बचपन में यदि गलती से भी सोने की कोशिश में हाथ ये छाती
पर चला जाता तो जो भी बुजुर्ग आस पास होते तुरंत यह कह कर झिड़क देते थे कि छाती पर
हाथ रख कर सोने से सपने आते हैं । तब तो नहीं खैर पर अब सोचता हूँ कि ऐसा वे किस विश्वास
के साथ कहते थे ! क्या उनहोने
कोई शोध किया था इस पर या कोई ऐसी व्यवस्था की थी जिससे पता चल सके कि अमुक व्यक्ति
या बच्चा अभी अपनी छाती पर हाथ रखे हुआ है इसलिए सपने देख रहा है ? कितना
भी सकारात्मक हो कर सोचता हूँ तो इसकी संभावना कोसों दूर तक नजर नहीं आती । ये उनके
पास उनके बुजुर्गों द्वारा हस्तांतरित ज्ञान होगा । यह ज्ञान पीढ़ियों से चलता आ रहा
होगा । इस क्रम में कई फेरबदल भी हुए होंगे जैसे कि हमारे यहाँ आज के बुजुर्ग यह कहते
हैं कि ' छाती पर हाथ रख कर सोने से ज्यादा सपने आते हैं ' ! उन्होने यह देख लिया होगा कि इसका कोई संबंध यूं तो
नही दिखता है पर जब इतने लंबे समय से चला आ रहा है तो यह गलत नहीं होगा । इसमें थोड़े
बहुत तो बदलाव हो सकते हैं पर यह कथन अपनी जगह अटल है ।
छाती पर हाथ रखने में भले ही डांट मिलती हो पर इस बात ने
सपनों के प्रति बहुत आकर्षित किया । जो सपने याद रह जाते उसको सुबह बताने में खुशी
होती । कई बार सपने बे सिर पैर के से लगते । एक दिन यूं ही चला जा रहा था कि आस पास
की चीजों को देख कर लगने लगा कि मैं तो इन्हें जानता हूँ इन्हें कहीं देखा है । याद
आया सपने में । हू ब हू वही सब । राई रत्ती का भी हेरफेर नहीं । उस दिन सपनों के प्रति
जिज्ञासा बढ़ी । फिर कई बार ऐसा हुआ कि किसी भी नयी जगह जाता तो मन में टटोलने की कोशिश
जरूर करता कि क्या वहाँ कोई ऐसा दृश्य है । पर अबतक केवल दो ही ऐसी जगहें गया हूँ जहां
का कोना कोना सपने में देखा हुआ था । उन्हीं दिनों मेरी नानी मेरे मामा की बीमारी के
सिलसिले में पटना में थी । मामा लगभग ठीक हो गए थे और वह अपनी पटना यात्रा का अंत गंगा
स्नान से करना चाहती थी । वो किस घाट पर गयी
ये मुझे नहीं पता पर उन्होने वहाँ जो भी देखा वह सब अपने सपने में एक दिन पहले ही देख
चुकी थी । यहाँ तक मंदिर में लगी मूर्ति की मुद्रा भी । उस समय तक बहुत से लोगों से
ये सुन चुका कि ऐसा उनके साथ भी हुआ है । कहना ये चाहता हूँ कि इसके बाद सपनों के प्रति
मेरी दिलचस्पी बहुत बढ़ गयी । लेकिन इस दिलचस्पी के बावजूद अब तक यह स्पष्ट नहीं हो
पाया कि जहां कोई कभी गया ही नहीं उसके चित्र व्यक्ति में कैसे बन जाते हैं ।
थोड़े दिनों के बाद
एक और घटना हुई । एक हमारे महाकांत मामा हुआ करते थे - मेरे
मामा के दोस्त ! बरसात की एक रात में आधी रात के करीब मैंने सपने
में देखा कि कोई चीज तेजी से गुजर गयी और महाकांत मामा की एक पासपोर्ट साइज फोटो बन
गयी । अगली सुबह खबर मिली कि उनकी एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी । इस संबंध को
मैं आज तक समझ नही पाया हूँ कि यह सपना मुझे ही क्यों दिखाई दिया । उन मामा से मिले
हुए भी कुछ साल हो गए थे तब तक ।
सपनों का संबंध हमारी सोचने समझने की प्रक्रिया , हमारी
मनःस्थिति और आस पास के वातावरण से है यहाँ तक तो मनोविज्ञान का इस पर अधिकार उचित
जान पड़ता है । ठीक इसी बिन्दु पर फ्रायड , एडलर और यूंग आदि मनोविश्लेषण
