न चाहते हुए भी उसे निकलना ही था । छोड़नी ही थी वह दुनिया जिससे उसके निकल जाने की किसी ने कल्पना तक नहीं की थी । जाड़े के प्यारे से दिन थे और उसकी आँखें रोने और न रोने के अंतर को मिटा चुकी थी । पास बैठा लड़का, जिसे बाहर से देखने वाला कोई भी व्यक्ति प्रेमी ही समझता रह रहकर उसका हाथ अपने हाथों में ले रहा था , उस पर हल्की - हल्की चपत लगाकर ध्यान बंटाना चाह रहा था ।
“तीन घंटे की दूरी है बस ... सबसे बड़ी बात अब हमारे पास पैसे होंगे जब मन करेगा फ्लाइट पकड़ लेना” । लड़के ने कह तो दिया लेकिन उसके पास प्रेम के दूर चले जाने का अनुभव नहीं था । उसे यह भी नहीं पता था कि किसी लड़की की नौकरी लगने पर उसके पैसों में प्रेमी का हक़ होता है या नहीं । यह सब लड़की को भी कहाँ पता था !
फिर वह अनचाही स्थिति आ ही गयी । विश्वविद्यालय की धूप में , पेड़ों की छांव में और वहाँ इधर - उधर फैले चाय के ठीहों मिलने वाले अब अलग - अलग थे । कॉमन दोस्तों के लिए अकेले होकर भी वे दो थे । जब भी बातें होती दोनों की एक साथ होती । जो ‘जग सूना सूना लागे’ जैसी बातें चरम भावुकता लगती थी, वे उनकी अपनी हो गयी !
रिश्ते गरमाहट खोते ही हैं ऊपर से दूरी , तीन घंटे का सफर साल में एक बार भी पूरा नहीं हुआ ! पैसे ‘हमारे’ नहीं हो पाये ।
और अंत में वह दिन भी आ गया जब लड़की ने अपनी आरामदेह नौकरी छोड़कर उस जगह आ गयी जहां से तीन घंटे की यात्रा के लिए सोचना ही नहीं था । यहाँ दिक्कतें थी , बंधन भी थे लेकिन सबसे बड़ी बात थी प्रेमी का पास होना ! कमबख़्त, स्कीम ऑफ थिंग्स से बाहर गया ही नहीं !
***
इंप्रेस करने की हजारवीं कोशिश करते हुए उसने कहा था – ‘इससे खूबसूरत बात तो किसी की स्माइल ही हो सकती है’ । सुनकर उसने ज़ोर का ठहाका लगाया था ! ठहाके के बाद उसका झेंप जाना स्वाभाविक ही था ... कोशिश यूँ हवा में उड़ गयी थी न । वह झेंपते हुए मुस्कुरा रहा था या इसके उलट पता नही बस इतना पता है कि उसके मुँह से एक सवाल निकला था - क्यों क्या हुआ ?
उसे पता था कि जवाब आएगा - कुछ नहीं । ऐसे मौकों पर वह इतना ही कह पाती है ! लेकिन उस ‘कुछ नहीं’ के बाद उसका चेहरा ठहर जाता है जैसे हवा में लहराता कोई फूल एकदम से रुक जाये । आसपास के और फूल भी ठहर जाते होंगे । भीतर कुछ उमड़ता होगा शायद !
मन हुआ, उसका चेहरा अपनी गोद में रखकर किसी चट्टान पर बैठ जाये । ग्रीष्म की दुपहरी में चट्टान के ऊपर के पेड़ सूरज के तेज़ को रोकने में सफल होकर राहत की साँस लेने लगते हैं । उस समय वह अपने गोद में खिले चेहरे को पुटूस और सरसों के नन्हें - नन्हें फूलों से सजाये । वैसी सजावट जैसी बंगाली दुल्हनों के भौहों के ऊपर होती है !
वह पूछ बैठता है – और ?
जवाब फिर से वही – कुछ नहीं !
‘कुछ नहीं’ असल में वह दायरा है जिसके पार कोई दायरा नहीं, बंधन नहीं और शायद इंप्रेस करने की अगली कोशिश भी नहीं! अगली बार मिलेंगे तो बातें पुनः ‘अथ’ से शुरू होंगी । अपूर्णता में नये की नमी बची रहती है ।
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छाते में इतना दम नहीं था कि तेज़ बारिश को रोक ले । उसने प्रयास भी छोड़ दिए थे । लंबे बाल भीगने से भारी तो हो गए लेकिन तेज़ हवा में उड़ने लायक अब भी थे । हवा जब उन्हें उड़ाती तो पानी की बूंदें बालों से भी छिटकती ! आकाश के छोर तक छाए तरंगित बादल जितना पानी बरसा रहे थे उसमें से कुछ उसके गालों पर भी रुक रहा था !
