अक्तूबर 14, 2012

बहुत से दुखों को समेटने का दुख

कुछ चीजें घर की ऐसी होती हैं जिनका हमे इल्म तो होता है कि वो घर में हैं पर कहाँ और किस हाल में हैं ये देखने की न हिम्मत होती है और न ऐसी जहमत हम लेना चाहते है । साहित्य में तो ऐसी बहुत सी चीजें हैं जिनका जिक्र आ जाने पर भले ही हो जाता है पर उस से मुह फेर कर बैठना हमारी आदत में शुमार है । क्योंकि कभी कभी वह अरजनीतिक होता है और कभी कभी उसमें वो मसाला नही रहता कि उस के माध्यम से अपने को दूसरों पर थोपा जा सके या उनसे स्वयं को बीस साबित किया जा सके । हिन्दी साहित्य में शैलेश मटियानी और उनका साहित्य ऐसी ही वस्तुओं में से एक है । उनके नाम पर कोई गोष्ठी नही होते देखी और न ही कहीं किसी को उन्हें उद्धृत करते हुए सुना । विवाद उठाने के लिए भी नही (जबकि आज की हिन्दी आलोचना की विवाद प्रियता किसी से छिपी नही है ) । वो 2004 का वर्ष था जिसमें भारत सरकार की साहित्य केन्द्रित पत्रिका आजकल ने शैलेश मटियानी पर केन्द्रित एक अंक निकाला था । उस अंक की और कुछ विशेषता हो न हो पर वह अंक मटियानी के जीवन और साहित्य से पाठकों का परिचय करने के लिए काफी था । वो जिस तरह से माता-पिता के गुजर जाने के बाद के अपने जीवन से जूझ रहे थे और अपने भाई-बहन की ज़िम्मेदारी छोडकर मुंबई भागे थे वो उनकी आर्थिक हैसियत को बयां करने के लिए काफी है । उन्होने जो जीवन बिताया उसका एक ठीक ठाक हिस्सा भीख मांगने में , कसाई की दुकान पर कीमा कूटने में और भीख मँगवाने वाले गिरोहों के आस पास गुजरा था । ज़ाहिर है इनका असर उनके साहित्य पर पड़ता ही । शैलेश मटियानी का साहित्य उनके भोगे हुए यथार्थ से बिलकुल अलग नही है । वो जिन ज़िंदगियों में रहे वहाँ की हर स्याह - सफ़ेद सच्चाई बड़ी बारीकी से उनके यहाँ चित्रित हुई है । भीख मांगने और उसे मँगवाने के तमाम खटकरम उनकी बहुत सी कहानियों में आते हैं । ' दो दुखों का एक सुख ' उनकी ऐसी ही एक कहानी है जिसमें तीन भीख मांगने वाले लोग हैं - एक कोढ़ पीड़ित अधेड़ ,एक कानी युवती और एक नेत्र विहीन युवक । तीनों रेल्वे स्टेशन के पास भीख मांगते हैं । जब कानी गाती है तो नेत्रहीन युवक का मन हरा हो जाता है और कोढ़ी को उसका रूप प्रभावित करता है । कोढ़ी और युवक दोनों कानी को पाना चाहते हैं । और दोनों इसके लिए अपने अपने तिकड़म भिड़ाते हैं । कोढ़ी , नेत्रहीन युवक पर स्त्रीयों को छेड़ने का आरोप लगाता है वहीं युवक नगरपालिका द्वारा कोढ़ियों को हटाने के अभियान से खुश होता है । बाद में नेत्रहीन युवक और कानी में दोस्ती हो जाती पर उनके लिए रहने का कोई ठिकाना नही है और ठिकाना होता है कोढ़ी के पास । इनकी आवश्यकताएँ और उसका फाइदा ! इस बीच कानी गर्भवती हो जाती है और कहीं भीख मांगते हुए कोई नौटंकी कंपनी वाले उसे उठा ले जाते हैं । 10-15 दिनों बाद वे उसे छोड़ भी जाते हैं । ये दिन कोढ़ी और युवक के लिए किस कष्ट में गुजरे ये कहने की बात नही । बाद में कानी एक बच्चे को जन्म देती है । जन्म के दिन दोनों ये सोचते हैं कि बच्चा उनके जैसा कोढ़ी या नेत्रविहीन न हो । भीख मँगवाने का धंधा करने वालों का जिक्र उनकी कई कहानियों में आया है । एक कहानी में मटियानी जी जिक्र करते हैं कि किस प्रकार बच्चे चुराये जाते हैं , भीखमंगों के बच्चे ये धंधेबाज दो एक दिन की उम्र में ही छिन लेते हैं फिर उनके पैरों को बांध कर , दबा कर ऐसा कर दिया जाता है उनमें स्वाभाविक रू से विकृति आ जाती है ... उन्हे किसी और की गोद में डाल कर ज्यादा पैसा कमवाया जाता है । इन कहानियों को पढ़ के ऐसा लगता है के हम हाल में आई फिल्म स्लमडॉग ..... फिल्म का कोई दृश्य देख रहे हों पर ताज्जुब देखिये कि हमें उस फिल्म को देखते हुए कभी ये नही लगा होगा के ये तो मटियानी के साहित्य में भी है । इसके लिए पाठकों पर ज़िम्मेदारी नही डाली जा सकती क्योंकि यह तो आलोचकों के जिम्मे है । जिसने इस पूरे दौर में नवलेखन , नया - पुराना आदि के विवाद को हवा दी बस कुछ सार्थक नही ढूंढा या फिर जो है उसे पाठकों के संज्ञान तक लाने का प्रयत्न नही किया । पाठक दो-चार नयों और कुछ 'स्टार ' लेखकों को तो पढ़ पाये हैं क्योंकि उनके संबंध में खूब लिखा पढ़ा गया है । लेकिन शैलेश मटियानी जैसे लेखक आज भी अपने पाठकों से बहुत दूर हैं । आज अङ्ग्रेज़ी से नकल की गयी कहानी पर बहुत बड़ा विमर्श चल सकता है पर मटियानी जैसे साहित्यकर पर नही । आगे उनकी एक कहानी 'मैमुद' याद आती है । जद्दन जिसने अपने बकरे को बड़े प्यार से पाला है उसका नाम भी रखा है- मैमुद । बक़रईद पर परिवार वाले उसे काट देते हैं । बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाए इस मुहावरे के आस पास बुनी गयी एक मार्मिक कहानी है यह । शैलेश मटियानी जैसे लेखक यदि याद नही किए जाएंगे और उनका जिक्र साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा में नही होगा तो साहित्य के जिम्मे से बहुत सारी चीजें , हजारों संदर्भ आदि छुट जाएंगे । साहित्य केवल नए और आज के संदर्भों तक सीमित नही है बल्कि पीछे रह गए लोगों की हिस्सेदारी भी है । आगे देखते हैं क्या सब हो पता है ।

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