वादी और फिर नव मनोविश्लेषणवादी भी सही नजर आते हैं । परंतु जो स्थितियाँ हमारे चेतन मन की पकड़ से बाहर हैं उन स्थितियों के सपनों के आने का संबंध जोड़ना
कठिन प्रतीत हो रहा है ।
आज एक चिट्ठी मिली ! आज के समय में चिट्ठी का मिलना
एक आश्चर्य ही है । उस चिट्ठी में एक सपने का जिक्र किया गया है । उस सपने में मैं
भी हूँ । और उसका मजमून इस तरह का है जिसकी असल जिंदगी में फिलहाल तो कल्पना ही की
जा सकती है । पर वह सपना मन पर एक सुखद असर ही छोडता है । उस पत्र की एक पंक्ति यहाँ
रख रहा हूँ शायद यह अपनी हालत स्पष्ट कर पाये - ' पता नहीं क्या अजीब चीजें हैं जो सपने बन के सामने आ रही हैं ' ।
जब ऊपर वाला सपना देखा जा रहा था ठीक उन्ही दिनों में मैंने
सुबह को लगातार तीन दिनों तक एक ही भाव वाले सपने देखे । मेरे माता-पिता
, मैं जो चाहता हूँ उस बात के लिए राजी हो गए , दूसरे दिन उन्होने उन बातों को अपनी कुछ शर्तों के साथ मान लिया तीसरे दिन
का सपना अब उतना याद नही पर मजमून मेरी बात मानने का ही था । इन सपनों को तो मैं मेरी
हाल की सोचने समझने की प्रक्रिया से जोड़कर देखता हूँ इसलिए लगता है कि हमारा अन्तर्मन
हमें वो दिखाता है जो शायद हम देखना चाहते हैं । पर यहाँ भी एक पेंच फँसता है ।
पेंच यह कि ये सपने मेरे उपरोक्त दोस्त के मन में भी आए
और ठीक उन्हीं दिनों । अब इसे किस चीज से जोड़ कर समझा जाए । वह दोस्त मेरा बहुत करीबी
है यह भी मानता हूँ पर मेरे और उसके बीच लगभग दो हजार किलोमीटर की दूरी है । हम दोनों
की आपसी सोच कितनी भी मिलती हो पर समाजीकरण और बड़े होने की प्रक्रिया में बहुत अंतर
है फिर भी एक ही भाव के सपने हैं !
मैंने सपनों पर कुछ किताबें भी पढ़ी पर वे हर सपने पर लागू
नहीं होती बहुधा वे सपनों के वर्गीकरण के दायरे में रहकर ही बात करती हैं । यहाँ पर
थोड़ा सा आलसी हुए नहीं कि मन धार्मिक व्याख्याओं की ओर भागता है । पर धार्मिक ग्रंथ
सपनों पर व्याख्या नहीं करते , उन पर बात भी नहीं करते बल्कि फतवा सुनाते
हैं कि सपनों का आना मन की चंचलता और अपवित्रता के लक्षण हैं । आज के समय में सबकुछ
इतना जटिल और विस्तृत हो गया है कि किसी चीज के संबंध में सरलता की कल्पना भर हो सकती
है । क्लीनिकल साइकोलोजी मानती है कि धार्मिक किताबों का मन पर असर होता है कम से कम
स्वप्नदोष के मामले में तो में यह बात लंबे समय से दावे के साथ कही और प्रयोग में लायी
जा रही है । लेकिन इसकी व्याख्या इतने भर से हो जाती है कि धार्मिक किताबों को पवित्र
का दर्जा प्राप्त है और हम उसकी इसी स्थिति के साथ बड़े होते हैं बाद में भले ही हम
उन पुस्तकों को खारिज कर दें लेकिन हमारा प्रारम्भिक समाजीकरण तो उनकी श्रेष्ठता के
साथ ही होता है । श्रेष्ठता के भाव के कारण उसका असर ठीक वैसा ही होता है जैसा घर के
बुजुर्गों का जिनके सामने तो हम भले बने रहते हैं लेकिन उनकी नजरों से ओझल होते ही
फिर वही सब । बेचारे बुजुर्ग खुशफहमी में जीते रहते हैं ।
बहरहाल सपनों के मामले में बात करना रहस्यों की दुनिया में
जाने जैसा लगता है । कई बार बात कर के भी इनके बारे में किसी खास निष्कर्ष पर पहुँच
पाना संभव नही हो पाता । इस सब से बेखबर सपने आते रहते हैं । वे सपने कई बार हिम्मत
भी दे जाते हैं !
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