भारत की राजनीति में ऐसा बहुत कम हुआ है कि हाई प्रोफाइल लोगों पर आरोप लगा हो, वो साबित हुआ और उस पर ठीक ठाक सज़ा भी हो गयी हो । यूं अपने देश की राजनीति में लोगों पर आरोप लगना कोई नयी बात नहीं ! एक से लोगों पर लगे हैं पर हम जिस व्यवस्था में जीते हैं वो अपने बहुत से पेंचो - खम में इतने अवसर समेटे रखते हैं कि ये आरोप साबित नहीं हो पाते हैं । जिनकी सार्वजनिक बेइज्जती होनी चाहिए या हो वो पूरे एहतराम के साथ पेज - थ्री के भोजों में तस्वीरें खिंचवाते रहते हैं । इस मामले में आगे जो भी हो पर एक रास्ते जैसा तो नजर आता ही है ।
फिल्म 'जाने भी दो यारों' कुछ खास पसंद नहीं आती मुझे । इसलिए नहीं कि उसकी बनावट में कोई कमी हो या कि किसी का भी अभिनय किसी भी लिहाज से कमजोर हो बल्कि इसलिए कि फिल्म में सच्चाई की जीत नहीं होती । हालांकि ऐसा मानना भी एक तरह का अतिवाद है कि हर बार सच ही जीते पर भारतीय समाज में कितना भी निरपेक्ष होकर रहा जाए इसकी मान्यताएं जो प्राथमिक समाजीकरण के दौरान हमें मिलती हैं वो सच की ही जीत की अपेक्षा मन में भरती है । सच के संबंध में सुनता बहुत आया हूँ कि सच बहुत मजबूत होता है , सच को कोई छिपा नहीं सकता आदि । पर आज ये लगता है कि जब ये धारणाएँ बन रही होंगी या कि आकार ले रहीं होंगी तब बहुत सरल जीवन रहा होगा और लोग सच को दबा देने का मजा नहीं जानते होंगे या फिर वो अपराध के इतने आदि नहीं हुए होंगे कि अपराध को एक सहज वृत्ती के तौर पर देखें । अपराध को लेकर आई सहजता ने सच की जीत संबंधी हमारी मान्यता को सिरे से खारिज कर दिया है ।
खारिज हो जाना कोई गलत बात नहीं है पर सच का खारिज हो जाना और उसका दब जाना जिस प्रकार से सामाजिक जीवन को प्रभावित कर रहा है वो समान्य सामाजिक स्वास्थ्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है । फिल्म जाने भी दो यारों में जो सच था वो सामने नहीं आ पाया या इस तरह से कहें कि उसे बाहर नहीं आने देने के लिए जो तिकड़म किए गए उसने अपराध के विस्तृत आयाम को समझने का अवसर दिया । अपराध के इतर दुनिया बहुत छोटी जान पड़ती है , जो है वह अपराध में ही समाहित जान पड़ता है । और सच्चाई मुझे आयुर्वेद की तरह लगती है जो लोगों द्वारा प्रयोग में नहीं लायी जा रही और जो भी कहीं थोड़े बहुत जिद्दी लोग होंगे उनको इससे फायदे के बदले नुकसान ही होता होगा ।
कहीं पढ़ा था कि भक्ति आंदोलन के दौरान भक्तों के द्वारा भक्ति का रास्ता चुनना इसके लोकतान्त्रिक होने के कारण था । लोकतान्त्रिक इस माने में कि इसे कोई भी कर सकता था इसके लिए किसी बड़े तामझाम की आवश्यकता नहीं थी । उसी तरह सच भी एक लोकतान्त्रिक अवधारणा है क्योंकि यह सब के लिए सहज रूप में उपलब्ध है जहां इसके दबने की बात आती है वह इस लोकतन्त्र के हनन से ही जुड़ती है । कोई न कोई अपने विशेषाधिकार की या तो प्राप्ति के लिए या उस विशेषाधिकार को बनाए रखने के लिए इस समान्यता को तोड़ता है । सच के इस तरह बाहर हो जाने का नुकसान आम आबादी का होता है ।
