जनवरी 24, 2013

भर्ती घोटाले के बहाने

भारत की राजनीति में ऐसा बहुत कम हुआ है कि हाई प्रोफाइल लोगों पर आरोप लगा हो, वो साबित हुआ और उस पर ठीक ठाक सज़ा भी हो गयी हो । यूं अपने देश की राजनीति में लोगों पर आरोप लगना कोई नयी बात नहीं ! एक से लोगों पर लगे हैं पर हम जिस व्यवस्था में जीते हैं वो अपने बहुत से पेंचो - खम में इतने अवसर समेटे रखते हैं कि ये आरोप साबित नहीं हो पाते हैं । जिनकी सार्वजनिक बेइज्जती होनी चाहिए या हो वो पूरे एहतराम के साथ पेज - थ्री के भोजों में तस्वीरें  खिंचवाते रहते हैं । इस मामले में आगे जो भी हो पर एक रास्ते जैसा तो नजर आता ही है । 

फिल्म 'जाने भी दो यारों' कुछ खास पसंद नहीं आती मुझे ।  इसलिए नहीं कि उसकी बनावट में कोई कमी हो या कि किसी का भी अभिनय किसी भी लिहाज से कमजोर हो बल्कि इसलिए कि फिल्म में सच्चाई की जीत नहीं होती । हालांकि ऐसा मानना भी एक तरह का अतिवाद है कि हर बार सच ही जीते पर भारतीय समाज में कितना भी निरपेक्ष होकर रहा जाए इसकी मान्यताएं जो प्राथमिक समाजीकरण के दौरान हमें मिलती हैं वो सच की ही जीत की अपेक्षा मन में भरती है । सच के संबंध में सुनता बहुत आया हूँ कि सच बहुत मजबूत होता है , सच को कोई छिपा नहीं सकता आदि । पर आज ये  लगता है कि जब ये धारणाएँ बन रही होंगी या कि आकार ले रहीं होंगी तब बहुत सरल जीवन रहा होगा और लोग सच को दबा देने का मजा नहीं जानते होंगे या फिर वो अपराध के इतने आदि नहीं हुए होंगे कि अपराध को एक सहज वृत्ती के तौर पर देखें । अपराध को लेकर आई सहजता ने सच की जीत संबंधी हमारी मान्यता को सिरे से खारिज कर दिया है । 
खारिज हो जाना कोई गलत बात नहीं है पर सच का खारिज हो जाना और उसका दब जाना  जिस प्रकार से सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रहा है वो समान्य सामाजिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है । फिल्म जाने भी दो यारों में जो सच था वो सामने नहीं आ पाया या इस तरह से कहें कि उसे बाहर नहीं आने देने के लिए जो तिकड़म किए गए उसने अपराध के विस्तृत आयाम को समझने का अवसर दिया । अपराध के इतर दुनिया बहुत छोटी जान पड़ती है , जो है वह अपराध में ही समाहित जान पड़ता है ।  और सच्चाई मुझे आयुर्वेद की तरह लगती है जो लोगों द्वारा प्रयोग में नहीं लायी जा रही और जो भी कहीं थोड़े बहुत जिद्दी लोग होंगे उनको इससे फायदे के बदले नुकसान ही होता होगा । 

कहीं पढ़ा था कि भक्ति आंदोलन के दौरान भक्तों के द्वारा भक्ति का रास्ता चुनना इसके लोकतान्त्रिक होने के कारण था । लोकतान्त्रिक इस माने में कि इसे कोई भी कर सकता था इसके लिए किसी बड़े तामझाम की आवश्यकता नहीं थी । उसी तरह सच भी एक लोकतान्त्रिक अवधारणा है क्योंकि यह सब के लिए सहज रूप में उपलब्ध है जहां इसके दबने की बात आती है वह इस लोकतन्त्र के हनन से ही जुड़ती है । कोई न कोई अपने विशेषाधिकार की या तो प्राप्ति के लिए या उस विशेषाधिकार को बनाए रखने के लिए इस समान्यता को तोड़ता है । सच के इस तरह बाहर हो जाने का नुकसान आम आबादी का  होता है । 

चौटाला पिता-पुत्र दोषी साबित हुए । ऐसा नहीं है कि इनहोने बात दबाने की कोशिश नहीं की होगी परंतु इस बार बात दब  नहीं पायी या यो कहा जाए कि बात दबाने की कोशिश में कोई न कोई बड़ी कमी रह गयी अन्यथा बड़े लोगों पर हाथ डालना कहाँ मुमकिन हो पाता है आज के समय में । अभी हाल की ही एक घटना है । सहरसा बिहार में एक बलात्कार हुआ । अखबारों में खबर आई कि बलात्कारी बाहुबली आनंद मोहन का खास था उसी दौरान एक अखबार में उसके स्थानीय संपादक के हवाले से एक रिपोर्ट छपी जिसमे अनाद मोहन का  बलात्कारी पर हाथ होने संबंधी सबूत पेश किए गए थे । अगले दिन उसी संपादक ने लिखा कि आनंद मोहन ने उसे फोन किया और हनक पूर्वक कहा कि उस व्यक्ति ने बलात्कार नहीं किया । ध्यान रहे कि आनंद मोहन सहरसा जेल में उम्र कैद की सजा काट रहा है और इस पूर्व सांसद पर एक कलेक्टर की हत्या के आरोप में निचली अदालत में फांसी तलवार भी लटक रही है । यह नेताओं की पहुँच है कि जेल तक में उसके लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध है और वो मामले को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोडते ।   
चौटाला  के मामले ने हाल में जब से जोड़ पकड़ा है तब से उनके समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं । ये प्रदर्शन एक अलग ही ताकत से रु-ब-रु करा रहे हैं । जनसमर्थन समान्यतया ऐसा आभास देता है कि बहुत से लोग किसी खास बात या व्यक्ति के समर्थन में हैं । समर्थन सहमति और समर्पण आदि से अलग अर्थ रखता है । परंतु यहाँ जो प्रदर्शन हो रहे हैं वो समर्थन तक तक सीमित नहीं हैं उनका अदालत परिसर में बम फोड़ना , तोड़फोड़ करना समर्पण की सीमा तक है । आज के सामाजिक स्वरूप में ये समर्पण दो बातों की ओर इशारा करता है ।  लोगों ने आँखें मूँद रखी हैं उन्हें ये नहीं दिखता कि शक्तिशाली राजनेता की लाख कोशिशों के बावजूद आरोप साबित हो ही गए  । अब भी उनको अपराधी न मानना दूसरी बात तक ले जा जाता है जिसमे आए दिन पैसे से भीड़ जुटाने वालों के कई किस्से देखने सुनने को मिलते हैं । राजनीति एक व्यवसाय है जिसमें तमाम तरह के काम आते हैं उसी के अंतर्गत भीड़ का भी व्यवसाय बहुत जोड़ पकड़ रहा है इन दिनों । यहाँ आकर राजनीति से कुछ लाभ तो भीड़ में यहाँ वहाँ जाने वाले व्यक्ति को तो है ही । 

