1 बलिदानी सैनिक दूसरों सैनिक को बोलता है कि हमारा हाथ में अभी भारत का रक्षा ।
2 हम भारत को हमारा दुलहल
जैसा सोचकर रक्षा करो ।
3 जब इफन का घर गया तो सब
समय टोपी दादी की कहानियाँ सुनकर बैठेगा ।
4 हमको किसी चीज की
प्रोजेक्ट मिलता है तब हम कंप्यूटर के सामने आकार उसको खोज करता है ।
5 हमारे दुर्घटनाओं में
हमारा साथ रहता है उनलोगों को सच्चा मित्र कहता है
ये पाँच वाक्य और इस जैसे कई अन्य जिनसे
प्रतिदिन सामना होता है और सप्रयास स्वयं को हंसने से रोकना होता है अन्यथा जिस
तरह से हम सीख कर आते हैं उसमें अपनी भाषा से जरा सा भी विचलन देखते ही अपनी
श्रेष्ठता और बोलने वाले की हीनता का समारोह मानना बहुत स्वाभाविक है । इतना ही
नहीं भाषा ठीक करने के बहाने एक भाषायी सामंतवाद झाड़ते हैं बिना इस बात का खयाल
किए कि सामने वाला इसे किस तरह ले रहा है । इस बात की पूरी संभावना भी है कि यह
शुद्धिकरण बाद के दिनों में नही बरकरार रहेगी ।
कुछ भी हो उपरोक्त पंक्तियों पर नहीं हंसा जा
सकता क्योंकि ये पंक्तियाँ उन छात्रों की है जिन्हें ये भाषा सीखनी है और शुरुआत
में यह भी चलेगा । छठी कक्षा से शुरू हो चुकी हिन्दी 10वीं – 12वीं तक आते आते भी
शुरुआती हिन्दी जैसी ही रह जा रही है । जहां यह तीसरी भाषा हो वहाँ यह स्थिति कोई
अनोखी हो ऐसा कहना मेरी मंशा नहीं है क्योंकि इस भाषा का अपना वातावरण कम से कम
यहाँ तो नहीं मिलता । इसके बावजूद निचली कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वालों की भूमिका की
अनदेखी नहीं की जा सकती । वे छोटी कक्षा में एक ऐसी भाषा पढ़ते हैं जिसका यहाँ के
जीवन में स्थान तीसरा है अर्थात गैर – जरूरी । इस स्थिति में उसे सीखने की
ज़िम्मेदारी एक खानापूर्ति में बदलने में देर नहीं लगती । परिणामस्वरूप छत्रों के
बड़ी कक्षाओं में आ जाने के बाद भी भाषा अपनी टूटी- फूटी शैली के साथ बनी ही रहती
है जिसकी बानगी ऊपर की पंक्तियों में मिल रही है ।
यूं तो भाषा का सामान्य प्रकार्य अपनी बातों
को को समझाना है और यदि संदेश समझ में आ रहा है तो भाषा का काम पूरा हुआ । इस
लिहाज से यदि डेंखेन तो भाषा संबंधी सारे झगड़े ही न खत्म हो जाएँ ससुरे ।
अभी प्रिंसिपल से बात हो
रही थी । उनका कहना था कि एर्णाकुलम नवोदय कुछ खास विषयों में अच्छे अंक पाता है
और हिन्दी उन्हीं विषयों में से एक है । इसका अर्थ था कि मैं भी 12वीं कक्षा का
अध्यापक होते हुए इस अधिक अंक पाने की परंपरा को आगे बढ़ाऊँ । छत्रों को हिन्दी में
ज्यादा अंक मिलने की बात को तो मैं इस तरह से देखता हूँ कि यह एक अहिंदी प्रदेश है
और यहाँ के छत्रों की हिन्दी की जांच नहीं बल्कि उसका प्रोत्साहन होता है । इस
क्रम उनकी भाषा संबंधी तमाम त्रुटियाँ नज़रअंदाज़ कर उत्तरों की भावना पर अंक दिए
जाते हैं । यह बात मैंने जब छोटी कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले दो अध्यापकों से
कही तो वे नाराज हो गए । वे कहने लगे कि यहाँ के छात्रों की हिन्दी उतनी भी खराब
नहीं है । फिर वे आपस में बात करने लगे । स्थिति के अनुसार जाहीर है वे मेरी बुराई
कर रहे होंगे पर भाषा मलयालम थी । यहाँ के छात्रों के हिन्दी के उत्तरों से गाइड
