अपने
शुरुआती तेरह साल मैंने यहीं बिताए थे । समझने – बुझने,
सीखने के महत्वपूर्ण वर्ष । जहां नाना का
घर था वहाँ से मोड़ बहुत दूर लगता था ,
स्वयं वह घर भी काफी लंबा चौड़ा प्रतीत होता था । छुटपने की एक पहचान यह भी लगती है
कि उस घर के कुछ कमरे तब कई कमरे लगते थे और उनमें रहने वाले चार परिवारों के लोग
किस तरह ठूंस- ठूंस कर रहते थे इसका अंदाजा तब लगा जब अचानक से चारों परिवारों ने
एक के बाद एक कई घर बना डाले । फिर उन परिवारों के एक दो प्रमुखों की मृत्यु होने
या उनके कमजोर पड़ने ( वस्तुतः ये दोनों ही बातें हुईं ) से तीव्र बिखराव हुआ । अब
यदि देखें तो पूर्व के उन चारों परिवारों के सभी सदस्यों को इकट्ठा करना एक गाँव
को जमा करने जैसा लगेगा ।
बचपन में छोटी दूरियाँ बहुत लंबी महसूस
होती थी । घर से मोड़ तक आना एक कठिन कार्य लगता था फिर पोखर के ‘पाढ़’
पर जाकर दातुन उखाड़ लाना दुरूह-सा था । बारिश में गीली,
कच्ची सड़कों से होकर यदि ‘कामरेट’
( कॉमरेड से बिगड़ कर बना होगा ) की दुकान जाना हो तो मुझे याद है वो मेरा हजार बार
भुनभुनाना । इसमें उन मिट्टी की दीवारों के बीच रपट कर कीचड़ में गिर जाने की ही
संभावना नहीं थी बल्कि उन भुतहा दीवारों के बीच के अंधेरे में हमेशा किसी न किसी
के होने की आशंका रहती थी । उस समय मैं बहुत डरपोक हुआ करता था । हल्की अलग सी
आवाज या सरसराहट डरा देती थी । छोटा सा ‘हरहरा’
साँप भी बहुत बड़ा दिखता था । ये वही समय था जब मैं साँपों की लंबाई और गहरे रंग से
उनको जहरीला या कम जहरीला मानता था । एक बार दातुन उखाड़ने के लिए जैसे ही मैंने
हाथ बढ़ाया तो एक काला-सा जीव पीछे की ओर फुदका और मैं अपने पीछे । हम दोनों डरे थे
। उसका तो पता नहीं पर मेरे डर ने मुझे दोबारा वहाँ जाने न दिया ।
अपने नानी के गाँव को मैं कोई विशेष स्थान
नहीं मानता पर कुछ महीनों को निकाल दें तो जन्म से लेकर बाद के तेरह वर्ष मैंने
वहीं बिताए इसलिए इसका आकर्षण अलग ही रहा है मेरे लिए । कुछ सौ घरों ,
एक नदी , दो पोखर ,
एक स्कूल के अलावा कुछ दूर तक फैले खेत और उनमें काम करते लोग यहाँ यही सब है ।
लोग मेरे इतने परिचित हैं कि किसी को ‘लोग’
जैसी शुष्क संज्ञा नहीं दे सकता । अपने मकके की फसल को जानवरों से बचाने के लिए
गोबर के घोल का छिड़काव करते व्यक्ति को किसान कह देना उस व्यक्ति और उस जैसे अन्य
लोगों की जीवंतता को खारिज करना है । यहाँ जब अपने खेत में फसल उगाते हुए लोगों को
देखिए तो उनकी व्यक्तिगत पहचान की विशेषताएँ ,
उनका पूरा परिवार , उनका खेती से बाहर का
जीवन भी दिखता है । ये केवल इस जगह की बात नहीं है बल्कि हर जगह की बात है । पर जब
उन्हें नाम दिया जाता है तो यह सब दिखता ही नहीं है । यह बात बहुत सारे संबोधनों
के साथ नहीं होती । जैसे, छात्र कहते हैं
