[ आज दो कवितायेँ डाल रहा हूँ ... इधर कुछ खोजते हुए मिल गयी ... बहुत पहले नहीं लिखी गयी ये तो तय है क्योंकि इन्हें मैंने इसी साल की डायरी से उठाया है .. दो अलग अलग मूड हैं पर ठीक से देखें तो एक बाद ही दुसरे का क्रम बनता सा लगता है ... मैं नहीं जानता कि कविताओं को कौन पढ़ता है या ज्यादा स्पष्ट रूप में कहें तो मेरी इन कविताओं को कोई पढ़ेगा भी ये मुझे नहीं पता फिर भी सामने लाने में क्या बुराई है ... ]
नए चेहरे के साथ
मुस्कुराते
चेहरे की भूमिका
अब ख़त्म
होती जा रही है
लगातार
गंभीर और
अवाक
रहना
दिनचर्या
में शामिल है
यह एक
नया रंग है
पर गहरा
मोटा और टिकाऊ
क़दमों
में पागलपन लिप्त है
मन पर
चढ़ा क्षोभ लगातार
ऐसे में
हंसने
की सम्भावना बहुत दूर है
पर
हंसना पड़ता है
हर बार
न चाहते हुए
न हंसने
वाली बात पर
तब बनता
है चेहरे पर खिंचाव
फिर
भागने लगते हैं लोग
मेरे उस
चेहरे से ....
नया
चेहरा लगभग गढ़ा जा चुका है
अपनी
मर्जी में बना
सड़ा–सा
मुंह
जिनकी
मजबूरी वही देखेंगे ....
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यूँ भी हो
जरा मस्ती से बाते हो जाए
बातों से मस्ती हो जाए
दो उलझे गिरह खुल जाए
एक हंसी पलटे तो आँखें देर तक चमकें
कुछ रोना भी बह निकले मन से
तो बढाकर हाथ रोकूँ न
रह रह के बस ये हवा चले
मन उठने को भी हो तो फिर फिसल जाये
कुछ झरे महुए-सा हाथों पे टप-टप
महके अँधेरी सुबह में हर सिंगार से पटी पड़ी जमीन
की तरह
पानी की सतह पे कागज की नाव हो
तैर उठे मन घास की गंध थामे
एक साईकिल हो बारिश के पहिये वाली
झर झर पानी की रफ़्तार
चलें चींटी का घर देखने
सुबह गहरी हो और ठहरे देर तक
न भागे हर दिन की तरह जल्दी से
वो बेशक चाय न पिए पर बैठे अपने पहलू
आज धूप आये भी तो नया छाता ओढ़े
फिर कपड़े की छेद से सूरज से हंसी मजाक हो जाए
कूद पड़े चाँद शाम की गोद में
और रात मेरा सर सुबह तक सहलाए
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