अमेरिकी
राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति भले ही बदलते रहे हों पर पिछले साठेक सालों से वहाँ
के कार्यालय की एक चीज नहीं बदली है । वह है कार्यालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली कलम
की कंपनी । राष्ट्रपति जिस कलम का इस्तेमाल करते हैं वह ‘स्किलक्राफ्ट
यू एस गवर्नमेंट’ नामक कंपनी तैयार करती है । अमेरिका में प्रतिवर्ष
पाँच मिलियन डॉलर मूल्य की ये कलमें बेची जाती हैं जिनमें से लगभग 60 फीसदी
सेना के द्वारा इस्तेमाल की जाती हैं ।
इन
कलमों की एक विशेषता है । ये दृष्टिबाधित लोगों द्वारा तैयार की जाती हैं । 1938 ई
में ‘ग्रेट डिप्रेसन’# के दौरान वहाँ की सरकार ने दृष्टि बाधित लोगों के लिए
एक महत्वपूर्ण कदम उठाया । राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूज़वेल्ट ने एक ऐसे कानून पर दस्तख़त
किए जिसके अंतर्गत अमेरिकी सरकार को अपने दृष्टिहीन नागरिकों द्वारा उत्पादित सामान
खरीदना था । यह कानून ‘वेंगर – ओ डे’ के नाम से जाना जाता है । जल्दी ही इसमें कलमों को
भी शामिल कर लिया गया । स्किल क्राफ़्ट कलमें वही कलमें हैं ।
एक
ब्रांड के रूप में इस कलम को स्थापित होने में एक दशक से ज्यादा लग गए । लेकिन आज अमेरिका
के 37 राज्यों के 5500 से अधिक दृष्टि बाधित लोग इस कंपनी के ‘विस्कॉन्सिन’
और ‘नॉर्थ कैरोलिना’ इकाइयों में भारी मात्रा में इन कलमों का उत्पादन कर
रहे हैं । इसके साथ साथ और भी लगभग 3000 प्रकार के उत्पादों का निर्माण कर रहे हैं ।
ये
कलमें आज भी उन्हीं विशेषताओं के लिए जानी जाती है जो आधी सदी पहले के एक 16 पृष्ठों
वाले दस्तावेज़ में निश्चित की गयी थी । इनसे बस इतनी अपेक्षा होती है कि ये शून्य से
40 डिग्री नीचे और 70 डिग्री ऊपर के तापमान पर कम से कम 1500 मीटर की लिखाई सम्पन्न
करे वह भी बिना रुके हुए ।
यह
तो हुई अमेरिका की बात जहां कलम तो बस एक बहाना था बड़ी संख्या में दृष्टि बाधित लोगों
को जीवन की मुख्यधारा में शामिल करने का । कलम निर्माण के साथ ही बहुत से अन्य उत्पाद
भी वहाँ दृष्टिहीन लोग बनाते हैं और उनसे सरकार वे उत्पाद खरीदती है ।
अमेरिकी
जनसंख्या के मुक़ाबले हमारे देश की जनसंख्या में दृष्टिबाधित लोगों की संख्या बहुत ज्यादा
होगी । पर कहीं भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं जो इन्हें मुख्यधारा तो दूर अपना आत्मविश्वास
और आत्मसम्मान ही लौटा सके । हमने अपने इन साथी नागरिकों के लिए ऐसा माहौल बनाया है
जिसके अंतर्गत खाते पीते घरों के लोगों को छोड़ दें तो ये बस भीख ही मांग सकते हैं और
जो नहीं मांग सकते वे और बुरी हालत में जीते हैं ।
अपने
देश में एक सूरदास हुए कवि और गायक । उनकी आँखें नहीं थी । तब से आजतक पूरी हिन्दी
पट्टी में सूरदास दृष्टिहीन लोगों के लिए कभी संज्ञा तो कभी विशेषण बनकर सामने आता
है । शायद ही कुछ लोग ऐसे मिलें जिनको लोग उनके नाम से पुकारते हैं वरना सब सूरदास
हैं । इसका दुखद पहलू यह है कि उनसे अपेक्षा रहती है कि वे कुछ न कुछ गाएँ । दृष्टिहीन
होना , सूरदास कहाना और गानगीर होना एक दूसरे के लिए अनिवार्य हो । तभी
रेलवे स्टेशन , ट्रेन , बस अड्डे , गाँव- आँगन जहां जहां देखिये दृश्य हीनता के शिकार
लोग बेसुरे होने पर भी गीत गाने के लिए बाध्य हैं । उनकी फटी हुई आवाज इसकी पूरी सूचना
देता है कि वे अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लगातार ऐसा करते आ रहे हैं ।
बचपन
की एक घटना याद है । हमारी नानी के यहाँ एक व्यक्ति आए । उनको देखती ही किसी ने कहा
– 'सूरदास , गीत सुनेबइ त न भीख मिलत' । उस
व्यक्ति का जवाब मुझे अभी तक याद है – 'सब सूरदास गानगीरे नै होई छै' । यकीन
मानिए उस व्यक्ति को जरा सी भीख भी नहीं दी गयी और दुत्कार कर आँगन से बाहर कर दिया
गया ।
शैलेश
मटियानी की कहानी है ‘दो दुखों का एक सुख’ उसमें भी स्टेशन की पटरी पर
बैठा सूरदास गाना ही गाता रहता है ।
निश्चित
तौर पर भारत के सभी ‘सूरदास’ भीख नहीं मांगते हैं । पैसे वाले घरों के लोग बाहर
ही नहीं निकलते हैं लेकिन जिनके परिवार की माली हालत औसत दर्जे की भी है उन्हें बाहर
आना ही पड़ता है । बाहर जो दुनिया है उसमें भूख मिटाने के लिए कोई रोजगार नहीं है ।
हम
अमेरिका को बहुत भला बुरा कहते रहते हैं लेकिन अपने नागरिकों को सम्मान और पहचान दिलाने
में जितनी मदद वहाँ की सरकार करती है उतना हम सोच भी नहीं सकते । उदाहरण हमारे सामने
है । वहाँ 1938 ई में ही सरकारी तौर पर दृष्टिबाधित लोगों को रोजगार देने के लिए राष्ट्रीय
स्तर के कार्यक्रम बनाए गए और हम अभी तक विचार करने की हैसियत में भी नहीं आ पाये हैं
।
# ग्रेट डिप्रेसन के बारे में इस लिंक पर पढ़ें ---
http://history1900s.about.com/od/1930s/p/greatdepression.htm#
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