हमने आवाज़ का सहारा लेकर झरना खोज लिया । फिर वहाँ तस्वीरें न लेते तो उस चढ़ाई का क्या अर्थ । उस क्षण हममें में से हरेक एक पर्वतारोही था जिसने एवरेस्ट फ़तह कर ली हो । छोटे छोटे लक्ष्य पाते रहने से जीवन में विश्वास बना रहता है । वहीं हमें वह फूल दिखा । किसी गिलहरी की पूँछ सा फूल । यही फूल मैंने असम में भी देखा था । असम का राजकीय पुष्प – कोपू फूल ! वहाँ इसे उर्वरता का प्रतीक माना जाता है इसलिए शादी – ब्याह के अवसर पर इसका उपयोग होता है । उर्वरता को मनुष्य अपनी वंश-वृद्धि और धनधान्य की वृद्धि से जोड़कर अपने अधीन कर लेना चाहता है । यदि ये फूल जंगल में खिलते तो सार्वजनिक उर्वरता की ही बढ़त होती न ! सार्वजनिक को व्यक्तिगत बनाने की कवायद में ही जंगल , नदी, तालाब सब खो रहे हैं । जंगलों पर निर्भर लोग बेबस होकर रह जा रहे हैं ।
साधारणतया फॉक्सटेल ऑर्किड के नाम से जाना जाने वाला यह फूल वेणी में लगे गुलाबी गजरे जैसा था जिसे बस लगाना बाकी था । इधर उधर नज़र बचाकर हम कुछ टहनियाँ ले आए । मेरे हिस्से जो टहनी आयी उसमें एक फूल खिला हुआ था । नारियल के छिलके के बीच रखकर पौधा लगा दिया गया । जंगल के इस पौधे को तेज़ धूप नहीं चाहिए लेकिन नम वातावरण अवश्य चाहिए । भीषण गर्मी में तो बहुत ज्यादा पानी भी । मैंने नारियल के खोल के नीचे एक प्लास्टिक का डब्बा रख दिया । जब भी पानी दिया जाता तो डब्बे के भर जाने के खयाल के साथ ताकि कहीं चले जाने की दशा में कुछ दिनों तक पानी रहे और पौधा मुरझाए नहीं । कुछ दिन रहकर वह फूल सूख गया । फिर मेरी उम्मीद अगले मौसम पर टिक गयी ।
अगला मौसम यानि घोर बारिश के शुरुआती दिन ! एक बात अजीब देखी – देश के दूसरे हिस्सों में जहां यह फूल ठंड में खिल जाता है वहीं केरल में इसका समय बारिश का है । इसकी जड़ों के बढ़ने , एक एक कोंपल के आने से अजीब खुशी होती मुझे । मैं इसे खिलते हुए देखना चाहता था । फिर एक शंका भी होती कि अपने वातावरण से कटकर क्या यह पौधा फूल खिला पाएगा ? मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का नायक एक दिन अपनी जड़ों की ओर लौट आता है उसे अपने ग्राम समाज की प्रेरणा चाहिए । उसकी प्रतिभा नगर में एक समय के बाद प्रफुल्लित नही हो पा रही । अपने आसपास से सबकुछ सोख लेने की यह कौन सी ज़िद होती है हमारी ?
पिछले साल गर्मी की छुट्टियाँ लॉकडाउन की भेंट चढ़ गयी बाहर जाना भी हुआ तो इतने दिन के लिए नहीं कि पौधे को पानी भी न मिल पाये । लेकिन इस बार दो महीने यहाँ नहीं रहा । भला हो केरल की भौगोलिक स्थिति का कि हमारे निकलते न निकलते छोटी मोटी बारिशें शुरू हो गयी । छुट्टियाँ बिताकर लौटा तो अलग ही नज़ारा था । कुछ पौधे बहुत ज्यादा पानी के कारण सूख चुके थे तो कुछ बाहर से की गयी पेंटिंग से नयी ढब में ढल गए थे । यह पौधा अपनी जगह पर यूँ ही पड़ा था उसके सिर से यह फूल लटक रहा था – कोपू फूल, उर्वरता का प्रतीक , असम का राजकीय फूल ! दूसरे पौधों के सूख जाने का दुख जाता रहा ।
हमारे साथ जिन साथियों ने यह पौधा लगाया उनमें किसी में फूल नहीं आए हैं । मैं अक्सर सतीश भाई को तस्वीरें भेजकर चिढ़ा देता हूँ । उनके कुछेक और मित्र हैं जिनके यहाँ फूल आ रहे हैं । कल शाम वे अपने पौधे के सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए और कहने लगे – मेरी इज्ज़त का खयाल करो कम से कम एक फूल तो दे दो ।
एक फूल कितनी बातों से जुड़ता है , हमारे छिपे व्यवहार भी खोल देता है । उम्मीद है इस मौसम में और फूल खिलेंगे ।
वाह बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएं