कागज ने हमें केवल अपने एक से एक पुलिंदे नहीं
दिए जो बहुत सारे काले काले डिज़ाइन से भरे हो बल्कि लाखों करोड़ों पात्र, घटनाएं,
सिद्धांत, भावनाएं और चित्र दिए . इसके साथ ही दी आजादी उन्हें यहाँ से वहां ले
जाने की, उन सब को जब चाहे तब खोल कर देख लेने की स्वतंत्रता मिल गयी थी इसी कागज
के सहारे . लिखा तो पहले भी जाता था पर पहले लिखना जितना विशिष्ट था उसे पढना और
भी विशिष्ट . विभिन्न ताम्रपत्र, पत्थरों के अभिलेख जिस उत्साह से लिखे गए उस उतने
ही उत्साह से पढ़े भी गए हों इसकी सम्भावना कम ही है . अपने रोज़ के कामों से
व्यक्ति फुर्सत पाकर व्यक्ति जब तक निश्चित न कर लेता होगा कि आज मुझे राजा,
सम्राट या कि बादशाह का लेख पढने जाना है तब तक उसके पढने की सम्भावना तलाशनी
बेकार है . कागज़ ने इसी सम्भावना को बढ़ा दिया बल्कि पढने को सहज बनाते हुए इसे
सबके लिए सुलभ और लोकतान्त्रिक बनाया . कागज़ की खोज करने वालों के लिए भी यही पढने
की सहजता या सहूलियत वह आकर्षण रही होगी जिसने उन्हें प्रेरित किया .
आगे यह कोई विशेष जानकारी की बात नहीं है कि कागज़
प्रकृति में उपलब्ध वस्तुओं से बनायीं जाता है . प्रकृति की दी हुई बहुत सी चीजों
में से कागज़ बनाने वाले पदार्थ भी हैं जो मुख्यतः पेड़ पौधे हैं . जहाँ पेड़ पौधे
आते हैं वहीँ उनकी सुरक्षा भी आ जाती है क्योंकि उन पर ही हमारा अस्तित्व टिका पड़ा
है . और आज जब पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता इतनी बढ़ गयी है तब पेड़-पौधों से कागज़
बनाना ऐसा लगता है कि बहुत बड़ा अपराध किया जा रहा हो . हमारे तमाम विद्यालयों में
पर्यावरण के प्रति सचेत करने वाली बहुत सी बातें किताबों और नीतियों के माध्यम से
डाल दी गयी हैं सो उसके प्रति चेतना बनना कोई दूर की कौड़ी नहीं रह गयी है . छात्र,
सामाजिक कार्यकर्ता , अफसरान , राजनेता आदि सभी किसी न किसी बहाने ये बात जताने
में लगे ही रहते हैं कि पेड़-पौधे बचाने ही पड़ेंगे . कागज उद्योग को पेड़-पौधों का
भरी दुश्मन माना जाता है . यही करण है कि लगातार कागज के उपयोग को कम करने की
बातें हो रही हैं . साथ ही जोरदार कवायदें भी चल रही हैं .
जब से कंप्यूटर आया तब से लगा कि कागज़ को चलता
किये जाने का एक जबरदस्त माध्यम हाथ लग गया . काम भी जल्दी हो जायेगा , कागज़ जैसी
सार-संभाल भी नहीं और सबसे बड़ी बात कागज़ की जरुरत ख़त्म होने से पेड़ –पौधे बच
जायेंगे और उनके बचते ही मानव के अस्तित्व में अनश्वरता का भाव आ जाना स्वाभाविक
है . निजी उद्यमों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक में कंप्यूटर केवल इस आशा के साथ
नहीं लगाये गए कि ये काम करने की गति तेज करेंगे लागत कम करेंगे बल्कि कागज़ की
प्रतिवर्ष होने वाली खपत को निश्चित रूपेण कम करना . किताबें डिजिटल होने लगी .
पत्र-पत्रिकाओं के ऑनलाइन संस्करण आ गए . पर क्या इन सब का यह अर्थ निकला जाये कि
वाकई में कागज़ की खपत को कंप्यूटर ने कम किया ?
बात शुरू करते हैं दिल्ली से जहाँ कुछ बड़े बड़े
विश्वविद्यालय हैं. जहाँ ढेरों लोग हर साल एम.फिल पी.एच डी करते हैं. कुछ लोग जो
स्वयं से टाइप करते हैं उनको छोड़कर जो भी हैं वे सभी पटेल चेस्ट जैसी जगहों पर
खुले सैकड़ों दुकानों से अपना प्रोजेक्ट से लेकर लघु–शोधप्रबंध और शोधप्रबंध बनवाते
हैं. वहां पर यह बड़ा सामान्य सा है कि टाइपिंग के बाद कई कई बार प्रिंट आउट लेकर
देखा जाता है कि कोई गलती तो नहीं रह गयी. आखिर लोगों के काम का सवाल है वे अपना
परफेक्शन तो देखेंगे ही. अब इस स्थिति की तुलना करते हैं पुराणी टाइपिंग मशीन से.
