फ़रवरी 23, 2016

कवि की पहुँच





                                                       पढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख्तों को लोग ।
                                                            
                                                       मुद्दत   रहेंगी  याद   ये     बातें   हमारियाँ ।।

मीर ने यह  शेर अपने लिए लिखा था पर यहाँ यह मलयालम कवि ओएनवी कुरूप पर पूरी तरह लागू हो रहा है । उनको गुज़रे हुए कुछ ही दिन हुए हैं इसलिए मुद्दतों याद रहने वाली बात करना बेमानी मानी जा सकती है लेकिन बेमानी है नहीं । मैं केरल का नहीं हूँ । काम भर की मलयालम जानता हूँ पर इतनी भी नहीं कि ओएनवी की कविताओं का सीधे मलयालम में ही आनंद ले सकूँ । मतलब, न तो उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से न ही उनकी कविता से अपना सीधा परिचय रहा । तीन साल यहाँ काम करते हुए कई बार नाम सुना मैंने ओएनवी का लेकिन उनके मरने से पहले तक ज़ेहन ने इस नाम को कोई तवज्जो नहीं दी ।

पहली बार उनके नाम पर ठहरने का मौका  उसी दिन मिला जिस दिन उनके मरने की खबर सोशल मीडिया पर मिली ।  वरना तो हम प्रतियोगिता परीक्षाओं के लिए ही ज्ञानपीठ या साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लोगों के नाम याद रखते हैं । ओएनवी को ज्ञानपीठ मिला था , सर्वश्रेष्ठ गीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था । ये ऐसे पुरस्कार हैं जो राष्ट्रीय स्तर के हैं इसलिए उनका नाम तैयारियों के दौरान गुजरा था जैसे के सच्चिदानंदन का नाम  गुजरा ।

ओएनवी कुरूप को लोग कुरूप नहीं कहते हैं यहाँ । वे यहाँ बस ओएनवी के नाम से जाने जाते हैं । वह ओएनवी जो कवि भी है और गीतकार भी । कवि ओएनवी शायद लोगों की नजरों से ओझल भी हो जाता लेकिन गीतकार ओएनवी तो साहित्य से वास्ता न रखने वालों के भी उपलब्ध था ।

ओएनवी कवि के देहांत के बाद जो मैंने देखा या महसूस किया उसने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया कि एक कवि की पहुँच कितनी हो सकती है या फिर कवि की पहुँच जैसी भी कोई चीज होती है क्या ! उनकी मृत्यु के तुरंत बाद जितने भी मलयाली दोस्त मुझसे सोशल मीडिया से जुड़े हैं सबने उनकी कविता या उनके बारे में कुछ न कुछ जरूर शेयर किया । ऐसा कहाँ हो पाता है हिन्दी में ! हाँ चेतन भगत के बारे में हल्की से हल्की बात जरूर साझा हो जाती है लेकिन हिन्दी के रचनाकार के बारे में नहीं होती । 

मैं हिन्दी साहित्य का छात्र हूँ और हिन्दी के रचनाकारों को मजबूरी , जरूरत और रुचि के तहत पढ़ता रहा हूँ । एक से एक रचनाकार हैं और उसी तरह एक से बढ़कर एक रचनाएँ । लेकिन हिन्दी पट्टी में रचनाकार की स्वीकृति का अभाव दिखता है । बहुत कम लोग हैं जिनकी जुबान पर किसी साहित्यकार का नाम होगा । यदि नाम है भी तो एक प्रेमचंद का । प्रेमचंद सर्वस्वीकृत रचनाकार प्रतीत होते हैं जिसका संदर्भ लेकर माता –पिता अपने होनहार कवि या लेखक संतान को ताना मारते हैं । जब मैं कवि या रचनाकार की पहुँच की बात कर रहा हूँ तो यह सीधे जनता में कवि की पहुँच की बात है साहित्यकारों या साहित्य के छात्रों के बीच नहीं ।

