सितंबर 09, 2021

संस्थानों की रैंकिंग या नए तरह का सामंतवाद


 


 

अपने देश की शैक्षिक संस्थाओं की रैंकिंग आयी है । उच्च स्थानों पर अधिकांश वही संस्थान हैं जो पहले से ही श्रेष्ठमान लिए गए हैं और खबरों में जगह भी वही बना पा रहे हैं । निचली सीढ़ीयों पर कौन से संस्थान हैं यह जानने की दिलचस्पी किसी की नहीं और वे वहाँ क्यों हैं इसके लिए तो सोचने की ज़रूरत भी नहीं ठहरी ! जबकि देश भर में सबसे ज्यादा विद्यार्थी वहीं नामांकित हैं जिनके बारे में किसी को नहीं जानना है ।

 

हमारे देश की शैक्षिक संस्थाएँ एक सी नहीं हैं । न तो उनका निर्माण एक से मानकों पर हुआ है न ही उनके चालन – संचालन में कोई एकरूपता है । एक ही तरह के नाम वाली संस्था होने पर भी उनमें समानता का अभाव है। मसलन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को लेते हैं । इनकी तर्ज़ पर अलग अलग जगहों पर खूब सारे एम्स खुले लेकिन क्या वे सब दिल्ली वाले एम्स की बराबरी कर पाये ? इसका उत्तर नहीं ही होगा चाहे कोई भी मानक ले लें । यही हाल बड़े बड़े विश्वविद्यालयों के अलग अलग खुले कैंपस के साथ भी है । भारतीय जनसंचार संस्थान के दिल्ली और ढेंकनाल परिसरों का स्तर एक समान नहीं है ।

 

संस्थाओं के निर्माण और उनको बरतने में बड़ी - बड़ी खामियाँ हैं । नाम घोषित कर देने से उनका स्तर नहीं बन जाता । उनके निर्माण में अध्यापक , आधारभूत संरचनाओं , सभी तरह के विद्यार्थियों की ज़रूरत को समेट सकने वाली व्यवस्था आदि यदि वर्षों तक लागू हो तो उनका नाम बनता है । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय एक बड़ा विश्वविद्यालय है आये दिन आने वाली रैंकिंग में उसका नाम ऊपर भी आता है लेकिन क्या उसके वर्तमान स्वरूप को स्तरीय कहा जाएगा ? वहाँ की आज़ाद खयाली ने जो प्रतिष्ठा दिलायी थी उसे भोथरा बना दिया गया , किसी भी पृष्ठभूमि से आने वाले विद्यार्थियों का वहाँ दिल खोलकर स्वागत होता था जो तरह तरह के नियमों के आ जाने से अब उतना प्रभावी नहीं रह गया इसके बावजूद उसका स्थान ऊपर है । यह बताता है कि रैंकिंग के तरीके में अन्य जो भी बातें हों लेकिन सबको साथ लेकर चलने , हाशिये पर खड़े लोगों को बेहतर शिक्षा देने और शिक्षा की सामाजिक ज़िम्मेदारी तय करने वाले मानक नहीं ही हैं । और अगर हैं तो उनकी स्थिति केवल खानापूर्ति करने के लिए है ।

 

बेरोज़गारी की दर , गरीबी रेखा से नीचे रह रहे लोग , साक्षारता की स्थिति , जाति आधारित भेदभाव आदि के आँकड़ों से स्पष्ट पता चलता है कि हमारा समाज हाशिये पर रह रहे लोगों से बना है । लेकिन इसकी बागडोर आभिजात्य चेतना से ओतप्रोत मुट्ठीभर लोगों के पास है । उस चेतना के लिए रेंकिंग ज़रूरी है ताकि वहाँ से आने वाले विद्यार्थी यह चयन कर सकें कि उन्हें कहाँ पढ़ना है और इससे उनकी सांस्कृतिक पूंजी कितनी समृद्ध होगी , कितने ऐसे संपर्क बनेंगे जो जीवन में अलग अलग अवसरों पर काम आएंगे । जबकि हाशिये पर जी रहे परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा प्राप्त करना ही बहुत बड़ी बात है । वहाँ संस्थान के चयन की बात ही नहीं आती और आ भी जाये तो उन महाविद्यालयों , विश्वविद्यालयों को लालसा से देखने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं रह जाता । ऐसी अधिकांश संस्थाओं में अंकों के आधार पर प्रवेश मिलता है अर्थात जिनके ज्यादा अंक होंगे वही उनमें पढ़ पाएंगे बाकी विद्यार्थी कहीं और जाइए ! यह तरीका अपने आप में भेदकारी है । ऊपर से जहाँ परीक्षाएँ होती हैं वहाँ के लिए तैयारी , और तैयारी पर आने वाला खर्च व समय मिलना दुर्लभ है । साथ में उन सस्थाओं की भारी फीस उनके बारे में सोचने से भी रोकती है ।

 

पढ़ने लिखने की प्रक्रिया की बहुत सी मांगें हैं । उनको पूरा किए बिना अच्छे अंक पा जाना सरल नहीं है । विरले ऐसे होते हैं जो तमाम बाधाओं को पार कर बढ़िया अंक हासिल कर लेते हैं । पढ़ने के लिए एकांत , रोशनी की एक व्यवस्था , सहायक पारिवारिक वातावरण उन जगहों पर मिल पाना दुर्लभ है जहाँ दो वक़्त की रोटी का इंतज़ाम पहली प्राथमिकता है । ऐसे गुरुभक्त आरुणिजैसे फ़र्जी प्रेरक किस्सों से काम नहीं चल पाता । तथाकथित अच्छी संस्थाओं में सबके लिए जगह नहीं है इसलिए प्रतिस्पर्धा ही इतनी कड़ी कर दी जाती है  कि विद्यार्थियों के पास स्वयं को दोष देने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है ।

 

हमारे संस्थान एक से नहीं हैं ऐसी स्थिति में एक ही सूत्र से उन्हें जाँचा जाना न्यायसंगत नहीं ठहरता । इस तरह की रैंकिंग उन विश्वविद्यालय और महाविद्यालय हैं उनकी शैक्षिक प्रक्रिया और स्तर पर कोई भी दृष्टि डालने से रोकते हैं , जहाँ वंचित तबके के विद्यार्थी पढ़ते हैं । ऐसे संस्थान ज्यादा हैं , उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या बहुत है लेकिन हमारे लिए रैंकिंग ही सबकुछ है !  

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही वाजिब सवाल। हमें निचले पायदान पर रह रहे संस्थानों को भी देखने की जरूरत है और साथ ही साथ रैंकिंग में जो उच्च संस्थान हैं उनमें क्या क्या आवश्यक सुधार चाहिए या क्या - क्या खत्म हो रहा है( भोथरा ) उसे भी बचाने की जरूरत है।

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