तो उनके प्रति संवेदनशीलता इस कदर है कि तमाम छोटे –बड़े पक्ष उभर आते हैं ;
उनका असंतोष , उन पर बढ़ रहे दबाव ,
लिंग संवेदन आदि । लेकिन किसानों के साथ ऐसी कोई संवेदना नहीं दिखती । बहुत से
बहुत कुछ कविताओं में उनके मेहनत की चर्चा कर दी और इतिश्री । अभी भवानी प्रसाद
मिश्र की कविता ‘वे आँखें’
पढ़ी जिसका आधार बहुत सारी अतिरंजनाएं हैं ।
किसानी
के पेशे के प्रति इतनी संवेदनहीनता उस पेशे के प्रति सम्मान का माहौल बना नहीं
पाती ।
इधर
के किसानी जीवन से जुड़ा है इस गाँव का मेला । यह रामनवमी पर लगता है । यह मेला तब
भी लगता था – सरल , सादा । आज भी वही
स्वरूप बरकरार है । मेले के किनारे चार-आठ दुकानें आरी-तिरछी सजी हुई जिनके बीच
जमीन पर बिछी दस बारह दुकानें और । कल रात गया तब भी वही देखा -‘झिलिया-मूढ़ी’
पसार के बैठी स्त्री रात बढने के साथ वहीं पन्नी पर लेट गयी ।
मैं
बहुत दिनों बाद इस मेले में गया था और मेले ने भी मुझे पक्के तौर पर पहचाना नहीं
पर मेले की प्रक्रिया वही रही जो पहले की थी । पतली सीटियों की पीं-पीं ,
‘तेलही जिलेबी’
की हवा में उठती महक और रात को मेला देखने आई स्त्रियों-लड़कियों के लाल वस्त्र ।
कुछ भी नहीं बदला लेकिन मेले का दायरा छोटा हो गया । अब यह सब एक बड़े से खेत में
सीमित हो गया । अलबत्ता ‘मूढ़ी-झिलिया’
खरीदने वाले कम हो गए क्योंकि हर दुकान पर ढेर की ढेर मूढ़ी पड़ी ही थी ।
छोटे होते मेले ने अपनी शैली नहीं बदली है ,
अब भी जिन लोगों का गेहूं तैयार होकर घर आ जाये उनके चेहरे की रौनक अलग ही है ,
उनके घर के लोग पन्नी की पन्नी जलेबियाँ लेकर मेले से लौटते हैं । वहीं जिनका
गेहूं अभी या तो खेत में या ‘खरिहान’
में पड़ा है उनके घर एक ही बार जलेबी गयी है वह भी बस आधा किलो । जरा से बादल दिख
जाएँ कि उनके चेहरे की रंगत और फीकी पड़ जाती है । गेहूं की फसल के आधार पर मेले की
रौनक देखी जा सकती है । गेहूं की अच्छी फसल के बाद मेले में जलेबियाँ
जितनी तेजी से ‘फुरा’
जाती हैं उसी तेजी से बढ़ता है बीड़ी का धुआँ और उसकी गंध । इस मेले में एक अच्छी
बात दिखी पानी के चापाकल लगा दिए गए हैं । पहले यहाँ कुएं का पानी प्रयोग में लाया
जाता था । जरा सा कुछ खाया नहीं कि हाथ धोने कुएं के पास वहाँ अफरा-तफरी का माहौल
बन जाता था । फिर बाहर गिरते हुए पानी से मामला और अव्यवस्थित हो जाता था और यही
हाल पास के एक स्थान ‘दिवारी’
के मेले की भी होती थी । वहाँ के चापाकल की दशा देखकर आसपास के गावों में ‘दीवारी
के कल’ एक प्रतीक के रूप में प्रचलित हो गया । इधर
की मैथिली को खास अपना प्रतीक मिला । मैं भाषा की प्रक्रिया को अपने समाज से
अंतःक्रिया करते हुए होता हुआ मानता हूँ । इस दृष्टि से लोक,
भाषा के सुदृढीकरण में खासकर नए शब्दों के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाता है । ये