मैं जहां काम करता हूँ वहाँ सुबह सुबह छात्रों के प्रातः कालीन सभा में जाने के दौरान विद्यालय का बैंड दल अपनी कला का प्रदर्शन करता है । लेकिन उस सुबह कोई आवाज़ नहीं आ रही थी । छात्र चुपचाप पंक्तिबद्ध होकर सभागार में जा रहे थे । यह मृत कवि के सम्मान में था और उसी के सम्मान में दो मिनट का मौन भी रखा गया । कवि के लिए इतना सब कहीं होते नहीं सुना या देखा इसलिए अटपटा लग रहा था ।

प्रातः कालीन सभा के उपरांत विद्यालय अपनी गति से चलने लगा । लेकिन जो अध्यापक / अध्यापिका स्टाफ रूम में रह गए उनमें केवल एक ही बात की चर्चा हो रही थी । वे बस ओएनवी को याद कर रहे थे किसी कविता या किसी गीत के माध्यम से । उनकी चर्चा चल रही थी और मुझे  किसी काम से बाहर निकलना था । स्टाफ रूम के द्वार तक आते न आते अंग्रेजी के अध्यापक ने सभी को लक्ष्य कर के कहा कि ब्रेक के समय ओएनवी की कविताओं का पाठ होगा सो सभी उपस्थित रहें ।

किसी काम से बाहर निकला था । बाहर का माजरा ही अलग था । बाहर जगह जगह ओनवी की तस्वीर लगी थी और उनके नीचे मलयालम भाषा में श्रद्धांजली लिखी हुई थी । बाजार तक में कवि जाना जाता है । बाजार कब से कवि को स्वीकार करने लगा । कवि का इस तरह जाना जाना कितने सुकून की बात है इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है ।

वे वामपंथी विचारों  के कवि थे और उनके लिए चुनावों में प्रचार कार्य भी किया लेकिन बाहर सभी दलों के खंभों पर उनकी तस्वीर टंगी थी । सभी विचारधारा के लोग यूं ही नहीं स्वीकार कर लेते होंगे । कुछ तो बात अवश्य होगी ओएनवी में जो  विरोधी विचारधारा वाले लोग भी उन्हें इस तरह हाथों हाथ ले रहे थे  ।

इधर अपने विद्यालय के बाहर एक नया नोटिसबोर्ड रख दिया गया था जिस पर विभिन्न अखबारों में ओएनवी पर छपी खबरों की कतरनें लगाई गयी थी । जो पुराने नोटिसबोर्ड थे उन में ओएनवी की तसवीरों और कविताओं ने स्थान ग्रहण कर लिया था । इतना ही नहीं शौचालय और पानी पीने के बहाने जो छात्र – छात्रा बाहर निकल रहे थे वे वहाँ रुक भी रहे थे । फिर अंतराल भी हुआ और उस दौरान अध्यापक और अध्यापिकाओं ने दिवंगत कवि की कविताओं का पाठ किया उनके लिखे गीत गाये । जब कोई गाता था या पाठ करता था तो उसके साथ गाने वाले कम से कम पाँच – छः जरूर हो जाते थे । मतलब, कवि के गीत या उसकी कविता सब लोगों की जुबान पर थे । उस दिन कम से कम पूरा विद्यालय तो ओएनवीमय जरूर था । 

उनकी मृत्यु के बाद से अब तक अपने स्टाफ रूम से लेकर छात्रों तक से उनके बारे में बहुत सुन चुका हूँ । कई अध्यापक जब तब अपने मोबाइल फोन पर उनका लिखा कोई न कोई गीत बजा देते हैं । नोटिसबोर्ड अभी भी उनकी यादों से भरा पड़ा है । तब से यह सोचना पहला काम बन गया कि आखिर क्या बात थी जो यह कवि इतना लोकप्रिय हुआ ।