वह बारिश में फँस गयी । बस समय से ही आयी थी लेकिन उस समय वह उसकी बाइक पर थी । ड्राइव करते - करते उसने हाथ पकड़ कर अपने पेट पर रख लिया था - झूम गयी थी वह भीतर ही भीतर ! होंठ, उसकी पीठ से सट गए थे ! उन कुछ क्षणों में आनंद के कई युग ऐसे गुजरे जो वर्षों याद रहेंगे ।
वह ऐसी शाम की कल्पना ही किया करती थी ! उसकी बाइक पर बैठने की साध जो थी । उन दृश्यों को प्रत्यक्ष देखना था जिसे वह सबको दिखाता फिरता है ! बादल में लिपटे पहाड़ , तरह - तरह के पेड़ सब देखने थे । उसके छिपे हुए झरने का सौन्दर्य सचमुच अनोखा था । ढलुआं नाले की शक्ल में आती धारा एकाएक कई फीट नीचे गिर रही थी । जल का वह विस्तृत रूप पत्थरों से खेलते हुए पेड़ों, झाड़ियों को सहलाते नदी से समुद्र तक का सफर तय करेगा !
बाइक चलाते हुए वह बार - बार पीछे मुड़ रहा था । डर के बावजूद उसने अपने को उसकी बाईं बाँह से भी बाहर लटका रखा था कि वह जरा - सा भी मुड़े तो बड़ी - बड़ी काली आँखें देख ले । वैसे देखना तो उसे अब चाहिए था । इस बारिश में वह पूरी तरह भीग गयी थी !
अपने जीवन भर की याद के लिए उसने बस छोड़ी और अब बारिश में भीग रही है । वह , लड़के के जीवन की साध नहीं ! भरी बारिश में आँसू कौन देखता है !
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मैं अश्वघोष को पढ़ रहा था । ‘बुद्धचरित’ और ‘सौंदरानंद’ वाले अश्वघोष जिन्होने प्रेमिका के नहीं रहने पर भी प्रेम को जिया उसके सपने को जिया ! कैसी रही होगी प्रभा जिसने उस कवि को इतनी हिम्मत दी !
सरयू नदी की उस तैराकी में दोनों अनावृत देह जिस तेज़ी से तैर रहे थे उसमें एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ थी , एक भी क्षण दाएँ या बाएँ देखने की फुर्सत नहीं । पर प्रेम को पनपना ही था । प्रतियोगिता में बराबर छूटने पर मंच से ही प्रभा को देखा था कवि ने ! फिर जो वियोग हुआ वह ‘उर्वशी - वियोग’ बनकर आया ! कहते हैं, अश्वघोष खुद वीणा पर जब उसे सुनाते तो मंच के नीचे बैठे दर्शकों में से किसी की आँखें भीगने से नहीं बचती थी !
बाद में प्रभा ने एक दिन कहा “तुम्हें प्रभा के प्रेमी अश्वघोष और युग के महान कवि अश्वघोष को अलग अलग रखना होगा ! प्रभा के प्रेमी अश्वघोष को चाहे जो कुछ कहो – करो ; किंतु महान कवि को उससे ऊपर , सारी वसुंधरा का समझना होगा ।”
प्रभा ने इतना विशाल हृदय रखा था । वह अपनी टेरीटरी मार्क करने नहीं आती थी । उसका यही निःस्वार्थ प्रेम बाँध गया कवि को । प्रेम में स्त्री इतनी ही कंसिडरेट हो जाती है जो मोहन राकेश की मल्लिका भी थी ।
जिस सरयू ने उन्हें मिलाया था उसी में डूब गयी थी प्रभा लेकिन शाश्वत प्रभा और उसका प्रेम रह गया । कालीदास कुछ भी लिख लें लेकिन वे अश्वघोष नहीं हो सकते क्योंकि उन्होने प्रेम को बस किताबी रखा था और दरबारी भी !
हम सबकी आदत है किसी महान चरित्र को देखते पढ़ते हुए उससे अपना साम्य देखने की (प्रकट में भले ही स्वीकार न करें लेकिन यह नार्सिसिज़्म न हो ऐसा हो नहीं सकता) । कई बार हमारे तर्क साम्य से ज्यादा भी दिखा देते हैं ।
तुम प्रभा हो पर मैं अश्वघोष नहीं !