भर्ती घोटाले हमारे देश में आए दिन होते रहते हैं । उत्तर प्रदेश का पुलिस भर्ती घोटाला , बिहार का लोक सेवा आयोग घोटाला आदि तो बड़े घोटाले हैं अपने देश में तो एक एक सीट के लिए जिस तरह से पैसे लिए जाते हैं वो कभी प्रकाश में नहीं आते । सेना, पुलिस  में जवान की भर्ती के लिए , क्लर्क बनने के लिए , शिक्षक बनने के लिए हर जगह तो पैसे लिए ही जा रहे हैं। बस सारा मामला ऊपर ऊपर साफ ही नजर आता है ।  ऊंचे पदों  पर बैठे लोगों को पता है कि रोजगार की भयंकर कमी वाले देश में सरकारी नौकरी के लिए एक व्यक्ति कोई भी कीमत दे सकता है । और यही उनके फलने फूलने का राज है । 


अभी 10-15 दिनो पहले की बात है एक दोस्त ने कहा था कि हरियाणा में उसका प्राइमरी टीचर का इंटरव्यू है उसका भाई पार्षद है जो अजय चौटाला से मिला देगा फिर तो उसकी नौकरी पक्की है उसके तुरंत बाद शादी कर लेगा .... !

जनवरी 08, 2013

विकास के लिए

कहानी बहुत फिल्मी लगती है ! एक लड़का दिल्ली के एक बस स्टॉप पर हाथ में एक छोटा सा सॉफ्ट ट्वाय लेकर खड़ा था ! लड़की आई और वह पूरी हिम्मत करने के बाद भी उसे दे नहीं पाया ... हल्की सी हाय हल्लो के बाद लड़की ने बस पकड़ ली । लड़का थोड़ा मायूस था ... पर वह हारा नहीं ... उसने भी दौड़कर बस पकड़ ली । शायद बहुत देर में वह घर लौटा हो ... या उस रात किसी दोस्त के यहाँ रुक गया हो ...

कुछ समय बाद वही लड़का फिर से मिला था ... उस लड़की के प्रति घृणा की इंतहा थी उसकी बातों में ... एक वैराग सा निकाल रहा था उसके मन से प्यार , दोस्ती , लड़की आदि के संबंध में ... 
ऐसा नहीं था कि उस लड़के से यही दो मुलाकातें हुई थी बल्कि इन दोनों मुलाकातों के बीच हजार क्षण आए थे जहां बीच का जीवन चरम पर था ... अर्थात प्रेम की अपनी उपस्थिती और उसकी स्वीकृति के बीच के क्षण जो निश्चय ही एक आम से लड़के लिए बहुत मायने रखते हैं उन क्षणों में वह शरमा कर अपने ' मत्था टेकने ' को जस्टिफ़ाई करता था । हालांकि इसमें वो सभी काम शामिल थे जो हर प्रेमी अपने प्रेम को बचाए रखने के लिए करता है ... यहाँ-वहाँ प्रेमिका के लिए जाना , उसके बहुत से ऐसे काम भी कर देना जो खुद वो भी कर सकती थी , जाड़े में उसके लिए लाइन तक लग जाना वगैरह ... पर ये काम तो करने ही पड़ते हैं ...  सबसे बड़ी बात तो ये कि अपने सारे विकल्प खत्म कर डालना सिर्फ उसी के लिए यह भी उसने किया और आज यह उसे अपनी सबसे बड़ी गलती लगती है ... 
          बार बार यह लगता है कि क्या इसे प्रेम कहा जा सकता है ? प्रेम का टूटना एक सरल कार्य नहीं होता और यह जब टूट रहा होता है तो मन में इतना तो जरूर भर जाता है दोनों के कि उनके बीच ऐसा कभी कुछ रहा हो इस पर संदेह सा होने लगता है । फिर देखे गए वो तमाम दृश्य किसी श्वेत-श्याम सपने जैसे अविश्वसनीय से लागने लगते हैं । लगता है के ये दोनों कभी आर्ट्स फेकेल्टी का हिस्सा थे ही नही , इनहोने कभी एक ही कक्षा  में पढ़ाई नहीं की , एक दूसरे को कभी फ़ोटोस्टेट करा के नहीं दिया , साथ में कभी नहीं आए  या देर रात तक पटेल चेस्ट पर लड़की का प्रोजेक्ट टाइप करवाते हुए ठंढ नहीं खाई । 
        प्रेम के टूटने की बात हमेशा यह कह कर ही जताई जाती है कि जो कुछ था उसे तुमने यदि प्रेम समझ लीआ तो ये तुम्हारी गलती है ... मैं तो तुम्हें अपना दोस्त ही मानती रही या मानता रहा । और बात जब रकीब के होने की हो तो 'मुझे जाने भी दो यारों ' फिल्म का एक संवाद याद आ जाता है-
'' तरनेजा ... अंत में जीत उसी की होगी जिसके पास लाश होगी ... '' । होता भी यही है । लड़की जिसके पक्ष में पलड़ा उसका भारी फिर रकीब को कुछ करना नहीं होता है बल्कि सब हो जाता है और वह बस एक बात कह के या बोल के रह जाता है कि ' ये तुम्हारा आपस का मामला है ' । यह गंभीरता इसलिए क्योंकि लाश उसी के पास होती है । फिर पुराने लड़के के कुछ नादां वाक्य होते हैं , जोरदार खीझ और टूटे हुए दिल की बेतरतीब आवाज़ । 
      इस बार भी तो यही सब हुआ था ... पर बार बार वो मासूम शाम  याद आ जाती है जब लड़का सॉफ्ट ट्वाय लेकर बस स्टॉप पर खड़ा होता है .... उसकी चमक को उन तमाम तोहफों जो कि लड़के ने बाद में दिये थे उसे लौटा देने जैसे कठिन क्षण भी कम नहीं कर पाते ।
   यहाँ मैं रामचन्द्र शुक्ल की तरह दोस्ती , प्यार आदि को परिभाषित करने या मापने नहीं बैठा हूँ बल्कि यह समझने कि प्यार या दोस्ती समय समय पर अपनी जरूरत के हिसाब से अलग अलग नाम देता रहूँ । काम निकल जाने पर घंटों बिताए पल दोस्ती के हो जाते हैं ... इसे प्यार के बदले भावनात्मक रैगिंग कहा जाना चाहिए ... । हमेशा रैगिंग करने वाला ही जीतता है जिसकी होती है उसके नाम तो केवल आत्महत्या या अवसाद ही आता है ... 
 रकीब 
     अक्सर रकीब दोस्त ही क्यों होते हैं ? ऐसे दोस्त जिन्हें पहले तो 'उनके' द्वारा पसंद ही नहीं किया जाता ... और जब परतें उघड़ती हैं और एक लंबा फासला चला जा चुका होता है तब वही रकीब 'उनका' सबसे करीबी बन जाता है । प्रेम त्रिकोण करीबियों में ही आकार लेते हैं और यही वह स्थिति है जब यह मानना पड़ता है कि ' प्रेम साहचर्य से पैदा होता है ... रकीब शुरू में तो अपनी बातें छिपाने के लिए बहुत से पापड़ बेलता है फिर बाद में जब लड़की उसके साथ हो तो उसकी अकड़ देखते ही बनती है । 
       कुछ लोग प्रेम को बस प्रेम की तरह ही करते हैं , कुछ फायदे की तरह और कुछ जीत हार की तरह ... पर एक समय ऐसा लगता है कि प्रेम को केवल किया नहीं जाता बल्कि इसे पैसे , थोड़ी सी देखरेख से खरीदा जाता है । 
 लड़के को देखकर लगता है कि ये सब पहले अनगिनत बार हो चुका है ... अनगिनत भोले लोगों की अब तक रैगिंग हो चुकी है पर ये यहीं थम जाए ऐसा किसने कह दिया ?