को निकाल दिया जाए तो एक वाक्य भी नहीं निकल पाता जो पूर्ण हो । पाठ के आधार पर
यदि इनसे अपने मन से उत्तर देने कह दिया जाए तो दो चार शब्दों से आगे नहीं बढ़ पाते
हैं । कुछ तो बोल भी नहीं पाते । ये हालत तब है जब ये 10वीं 11वीं 12वीं
के हैं । छोटी कक्षाओ के विद्यार्थियों की बात मुझे नहीं पता पर स्थिति
बहूत बदली हुई होगी इसकी तो कल्पना भी नही कर सकते ।
कौन पढ़ता है हिन्दी
पहले ही दिन मुझे प्रिंसिपल ने आधिकारिक तौर
पर बताया कि 10वीं के बाद जो छात्र हिन्दी पढ़ रहे हैं उनमें
से एक दो को छोडकर सभी उसमें डाल दिए गए हैं । ऐसा इसलिए कि उन्हें बाकी लोगों में
से सबसे कम अंक आए थे और उनके लिए किसी दूसरे विकल्प में जाने का अवसर नही रह गया
था । विषय संबंधी तमाम चिंतन, दर्शन से ऊपर ये वास्तविकता है
हमारे विद्यालयों की और इसी तरह महाविद्यालयों की भी । सैद्धान्तिक रूप से सारे
विषय समान हैं पर व्यवहार में ये कोई अर्थ नहीं रखते । क्योंकि छत्रों के आगे
की आर्थिक सफलता में हिन्दी बहुत मदद नहीं
करती । फिर याद आते हैं हमारी हिन्दी के वे विद्वान जो अपने प्राध्यापक और उससे भी
ज्यादा बन जाने के बाद आए दिन लिखते रहते हैं कि हिन्दी में बाजार बढ़ रहा है इस
लिए इसकी मांग बढ़ रही है । भैया जो लोग पीछे रह जाते हैं वे हिन्दी पढ़ते हैं । यह
केवल हिन्दी का प्रश्न नही है बल्कि अन्य सभी विषयों का है जिनको ‘अनुत्पादक’ मानकर निम्न श्रेणी में दल दिया जाता है
। हिन्दी दिवस के दिन और उस पखवाड़े के दौरान बड़े ज़ोर शोर से हिन्दी को गया जाता है
उसके नए नए क्षेत्र में प्रवेश के गीत गाये जाते हैं पर क्या यही हालत साल के 365
दिन बने रहते हैं । वे वक्ता फिर अगले साल ही नजर आते हैं ।
हिन्दी पढ़ने की जरूरत ही
क्या है ?
हम जिस समय में रह रहे हैं वह निस्संदेह
हिन्दी का नहीं है और यही नहीं इस तरह के बहुत से अन्य विषयों का भी नहीं है ।
क्योंकि इन विषयों की उपयोगिता उत्पादकता की दृष्टि से संदिघ्ध है । हिन्दी पढ़ के
बहुत से बहुत हिन्दी के प्राध्यापक बन जाएंगे और मास्टर । प्राध्यापक आटे में नमक
के हिसाब से बनते हैं और जो बनते हैं वे तमाम जोड़ घटाव के धनी होते हैं क्योकि लोग
बहुत हैं और स्थान कम । एक दो क्षेत्र और हैं जैसे अनुवादक और संचार माध्यम का
क्षेत्र लेकिन ये दोनों क्षेत्र भी बिना अङ्ग्रेज़ी के हिन्दी वालों के लिए अपने
दरवाजे नही खोलते । फिर जब सबकुछ इतना ही कठिन है तो क्यों पढ़ाया जाए यह विषय ? इसे एक
विकल्प के रूप में रखना उन छात्रों के साथ एक खिलवाड़ है जो इसमें डाल दिए जाते हैं
। इसके बदले कोई ऐसा विषय पढ़ाया जाए जो कम से कम उनके लिए एक पेशेवर अवसर तो पैदा
कर सकें ।
आज के दौर में या कि किसी
भी दौर में साहित्य , औदात्य आदि की बात बेरोजगारी के सामने
बेमानी है । भरे पेट वालों का सौंदर्यशास्त्र हो सकता है पर भूखों का नही । और
हिन्दी की आर्थिक अनुत्पादकता ने इसे व्यक्ति की इज्जत से भी जोड़ दिया है ।
हालांकि इन बातों को अति उत्साह में खारिज करने वाले लोग बहुत हैं पर वो तभी तक जब
तक कि बाहर की वास्तविकताओं से उनकी बेखबरी है या अपनी सफलता के अलावा एक दो और
हिन्दी के लोग उन्हें सफल दिखते हैं ।
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