***
सुबह का समय है , आज कितने ही दिनों के बाद गगन में मेघ घिरे और थोड़ी बारिश हुई । हालाँकि इस ओर थोड़ी बारिश वाली बात जमती नहीं फिर भी ! सामने जो चाय बागान है वह बढ़ते बढ़ते चारों ओर की पहाड़ियों की ऊँचाई नाप रहा है । चाय के पेड़ हरियाली की कलात्मक चादर ऊपर तक पसार रहे हैं । ऊपर सफ़ेद बादल की मोटी रस्सी तनने लगी है । शेष आसमान निरभ्र ! नीचे की सघन हरियाली और ऊपर का विरल नील बीच में बादलों की क्रमशः मोटी होती रेखा ! किसी कोने में धूप भी है ।
“देखो , चाय के पौधों की दो धारियों के बीच कितनी जगह है ! हम यहाँ छिप जाएँ तो किसी को कुछ पता न चले !” कहते हुए लंटाना के रंग बिरंगे फूल तोड़कर तुम्हारे उन बालों के पीछे लगाता हूँ जिनके रूप में कल का असर है । आलस से लटका जूड़ा उन पुष्पों को संभालकर कैसे मुस्कुरा रहा है काश तुम देख सकती !
मैं ऐसी जगहों को देखकर अक्सर खुल जाता हूँ और तुम मुझे यह बता रही हो कि चाय के पेड़ बोन्साई के सबसे बड़े उदाहरण होते हैं, वर्षों पहले किसी ने इन्हें लगाया होगा इनकी जड़ों को देखो । मैं तुम्हारा हाथ पकड़ता हूँ तो तुम चाय के सफ़ेद फूल तोड़ती हो ! मेरी अधीरता नहीं दिखती तुम्हें ! थिंग्स फॉल अपार्ट में चिनुआ ने एक अफ्रीकी लोकगीत डाला है –
‘If I hold her hand
She says, “Don’t touch!”
If I hold her foot
She says, “Don’t touch!”
But when I hold her waist beads
She pretends not to know.’
क्या इस रमणीय हरियाली में हमारे प्रेम के लिए जगह नहीं है ?
“बात जगह की ही है...” ।
***
एक तो ऐसे भी अंग्रेजी कम समझ में आती है ऊपर से बोर्दियु की बातों का फ्रेंच से अनुवाद ! एक - एक वाक्य में ही कितना तो समय लग जाता है फिर भी मर्म तक पहुँचना मुश्किल !
पीछे कुछ किताबें पढ़ी जिसके दस या अधिक से अधिक कहो तो बीस प्रतिशत अर्थ तक ही पहुँच पाया । एक एक शब्द से जूझता हूँ तो तुम्हारी याद आती है । तुम्हारी उपस्थिती से अंग्रेजी में पढ़ना कितना सरल था मेरे लिए ! बार – बार लगता है कि वे दिन लौट आयें !
दिल्ली विश्वविद्यालय की न्यू बिल्डिंग का पिछवाड़ा और जनवरी से लेकर आखिरी मार्च तक वहाँ पड़ने वाली धूप में पढ़ाई । बाद में जब धूप बढ़ती तो हम उठकर निरूलाज में घुस जाते ! उन घोर कॉर्पोरेट लोगों से समय - समय पर कुछ न कुछ खरीदना जरूरी रहता था न, भले ही उनकी दुकान पूरी खाली हो । वहाँ मिलने वाली हॉट चॉकलेट फ़ज !! हम लाइब्रेरी में भी पढ़ सकते थे लेकिन वहाँ चुप रहना पड़ता और सबसे बड़ी बात - तुम्हें देखते हुए, तुमसे पढ़ने को नहीं मिलता !
ज़िंदगी में शायद ही कभी ऐसा वक़्त रहा हो जब पढ़ने में किसी दूसरे की सहायता की जरूरत नहीं पड़ी और शायद ही कोई ऐसा मिला जिसने इतने प्यार से समझाया ! साइकोलोजी की बारीकियाँ अभी भी तुम्हारे कारण ही याद हैं ! कल शाम जब बोर्दियु पढ़ रहा था तो वही मंजर सामने आ गया । वे दिन होते तो उनके विचार , चार्ट, स्टेप्स और नोट्स में बंट जाते फिर होती उनकी व्याख्या । तुम्हें मेरा स्तर पता था … मैं अब तक तुम जैसा अध्यापक नहीं बन पाया !