जनवरी 05, 2013

रेणु के बहाने हिन्दी आलोचना पर एक टीप

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी है 'रसप्रिया' एक बहुश्रुत रचनाकार की बहुत कम चर्चित कहानी । इस कहानी का सबसे बड़ा घाटा यही है कि यह रेणु की कहानी है । जिस क्षण लोग उनकी कहानियों  पर बात करना शुरू करते हैं उसी क्षण आंचलिकता का एक बड़ा सा भूत सारी कहानियों के आगे नाचने लगता है । फिर कितनी ही उम्दा कहानी क्यों न हो उस पर बात कहानी के तरीकों से नहीं बल्कि आंचलिकता के तरीकों से होने लगती है ।


साहित्य की यह विडम्बना रही है कि उसमे निर्णयात्मक होना और फ्रेमिंग कर देना पहले - दूसरे पाठ में ही आरंभ हो जाता है ; यदि आलोचक बड़ा हो तो उसकी बात पत्थर की लकीर की ही तरह काम करती है । बहुत कम बार ऐसा हुआ है कि पाठ को पाठ की तरह से देखकर उस पर बात हुई हो । बड़े आलोचकों ने किसी रचना के संबंध यदि कुछ कह दिया है तो छात्र और परीक्षकों के लिए वह 'आप्त वचन' की तरह हो जाता है । यदि परीक्षा में उन्हे उद्धृत नहीं किया तो उत्तर पुस्तिका किसी काम की ही नहीं है । यहाँ परीक्षा का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि परीक्षा प्रणाली साहित्य की समझ की जांच करने के बदले यह जांचने में लगी रहती है कि छात्र ने कितना पढ़ा (अंततः कितना रटा ) ! पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने में कोई नुकसान नहीं है लेकिन उस प्रोत्साहन के नाम पर जो साहित्य की समझ को फ्रेम करने की कोशिश होती है वह छात्रों की चिंतनशीलता को सीमित करती है जिससे उनका वैकल्पिक चिंतन गहराई से प्रभावित होता है । यहाँ यह ध्यान रखने की बात है कि छात्र आज साहित्य के सबसे बड़े भोक्ता हैं । उनसे बाहर साहित्य खासकर हिन्दी साहित्य बहुत बहुत छोटा है ।

दूसरी बात आ जाती है भाषा की । छूटते ही कह दिया जाता है कि भाषा सही नही है । यहाँ सही भाषा का तात्पर्य यह है कि एक मानक भाषा नही है । मानक भाषा वह जो चिरकाल से चली आ रही है , जिसके संदर्भों में भले ही परिवर्तन आ गया हो लेकिन उनके शब्द वही है हैं जो आज से कई साल पुराने हैं । सबसे बड़ी समस्या प्रश्नों के उत्तरों और शोध की भाषा को लेकर है । शोध की भ्श को लेकर तो कई बार शिकायत रही है ।  यहाँ यह देखना खास तौर पर जरूरी है कि हर व्यक्ति की भाषा दूसरे से अलग होती है क्योंकि यह उसके अपने समाजीकरण , अनुभव एवं तर्कों से निर्मित होती है । यह है भाषा की साधारण स्थिति और शोध कार्यों के दौरान एक खास भाषा में लिखने का दबाव न सिर्फ शोध की गुणवत्ता को प्रभावित करता है बल्कि एक नयी भाषा सीखने के चक्कर में समय का भी खूब अपव्यय करवाता है । शोध की भाषा भी अंतिम रूप से एक मानक भाषा ही है जो पता नही कब विकसित हुई और कब तक चलती रहेगी । भाषा यदि वैल्यू , जजमेंट आदि से निरपेक्ष हो तो हर भाषा शोध को आगे बढ़ाने में सक्षम है । यहाँ एक बात यह भी गौर करने की है आज के बड़े बड़े आलोचकों की भाषा इस वैल्यू और जजमेंट से निरपेक्ष नहीं है । उनकी भाषा एक वाग्जाल है जहां बड़े बड़े शब्द तो हैं पर वे शब्द विश्लेषण से ज्यादा निर्णयपरक  हैं ।

बहरहाल बात आरंभ रेणु की रचना रसप्रिया से हुई थी और कहा ये गया था कि साहित्य की आलोचना में ज्यादा ज़ोर मानकीकरण  पर रहता है । उससे हल्का सा विचलन भी साहित्य में उसकी स्थिति को दायरे में बांधता है । इसी वजह से एक प्रवृती देखी  न देखी किसी न किसी खांचे में डाल दिया । प्रवृत्तियों के आधार पर साहित्य की खांचेबंदी कोई नई बात नही है और यह कोई देशीय प्रवृत्ति हो ऐसा भी नहीं है । यह दरअसल औपनिवेशिक आलोचना पद्धति है । इसमें कुछ वैज्ञानिक तत्वों को समाहित कर यह दावा कर लिया गया कि यह वैज्ञानिक आलोचना पद्धति हो गयी । जबकि यह वैज्ञानिकता भी पश्चिमी आभिजात्य का अनुकरण है । भारत में यह अनुकरण लंबे समय तक रहे विदेशियों के सहचरी के कारण संभव हुआ । हिन्दी साहित्य में चल रही अधिकांश आलोचना पद्धति किसी न किसी तय आधार के तौर- तरीकों पर ही चल रही है । जिससे आलोचना पर उन आदर्शों का लगातार हावी रहना और साहित्य पर आँका दबाव बना रहना जारी रहता है । यह प्रवृत्ति साहित्य को विशेषीकृत करती है और साधारण रूप से यह आम और साहित्यिक का विभाजन खड़ा करता है । साहित्य इन से एक वर्गीय चेतना निर्मित कर देता है जो स्वयं साहित्य के उद्देश्यों के अनुकूल नहीं है ।

रसप्रिया संदर्भ :