केंद्र ही हैं जो उन शब्दों को सीमित और नियंत्रित करते हैं । केंद्र की आधिपत्य
स्थापित करने की प्रवृत्ति भाषा के सरल प्रवाह को काट-छांट कर प्रचलित शैली और रूप
को नियंत्रण में रखती है ।
इस मेले की बातें कुश्ती और ‘लौंडा
नाच’ के बगैर पूरी नहीं हो सकती । मेले में
कुश्ती की प्रतियोगिता और उसमें शामिल होने आए दूर दराज के लोग इस समाज की उस
प्रवृत्ति को लक्षित करते हैं जिसमें वह अपने कुछ जनजातीय तत्वों को अभी तक बरकरार
रखे हुआ है । आपसी ज़ोर आजमाइश का वही आदिम तरीका । नगाड़े की आवाज पर भुरभुरी
मिट्टी में अपने अपने इलाके के बलिष्ठ चुनौती देते ,
ललकारते और एक –दूसरे की तैयारियों का जायजा लेते दिखते हैं । वहीं दर्शक चारों ओर
खड़े होकर कभी अपने इलाके के पहलवान के ‘चित’
होने पर दुखी तो कभी तालियाँ बजाते हैं । ताकत की इस आजमाइश में स्त्रियाँ दशकों
में नहीं होती । उनके लिए यह एक निषिद्ध क्षेत्र है जहां शायद उनकी उपस्थिती अनिवार्य
रूप से प्रतिबंधित है ।
इधर
के इलाके में लौंडा नाच ही चलता है । जो लोग भारतीय परिदृश्य से इस कलारूप को अब
समाप्त हुआ मानते हैं वे उत्तर बिहार के कोसी अंचल में आकार देख लें यह कितनी
जीवंत है । यहाँ के बैंड-पार्टी का यह अनिवार्य हिस्सा है जो किसी भी पारिवारिक या
सार्वजनिक आयोजन में आते जाते रहते हैं । ‘मेक-अप’
से लिपा-पुता लड़का किसी भी धुन पर एक तरह से ही नृत्य करता रहता है । एक ने बताया
था कि यह सब करना सरल नहीं है वह कभी भी नशा किए बिना ऐसा नहीं कर पाता है ।
बहरहाल मेलों आदि में चलने वाले नाच में एक कथा होती है जिसे नृत्य और गीत के साथ
प्रस्तुत किया जाता है । कथा हमेशा उदात्त ही होती है किसी न किसी धार्मिक कथा से
जुड़ी होते हैं । जिसे मज़ाक में लिपटा कर पेश किया जाता है । स्थानीय तंज़ पर जोरदार
हंसी छुट्टी है । यहाँ भाषा खुली होती है उसमें कुछ अश्लील छौंक भी पड़ जाए तो कोई
विशेष बात नहीं । वैसे इससे ज्यादा अश्लीलता तो हिन्दी की फिल्मों में है ।
इस मेले को उठते कभी नही देखा मैंने । कई बार
तो यह रात में खतम हो जाता था । तड़के उधर बड़ी सहजता से ‘दिशा-मैदान’
के लिए जाया जा सकता है । मेला खतम होते होते हर बार कुछ नए सपने बुने जाते हैं –
अगले साल गेहूं जल्दी तैयार कर लेने के ,
कुश्ती के ज्यादा दांव-पेंच सीखने के क्योंकि जलेबियों की ओर लगातार ललचायी दृष्टि
से देखते बच्चे को देखा नहीं जाता और कुश्ती में हारने वाले को कोई नहीं पूछता है
। इसके बावजूद हर साल पचासियों बच्चे मेले में ‘सेव-घोंटते’
रहते हैं ।
·
सेव घोंटना – स्वादिष्ट
पदार्थ को देखकर बहुत ज्यादा लार मुंह में आती है और जब वह न मिले तो लार को वापस
गटकना होता है । मैथिली या कहें ठेठी में इसे सेव घोटना कहते हैं ।
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