इन बातों ने उस दिन तक पहुँचा दिया है जब हम उधर आखिरी बार पढ़ रहे थे । कहाँ पता था कि वह उस पढ़ाई का अंतिम दिन होगा । गलती मेरी ही थी ... मैंने तुम्हारे होठों तक पहुँचने की कोशिश की थी !
***
आसमान बरस कर थक जाता है , पानी की बची खुची बूंदें भी इस पत्ते से उस पत्ते का सफ़र करते हुए एक धुन बनाती है … रात में यह नहीं दिखता ! दिन में इतना शोर रहता है कि बारिश के बाद की बारिश सुनाई नहीं देती । बारिश की रात ख़्वाहिशों की रात होती है । किसी भी डाली को हिलाकर भीग जाने की ख़्वाहिश बचपन में होती थी उससे बाहर निकला तो कल्पनाओं ने खूब तेज़ छलांग लगा ली !
अंधेरी रात की बारिश के बाद भी हर पेड़ के पास हमें तर कर देने लायक पानी रहता है हम तब जंगल चलें तो क्या हो ! उस ऊंचे सखुए के पेड़ के नीचे बाइक खड़ी होगी और उसकी सीट पर तुम । ठीक उसी क्षण हमारी ऊँचाई एक दूसरे के बराबर होगी , हमारे होंठों की भी ! पेड़ की फुनगी पर काफी देर से टिकी बूँद भरकर गिर जाएगी हमारे होठों के बीच !
पास ही वह हिस्सा है जो दुनिया से छिपा है , मानो तो यह भी मान सकती हो कि वह मेरी खोज है । चारों ओर से अनगढ़ पत्थरों से घिरा प्राकृतिक स्विमिंग पूल ! हम उसमें किसी बच्चे के फेंके हुए पत्थर से उतरें कि एक तेज़ आवाज़ उठे – सारा जंगल जाग जाये , पक्षी युगल एक दूसरे को बाहों में भरकर शर्माते हुए नए सपनों में खो जाएँ !
वह रात अलग ही होगी । तुम आँखें तरेरते हुए मुझे खींच लाना पानी से बाहर । मैं तुम्हें चट्टानों पर लगी काई से बचाते हुए बाइक तक ले आऊँगा ! चलने से पहले तुम फिर से बाइक की सीट पर उसी तरह बैठना कि हमारे होंठ एक ऊँचाई में आ जाएँ ! ... देखेंगे सखुए की फुनगी पर बूँद भरी या नहीं !
***
मैं जब भी तुम्हारी पढ़ने वाली छवि की कल्पना करता हूँ , तुम चश्में में होती हो किसी मोटी हार्ड बाउंड किताब में नज़रें गड़ाए हुए । वहाँ से हमारी रसोई का एक बड़ा हिस्सा तुम्हें दिख सकता है … खुली खिड़की भी कितना धुआँ बाहर खींचेगी ! यूं तो तुम तक सिंकते पराठों की सुगंध पहुँचती ही होगी लेकिन बार – बार देख लेती हो मुझे ! तुम्हारा पढ़ने में ध्यान क्यों नहीं रहता !!
"You are distracting me."
कैसे ?
“You are in the kitchen … it shows that you care and that you treat me as an equal …Which is hell sexy!”
तुम्हारा मुझे पीछे से जकड़ लेना बनते पराठों को रोक चुका था ... सोचा था, पराठों के साथ तीन तरह अचार खिलाऊंगा लेकिन अब कहाँ ! किताब कहाँ गयी तुम्हारी । अरे स्लैब पर मत बैठो वह साफ नहीं है अभी मैंने वहाँ प्याज काटा था !
“कटा हुआ प्याज सुक्ष्मजीवों को बड़ी तेज़ी से अट्रेक्ट करता है... उसे जहाँ काटो उस जगह को जल्दी से धो दिया करो, उसे खुले में मत रखो” ।
सिंकते पराठे पर जब घी पड़ता है तो धुआँ बड़ी तेज़ी से फैलता है । उस जलती हुई गंध में , धुएँ में तुम उसी तरह हल्की मुस्कान के साथ बैठी हो जैसे कुछ हुआ ही न हो ! धुआँ तुम्हारे बालों से होकर गुजरने लगता है । मुझे अच्छा लगता है तुम्हारा यूं देखना !
“बाइक पर बैठकर हम दोनों के होंठ बराबर हो जाते हैं ... स्लैब बाइक से ऊँची नहीं है”
अच्छा !! और फिर पराठा चाहे तो जल जाये ... !
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