यह कहानी भारतीय जातीय संरचना को समझने के लिए एक औज़ार हो सकती है । हालांकि इसको समझने के लिए साहित्य में अन्य कहानियाँ हैं परंतु इसका जिक्र इसलिए क्योंकि यह कहानी केवल जातीय समझ नहीं देती बल्कि इसके माध्यम से पता चलता है कि कहानी उत्तर बिहार में कहीं घटित हुई है । दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस  भाषा और संदर्भों को न समझने वाला व्यक्ति भी कह देगा कि यह बिहार में कहीं घटित कहानी है । इसका कारण यह है कि हमारी आलोचना पद्धति  ने हमे इस तरह तैयार किया है कि हम आँख मूँद कर रचनाकारों की कहानियों का मजमून बता सकते हैं । इस पद्धति ने परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को  बड़ा फायदा  पहुंचाया ।
कहानी का प्रधान चरित्र 'पंचकौड़ी' मिरदँगिया एक बच्चे को बेटा कहते कहते रुक जाता है उसे याद आता है कि किसी और स्थान पर एक ब्राह्मण के बच्चे को उसने बेटा कह दिया था तो गाँव के लड़कों ने उसे घेरकर मारने की पूरी तैयारी कर ली थी ।
तथाकथित जातीय श्रेष्ठता ने एक ऐसा वातावरण निर्मित कर दिया है जहां पर अनुभव और ज्ञान संदर्भ से परे हो जाते हैं । रेणु जब ऐसा लिख रहे हैं तब से आज तक के समय में लगभग चालीस साल का अंतर है लेकिन यह आज भी बड़ी सामनी घटना लगती है । जातीय भेदभाव को आज भी उसी गहराई के साथ देखा जा सकता जो काफी पहले था । पहले यह वर्चस्व से जुड़ा था और आज यह बदलकर राजनीतिक हो गया है । लेकिन तात्विक रूप में आज भी यह 'उच्च' से 'निम्न' की ओर घृणा के रूप में आज भी जीवित है । इसमें मुसलमानों के प्रति घृणा और शामिल हो गयी है ।

रेणु लिखते हैं -
        गाँव के लड़के मिरदँगिया को घेर कर कहते हैं  'बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा ? मारो साले बुड्ढे को ! मृदंग को फोड़ दो !'
जातीय समीकरण को बरकरार रखने का आजमाया हुआ तरीका कि जिसने भी इस व्यवस्था को तोड़ने की कोशिश की उसे हानि पनहुचायी जाए । हानि का असर उसे बार बार अपने कार्य की याद दिलाता रहेगा और दूसरों के लिए एक सबक का काम भी करेगा ।  हानि को ज्यादा असरकारक बनाने के लिए उसके रोजगार के साधन मृदंग को फोड़ देने की बात की जाती है । हालांकि यह कहानी आगे प्यार और धोखे से भी जुड़ती है तथा खत्म होती लोक कला भी प्रकारांतर से इसमें आती है लेकिन यहाँ केवल जातीय पक्ष को देखा गया है ।

यह कहानी अपने संदर्भों में आज भी जिंदा है... वर्तमान उत्तर बिहार में जातीय संरचना राजनीति के ढांचे को आधार देने का कार्य कर रही है । इस पर बहुत लिखा पढ़ा जा चुका है । देखने की जरूरत ये है कि यह समाज को किस तरह से प्रभावित कर चुकी है । अब जतियों की पहचान राजनीतिक दलों के साथ होने और न होने से है और हर चुनाव के बाद प्रभावकारी जाती का बदल जाना और नहीं बदलना ही केंद्र में रहने लगा है । अब छठ में होने वाले नाटक में किस जाती के लड़के कुर्सी पर बैठ कर नाटक देखेंगे और दारू पी कर हँगामा करेंगे ये भी चुनाव से तय होने लगा  है । रेणु नहीं हैं साहित्य में पर जातीयता है ही ... उनकी कहानियों में जो आया आया अब नए संदर्भों में कहानियाँ लिखने का समय है ।    

जनवरी 03, 2013

असफलताओं के भारी प्रतिशत के निहितार्थ

इस समय बहुत कुछ नजरों के सामने से गुजर भले ही जाए पर उस पर विचार करने का समय नहीं मिल रहा है । लेकिन चीजें और घटनाएँ बदस्तूर जारी हैं । समाज अपनी गति से चलता है और उसी तरह से अपने आसपास होने वाली घटनाएँ । अभी हाल ही में सीबीएससी द्वारा आयोजित  शिक्षकों की पात्रता  परीक्षा CTET का परिणाम घोषित हुआ । कुल 7,96000 अभ्यर्थियों में से मात्र 1% ही उत्तीर्ण हो पाये । यह वही परीक्षा है जिसकी उत्तीर्णता के आधार पर केंद्र और कुछ राज्य सरकारों के विद्यालयों में शिक्षकों की नियुक्ति की जाती है ।

इस परिणाम का विश्लेषण करें तो सबसे पहले ये ही नजर आता है कि शिक्षक बनने वाले इतने अभ्यर्थी इस योग्य भी नहीं कि पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण कर सके । और देश की शिक्षा की गुणवत्ता का क्या हाल है ? जब से इस परीक्षा की शुरुआत हुई तब से उत्तीर्णता का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं रहा है ।  इसे शिक्षा व्यवस्था के लिए खतरे की घंटी मानने वाले बहुत से लोग हैं । और लोगों ने तो बी एड डिग्री देने वाली संस्थाओं पर सवाल उठाए हैं ।
एक तरह से देखा जाए तो ये सब ऊपरी तौर पर सच हैं लेकिन इसे गहरे रूप में देखे जाने की जरूरत है जो इसके पीछे की तमाम बातों को उघड़ने का मौका देता है ।
मानव संसाधन मंत्रालय ने शिक्षकों के लिए तो इस प्रकार की परीक्षा की अनिवार्यता तो कर दी लेकिन एक शिक्षक बनने के लिए जरूरी गुणों का विकास करने की कोई व्यवस्था हो इसके लिए तैयारी नहीं की । देश में हर साल एक लाख के आसपास लोग बीएड करते हैं और उनसे अपेक्षा यह होती है कि अब वे शिक्षकीय कार्य के लिए तैयार हैं । देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में यह कोर्स साल भर का ही है । इस दौरान एक व्यक्ति शिक्षक बन जाए इसकी संभावना बहुत कम है । वह भी ऐसी दशा में जब आज भी शिक्षक बनना सबसे बाद का विकल्प माना जाता है । जब कहीं भी सफलता नहीं मिली तो शिक्षक बनना भारत में एक सर्व-स्वीकृत विकल्प है । शिक्षा के लिए व्यक्ति को तैयार करने के लिए सबसे पहले तो साल भर का समय बहुत ही कम होता है।  दूसरे इसके लिए जो सबसे जरूरी पक्ष हैं बच्चे उनको समझना बहुत आसान नहीं है ।  निजी एवं राज्य सरकारों के बीएड महाविद्यालयों की बात तो जाने दें केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कराये जा रहे ये पाठ्यक्रम भी बच्चों को समझने लायक समझ पैदा कर सकें ऐसी दशा में नहीं हैं ।

शिक्षक पात्रता परीक्षा के स्वरूप को भी समझने की आवश्यकता है । यह परीक्षा उन सभी बातों की जांच करे जो प्रशिक्षण के दौरान सीखे गए हैं इसकी संभावना नहीं है । इसमें अब तक  कुछ खास विषयों पर ही फोकस रखा गया है जैसे गणित , विज्ञान एवं समाज विज्ञान । इन विषयों के वस्तुनिष्ठ प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं जिसके आधार पर ये कहा  जाए कि अभ्यर्थियों की समझ की जांच भी हो गयी होगी वह सही नहीं । इससे ज्यादा से ज्यादा उनके  रटंत ज्ञान को परख लिया जाता है । हमारे शिक्षा संस्थान अपनी अपनी जटिलताओं में ग्रस्त होकर अन्य विषय की ओर देखने की जहमत भी नहीं लेते । कल्पना करना कठिन नहीं है कि 10वीं में यदि किसी ने गणित पढ़ना छोड़ दिया है और 6-7 साल बाद उससे इस परीक्षा में गणित के प्रश्न पूछे जाएँ तो किस प्रकार उत्तर कर पाते  होंगे !

