तो 'बिग' और 'टाईट' हमने कई बार बोला । वहां कुछ और स्त्रियाँ थी ।
तिपहिये वाले ने जहाँ उतारा वहां से समुद्र दिख रहा था । धूप में उठती लहरें और उनकी आवाज और उन आवाजों में भीगते खेलते लोग-लुगाईयां । हम बिना किसी तयारी के आ गए थे । अब इस धूप में तैयारी करने लगे । वहां हमलोग सबसे अलग लगते होंगे । हाथों  में अपने कपडे जूतों के थैले लेकर यहाँ वहां फिरने वालों में केवल हम ही थे ।
यूँ फिरते फिरते भूख लग आई थी । पर बहुत तलाश करने पर खाने में तली हुई मछलियों के अलावा कुछ भी नहीं था । हम जब वहां पहुंचे तो वहां भी हमारी भाषा हमें पहुँचने से रोकने लगी । उस जगह कई स्त्रियाँ थी और पहली बार हमने यह देखा कि वे हम पर तरस खा रही थी ।

उस दिन के बाद से आजतक चार पांच दिन हो गए । यहाँ कई बार बाहर जाना हुआ और कई बार ये महसूस हुआ कि हम यहाँ भाषा के मामले में कितने अज्ञानी से हो गए हैं । खाने पीने से लेकर जरूरत के सामानों तक के लिए यदि बाहर गए तो भी भाषा नहीं समझ पाने का और दूसरों को न समझा पाने का दुःख बना रहता है ।

1 टिप्पणी:

  1. Bahut badiya! Bina kisi atirikt prayaas k aap. Gandhiji k jamane k machchron k vanshajon se mil aaye! Humko to aap se irshya ho rahi h.

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