उसमें याददाश्त जैसी कोई चीज होती ही नहीं थी. और चूँकि टाइप करना बहुत सरल नहीं
था तो टाइपिस्ट की भी कोशिश रहती थी कि कम से कम गलती हो ताकि वापस फिर से टाइप न
करना पड़े. यहीं पर एक और यंत्र का जिक्र करना जरुरी है वह है कंप्यूटर से जुड़ा हुआ
प्रिंटर. इसने कागज़ के प्रयोग को एक नयी दिशा दी. कुछ भी प्रिंट कर लेने की आजादी
ने पटेल चेस्ट जैसे स्थानों पर बैठ कर टाइपिंग की गलतियाँ सुधारने का काम पूरा का
पूरा प्रिंट-आउट घर ले जाकर गलतियाँ ताकने का हो गया . कई बार की गलतियों और
रद्दोबदल के लिए कई बार प्रिंटआउट . प्रिंटर ने एक तरह से कागज़ की खपत को बहुत
तेजी से बढाया है . पहले जहाँ बहुत कम प्रिंटर हुआ करते थे अब यह पर्सनल कंप्यूटर
से जुड़ने वाले एक आवश्यक उपस्कर का रूप ले लिया है. मेरे ही कुछ दोस्तों के पास
अपने प्रिंटर हैं . और हद तो तब है जब एक ही कमरे में रहने वाले दो मित्रों के पास
अपना अपना प्रिंटर है ! प्रिंटर उद्योग का बहुत तेजी से विकास होता जा रहा है .
यह समझना बड़ा ही पेंचीदा लगने लगता है कि
डिजिटलाइजेशन के नाम पर एक अलग बाजार तैयार हो रहा है वहीँ दूसरी तरफ प्रिंटर का
बाज़ार अलग ही परवान चढ़ रहा है . प्रिंटर की बिक्री में बहुत तेजी आई है और इसे
प्रिंटर बनाने वाली कंपनियों के विज्ञापनों में देखा जा सकता है . एक कम्पनी के
प्रिंटर के लिए कहा जाता है कि अमुक माडल का प्रिंटर घर ले आइये और अपने बच्चे का
‘भविष्या’ ‘उजवल’ बनाइये . यहाँ भविष्या और उजवल शब्दों का उच्चारण अपना ही अर्थ
रखता है . उनकी अर्थछवियाँ इन शब्दों को अपने साधारण अर्थ से मुक्त कर एक
उच्चवर्गीय अर्थ देती है . यह हिंदी का वही स्वरुप है जो उच्च-मध्यवर्ग और उच्च-वर्ग
में चल रहा है . मानें या न मानें पर यह हिंदी आकर्षक हो चली है . इस आकर्षण का
केंद्र भाषाई न होकर सामाजिक प्रतिष्ठा के नए मानदंडों का बनना है .
सरकारी और निजी संस्थानों में कंप्यूटर आधारित
काम ने सिद्धांत रूप में कागज के प्रयोग को नियंत्रित करने का काम किया . यहाँ यह
ध्यान में रखना चाहिए कि केवल सिद्धांत रूप में . भारत जैसे कुप्रबंधन से भरे देश
में आज भी कंप्यूटर आधारित आंकड़ों , जानकारी और समग्र सामग्री को सहेजकर रखना कठिन
बना हुआ है . असुरक्षित होने के डर से तमाम सरकारी संस्थानों में एक ही सामग्री को
कंप्यूटर और कागज दोनों पर दर्ज करने की परंपरा बनी हुई है . इसने न सिर्फ
संसाधनों का दुरूपयोग बढाया है बल्कि काम में समय की लागत को भी बढाया है . सरकारी
कार्यालयों में कई कई कंप्यूटर आ जाने के बाद भी कागज़ आधारित पदार्थों की खरीद उसी
तरह जारी है जिस तरह पहले होती थी .
जिस तरह बार-बार पर्यावरण संकट की लकीर पीटी जाती
है उसे देख-समझ कर तो यही लगता है कि सरकारें और उससे भी बड़ी संस्थाएं या तो मूर्ख
हैं या मूर्ख बना रही हैं . पहले की सम्भावना कम ही है तो यही तय लगता है कि वे
मूर्ख बना रही हैं . यदि वे पर्यावरण के प्रति इतने ही कटि-बद्ध हैं तो उन्हें
बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कारनामे नहीं दीखते . उन्हें नहीं दीखता कि लगभग
सभी इलेक्ट्रानिक उत्पाद बनाने वाली कंपनी के प्रिंटर बाजार में आ गए हैं और वे
लोगों की जेब के लिए इतने मुफीद हैं कि उनका खरीदा जाना लगभग तय ही होता जा रहा है
. ऐसे में कागज़ का प्रयोग तो बढ़ना स्वाभाविक ही है फिर पेड़-पौधों का उसी अनुपात
में काटा जाना भी स्वाभाविक सा हो जाता है .
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