इस परीक्षा ने एक तरह से कोचिंग संस्थाओं के लिए नए रास्ते खोल दिये । जिस परीक्षा में फेल होने का प्रतिशत इतना ज्यादा हो उसमें सफल होने के लिए कोचिंग का रुख करने वाले छात्रों की संख्या का अनुमान लगाना भी कठिन है । हर छोटी बड़ी जगह पर इसकी तैयारी कराई जाने लगी है । आए दिन नयी संस्था के इस क्षेत्र में उतरने की सूचना दीवारों पर चिपके उनके पोस्टर से मिलती है । यहाँ एक बात यह ध्यान देने की है कि इतनी बड़ी संख्या में तैस्यारी करने वालों के आने के बाद भी बहुत कम लोगों का सफल होना इन संस्थाओं की कार्यप्रणाली के साथ साथ इनके औचित्य पर भी प्रश्न चिन्ह लगता है ।

इस परीक्षा में असफलता को केवल  छात्रों की असफलता कह पाना कठिन है । यह देश में सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था और उसके निर्धारकों की असफलता ज्यादा है । क्योंकि आनन फानन में बिना जरूरी अवसंरचना के इस प्रणाली को लागू कर दिया गया। यह तय करने की जरुरत नहीं समझी गयी कि देश भर में शिक्षा की सरंचना एक  सी नहीं है तो एक से प्रश्न कैसे पुछे जा सकते हैं । दूसरे रटंत प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देकर कोई व्यक्ति शिक्षक बनने के योग्य हो गया यह क्यों मान लिया गया ? शिक्षक बनने के लिए जरूरी अभिरुचि का अभाव भारत के शिक्षकों में आम है क्योकि यह केवल ज्ञान का नहीं बल्कि व्यवहार और बारीक मानवीय समझ एवं संवाद आदि जरूरी स्किल का क्षेत्र है जो अपने देश में ज़्यादातर मामलों में न ध्यान  दिये जाने के कारण विकसित ही नहीं हो पाते । ऊपर से इस क्षेत्र का बहुत कम बाजार भाव आरंभ से ही किसी को अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाता । जब अंतिम विकल्प के रूप में इसे चुना जाता है तब तक व्यक्ति अपने को खास तरीके से ढाल चुका होता है फिर उसे साल भर में शिक्षक बनाना किसी के लिए टेढ़ी खीर है । पक्के घड़े पर मिट्टी का  चढ़ना सरल नहीं है ।

इस परीक्षा में इतनी बड़ी मात्रा में असफलता विद्यार्थियों को तैयार करने वाली हर संस्था पर प्रश्न उठाती है जिनसे गुजर कर वे रोजगार पाने की पंक्ति में खड़े होते हैं । वहाँ न तो अंतरानुशासनिक होने का अवसर है, न ही प्रश्न उठाने का और न ही अलग प्रकार से सोचने की । बीएड कराने वाले संस्थान सिरे से आज की आवश्यकताओं के अनुरूप छात्र तैयार करने की दशा में नहीं हैं । बड़े बड़े संस्थान जो तय किया जा चुका है उसी पर चल रहे हैं । एक तो शिक्षकों का अभाव है और योग्य शिक्षक तो और बहुत कम हैं । ऐसे में सारी ज़िम्मेदारी एक छात्र पर ही रहती है और वह भी गिरते संभालते कुछ कुछ करता ही जाता है । 

दिसंबर 23, 2012

अब यहाँ किताब नहीं मिलते .....

दिल्ली में रहते हुए एक बात की लत सी लग गयी वो थी किताबें खरीदने की । 
मुहल्ले की दुकान बुक पॉइंट से लेकर हर बड़ी और प्रसिद्ध जगह पर किताबों की दुकानों ने न सिर्फ किताबों के लिए ललचाया बल्कि प्रभावित भी किया । एक बार की बात है , मैं और विकास कमरा छोड़ने वाले थे और चाह रहे थे के मुखर्जी नगर में रहने चले जाएँ । कमरा भी मिल गया था और सबकुछ तय भी हो गया था फिर विकास ने कहा के मुखर्जी नगर में कितनी किताबों की दुकानें हैं , ये तो हमारा खर्चा बढ़ा देंगी ! अब सोचते हैं तो लगता है के कितनी मामूली सी बात पर हमने मूखर्जी नगर में रहने का विचार त्याग दिया था लेकिन उस समय जब घर दिल्ली में रह कर तैयारी करने के लिए 2000 रूपय महीने के मिलते थे उनमें से यदि बहुत से रूपय किताब-पत्रिकाओं में ही चले जाएँ तो खाने का संकट आना लाजिमी था । और अच्छा किया कि नहीं गए मुखर्जी नगर, यहीं रहे और पैसे बचा कर किताबों पर लगाए । 

किताबों के मामले में  दिल्ली की स्थिति हमारे शहर से अलग थी । जहां सहरसा में अधिकतम इंजीनियरिंग की तैयारी की किताबें ही मिलती थी वहीं यहाँ पर अलग अलग रुचियों और स्वाद की किताबें । किताबों के स्वाद लेने के बारे में कृष्ण कुमार याद आते हैं पर उनकी बात कभी और .... 
कुल मिला कर सहरसा में रेलवे स्टेशन ही एकमात्र स्थान था जहां साहित्य से संबन्धित कुछ किताबें मिल जाती थी । तमाम सीमाओं के बावजूद सहरसा रेलवे स्टेशन पर बैठकर किताबें पढ़ने का अलग ही आनंद होता था । कितनी बार तो टी टी से झड़प हुई थी । फिर भी सारी किताबें वहाँ नहीं मिलती थी । मैं जब दिल्ली आ गया था तो दो तीन बार मित्र मिथिलेश जो आज एक नामी युवा कवि हैं उनके लिए यहाँ से किताबें भेजी क्योंकि सारी किताबें वहाँ नही मिलती थी । बहरहाल किताबों के मामले में दिल्ली ने न सिर्फ अवसर ही दिये बल्कि एक रुचि भी जगाई ...यहाँ समय समय पर होने वाले पुस्तक मेलों ने तो लगभग हर इच्छा पूरी करने की ठान रखी थी । और ऐसा ही किया कई बार यमुना विहार की उस दुकान ने जहां पुरानी किताबें आधी कीमत पर आज भी मिल जाती हैं । लेकिन दरियागंज में लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार ने खासा निराश किया वहाँ हर बार वो किताबें नहीं मिली जो लेनी थी । 