चौटाला पिता-पुत्र दोषी साबित हुए । ऐसा नहीं है कि इनहोने बात दबाने की कोशिश नहीं की होगी परंतु इस बार बात दब नहीं पायी या यो कहा जाए कि बात दबाने की कोशिश में कोई न कोई बड़ी कमी रह गयी अन्यथा बड़े लोगों पर हाथ डालना कहाँ मुमकिन हो पाता है आज के समय में । अभी हाल की ही एक घटना है । सहरसा बिहार में एक बलात्कार हुआ । अखबारों में खबर आई कि बलात्कारी बाहुबली आनंद मोहन का खास था उसी दौरान एक अखबार में उसके स्थानीय संपादक के हवाले से एक रिपोर्ट छपी जिसमे अनाद मोहन का बलात्कारी पर हाथ होने संबंधी सबूत पेश किए गए थे । अगले दिन उसी संपादक ने लिखा कि आनंद मोहन ने उसे फोन किया और हनक पूर्वक कहा कि उस व्यक्ति ने बलात्कार नहीं किया । ध्यान रहे कि आनंद मोहन सहरसा जेल में उम्र कैद की सजा काट रहा है और इस पूर्व सांसद पर एक कलेक्टर की हत्या के आरोप में निचली अदालत में फांसी तलवार भी लटक रही है । यह नेताओं की पहुँच है कि जेल तक में उसके लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध है और वो मामले को प्रभावित करने में कोई कसर नहीं छोडते ।
चौटाला के मामले ने हाल में जब से जोड़ पकड़ा है तब से उनके समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं । ये प्रदर्शन एक अलग ही ताकत से रु-ब-रु करा रहे हैं । जनसमर्थन समान्यतया ऐसा आभास देता है कि बहुत से लोग किसी खास बात या व्यक्ति के समर्थन में हैं । समर्थन सहमति और समर्पण आदि से अलग अर्थ रखता है । परंतु यहाँ जो प्रदर्शन हो रहे हैं वो समर्थन तक तक सीमित नहीं हैं उनका अदालत परिसर में बम फोड़ना , तोड़फोड़ करना समर्पण की सीमा तक है । आज के सामाजिक स्वरूप में ये समर्पण दो बातों की ओर इशारा करता है । लोगों ने आँखें मूँद रखी हैं उन्हें ये नहीं दिखता कि शक्तिशाली राजनेता की लाख कोशिशों के बावजूद आरोप साबित हो ही गए । अब भी उनको अपराधी न मानना दूसरी बात तक ले जा जाता है जिसमे आए दिन पैसे से भीड़ जुटाने वालों के कई किस्से देखने सुनने को मिलते हैं । राजनीति एक व्यवसाय है जिसमें तमाम तरह के काम आते हैं उसी के अंतर्गत भीड़ का भी व्यवसाय बहुत जोड़ पकड़ रहा है इन दिनों । यहाँ आकर राजनीति से कुछ लाभ तो भीड़ में यहाँ वहाँ जाने वाले व्यक्ति को तो है ही ।
भर्ती घोटाले हमारे देश में आए दिन होते रहते हैं । उत्तर प्रदेश का पुलिस भर्ती घोटाला , बिहार का लोक सेवा आयोग घोटाला आदि तो बड़े घोटाले हैं अपने देश में तो एक एक सीट के लिए जिस तरह से पैसे लिए जाते हैं वो कभी प्रकाश में नहीं आते । सेना, पुलिस में जवान की भर्ती के लिए , क्लर्क बनने के लिए , शिक्षक बनने के लिए हर जगह तो पैसे लिए ही जा रहे हैं। बस सारा मामला ऊपर ऊपर साफ ही नजर आता है । ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को पता है कि रोजगार की भयंकर कमी वाले देश में सरकारी नौकरी के लिए एक व्यक्ति कोई भी कीमत दे सकता है । और यही उनके फलने फूलने का राज है ।
अभी 10-15 दिनो पहले की बात है एक दोस्त ने कहा था कि हरियाणा में उसका प्राइमरी टीचर का इंटरव्यू है उसका भाई पार्षद है जो अजय चौटाला से मिला देगा फिर तो उसकी नौकरी पक्की है उसके तुरंत बाद शादी कर लेगा .... !
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