इस
स्थिति की शुरुआत तो आंध्र प्रदेश में ही हो गयी थी । हल्के बुखार का एहसास तो
वहीं मिल गया था । लेकिन जिद थी कि सबकुछ को दाब के चलने वाले अंदाज़ में चलना ही
जैसे सब कुछ हो । सो वापसी की यात्रा में न तो कोल्डड्रिंक को बख़्शा और न ही सर्दी
पानी को । सब को निराले अंदाज़ से बरतता गया । वापस जब ठीहे पर पहुंचा तो देह हल्की
गरम थी और चेहरे से रंग उड़ा हुआ । मुझे न भी पता चले पर छात्र जिनसे प्रतिदिन कुछ
घंटों के लिए रू ब रू होता हूँ उन्होने झट से पकड़ लिया । इसका पता मुझे तब चला जब
दसवीं ,ग्यारहवीं और बरहवीं तीनों कक्षाओं के छात्रों ने वहाँ के पंखे
को बंद करना शुरू कर दिया जहां मैं खड़ा होता हूँ ।
मैं
केरल वालों को बहुत कमजोर मानता हूँ जो मौसम की जरा सी शीतलता बर्दाश्त नहीं कर
सकते । यहाँ तक कि पीने के लिए भी गरम पानी का प्रयोग करते हैं और पंखे-वंखे की
बात तो जाने ही दीजिये । इनका वश चले तो स्टाफ़रूम से क्लासरूम तक के पंखों को
निकलवा दें । कक्षाओं में तो अध्यापक से बड़ा शेर कोई नही होता ! इस दम पर कम से कम
अपने ऊपर लगे पंखों को कभी बंद नहीं होने दिया लेकिन स्टाफ़रूम में मजाल कि कोई
पंखा चला लूँ ! जहां बटन दबाया नहीं कि शिकायतें शुरू – किसी का गला खराब ,
किसी कि कमर में दर्द तो किसी को बुखार निकल आता है ! मतलब ये कि यहाँ ठंड को लेकर
बहुत डर बैठा है । कोल्डड्रिंक तक फ्रिज़ में रखे नहीं मिलेंगे ! अब जब इनको कमजोर
मानता हूँ तो जब तब अपने शक्तिशाली होने का परिचय देना पड़ता है । उसी परिचय देने
में अगले दिन बुखार में भी पूरी असेंबली पंखे के सामने रहा और एक दो कक्षाओं में
भी । पर छात्रों ने स्वयं ही अपने बहाने पंखे बंद कर दिए ।
दवाएं
ली गयी और उन दवाओं के ज़ोर से बुखार भी कभी कभी उतर जाता देखा पर न तो पूर्णतः ठीक
ही हुआ और न ही मेरा बीमार लगना खत्म हुआ । दो दिन बाद दिल्ली जाना था । जहां
सर्दी लहकनी शुरू हो गयी थी । दिन में भले ही पता न चले पर सुबह शाम और रात को तो
लग ही रही थी । लोगों ने जो अंदाज़ा दिया था उसे मैं यूं उड़ाता चल रहा था जैसे कि
धुआँ हो या नहीं तो ‘फलां के बात , घोड़ा के पाद’ ! अपने घमंड का कारण ये था साहब कि खुद दिल्ली में
दस साल रहा और अभी पिछले साल तक उसी दिल्ली में ठंडे पानी से नहाता था । ऊपर से एक
बात यह भी कि सारे गरम कपड़े दिल्ली में छोड़ आया था जैसे मैने तय कर लिया हो कि
सर्दी में कभी दिल्ली वापस आना ही नहीं हो । वैसे भी केरल में जितनी सर्दी पड़ती है
वैसी तो दिल्ली में अक्तूबर के दिन हुआ करते हैं !
मैं
जब दिल्ली के लिए चला तो शरीर बुखार से तप रहा था और मैं आधी बाजू की टी-शर्ट और
जीन में ‘मैडम बना’ हुआ ! ‘मैडम बनना’ मेरी एक दोस्त की माँ का मुहावरा है जो वह अपनी
बेटी के लिए तब इस्तेमाल करती हैं जब वह सर्दी में भी टिम-टॉम बनकर बाहर निकलती है
। बुखार की वजह से डर तो मैं भी रहा था लेकिन वह डर एक ऊनी चादर रखकर ही भगा देना
चाहता था । कोचीन हवाईअड्डे से लेकर जहाज़ के दिल्ली पहुँचने तक मैं कितना भी मैडम
बन जाता कुछ भी फर्क नही पड़ने वाला था क्योंकि ये सभी लगभग गरम स्थान ही थे ।
लेकिन जहाज से उतर कर समान मिलने तक के पाँच-सात मिनट में जब तक मैं चादर ओढ़ नहीं
पाया लगता है सारा काम उतनी ही देर में हो गया । हवाईअड्डे पर लंबी ऊनी चादर ओढ़ कर
चलना अलग ही ‘लुक’ दे रहा था और मैं उसका मजा भी ले रहा था । उस समय
जरा भी शुबहा नहीं था कि सुबह मेरी क्या हालत होने वाली है !
यूं
तो अपनी बीमारी के बढ़ जाने का अहसास रात में ही कभी हो गया था लेकिन सुबह उठते ही
आईने में चेहरा देखा तो चेहरा अपनी औकात से डेढ़ गुना बड़ा दिख रहा था और तभी से
लगने लगा कि बाहरी त्वचा लुढ़क सी रही हो ! बचपन का एक साथी याद याद आ गया वह और
उसका भाई हमारी ही कक्षा में पढ़ते थे । दोनों जुड़वा ! एक दिन इसी तरह सर्दी के
किसी दिन उसका चेहरा सूजा हुआ था फिर धीरे धीरे उसने स्कूल आना बंद कर दिया और एक
दिन हमने सुना कि उसकी मृत्यु हो गयी । उसका जुड़वा भाई अब भी मिल जाता है । वह
किराने की दुकान चलाता है और उसके चेहरे में उसके मरे हुए भाई को देखा जा सकता है
लेकिन अब वह अकेले है । अपने चेहरे की सूजन देख कर मुझे वही मरा हुआ लड़का याद आ
रहा था । और उन दो दिनों में जबतक मेरा चेहरा सामान्य अवस्था की ओर लौटने नहीं लगा
तबतक मुझे वह लड़का याद आता रहा ।
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