इस बीच एक लंबा अरसा गुजर गया है , यमुना विहार का बुक पॉइंट बंद हो गया । मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में चलने वाली दुकान भी लगभग उसी समय बंद हो गयी । जिस मुहल्ले में रहता हूँ वहाँ भी हमारे शहर सहरसा की तर्ज पर अब केवल प्रतियोगिता की तैयारी करने वाली किताबें ही मिलती हैं । मुखर्जी नगर की बहुत सी किताब की दुकानें बंद हो गयी अब वहाँ फैशनेबल कपड़ों और खाने की दुकानें आ गयी हैं । इधर कोढ़ में खाज की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय में चलने वाली किताब की दुकान को विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा बंद करा दिया गया है वहाँ कुछ नया खुलने वाला है और कहा जा रहा है कि किताब की उस दुकान के लिए अन्यत्र कोई जगह उपलब्ध कराई जायी जाएगी । ये दौर एक साथ ही आया है ... हमले किताबों पर ही हो रहे हैं । यूं ऊपर से देखने पर यह कोई बड़ी बात नही लगती लेकिन किताबों का जिस तरह से विचारों की मजबूती , उनके निर्माण एवं परिवर्तन में योगदान रहता है उसे देखते हुए ये सब एक सोची समझी प्रक्रिया ही लगती है और एक हमला भी । किताबों का व्यवसाय बहुत मुनाफे का व्यवसाय भी नहीं है कि इसमें बहुराष्ट्रीय कंपनी आए और इसका पुनुरुत्थान हो । इस लिहाज से देखें तो हम काफी आगे बढ़ चुके हैं और विचारों की खुराक हमारी किताबें छुट रहीं हैं । 

कुछ दिनों पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग के एक पुस्तकालय कर्मी से बात हो रही थी , उन्होंने कहा कि विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से कहा जा रहा है कि अब खर्च में कटौती के तहत मुद्रित शोध पत्रिकाएँ खरीदने के बदले 'इ-जर्नल' की खरीद सुनिश्चित की जाए । यहाँ समस्या ये है कि विभिन्न विभागों में जीतने छात्र पढ़ते हैं उतनी मात्रा में कम्प्यूटर नहीं हैं जिससे कि सभी छात्र सुगमता से इ-जर्नल पढ़ सकें । और सब के पास कंप्यूटर भी नहीं है कि उसे घर में बैठ के ही पढ़ा जा सके । 
दुकानों के बंद होने और शिक्षा संस्थाओं के बदलते नजरिए ने पढ़ने की संस्कृति को प्रभावित किया है । इसका प्रभाव दिल्ली में बहुत गहरा रहा है । एक किताब की जरूरत हो तो अब कोई निश्चित ठौर के नही रहने की दशा में सीधे प्रकाशन से लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है ... 
ऐसे समय में एक सुबह जब एक मित्र ने फोन पर अपने विभाग में पुस्तकालय के लिए समाज विज्ञान की किताबों के बारे में नाम बताने को कहा । आश्चर्य कि कोई विभाग अब भी ऐसा सोचता है ... पर ये विभाग दिल्ली नहीं पंजाब के एक जिले में है !

दिसंबर 19, 2012

समाधान मोमबत्ती जलाना भर नहीं है .....

पूरा भरोसा है कि जिस  समय में हम जी रहे हैं वह बहुत जल्द भुला दिया जाएगा । जिस शिद्दत और घनत्व से हम आज ये सब महसूस कर रहे हैं वह काफ़ूर होना है और इस घटना को बहुत तेज़ी से बदलते वक़्त के हाथों में दे देना है । फिर ऐसी ही घटना बिलकुल नयी लगेगी , लगेगा ऐसा तो कभी हुआ ही नही था , ये तो पहली बार हो रहा है । एक शर्म , कुछ न कर पाने की निरीहता और प्रतिक्रिया देने की सहज प्रवृत्ति और भावनात्मक कौतुक से मिली जुली गरम हवा बह रही है । इस सर्दी में भी इस समूहिक शर्म के समय शरीर का पसीने से तर हो जाना स्वाभाविक है । इसके साथ ही तकनीक एवं सामाजिक संचार भी उसके लिए या किसी भी अन्य घटना के पक्ष में कुछ करने का विकल्प दे रहा है और इसी का गवाह बन रहा है मोमबत्ती से रौशन इंडिया गेट । पर यह सब किसलिए ? कब तक ?


बलात्कार आज एक आम फहम शब्द और एक सुबोध सी संकल्पना लगती है क्योंकि यह सूरज उगने जैसी घटना बन गयी है । आज इस शब्द को बच्चों के सामने भी बोला जा सकता है वो भी इसका अर्थ जानते हैं और हम ये कहते हैं कि बच्चे अब मासूम नही रहे । अर्थात यह शब्द आए दिन आए दिन होने वाली घटना से  प्रचलन में आने कर एक अलग सामाजिक स्वरूप को समझा रहा है । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह कोई बहुत बड़ी बात हो ऐसा नही है लेकिन समाज के लिए इस शब्द का बहू-प्रयोग एक खतरे की घंटी है । यह भारतीय समाज की कोई बहुत उम्दा तस्वीर पेश करता हो ऐसा नही है ।

ये एक नयी घटना नही है और न ही बहुत दिनों बाद घटी है । लेकिन इस पर यह आक्रोश नया है । यह क्यों है इसकी व्याख्या के लिए यह समय नहीं है । बहुत सी घटनाएँ हमारे यहाँ होती रहीं हैं इस से भी वीभत्स पर जो खबर नही बन पायी वह रह गयी दाब कर । और जो खबर बनी भी जिस पर बहुत हाय तौबा मची भी वो भी किसी अंजाम पर पहुँचने से पहले ही दफन हो गयी । ऐसे सैकड़ों मामले हैं जिनकी सुधि लेने वाला कोई नहीं है । किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की हालांकि यह एक जल्दबाज़ी है पर ऐसा कहा जा सकता है कि हम बहुत जल्दी भूलने वाले डरपोक लोग हैं जो अपनी दो रोटियाँ बचाने की जुगत में किसी मुद्दे पर टिके रहने से डरते हैं फिर जितना डरते हैं उतना डराया जाता है । डराने की प्रक्रिया और इसके तौर तरीके स्थान, काल ,वातावरण और व्यक्ति  के अनुसार होते हैं । हमारा समाज डरने वाले  और डराने वाले के दो स्पष्ट विभाजनों में लिपटा है और निश्चित तौर पर यह विभाजन आर्थिक-राजनीतिक-आपराधिक शक्ति और इसकी हीनता से जुड़ता है । आज जो प्रदर्शन कर रहे हैं वे कौन लोग हैं -घर से खाये हुए ही न ! पर ये बस खाये हुए हैं इनकी इससे कोई बड़ी शक्ति हो ऐसा नही है । शक्तिशाली को पता है कि ये बहुत से बहुत एक जगह जमा होकर प्रदर्शन कर सकते हैं, और वह भी कुछ ही समय के लिए । बस नज़र रखने और चुप्पी साधने से काम चल जाता है सरकारी तंत्र का । दुर्भाग्य से इनमें से कोई तंत्र में जा नही पाता और जो जाता है वो काजल की कोठरी से ही आता है !
बलात्कार एक सामाजिक बुराई है तो इससे निपटने के लिए समाज में ही जाना होगा । ज़ाहिर है यह न सरकार कर सकती है , न पुलिस और न ही न्याय व्यवस्था । इस घटना पर जितनी तीव्र और तीखी प्रतिक्रिया हो रही है उसका एक चौथाई भी यदि इस विषय पर सूचिन्तित ढंग से काम करे तो बात बन सकती है ।