उनकी लोकप्रियता का कारण अनायास ही मिल गया । वैसे तो मैं यदि मलयालम ठीक से पढ़ना जानता तो ओएनवी कुरूप की रचना प्रक्रिया पर लिखी कोई आलोचनात्मक किताब पढ़ लेता तो शायद यह कारण जल्दी जान जाता । लेकिन अच्छा हुआ कि मैंने पढ़कर नहीं जाना । पढ़ता तो शायद सरलता से नहीं जान पाता ।

हुआ यूं कि मैं यहाँ की एक गली में टहल रहा था । गली के बीचोबीच एक ताड़ी की दुकान थी जहाँ कई पीने वाले मौजूद थे । दुकान के बाहर के बेंच पर उस समय उसी कवि की चर्चा चल रही थी । मैं भी बैठ गया । कुछ ही क्षणों में परिचय हो गया क्योंकि उनमे से किसी ने मुझे विद्यालय में देखा था । मैंने ताज्जुब से भरा एक प्रश्न पूछ लिया - यह कवि इतना लोकप्रिय  क्यों है ? उनमें से एक ने बड़े ही सधे हुए लहज़े में कहा – बिकौज ही वास ए पोयट ऑफ ऑडीनरी मैन विद ऑडीनरी आइडियास ! कवि के लोकप्रिय होने का इतना स्पष्ट कारण बताया उस व्यक्ति ने । बात बढ़ती ही गयी । नशे में लोग उदाहरण पर उदाहरण देने लगे । लेकिन  मेरे आगे मलयालम की कविताएँ  , भैंस के आगे बीन की धुन के समान हो रही थी । कुछ समझ नहीं पा रहा था । अंग्रेजी भी कहाँ तक मदद करती ।

किसी तरह से मैं एक कविता समझने में सफल रहा । उसे समझाने के लिए उन सबने बहुत मेहनत की क्योंकि वह कविता ओएनवी ने अपनी उत्तर भारत की यात्रा के दौरान खेत के आसपास काम कर रही लड़की को देख कर लिखी थी । उनके हिसाब से उत्तर भारत का होने के कारण वह कविता मेरे लिए जरूरी थी । कविता का शीर्षक था गोदम्ब मनिगलअर्थात गेहूं के बीज। कवि कहता है कि, जो धरती मैं देख रहा हूँ , वह उस धरती से बिलकुल अलग है जहाँ मेरा निवास है ।  लेकिन बहन खेतों में काम करने वाली तुम्हारे जैसी लड़कियाँ उधर भी हैं जिन्हें मैं जानता हूँ ।

कविता में और बहुत कुछ था पर मेरे लिए भाषा बाधा बन रही थी ।

इन सबके बाद लिखने बैठा हूँ तो लगता है कि ओएनवी , जिसकी कोई भी रचना मैंने नहीं पढ़ी , कोई गीत नहीं सुना और तो और वह मेरी भाषा का भी कवि नहीं है , उसे कितना जानने लगा हूँ । यह कवि हो सकता है बड़े बड़े सभागारों में भी कविता पढ़ता रहा हो  लेकिन उसकी कविताएँ आमजन में बहुत लोकप्रिय हैं । उन्हीं कविताओं ने कवि को भी सबके दिलों में बसाया है ।


कवि जब अपनी कविता में आम से आम आदमी तक के लिए भी जब प्रस्तुत रहे तो उसका लोकप्रिय होना सहज लगता है । वह लोकप्रियता के महान आख्यानों के समान नहीं लगता । यही कारण है कि एक साधारण व्यक्ति अपने दैनिक काम के उपरांत या उस दौरान उसकी कविताओं में अपना आश्रय और आनंद दोनों पाता है । परिणामस्वरूप वह व्यक्ति भी कवि की कविताई पर बोल सकता है जो किसी ताड़ी की दुकान पर बैठा हो । 

यह है कवि ओएनवी की कविता की पहुँच ! 

1 टिप्पणी:

  1. समाज को उकेरने में कवियों की बड़ी भूमिका है ।अगर कुरूप जी कविताओं का हिंदी में हो तो बताईयेगा। हम भी प्रयास करेंगे

    बेहतरीन लिखा है .

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स्वागत ...

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