आज जो भी बातें हो रही हैं उससे लगता है कि सुराज आ गया है लोग सचेत हो गए हैं , पुरुष आज से बल्कि अभी से स्त्रियॉं को बराबरी की दृष्टि से देखेंगे  जिसने भी इसको तोड़ने की कोशिश की उसे राष्ट्र -राज्य से कड़ी से कड़ी सजा मिलनी तय है , सोशल मीडिया पर जो कवितायें लिखी जा रही हैं उससे पीड़ितों में उत्साह का संचार होगा और वे हिम्मत से उठ खड़ी होंगी । पर क्या ये इतना सरल है ? सबसे पहले तो उसके घर से निकलने को ही लीजिये । माँ - बाप क्या ताना देने का एक भी मौका छोड़ेंगे जब वो कहीं भी अकेले चली जाएगी ? जहां जाएगी वहाँ कितने संवेदनशील लोग हैं जो उसकी परिस्थिति को समझेंगे ? उसे कौन नौकरी देगा ? किससे उसकी शादी होगी ?

ये सब बताता है कि यह समय इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाने का या प्रदर्शन कर आक्रोश और ऊर्जा को खत्म करने का नही है बल्कि किसी और बात पर विचार करने से पहले समाज में स्त्री - पुरुष की बराबरी लाने या कम से कम उसे एक जीव समझने के लिए जरूरी काम करने का है । यह घटना केंद्र में हो पर यह केवल आम आंदोलन या प्रदर्शन का आधार बन कर न रह जाए ।
यह सब इतना सरल नहीं है क्योंकि लंबे समय से पुरुष वाद में समजीकृत मन भले ही वह स्त्री का ही क्यों न हो बाहर आने से डरता है । ऐसे में बहुत ज्यादा काम करने की जरूरत है ।  बलात्कार की घटना से पहले की जो बहुत सी घटनायें होती हैं उन्हें नज़रअंदाज़ करने से बचना होगा । हमारे यहाँ कहावत है ' लत्ती चोर , पत्ती चोर तब सीनियर चोर ' । आए दिन मेट्रो, बस, महाविद्यालय ,विद्यालय , सड़क , मैदान आदि जगहों में हम कितनी जगह स्त्रीयो को देते  हैं ? बाहर जाने दीजिये घर की संरचना में ही क्या हम ऐसा कर पाते हैं ? ऐसा करने वालों में लगभग हम सभी आते हैं और इन्हीं 'हम ' मैं बहुत सारे इन प्रदर्शनों में भी हैं , टिप्पणीकारों में भी हैं  । हमने स्त्री की अस्मिता को जिस तरह से समझा और आत्मसात किया है वही त्रुटिपूर्ण है । वह बताता है कि जो है पुरुष है, स्त्री कुछ  है ही नहीं । यही गैर बराबरी उन पर अधिकार करने के लिए प्रेरित करती है बल्कि हिम्मत देती है ।
एक आंदोलन में चले जाने भर से काम बनने वाला होता तो अब तक बहुत से हो चुके और बहुत से और होते रहेंगे । जरूरी अपने आस पास स्त्रियॉं को स्पेस देना है ,उनके अस्तित्व को स्वीकार करना  है । वरना इंडिया गेट या मुनीरका में प्रदर्शन कर के लौटते हुए मेट्रो के' महिला बोगी ' के पास हम खड़े होते रहेंगे और रात को उन सब को याद कर अपने- अपने लिंग सहलाते रहेंगे ! 

दिसंबर 15, 2012

नाटक देखते देखते ...

ये हाल ही में अलग अलग समय पर देखे गए नाटकों कुछ कुछ लिखा गया है । इसमें कोई परस्पर संबद्धता हो ऐसा न मैं दावा करता हूँ और न ही ऐसा है । ये शायद नाटकों को मैं जितना समझ पाता हूँ उतना ही बताता है ।


1... शायर शटर डाउन ..........  त्रिपुरारी शर्मा द्वारा निर्देशित नाटक । आरंभ में लगा कि क्या देख रहा हूँ, क्या कहा जा रहा है .... और एक बार को ये भी लगा के टीकम जोशी बांध नही पा रहे हैं दर्शकों को । फिर चीजें जुड़ती गयी एक से एक ... ये दरअसल अकेलेपन, लोगों के बीच बढ़ती दूरियाँ , बढ़ते अपरिचय का नाटक था । इसीलिए एक पात्रीय भी था । और ज़ाहिर है इस अकेले पन को दिखाने के लिए शहर ही केंद्र में होता और था भी । शहर क्या इतनी ही अकेली जगह होती है ? माना कि शहर में अपरिचय है और दूरियाँ हैं पर क्या ये दूरियाँ इस वजह से नहीं हैं के हम अपनी चीजें जहां से छोड़ के आए उस जगह को भूल नही पाये ? इसी शहर में यदि कोई मुझे नही पहचानता है तो मैं ही कितनों को जानता हूँ ? मैंने ही कितनों की ओर हाथ बढ़ाए हैं ? शहर में जो लोग वर्षों से रह रहें हैं वो तो कभी इस तरह की शिकायत नही करते क्योंकि उनका जो है यहीं है । इसलिए अकेलेपन के लिए शहर को जिम्मेदार बनाना उचित नही प्रतीत होता । और जो व्यक्ति का अकेला पन है उसे तो कहीं भी महसूस किया जा सकता है चाहे वह कितना ही प्यारा गाँव क्यों न हो ।   आजकल के बड़े निर्देशकों में एक चलन देखता हूँ -वे एक पात्रीय नाटक कर रहे हैं और कलाकार ला रहे हैं नामचीन ... आज थे टीकम जोशी । टीकम टीवी के प्रसिद्ध नाम हैं । प्रसिद्ध कलाकार अपने नाम पर बहुत भीड़ खींचते हैं वरना भूमिका के साथ तो निर्वाह कोई भी माँझा हुआ कलाकार कर देगा ।
नाटक देखते देखते कई बातें याद आ रही थी.... ;आलेख कमलेश्वर की कहानी 'खोयी हुई दिशाएँ ' से मेल खाता हुआ सा , टीकम के अभिनय में मिस्टर बीन की छाप , और अकेलेपन का मजा लेने वाले हिस्सों में अंग्रेज़ लेखक 'जी के चेस्टर्टन' के लेखों का मज़ा । पर इन सब को मंच पर निभा जाना अपने आप में प्रशंसनीय है । टीकम जोशी ने मंच पर जो प्रतिभा दिखाई वो उनके उन सब हिस्सों से अलग थी जो अबतक टीवी पर देखी या फिर हालिया प्रदर्शित तुगलक से बिलकुल अलग ....
वैसे एक बात जो कहनी जरूरी है वो यह कि ये नाटक बीते हुए समय का लग रहा है... भले ही इसमें हमारे समय से संवाद करने के लिए कुछ दृश्यों को डाला गया है पर इस नाटक का अकेलापन और अपरिचय काफी पुराना लगता है । लगता है हम बिलकुल पूर्व उदरवादी चरण के शहरीकरण में चले गए हैं जहां नए प्रकार की बसावट है , लोग एक स्थान छोड़ के दूसरी जगह आए हैं और यह नयी नयी व्यवस्था अभी पचि नही है । तब से एक या दो नयी पीढ़ी जरूर आ गयी हैं फिर भी अकेलेपन को समझने के हमारे औज़ार वही पुराने ही हैं ।  अब  ये अकेलापन कई गुना बढ़ गया है और अकेलेपन की कोई एक ही वजह नही रही  , अब तो यह  बीमारियों की कोटी में  आ गईं है ... अब तो हम पार्क में बैठकर आखबार पढ़ने से भी बढ़ चुके हैं .... वह अकेलापन दूसरा था और आज का दूसरा है । पहले काम के साथ तालमेल न बैठा पाना था अब अब काम से फुर्सत नहीं है अकेलेपन तक पर विचार करने को ।
इसके बावजूद नाटक में गज़ब की कसावट थी एक मजबूत आलेख और दमदार अभिनय जो नाटक के लिए जरूरी होता है  ...

2 अंत में पुरानी रंगभाषा ही काम आई ! लगभग एक सप्ताह में अनुराधा कपूर की दूसरी प्रस्तुति थी ।  उनके निर्देशकपने से ऊब जाने से बचाने के लिए अभिनय किया सीमा विश्वास ने !
सीमा के अभिनय शैली के विस्तार ने पहले कुछ ही मिनटों में जो बाँधा कि भई मैं तो निकल नहीं पाया !
गिरीश कर्नाड के टैगोर के नाट्यलेखन पर लिखने के बाद उनकी कथा 'जीवितो मृतो' पर जैसे सोच लिया गया था कि उनके नाट्य लेखन को महान साबित करना है । इस लिहाज से टैगोर चुने गए शायद ! नाट्य रूपांतरण गीतांजली श्री का था । टैगोर की एक संपूर्ण समझ से किया गया रूपांतरण लगा । और सीमा ने अपने हिसाब से जो इम्प्रोवाइज उससे नाटक किसी काल विशेष का नहीं बल्कि काल से ऊपर उठकर वर्तमान के लिए भी बन कर आ गया । फिर लगा कि  कोई मरता है तो क्या सब छुट जाता है ।
हालाँकि कितना भी उम्दा कलाकार हो सुना है निर्देशक को फिर भी बहुत मेहनत करनी पड़ती है तो इस सुनी हुई बात पर अनुराधा ने बहुत मजबूत काम किया जिसमें वाकई कोई नई रंगभाषा घने की जिद न थी ।यहाँ नयी रंग भाषा का जिक्र इसलिए कि हाल ही में अनुराधा कपूर ने रानवि के छात्रों के साथ एक चलता फिरता नाटक तैयार किया जो लगभग आम जन जीवन की तरह जीवंत लगे ऐसी  सोच के साथ बना हो पर वह वैसा नही था । उसे नयी रंग भाषा कह कर प्रचारित भी किया गया था ।  'सीमा विश्वास' ने साबित किया कि नाटक केवल कथ्य और मंच सज्जा और निर्देशकों के तौर तरीके ही नही हैं  बल्कि उससे अलग वह एक कलाकार केन्द्रित विधा भी है जिसमें अंततः कलाकार को ही दर्शक से संवाद बिठाना है ।  सीमा का रेंज गजब है बॉस । जब जो चाहा दर्शक को महसूस कराया ! कभी कभी वहाँ भी और बाद में भी लगा कि उनको कोई निर्देशक क्या निर्देशित करेगा ! भाव समझा दो और कर लो एक सशक्त नाटक तैयार ।
टैगोर की कथा नहीं पढ़ी पर अब लगता है वह सामने ही तो घटी थी

3.हालाँकि ये एक खुश होने वाली बात है कि हिंदी का एक कवि रंगमंच के क्षेत्र में हस्तक्षेप की कोशिश कर रहा है लेकिन इसे हस्तक्षेप कहना उचित नहीं होगा !
अभी अभी निकला हूँ व्योमेश शुक्ल के रूपवाणी समूह की 'कामायनी' पर प्रस्तुति देख कर । कविता एक अलग विधा है और निर्देशन दूसरी विधा और ऐसा कहना कोई बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन नहीं है । व्योमेश अच्छे कवि हो सकते हैं परन्तु उनकी आज की नाट्य प्रस्तुति संतुष्ट करने वाली नहीं थी ! एक तरह से मैं इसे नाटक के दायरे में उनका प्रवेश ही मानता हूँ इस लिहाज से बहुत कसी हुई प्रस्तुति की अपेक्षा नहीं थी लेकिन ये कॉलेज स्तर के वर्कशॉप के उपरांत का अभियान लगा !
कामायनी का पाठ एक गंभीर पाठ है और उसकी मासूम और चंचल प्रस्तुति पाठ की गहनता से कभी तालमेल नहीं बिठा पायी । कविता का मंचन कठिन नृत्य अभ्यास और विस्तृत निर्देशकीय क्षमता की माँग करता है ताकि कथ्य को सम्यक रूप से पहुँचाया जा सके ! यदि ऐसा न हो रहा हो तो विभिन्न नाट्य सामग्री का सहारा लिया जा सके ! पर ये न देख पाया !
लड़कियों ने यथासंभव बेहतर देने की कोशिश की पर स्वयं व्योमेश ही कमजोर कड़ी साबित हो रहे थे । कुछ और नहीं तो पंक्तियाँ किसी अच्छे रिकॉर्डिंग स्टूडियो में रिकॉर्ड करा लेते ! आखिर पैसे की कौन सी कमी है ।
इन अकादमियों के लिए कार्यक्रम करने वाले समूह की चयन प्रक्रिया क्या है इसे सार्वजनिक करने की आवश्यकता है ।

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...